मंत्रों का लिंग भेद एवं मंत्र के दोष | Mantron Ka Ling Bhed Evan Mantr Ke Dosh

मंत्रों का लिंग भेद एवं मंत्र के दोष 

मन्त्र के सम्बन्ध में अनेक ज्ञातव्य बातें, मन्त्र के विविध दोष तथा उत्तम आचार्य एवं शिष्यके लक्षण

सनत्कुमारजी कहते हैं- अब मैं जीवोंके। पाश-समुदायका उच्छेद करनेके लिये अभीष्ट सिद्धि प्रदान करनेवाली दीक्षा-विधिका वर्णन करूँगा, जो मन्त्रोंको शक्ति प्रदान करनेवाली है। दीक्षा दिव्यभावको देती है और पापोंका क्षय करती है। इसीलिये सम्पूर्ण आगमोंके विद्वानोंने उसे दीक्षा कहा है। मननका अर्थ है सर्वज्ञता और त्राणका अर्थ है संसारी जीवपर अनुग्रह करना। इस मनन और त्राणधर्मसे युक्त होनेके कारण मन्त्रका मन्त्र नाम सार्थक होता है।

मन्त्रों के लिंगभेद

मन्त्र तीन प्रकारके होते हैं-स्त्री, पुरुष और नपुंसक। स्त्री-मन्त्र वे हैं जिनके अन्तमें दो 'ठ' अर्थात् 'स्वाहा' लगे हों। जिनके अन्तमें 'हुम्' और 'फट्' हैं वे पुरुष-मन्त्र कहे गये हैं। जिनके अन्तमें 'नमः' लगा होता है, वे मन्त्र नपुंसक हैं। इस प्रकार मन्त्रोंकी जातियाँ बतायी गयी हैं। सभी मन्त्रोंके देवता पुरुष हैं और सभी विद्याओंकी स्त्री देवता मानी गयी है। वे त्रिविध मन्त्र छः कर्मोंमें* प्रत्युक्त होते हैं। जिसमें प्रणवान्त रेफ (रां) और स्वाहाका प्रयोग हो, वे मन्त्र आग्नेय (अग्ग्रिसम्बन्धी) कहे गये हैं। मुने! जो मन्त्र भृगुबीज (सं) और पीयूष बीज (वं) से युक्त हैं, वे सौम्य (सोमसम्बन्धी) कहे गये हैं। इस प्रकार मनीषी पुरुषोंको सभी मन्त्र अग्रीषोमात्मक जानने चाहिये। जब श्वास पिङ्गला नाड़ीमें स्थित हो अर्थात् दाहिनी साँस चलती हो तो आग्रेय मन्त्र जाग्रत् होते हैं और जब श्वास इडा नाड़ीमें स्थित हो अर्थात् बायीं साँस चलती हो तो सोम सम्बन्धी मन्त्र जागरूक होते हैं। जब इडा और पिङ्गला दोनों नाड़ियोंमें साँस चलती हो अर्थात् बायाँ और दाहिना दोनों स्वर समानभावसे चलते हों तो सभी मन्त्र जाग्रत् होते हैं। यदि मन्त्रके सोते समय उसका जप किया जाय तो वह अनर्थरूप फल देनेवाला है। प्रत्येक मन्त्रका उच्चारण करते समय उनका श्वास रोककर उच्चारण न करे। अनुलोमक्रममें बिन्दु (अनुस्वार) युक्त और विलोमक्रममें विसर्गसंयुक्त मन्त्रोंका उच्चारण करे। यदि जपा हुआ मन्त्र देवताको जाग्रत् कर सका तो वह शीघ्र सिद्धि देनेवाला होता है और उस मालासे जपा हुआ दुष्ट मन्त्र भी सिद्ध होता है। क्रूर कर्ममें आग्रेय मन्त्रका उपयोग होता है और सोमसम्बन्धी मन्त्र सौम्य फल देनेवाले होते हैं। शान्त, ज्ञान और अत्यन्त रौद्र- ये मन्त्रोंकी तीन जातियाँ हैं। शान्तिजातिसमन्वित शान्त मन्त्र भी 'हुं फट्' यह पल्लव जोड़नेसे रौद्र भाव धारण कर लेता है।

