शंकर जी के रहस्य का कथन,Shankar Jee Ke Rahasy Ka Kathan

शंकर जी के रहस्य का कथन,Shankar Jee Ke Rahasy Ka Kathan

सूतजी बोले- अब मैं आप लोगों के सामने भगवान शंकर जी के अत्यन्त तेजशाली रहस्य को कहूँगा। सबको प्रिय लगने वाले भगवान शंकर का प्रभाव पहले संक्षेप में कहता हूँ। परमतत्व को जानने वाले परम वैरागी लोग प्राणायाम आदि आठ प्रकार के साधनों का प्रयोग करते हैं तथा अरुणा आदि गुणों से युक्त विविध प्रकार के कर्म करते हुए अपने कर्म के अनुसार स्वर्ग और नरक को जाते हैं। भगवान शंकर के प्रसाद से ज्ञान प्राप्त होता है तथा ज्ञान से योग होता है। योग से इस सम्पूर्ण संसार को भगवान शिव की कृपा से मुक्ति मिलती है। ऋषि बोले- हे योग को जानने वाले सूतजी ! यदि भगवान के प्रसाद से आप दिव्य योग को और महेश्वर भगवान को विज्ञान स्वरूप बतलाते हैं तो विज्ञान स्वरूप महादेव जी जो सभी प्रकार की चिन्ताओं से रहित हैं, वे योग मार्ग के द्वारा किस काल में मनुष्यों को कैसे उत्पन्न करते हैं ?


रोमहर्षण जी बोले- प्राचीन काल में देवता, ऋषि पित्रीश्वर और शैल आदि मुनियों ने ब्रह्मपुत्रों से जो सुना था, उसे मैं आप लोगों से कहता हूँ। द्वापर के अन्त में व्यासों के अवतार तथा योगाचार्यों और शिष्यों के अवतारों को कहता हूँ। विभू (ब्रह्मा) के क्षमाशील चार शिष्य हुए और ईश्वर की कृपा से शिष्य तो बहुत से हुए। उन्हीं के मुख से, क्रम परम्परा से आया हुआ ज्ञान मनुष्यों को प्राप्त हुआ। भगवान की कृपा से प्रथम ब्राह्मणों को तथा अन्त में वैश्यों को वह ज्ञान मिला। ऋषि लोग बोले- कौन-कौन से द्वापर में कौन- कौन से युगान्तर में तथा किन-किन कल्पों में कौन- कौन व्यास हुए। उनका चरित्र हमारे से आप कहो, क्योंकि आप यह सभी कहने में समर्थ हो।सूतजी बोले- हे ब्राह्मणो! वाराह कल्प के वैवस्वत- मनवन्तर और उनके अन्तरों के व्यासों तथा रुद्रों को इस समय आपसे कहता हूँ। वेद पुराण और ज्ञान के प्रकाशक व्यासों को यथाक्रम इस समय आपसे कहता हूँ। ऋतु, सत्य, भार्गव, अंगिरा, सविता, मृत्यु, शतकृतु, वशिष्ठ, सारस्वत, त्रिधात्मा, त्रिवृत, स्वयं, धर्म, नारायण, तरक्षु, अरुणि तथा कृतंजय, तृण, बिन्दू, रुक्ष, मुनि, शक्ति, पाराशर, जातुकर्ण्य और साक्षात् विष्णु स्वरूप श्रीकृष्ण द्वैपायन मुनि व्यास हुए। 

