चारों युग धर्म का वर्णन,Chaaron Yug Dharm Ka Varnan

चारों युग धर्म का वर्णन,Chaaron Yug Dharm Ka Varnan

शैलादि बोले- इन्द्र से कहे हुए धर्म को सुनकर मेरे पिताजी शिलाद बोले- कि ब्रह्मा जी ने युग धर्म को किस प्रकार बनाया वह मुझसे कहो। ऐसे वचन सुनकर इन्द्र बोले- पहले सतयुग, बाद में त्रेता, फिर द्वापर, फिर कलियुग ये चार प्रकार के युग हैं। सतयुग में सतगुण प्रधान है, त्रेता में रजोगुण, द्वापर में तमोगुण तथा रजोगुण हैं। कलियुग में केवल तमोगुण प्रधान है। सतयुग में ध्यान प्रधान है, त्रेता में यज्ञ, द्वापर में भजन तथा कलियुग में केवल शुद्धदान प्रधान है।
सतयुग में धर्म चार पैर वाला है, त्रेता में तीन पैर वाला, द्वापर में दो पैर वाला तथा कलियुग में केवल एक पैर वाला है। सतयुग में प्रजा सब आनन्द स्वरूप, भोग वाली तथा ऊँच नीच वाली नहीं थी। शोक रहित थी। पर्वत, समुद्र आदि में निवास करती थी। वर्णाश्रम धर्म था। वर्णशंकर प्रजा नहीं थी।


इसके पश्चात् द्वन्द्वों से पीड़ित उनसे छूटने के लिए प्रजा ने अनेकों उपाय किये। तृष्णा से पीड़ित, नाना प्रकार के भोगों से रहित प्रजा होने लगी, प्रजा की मर्यादा रखने के लिए तथा विघ्नों को दूर करने के लिए क्षत्रियों को उत्पन्न किया। वर्णाश्रम धर्म की प्रतिष्ठा की। मनुष्य सभी सदाचारी थे। इसी प्रकार ब्रह्मा ने त्रेता में यज्ञों का प्रवर्तन किया। पशु यज्ञ का कोई सेवन नहीं करते थे। अहिंसात्मक यज्ञ की प्रशंसा करते थे। द्वापर में परस्पर मनुष्यों की बुद्धि में भेद हुए। इससे सभी प्राणियों को काम, क्लेश, शरीर रोग तथा द्वन्द्व तापों को सहना पड़ा। वेद शास्त्रों में लुप्त होने से वर्णशंकरता भी आ गई। काम, क्रोध आदि फैल गए। द्वापर में व्यास जी ने चारों वेदों का विभाग किया। मन्त्र ब्राह्मण के विन्यास से तथा स्वर वर्ण की विपरीतता से ब्राह्मण कल्प, सूत्र, मन्त्र वचन के अनेक भेद पैदा किये। इतिहास पुराण भी काल गौरव से अनेकता को प्राप्त हुए। ब्राह्म, पद्म, वैष्णव, शैव, भागवत, भविष्य, नारदीय, मार्कण्डेय, आग्नेय, लिंग, वाराह, वामन, कूर्म, मत्स्य, गरुड़, स्कन्द, ब्रह्माण्ड, पुराणों का संकलन हुआ।

मनु, अत्रि, विष्णु, हारीत याज्ञवल्क्य, उशना, अशिरा, अंगिरा, यम, आपस्तम्ब, सम्वर्त, कात्यायन, वृहस्पति, पराशर, व्यास, शंख, लिखित, दक्ष, गौतम, शातादप, वशिष्ठ आदि ऋषियों के द्वारा स्मृतियाँ रची गईं। उस समय वृष्टि, मरण तथा व्याधि आदिक उपद्रव होने लगे। वाणी, मन, शरीरों से नाना प्रकार के क्लेश होने लगे तथा दुःख से छूटने का विचार करने लगे। विचार और विराग दोषों के कारण उत्पन्न होने लगे। द्वापर में ज्ञान से दुःख हानि का विचार करने लगे। इस प्रकार रजोगुण तथा तमोगुण से युक्त वृत्ति द्वापर में रही।पहले सतयुग में धर्म था, वह त्रेता में भी ठीक रूप से चलता रहा तथा द्वापर में व्याकुल होकर कलियुग में नष्ट हो गया।

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