मन्त्रों के दोष

छिन्नता आदि दोषोंसे युक्त मन्त्र साधककी रक्षा नहीं कर पाते। छिन्न, रुद्ध, शक्तिहीन, पराङ्‌मुख, कर्णहीन, नेत्रहीन, कीलित, स्तम्भित, दग्ध, त्रस्त, भीत, मलिन, तिरस्कृत, भेदित, सुषुप्त, मदोन्मत्त, मूच्छित, हतवीर्य, भ्रान्त, प्रध्वस्त, बालक, कुमार, युवा, प्रौढ़, वृद्ध, निस्त्रिशक, निर्बोज, सिद्धिहीन, मन्द, कूट, निरंशक, सत्त्वहीन, केकर, बीजहीन,धूमित, आलिङ्गित, मोहित, क्षुधार्त्त, अतिदीप्त, अङ्गहीन, अतिक्क्रुद्ध, अतिक्रूर, ब्रीडित (लज्जित), प्रशान्तमानस, स्थानभ्रष्ट, विकल, अतिवृद्ध, अतिनिःस्नेह तथा पीड़ित ये (४९) मन्त्रके दोष बताये गये हैं। अब मैं इनके लक्षण बतलाता हूँ। जिस मन्त्रके आदि, मध्य और अन्तमें संयुक्त, वियुक्त या स्वरसहित तीन-चार अथवा पाँच बार अग्निबीज (रं) का प्रयोग हो, वह मन्त्र 'छिन्न' कहलाता है। जिसके आदि, मध्य और अन्तमें दो बार भूमिबीज (लं) का उच्चारण होता हो उस मन्त्रको 'रुद्ध' जानना चाहिये। वह बड़े क्लेशसे सिद्धिदायक होता है। प्रणव और कवच (हूं) ये तीन बार जिस मन्त्रमें आये हों वह लक्ष्मीयुक्त होता है। ऐसी लक्ष्मीसे हीन जो मन्त्र है उसे 'शक्तिहीन' जानना चाहिये। वह दीर्घकालके बाद फल देता है। 

जहाँ आदिमें कामबीज, (क्ली), मध्यमें मायाबीज (हीं) और अन्तमें अंकुश बीज (क्रों) हो, वह मन्त्र 'पराङ्मुख' जानना चाहिये। वह साधकोंको चिरकालमें सिद्धि देनेवाला होता है। यदि आदि, मध्य और अन्तमें सकार देखा जाय, तो वह मन्त्र 'बधिर' (कर्णहीन) कहा गया है। वह बहुत कष्ट उठानेपर थोड़ा फल देनेवाला है। यदि पञ्चाक्षर मन्त्र हो, किंतु उसमें रेफ, मकार और अनुस्वार न हो तो उसे 'नेत्रहीन' जानना चाहिये। वह क्लेश उठानेपर भी सिद्धिदायक नहीं होता। आदि, मध्य और अन्तमें हंस (सं), प्रासाद तथा वाग्बीज (ऐं) हो अथवा हंस और चन्द्रविन्दु या सकार, फकार अथवा हुं हो तथा जिसमें मा, प्रा और नमामि पद न हो वह मन्त्र 'कीलित' माना गया है। इसी प्रकार मध्यमें और अन्तमें भी वे दोनों पद न हों तथा जिसमें फट् और लकार न हों, वह मन्त्र 'स्तम्भित' माना गया है, जो सिद्धिमें रुकावट डालनेवाला है। जिस मन्त्रके अन्तमें अग्नि (रं) बीज वायु (य) बीजके साथ हो तथा जो सात अक्षरोंसे युक्त* दिखायी देता हो वह 'दग्ध' संज्ञक मन्त्र है। जिसमें दो, तीन, छः या आठ अक्षरोंके साथ अस्त्र (फट्) दिखायी दे, उस मन्त्रको 'त्रस्त' जानना चाहिये। जिसके मुखभागमें प्रणवरहित हकार अथवा शक्ति हो, वही मन्त्र 'भीत' कहा गया है। जिसके आदि, मध्य और अन्तमें चार 'म' हों, वह मन्त्र 'मलिन' माना गया है। वह अत्यन्त क्लेशसे सिद्धिदायक होता है। 

