प्रसन्न शिव द्वारा ब्रह्मा और नारायण की,
स्तुति के द्वारा प्रसन्न शिव के द्वारा ब्रह्मा और नारायण को आश्वासन देना तथा ब्रह्मा का सृष्टि रचना
सूतजी बोले - मधुर पीले सफेद नेत्र वाले महादेव जी ने उन दोनों (ब्रह्मा विष्णु) को अधिक नम्र होकर उनका कीर्तन करते हुए देखकर सब कुछ जानते हुए भी क्रीड़ा के लिए अनजान की तरह बोले- इस घोर प्रलय के समुद्र में कमल के नेत्र वाले आप दोनों महानुभाव कौन हो, जो आपस में अत्यधिक प्रेम पूर्वक क्रीड़ा कर रहे हो। तब वे दोनों बोले- भगवन् ! ऐसा क्या है जिसे आप नहीं जानते। हे विभो ! हे रुद्र ! हम दोनों को आपने ही इच्छा पूर्वक बनाया है। तब तो उनके इस प्रकार के अभिनन्दनकारी तथा मान्य वचनों को सुनकर भगवान महादेव जी मधुर वाणी में इस प्रकार कहने लगे हे कृष्ण! हे हिरण्यगर्भ ब्रह्मा जी! आप दोनों मेरे हृदय से उत्पन्न हुए हो। तुम दोनों अपना इच्छित वरदान माँगो। तब भगवान विष्णु ने नम्र होकर कहा कि हे प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे अपनी भक्ति प्रदान कीजिये। केशव के ऐसा कहने पर शंकर भगवान ने उन्हें अपने कमलवत् चरणों में दृढ़ भक्ति प्रदान की तथा ब्रह्मा जी से बोले- हे वत्स ! तू सभी लोकों का कर्त्ता होगा। तेरा कल्याण हो। ऐसा कह कर भगवान शंकर ने ब्रह्मा को अंगुलियों से स्पर्श किया और पुनः कहा कि हे वत्स ! तुम मेरे समान ही हो तुम पितामह की संज्ञा वाले भी होगे। ऐसा कहकर शंकर जी अन्तर्ध्यान हो गये।
भगवान शंकर के चले जाने पर पद्मयोनि ने गोविन्द भगवान से पितामह ऐसी नाम वाली संज्ञा प्राप्त की। प्रजा की रचना के लिये ब्रह्मा जी ने बड़ा उग्र तप किया किन्तु उस तप से कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ। तब दीर्घकाल तक तप करने पर ब्रह्मा जी के नेत्रों से आँसू निकलने लगे। तब उन आँसुओं से वात, पित्त, कफ से युक्त, स्वास्तिक से युक्त, बड़े-बड़े केशों सहित महा-विषैले सर्प उत्पन्न हुए। उन्हें देखकर ब्रह्मा जी बोले-कि मेरी तपस्या का ऐसा फल है तो मेरे लिए धिक्कार है क्योंकि यह लोकों को विनाश करने वाली प्रजा है। इस प्रकार क्रोध और पश्चाताप से ब्रह्मा जी को मूर्छा हो गई और उसी समय प्रजापति ब्रह्मा ने प्राणों को त्याग दिया। किन्तु उनको इस प्रकार शरीर त्यागने पर उनके शरीर से ग्यारह रुद्र उत्पन्न हुए, जो उत्पन्न होते ही रोने लगे। रोने के कारण ही वे रुद्र कहलाये। ये रुद्र ही ब्रह्मा के प्राण हैं तथा यह प्राणियों के भी प्राण हैं जो सभी जीवधारियों में समाये हैं। महाभाग साधु ब्रह्मा के इस उग्र कार्य से प्रसन्न होकर उन रुद्रों ने उन्हें फिर से प्राण देकर जीवित कर दिया।
तब तो प्रणों को प्राप्त कर ब्रह्म जी ने उन देवेश्वर भगवान शंकर की गायत्री के सहित पूजा उपासना की। उन विश्वेश्वर को सर्वलोकमय देखकर आश्चर्य पूर्वक बारम्बार प्रणाम किया और शिव से पूछने लगे कि हे विभो ! यह "सह्य" आदि कौन हैं ?
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