शिव की अपरा स्तुति से प्रसन्न हुए शिवजी के द्वारा यति निन्दा का निषेध,Shiv Kee Apara Stuti Se Prasann Hue Shivajee Ke Dvaara Yati Ninda Ka Nishedh

शिव की अपरा स्तुति से प्रसन्न हुए शिवजी के द्वारा यति निन्दा का निषेध

शिव की अपरा स्तुति से प्रसन्न हुए

ऋषि बोले- हे दिगम्बर! हे नित्य ! हे कृतान्त ! हे शूल पाणि! हे विकट ! हे कराल ! हे भयंकर मुख वाले ! हे प्रभो! आपको नमस्कार है। आपका कोई रूप नहीं फिर भी आप सुन्दर रूप वाले हो। हे विश्वरूप ! आपको नमस्कार है। हे रुद्र ! आप ही स्वाहाकार हो, आपको नमस्कार है। सभी देहधारियों के आप रक्षक हो और स्वयं ही प्राणियों की आत्मा हो। हे नीलकण्ठ ! हे नील शिखिण्ड! हे अंगों में भस्म लगाने वाले ! हे नीललोहित! आपको नमस्कार है। हे सर्व प्राणियों के आत्मा रूप ! आपको सांख्य शास्त्र पुरुष कहकर उच्चारण करता है। पर्वतों में आप मेरु पर्वत हो, नक्षत्रों में आप चन्द्रमा हो, ऋषियों में वशिष्ठ तथा देवताओं में वासव (इन्द्र) हो, वेदों में ॐकार हो, जंगली पशुओं में हे परमेश्वर ! आप सिंह हैं और हे लोक पूजित प्रभो! ग्रामीण पशुओं में आप बैल रूप हो।


वर्तमान में भी आप जिस जिस रूप में होंगे उन उन स्वरूपों को भी हम सब देखें, जैसा कि ब्रह्मा जी ने आपको बताया है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, विषाद आदि से रहित आपको नमस्कार है। आप संहार के समय जिस अग्नि को प्रकट करते हो, उस विकृत अग्नि से ही समस्त विश्व भस्म होता है और उसी की सभी लोक अर्चना करते हैं। उसी अग्नि से काम, क्रोध, लोभादिक उपद्रव तथा स्थावर जङ्गम आदि सभी प्राणी मात्र जल जाता है। उस कालाग्नि को हम नमस्कार करते हैं। हे सुरेश्वर ! आप उस अग्नि से हमारी रक्षा कीजिये। हे महेश्वर ! हे महाभाग ! हे शुभ देखने वाले ! लोकहित के लिए सभी प्राणियों की रक्षा कीजिए। हे प्रभो ! हमको आज्ञा प्रदान कीजिए। हम आपकी आज्ञा का पालन करेंगे। करोड़ों प्राणियों के मध्य करोड़ों रूपों में भी आपको नहीं पहचाना जा सकता। अतः हे देव देव! आपको नमस्कार है।

पूजा से प्रसन्न हुए शिवजी के द्वारा यति निन्दा का निषेध

नन्दीश्वर बोले- मुनीश्वरों की स्तुति सुनकर प्रसन्न हुए महेश्वर उनसे इस प्रकार कहने लगे- आप लोगों द्वारा स्तुति से जो मेरा कीर्तन करता है या इस स्तवन को सुनता है, हे मुनीश्वरो ! वह मुझ गणपति को प्राप्त करता है। हे ब्राह्मणो ! मैं भक्तों के लिये हितकारी तथा पुण्य वचन कहता हूँ। समस्त विश्व में जो स्त्री लिंग है, वह मेरे शरीर से उत्पन्न देवी स्वरूप है। और जो पुलिंग है, वह सब मेरा ही स्वरूप है। दोनों के बीच मेरा ही स्वरूप जानना चाहिए। हे विप्रो! इसमें संशय नहीं होना चाहिए। हे मुनियो ! दिगम्बर, भस्म लगाये, बालकों के समान उन्मत्त ब्रह्मवादी यती की कभी निन्दा नहीं करनी चाहिए। भस्म लगाने से उनके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। जितेन्द्री 'ध्यान परायण' ब्रह्मवादी होकर वे महादेव में ही निरत रहते हैं। 

वाणी, मन तथा शरीर से वे महादेव की ही अर्चना करते रहते हैं। अन्त में वे रुद्र लोक को प्राप्त करते हैं तथा पुनः लौटते नहीं। इसलिए अव्यक्त और व्यक्त रूप लिंग में सदा तत्पर, व्रती, भ्रस्म लगाये हुए, सिर मुड़ाये हुए इन यती लोगों की जो स्वयं ही विश्वरूप हैं उनकी निन्दा नहीं करनी चाहिये तथा उनकी किसी बात का उल्लंघन भी नहीं करना चाहिए। उनको देखकर जो हँसता है या अधिक बोलता है वह मूढ़ महादेव की ही निन्दा करता है और जो नित्य इनकी पूजा करता है, वह मुझ शंकर जी की ही पूजा करता है। इस प्रकार से महादेव जी संसार के हित की कामना से युग युग में भस्म लगाये हुए क्रीड़ा करते रहते हैं। इस अतुल महाभय को नाश करने वाले शिव के परम पद को जानकर शिर से शिव को नमस्कार करते हैं, वे संसार में मोह चिन्ता आदि से छूट जाते हैं।

अतः यह सुनकर सभी ब्राह्मणों ने प्रसन्न होकर सुगन्धित जल से शुद्ध कुशा और धूप और पुष्प से मिश्रित जल से भरे हुए बड़े-बड़े घड़ों के द्वारा शिव को अनेकों स्वर सहित मन्त्रों से अभिषेक (स्नान) कराया है। हे महादेव ! हे देवाधिदेव ! काले मृग का चर्म धारण करने वाले, अर्धनारीश्वर सर्प का जनेऊ पहनने वाले, विचित्र कुण्डल, माला आभूषण धारण करने वाले, हे शंकर जी! आपको नमस्कार है। इस प्रकार स्वर से स्तुति करने लगे। तब मुनीश्वरों से उत्पन्न हुए महादेव जी बोले- हे मुनियो ! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। आप वर माँगिये। तब सभी मुनि लोग महेश्वर को प्रणाम करने लगे। भृगु, अङ्गिरा, वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, अणि, सुकेश, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु, मरीचि, कश्यप, कण्व, सम्वर्त आदि सभी मुनि कहने लगे कि हे प्रभो! आप सेव्य हैं तथा असेव्य भी हैं, ऐसा यह स्वरूप क्या है इसको जानने की हमारी इच्छा है।
उनकी इस प्रकार की वाणी को सुनकर परमेश्वर भगवान हँसते हुए उनसे निम्न प्रकार कहने लगे -

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