जिस मन्त्रके मध्यभागमें द अक्षर और अन्तमें दो क्रोध (हुं हूं) बीज हों और उनके साथ अस्त्र (फट्) भी हो, तो वह मन्त्र 'तिरस्कृत' कहा गया है। जिसके अन्तमें 'म' और 'य' तथा 'हृदय' हो और मध्यमें वषट् एवं वौषट् हो वह मन्त्र 'भेदित' कहा गया है। उसे त्याग देना चाहिये; क्योंकि वह बड़े क्लेशसे फल देनेवाला होता है। जो तीन अक्षरसे युक्त तथा हंसहीन है, उस मन्त्रको 'सुषुप्त' कहा गया है। जो विद्या अथवा मन्त्र सतरह अक्षरोंसे युक्त हो तथा जिसके आदिमें पाँच बार फट्‌का प्रयोग हुआ हो उसे 'मदोन्मत्त' माना गया है। जिसके मध्य भागमें फट्‌का प्रयोग हो उस मन्त्रको 'मूर्छित' कहा गया है। जिसके विरामस्थानमें अस्त्र (फट्) का प्रयोग हो वह 'हतवीर्य' कहा जाता है। मन्त्रके आदि, मध्य और अन्तमें चार अस्त्र (फट्) का प्रयोग हो तो उसे 'भ्रान्त' जानना चाहिये। जो मन्त्र अठारह अथवा बीस अक्षरवाला होकर कामबीज (क्लीं) से युक्त होकर साथ ही उसमें हृदय, लेख और अंकुशके भी बीज हों तो उसे 'प्रध्वस्त' कहा गया है। सात अक्षरवाला मन्त्र 'बालक', आठ अक्षरवाला 'कुमार', सोलह अक्षरोंवाला 'युवा', चौबीस अक्षरोंवाला 'प्रौढ' तथा बीस, चौसठ, सौ और चार सौ अक्षरोंका मन्त्र 'वृद्ध' कहा गया है। प्रणवसहित नवार्ण-मन्त्रको 'निस्त्रिंश' कहते हैं। जिसके अन्तमें हृदय (नमः) कहा गया हो, मध्यमें शिरोमन्त्र (स्वाहा) का उच्चारण होता हो और अन्तमें शिखा (वषट्), वर्म (हुं), नेत्र (वौषट्) और अस्त्र (फट्) देखे जाते हों तथा जो शिव एवं शक्ति अक्षरोंसे हीन हो, उस मन्त्रको 'निर्बीज' माना गया है। जिसके आदि, मध्य और अन्तमें छः बार फट्‌का प्रयोग देखा जाता हो, वह मन्त्र 'सिद्धिहीन' होता है। पाँच अक्षरके मन्त्रको 'मन्द' और एकाक्षर मन्त्रको 'कूट' कहते हैं। उसीको 'निरंशक' भी कहा गया है। दो अक्षरका मन्त्र 'सत्त्वहीन', चार अक्षरका मन्त्र 'केकर' और छः या साढ़े सात अक्षरका मन्त्र 'बीजहीन' कहा गया है। साढ़े बारह अक्षरके मन्त्रको 'धूमित' माना गया है। वह निन्दित है।

