दस महाविद्याएँ और उनकी उपासना
विद्यास्वरूपा महाशक्ति
महाशक्ति विद्या और अविद्या दोनों ही रूपोंमें विद्यमान हैं। अविद्यारूपमें वे प्राणियोंके मोहकी कारण हैं तो विद्यारूप में मुक्तिकी। शास्त्र और पुराण उन्हें विद्याके रूपमें और परमपुरुषको विद्यापतिके रूपमें मानते हैं। वेद तथा अन्यान्य शास्त्रोंके रूपमें विद्याका प्रकटरूप और आगमादिके रूपमें विद्वानों एवं साधकोंद्वारा गुह्तरूप संकेतित है। वैष्णवी और शाम्भवी-भेदसे दोनोंकी ही शरणागति परम लाभमें हेतु है। आगमशास्त्रोंमें यद्यपि गुह्य गुरुमुखगम्य अनेक विद्याओंके रूप, स्तव और मन्त्रादिकोंका विधान है, तथापि उनमें दस महाविद्याओंकी प्रधानता तो स्पष्ट प्रतिपादित है, जो जगन्माता भगवतीसे अभिन्न है-
साक्षाद् विद्यचैव सा न ततो भिन्ना जगन्माता।
अस्याः स्वाभिन्नत्वं श्रीविद्याया रहस्यार्थः ॥
महाविद्याओंका प्रादुर्भाव
दस महाविद्याओंका सम्बन्ध परम्परातः सती, शिवा और पार्वतीसे है। ये ही अन्यत्र नवदुर्गा, शक्ति, चामुण्डा, विष्णुप्रिया आदि नामोंसे पूजित और अर्चित होती हैं। देवीपुराण [महाभागवत] में कथा आती है कि दक्षप्रजापतिने अपने यज्ञमें शिवको आमन्त्रित नहीं किया। सतीने शिवसे उस यज्ञमें जानेकी अनुमति माँगी। शिवने अनुचित बताकर उन्हें जानेसे रोका, पर सती अपने निश्वयपर अटल रहीं। उन्होंने कहा- 'मैं प्रजापतिके यज्ञमें अवश्य जाऊँगी और वहाँ या तो अपने प्राणेश्वर देवाधिदेवके लिये यज्ञभाग प्राप्त करूँगी या यज्ञको ही नष्ट कर दूँगी। यह कहते हुए सतीके नेत्र लाल हो गये। वे शिवको उग्र दृष्टिसे देखने लगीं। उनके अधर फड़कने लगे, वर्ण कृष्ण हो गया। क्रोधाग्निसे दग्धशरीर महाभयानक एवं उग्र दीखने लगा। उस समय महामायाका विग्रह प्रचण्ड तेजसे तमतमा रहा था। शरीर वृद्धावस्थाको सम्प्राप्त-सा, केशराशि बिखरी हुई, चार भुजाओंसे सुशोभित वे महादेवी पराक्रमकी वर्षा करती-सी प्रतीत हो रही थीं। कालाग्रिके समान महाभयानक रूपमें देवी मुण्डमाला पहने हुई थीं और उनकी भयानक जिह्वा बाहर निकली हुई थी।
शीशपर अर्थचन्द्र सुशोभित था और उनका सम्पूर्ण व्यक्तित्व विकराल लग रहा था। वे बार-बार विकट हुंकार कर रही थीं। देवीका यह स्वरूप साक्षात् महादेवके लिये भी भयप्रद और प्रचण्ड था। उस समय उनका श्रीविग्रह करोड़ों मध्याह्नके सूर्योक समान तेजः सम्पन्न था और वे बार-बार अट्टहास कर रही थीं। देवीके इस विकराल महाभयानक रूपको देखकर शिव भाग चले। भागते हुए रुद्रको दसों दिशाओंमें रोकनेके लिये देवीने अपनी अङ्गभूता दस देवियोंको प्रकट किया। देवीकी ये स्वरूपा शक्तियाँ ही दस महाविद्याएँ हैं, जिनके नाम हैं-काली, तारा, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी, कमला, त्रिपुरभैरवी, भुवनेश्वरी, त्रिपुरसुन्दरी और मातङ्गी। शिवने सतीसे इन महाविद्याओंका जब परिचय पूछा, तब सतीने स्वयं इनकी व्याख्या करके उन्हें बताया-
येयं ते पुरतः कृष्णा सा काली भीमलोचना।
श्यामवर्णा च या देवी स्वयमूर्ध्वं व्यवस्थिता ।।
सेयं तारा महाविद्या महाकालस्वरूपिणी।
सब्येतरेये या देवी विशीर्षांतिभयप्रदा ।।
इयं देवी छिन्नमस्ता महाविद्या महामते।
वामे तवेषं या देवी सा शम्भो भुवनेश्वरी ॥
पृष्ठतस्तव या देवी बगला शत्रुसूदिनी।
वह्निकोणे तवेयं या विधवारूपधारिणी ।।
सेयं धूमावती देवी महाविद्या महेश्वरी।
नैक्रेत्यां तब या देवी सेवं त्रिपुरसुन्दरी ॥
वायर्थी या ते महाविद्या सेयं मतङ्गकन्यका।
ऐशान्यां घोडशी देवी महाविद्या महेश्वरी ।।
अई तु भैरवी भीमा शम्भो मा त्वं भयं कुरु।
