शिव की अन्तर्यामी पूजा का वर्णन, Shiv Kee Antaryaamee Pooja Ka Varnan

शिव की अन्तर्यामी पूजा का वर्णन, 

शैलादि कहने लगे - अग्नि रूप सूर्य रूप अमृत और बिंब तथा त्रिगुणात्मक प्रभु का रूप हृदय में धारण कर उसके ऊपर निष्कलंक सर्व स्वरूप अर्धनारीश्वर शिव का ध्यान पूजन करना चाहिए। ध्यान के द्वारा ध्येय परमेश्वर का ध्याता (यजमान) पूजन करे अन्यथा पुरुष (महेश्वर) का बोध नहीं हो सकता। पुर अर्थात् देह में शयन करने के कारण उस ब्रह्म को पुरुष कहा गया है और पूजन करने योग्य का यज्ञ द्वारा पूजन करने वाला यजमान कहा जाता है, ध्येय महेश्वर है, चिन्तन ध्यान है। निवृतिः (आनन्द) फल है। यथार्थ रूप से प्रधान पुरुष ईशान की प्राप्ति होती है। छब्बीस प्रकार का ध्येय और २५ प्रकार का ध्याता, १४ प्रकार के अव्यक्त और सात प्रकार के महतादि कहे हैं। महतत्व, अहंकार, पाँच तन्मात्रा, पाँच कर्मेन्द्री, पाँच ज्ञानेन्द्री, मन पंचभूत तथा छब्बीसवाँ शिव है। यही ध्येय है। यही ब्रह्मा का भी कर्त्ता तथा भर्त्ता है। हिरण्य गर्भ को रुद्र ने ही जाना है। महेश्वर ही विश्वात्मा विश्वरूप है जैसे माता-पिता के बिना पुत्र नहीं होते वैसे ही महेश्वर के बिना तीनों जगत होते नहीं।


सनत्कुमार बोले- कि यदि परमात्मा महादेव कर्त्ता हैं तो कराने वाला भी वही है। नित्य शुद्ध परमेश्वर ही मुक्ति दाता तुमने कहा है। शैलादि ने कहा-काल ही सब कुछ करता है, काल को भी कलन करने वाला निष्कल है। उसके कर्म से ही जगत प्रतिष्ठित है। देव देव महेश्वर की अष्ट मूर्ति यह सब जगत है। बिना आकाश के जगत नहीं, बिना पृथ्वी के भी नहीं, बिना आयु के, जल के, तेज के बिना, यजमान के बिना सूर्य और चन्द्रमा के बिना जगत नहीं। सो यह सब उसके शरीर हैं। विचार से सब चराचर स्थूल जगत शिव का ही रूप हैं। सूक्ष्म रूप का वर्णन करने में तो मन वाणी भी थक कर लौट आती है अर्थात् वर्णन नहीं कर सकती। उस ब्रह्म के आनन्द को जानने वाला किसी से नहीं डरता। शिव के आनन्द को जानकर निर्भय होना चाहिए। रुद्र की विभूतियों को सर्वत्र जान कर 'यह सब रुद्र है' ऐसा तत्व दर्शी मुनि कहते हैं। सर्व ब्रह्म का हेतु तथा मोक्ष का हेतु आनन्द है। सो रुद्र के विषय में सुनिष्ठा रौद्री कहती है। इसी प्रकार इन्द्र में ऐन्द्री, सोम में सोम्या, नारायण में नारायणी तथा सूर्य और अग्नि में जाननी चाहिए।

हे विप्रो! यह चराचर ब्रह्ममय है। इसको जानकर चराचर विभाग त्याज्य, ग्राह्य, कृत्य, अकृत्य सब त्याग देना चाहिये। जिसकी ऐसी स्थिति होती है उसी तृप्तात्मा की ब्राह्मी स्थिति है अन्यथा नहीं। सो इस प्रकार अभ्यन्तरार्चन मैंने तुमसे कहा। अभ्यन्तरार्चक नमस्कार आदि से सदा पूजनीय है। चाहे वे विरूप विकृत कैसे भी हों, निन्दनीय नहीं, वे ब्रह्मवादी हैं। विशेषज्ञों को भी आभ्यंतर पूजा की परीक्षा नहीं करनी चाहिये। निन्दा करने वाले दुःखी होते हैं। जैसे दारुवन में रुद्र की निन्दा करने वाले मुनि दुःखी हुए थे। तिससे ब्रह्म ज्ञानी को सदा नमस्कार करना चाहिए।

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