शंकर भगवान के त्रिगुण रूप का वर्णन,Shankar Bhagavaan Ke Trigun Roop Ka Varnan

शंकर भगवान के त्रिगुण रूप का वर्णन

सनत्कुमार बोले- मैं शिव के महात्म्य को फिर सुनना चाहता हूँ आप सर्वज्ञ हैं, सो मुझे और भी शंकर का महात्म्य सुनाइये। शैलादि बोले- हे ब्रह्मन ! मुनीश्वरों ने शिव की महिमा बहुत प्रकार से कही है सो उसे सुनाता हूँ। सत् और असत् रूप से जो यह जगत स्थित है उसका पति शिव को ही कहते हैं। भूत भाव विकार से दूसरा रूप व्यक्त कहा है और उससे हीन अव्यक्त है। ये दोनों रूप शिव के ही हैं, शिव से अन्य के नहीं हैं। इन दोनों का पति होने से शिव को असत् और सत् रूप का स्वामी कहते हैं। क्षर और अक्षर महेश्वर को मुनि लोग व्यक्त और अव्यक्त कहते हैं। ये दोनों रूप शंकर के ही हैं। इन दोनों से परे विद्वानों ने शान्त स्वरूप महादेव को ही कहा है। कोई कोई आचार्य परम कारण शिव को समष्टि रूप वाला और अव्यक्त कहते हैं।


ये दोनों रूप भी शम्भु के ही हैं। उनसे अन्य कुछ नहीं है। इसलिए सबका कारण शिव ही है। लोकशास्त्र के जानने वाले समष्टि और व्यष्टि का कारण क्षेत्र और क्षेत्र स्वरूप से शिव को ही कहते हैं। ज्योति स्वरूप भगवान शंकर ही चौबीस तत्व रूप से क्षेत्र कहलाता हैऔर उसका भोक्ता पुरुष रूप से क्षेत्रज्ञ रूप वाला कहा जाता है। अतः शिव से अन्य कुछ नहीं ऐसा विद्वान लोग कहते हैं। कोई आचारी आदि अन्त से रहित प्रभु को भूत अन्तःकरण इन्द्रिय प्रधान विषयक रूप से वर्णन करते हैं और ऊपर से चैतन्य स्वरूप ब्रह्म कहते हैं।

विद्या और अविद्या दोनों ही शंकर के स्वरूप हैं। लोकों का पालन पोषण करने वाला महेश्वर कहलाता है। अखिल प्रपंच जात शिव अविद्या कहलाता है। आत्मरूप से सर्वत्र जो ज्ञान है। वही विकल्प रहित परम तत्व कहलाता है। व्यक्त और अव्यक्त रूप वह शिव ही है। सब लोकों का विधाता, पालन कर्ता वह व्यक्त कहलाता है तथा पैराप्रकृति को अव्यक्त कहते हैं। प्रकृति के गुणों को भोगने वाला तीसरा पुरुष कहा गया है। ये तीनों ही शंकर के रूप हैं। शंकर से भिन्न और कुछ भी नहीं है।

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