एताः सर्वाः प्रकृष्टास्तु मूर्तयो बहुमूर्तिषु ।।
'शम्भो। आपके सम्मुख जो यह कृष्णवर्णा एवं भयंकर नेत्रोंवाली देवी स्थित हैं वे 'काली' हैं। जो स्यामवर्णवाली देवी स्वयं ऊर्ध्वभागमें स्थित हैं, ये महाकालस्वरूपिणी महाविद्या 'तारा' हैं। महामते। बार्थी और जो ये अत्यन्त भयदामिनी मस्तकरहित देवी हैं, ये महाविद्या 'छिन्नमस्ता' हैं। शम्भो। आपके वामभागमें जो ये देवी हैं, वे 'भुवनेश्वरी' हैं। आपके पृष्ठभागमें जो देवी हैं, वे शत्रुसंहारिणी 'बगला' हैं। आपके अग्रिकोणमें जो ये विषवाका रूप धारण करनेवाली देवी हैं, वे महेश्वरी महाविद्या 'धूमावती' हैं। आपके नैऋत्यकोणनें जो देवी हैं, वे 'त्रिपुरसुन्दरी' हैं। आपके वायव्यकोणमें जो देवी हैं, ये मतङ्गकन्या महाविद्या 'मातङ्गी' हैं। आपके ईशानकोणमें महेश्वरी महाविद्या 'षोडशी' देवी हैं। शम्भो। मैं भयंकर रूपवाली 'भैरवी' हूँ। आप भय मत करें। ये सभी मूर्तियाँ बहुत-सी मूर्तियोंमें प्रकृष्ट हैं।' महाभागवतके इस आख्यानसे प्रतीत होता है कि महाकाली ही मूलरूपा मुख्य हैं और उन्हकि उग्र और सौम्य दो रूपोंमें अनेक रूप धारण करनेवाली ये दस महाविद्याएँ हैं। दूसरे शब्दोंमें महाकालीके दशधा प्रधान रूपोंको ही दस महाविद्या कहा जाता है। सर्वविद्यापति शिवकी शक्तियाँ ये दस महाविद्याएँ लोक और शास्त्रमें अनेक रूपोंमें पूजित हुईं, पर इनके दस रूप प्रमुख हो गये। ये ही महाविद्याएँ साधकोंकी परम धन हैं जो सिद्ध होकर अनन्त सिद्धियों और अनन्तका साक्षात्कार करानेमें समर्थ हैं।
महाविद्याओंके क्रम-भेद तो प्रास होते हैं, पर कालीकी प्राथमिकता सर्वत्र देखी जाती है। यों भी दार्शनिक दृष्टिसे कालतत्त्वकी प्रधानता सर्वोपरि है। इसलिये मूलतः महाकाली या काली अनेक रूपोंमें विद्याओंकी आदि हैं और उनकी विद्यामय विभूतियाँ महाविद्याएँ हैं। ऐसा लगता है कि महाकालकी प्रियतमा काली अपने दक्षिण और वाम रूपोंमें दस महाविद्याओंके रूपमें विख्यात हुई और उनके विकराल तथा सौम्य रूप हो विभिन नामरूपोंके साथ दस महाविद्याओंके रूपमें अनादिकालसे अर्चित हो रहे हैं। ये रूप अपनी उपासना, मन्त्र और दीक्षाओंके भेदसे अनेक होते हुए भी मूलतः एक ही हैं। अधिकारिभेदसे अलग-अलग रूप और उपासनास्वरूप प्रचलित हैं।
प्रकाश और विमर्श, शिवशक्त्यात्मक तत्त्वका अखिल विस्तार और लय सबकुछ शक्तिका ही लीला-विलास है। सृष्टिमें शक्ति और संहारमें शिवकी प्रधानता दृष्ट है। जैसे अमा और पूर्णिमा दोनों दो भासती हैं, पर दोनोंकी तत्त्वतः एकात्मता और दोनों एक-दूसरेके कारण-परिणामी हैं, वैसे ही दस महाविद्याओंके रौद्र और सौम्य रूपोंको भी समझना चाहिये। काली, तारा, छिन्नमस्ता, बगला और धूमावती विद्यास्वरूप भगवतीके प्रकट-कठोर किंतु अप्रकट करुण-रूप हैं तो भुवनेश्वरी, षोडशी (ललिता), त्रिपुरभैरवी, मातङ्गी और कमला विद्याओंके सौम्यरूप हैं। रौद्रके सम्यक् साक्षात्कारके बिना माधुर्यको नहीं जाना जा सकता और माधुर्यके अभावमें रुद्रकी सम्यक् परिकल्पना नहीं की जा सकती।
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दस महाविद्याएं, आदि शक्ति माता पार्वती के रूप मानी जाती हैं. ये दसों महाविद्याएं विभिन्न दिशाओं की अधिष्ठातृ शक्तियां हैं. इनके नाम इस प्रकार हैं:-
- माता काली
- माता तारा
- माता त्रिपुर सुंदरी (षोडशी
- माता देवी भुवनेश्वरी
- माता भैरवी
- माता छिन्नमस्ता
- माता धूमावती
- माता बगलामुखी
- माता मातंगी
- माता कमला
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