साढ़े तीन बीजसे युक्त बीस, तीस तथा इक्कीस अक्षरका मन्त्र 'आलिङ्गित' कहा गया है। जिसमें दन्तस्थानीय अक्षर हों वह मन्त्र 'मोहित' बताया गया है। चौबीस या सत्ताईस अक्षरके मन्त्रको 'क्षुधार्त' जानना चाहिये। वह मन्त्र सिद्धिसे रहित होता है। ग्यारह, पच्चीस, अथवा तेईस अक्षरका मन्त्र 'दृप्त' कहलाता है। छब्बीस, छत्तीस तथा उनतीस अक्षरके मन्त्रको 'हीनाङ्ग' माना गया है। अट्ठाईस और इकतीस अक्षरका मन्त्र 'अत्यन्त क्रूर' (और 'अतिक्क्रुद्ध') जानना चाहिये, वह सम्पूर्ण कर्मोंमें निन्दित माना गया है। चालीस अक्षरसे लेकर तिरसठ अक्षरोंतकका जो मन्त्र है, उसे 'ब्रीडित' (लज्जित) समझना चाहिये। वह सब कार्योंकी सिद्धिमें समर्थ नहीं होता। पैंसठ अक्षरके मन्त्रोंको 'शान्तमानस' जानना चाहिये। मुनीश्वर ! पैसठ अक्षरोंसे लेकर निन्यानबे अक्षरोंतकके जो मन्त्र हैं, उन्हें 'स्थानभ्रष्ट' जानना चाहिये। तेरह या पंद्रह अक्षरोंके जो मन्त्र हैं, उन्हें सर्वतन्त्र विशारद विद्वानोंने 'विकल' कहा है। सौ, डेढ़ सौ, दो सौ, दो सौ इक्यानबे अथवा तीन सौ अक्षरोंके जो मन्त्र होते हैं, वे 'निःस्नेह' कहे गये हैं। ब्रह्मन् ! प्रयोगमें 'अत्यन्त वृद्ध' माने गये हैं। उन्हें शिथिल कहा गया है। जिनमें एक हजारसे भी अधिक अक्षर हों, उन मन्त्रोंको 'पीडित' बताया गया है। उनसे अधिक अक्षरवाले मन्त्रोंको स्तोत्ररूप माना गया है। इस प्रकारके मन्त्र दोषयुक्त कहे गये हैं। अब मैं 'छिन्न' आदि दोषोंसे दूषित मन्त्रोंका साधन बताता हूँ। जो योनिमुद्रासनसे बैठकर एकाग्रचित्त हो जिस किसी भी मन्त्रका जप करता है, उसे सब प्रकारकी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। बायें पैरकी एड़ीको गुदाके सहारे रखकर दाहिने पैरकी एड़ीको ध्वज (लिङ्ग) के ऊपर रखे तो इस प्रकार योनिमुद्राबन्ध नामक उत्तम आसन होता है।

आचार्य और शिष्यके लक्षण जो कुलपरम्पराके क्रमसे प्राप्त हुआ हो, नित्य मन्त्र-जपके अनुष्ठानमें तत्पर हो, गुरुकी आज्ञाके पालनमें अनुरक्त हो तथा अभिषेकयुक्त हो; शान्त, कुलीन और जितेन्द्रिय हो, मन्त्र और तन्त्रके तात्त्विक अर्थका ज्ञाता तथा निग्रहानुग्रहमें समर्थ हो; किसीसे किसी वस्तुकी अपेक्षा न रखता हो, मननशील, इन्द्रियसंयमी, हितवचन बोलनेवाला, विद्वान्, तत्त्व निकालनेमें चतुर, विनयी हो; किसी-न-किसी आश्रमकी मर्यादामें स्थित, ध्यानपरायण, संशय-निवारण करनेवाला, परम बुद्धिमान् और नित्य सत्कर्मोंके अनुष्ठानमें संलग्न रहनेवाला हो, उसे ही 'आचार्य' कहा गया है। जो शान्त, विनयशील, शुद्धात्मा, सम्पूर्ण शुभ लक्षणोंसे युक्त, शम आदि साधनोंसे सम्पन्न, श्रद्धालु, सुस्थिर विचार या हृदयवाला, खान- पानमें शारीरिक शुद्धिसे युक्त, धार्मिक, शुद्धचित्त, सुदृढ़ व्रत एवं सुस्थिर आचारसे युक्त, कृतज्ञ एवं पापसे डरनेवाला हो, गुरुकी सेवामें जिसका मन लगता हो, ऐसे शील स्वभावका पुरुष आदर्श शिष्य हो सकता है; अन्यथा वह गुरुको दुःख देनेवाला होता है।

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