अब आप लोग योगेश्वरों को क्रम से सुनिए - कल्पों और कल्पान्तरों में कलियुग में रुद्र और व्यासों के अवतारों के गौरव से असंख्य योगेश्वर हुए हैं। वाराह कल्प के वैवस्वत अन्तर के योगेश्वरों के अवतारों को इस समय कहता हूँ तथा पुनः औरों से कहूँगा। ऋषि बोले- इस समय आप वाराह कल्प के वैवस्वत मन्वन्तर तथा ऊर्ध्व कल्प के सिद्धों को ही कहिये। रोमहर्षण जी बोले- हे ब्राह्मणो ! स्वायंभू मुनि सबसे प्रथम इसके बाद स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष, वैवस्वत, सावर्णि, धर्मसावर्णि, विशंग, अविशंग, शबल, वर्णक नाम के मनु हुए। अकार से लेकर औकार तक मनु कहे गए हैं। श्वेत, पाण्डु, रक्त, ताम्र, पीत, कपिल, कृष्ण, श्याम तथा धूम्र, सुधूम्र, अपिशाँग, पिशाँग, त्रिवर्ण, शबल तथा कालन्धु वर्ण के मनु हुए हैं, जो नाम और वर्ण से समान हैं तथा ये सभी शुभ हैं। वैवस्वत मनु ऋकार स्वरूप तथा कृष्ण वर्ण के हैं। युगों के आवर्त में होने वाले अब मैं सातवें योगियों को कहता हूँ। प्रथम वाराह कल्प के सावतें अन्तर में होने वाले योगावतार उनके शिष्य तथा सन्तानों को क्रमशः कहूँगा। आद्य में श्वेत, रुद्र, सुतार, मदन,सुहोत्र, कंकण तथा लोकाक्षि मुनि, जैगीषव्यु भगवान, दधि वाहन, ऋषभ, बुद्धिमान, उग्र, अत्रि, सुबलक,गौतम, वेदशीर्ष, गोकर्ण, शिखण्डभूत, जटामाली, अट्ठाहास, दारुक, लाडली तथा महाकाय मुनि, शूली, दण्डी, मुण्डीश्वर, सहिष्णु, सोमशर्मा, चल, कुलीश नाम के संसार के गुरु ये योग में अवतार हुए। हे श्रेष्ठ व्रती ऋषियो ! वैवस्वत मन्वन्तर में होने वाले परमात्मा के स्वरूप योगाचार्यों के अवतार आपसे कहे तथा द्वापर में होने वाले व्यासों के नाम भी कहे। अब योगाचार्यों के शिष्य प्रशिष्यों को बतलाता हूँ।

योगेश्वरों के चार शिष्य हुए। श्वेत, श्वेत शिखण्डी, श्वेताश्व तथा श्वेत लोहित, ये चार शिष्य हुए। इसके बाद दुंदुभी शतरूप, ऋचीक केतु, विशोक, विकेश, विपाश, पापनाशन सुमुख, दुर्मुख, दुर्दम, दुरितक्रम, सनक, सनन्द, सनातन, ऋभु सनत्कुमार, सुधामा, विरजा, शंखपाद, वैरज, मेघ, सारस्वत सुवाहन, मेघवाह, महाद्युति, कपिल, आसुरि तथा पंचशिखामुनि, महायोगी धर्माता बाल्कल, महातेजस्वी, गर्ग, भृगु, अंगिरा, बलबन्धु, निरामित्र, तपस्वी केतु श्रृङ्ग, लम्बोदर, लम्ब, लम्बाक्ष, लम्बकेशक, सर्वज्ञ, समबुद्धि साध्य, सर्व, सुधामा, काश्यप, वशिष्ठ, विरजा, अत्रि, देवसद्, श्रवण, श्रविष्टक, कुणि, कुणबाहु, कुशरीर कुनेत्रक, कश्यप, उपनाश, च्यवन, बृहस्पति, उतश्यो, वामदेव, वाचश्रवा, सुधीक, श्यावाश्व, हिरण्यनाभ, कौशल्य, लीगक्षि, कुशुमि, सुमन्तु, बर्बरी, विद्वान कबन्ध, कुशिकन्धर, प्लक्ष, वाल्भ्य, यणि, केतुमान, गोपन, भल्लावी, मधुपिङ्गश्नेतकेतु, उशिक वृहदश्व, देवल, शालिहोत्र, अग्निवेश, युवनाश्व, शरद्वस, छगल, कुण्डकर्ण, कुभ्भ, प्रवाहक, उलूक, विद्युत, मण्डूक, आश्वलायन, अक्षपाद, कुमार, उलूकवत्स, कुशिक, गर्भ मित्र, क्रौरुष्य आदि इतने योगीश्वरों के शिष्य सभी आवर्तों के हुए हैं। ये सभी विमल, ब्रह्म भूमिष्ठ तथा ज्ञान और योग में परायण हैं तथा सभी पाशुपत हैं, सिद्ध हैं और अपने शरीर को भस्म में लपेटे रहते हैं। इन शिष्यों के शिष्य प्रशिष्य तो सैकड़ों और हजारों हैं। जो पाशुपत योग को प्राप्त करके रुद्रलोक में स्थित हैं। देवताओं से लेकर पिशाच आदि तक सभी पशु संज्ञा वाले हैं। शिव सबके पति हैं, इससे उन्हें पशुपति कहा गया है। अतः उन पशुपति रुद्र के द्वारा बनाया गया योग पाशुपत योग जानना चाहिए।

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