यमुना तटवर्ती 'इंद्रप्रस्थ' नामक तीर्थ का माहात्म्य कथा,yamuna tatavartee indraprasth naamak teerth ka maahaatmy katha

यमुना तटवर्ती 'इंद्रप्रस्थ' नामक तीर्थ का माहात्म्य कथा

ऋषियों ने पूछा- सूतजी! अबआप यमुनाजीके माहात्म्यका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये।साथ ही यह बात भी बताइये, किसने किसके प्रति इस माहात्म्यका उपदेश किया था ? सूतजीने कहा- एक समयकी बात है, पाण्डु नन्दन युधिष्ठिर सौभरि मुनिसे कल्याणमय ज्ञान सुननेके लिये उनके स्थानपर गये और उन्हें नमस्कार करके इस प्रकार पूछने लगे- 'ब्रह्मन् ! सूर्य कन्या यमुनाजी के तटपर जितने तीर्थ हैं उनमें ऐसा कल्याणमय तीर्थ कौन है, जो भगवान्‌की जन्मभूमि मथुरासे भी बड़ा हो।' सौभरि बोले- एक समय मुनिश्रेष्ठ नारद और पर्वत आकाश मार्ग से जा रहे थे। जाते-जाते उनकी दृष्टि परम मनोहर खाण्डव वनपर पड़ी। वे दोनों मुनि आकाशसे वहाँ उतर पड़े और यमुनाजीके उत्तम तटपर बैठकर विश्राम करने लगे। क्षणभर विश्राम करनेके बाद उन्होंने स्नान करनेके लिये जलमें प्रवेश किया। इसी समय उशीनर देशके राजा शिबिने, जो उस वनमें शिकार खेलनेके लिये आये थे, उन दोनों मुनियोंको देखा। तब वे उनके निकलनेकी प्रतीक्षा करते हुए नदीके तटपर बैठ गये। नारद और पर्वत मुनि जब विधिपूर्वक स्नान करके वस्त्र पहन चुके तब राजा शिबिने उनके चरणोंमें मस्तक रखकर प्रणाम किया।


फिर तो वे मुनि भी राजाके साथ ही तटपर विराजमान हो गये। वहाँ सुवर्णके हजारों यूप दिखायी दे रहे थे। अभिमानरहित राजा शिबिने उन यूपोंपर दृष्टि डालकर देवर्षि नारद और पर्वतसे पूछा- 'मुनिवरो ! ये यज्ञ-यूप किनके हैं? किस देवता अथवा मनुष्यने यहाँ यज्ञ किये हैं? काशी आदि तीर्थोंको छोड़कर किस पुरुषने यहाँ यज्ञ किया है? अन्य तीर्थोंसे यहाँ क्या विशेषता है? इसमें कौन-सा विज्ञानका भण्डार भरा हुआ है ? यह बतानेकी कृपा करें।' नारदजीने कहा- राजन् ! पूर्वकालमें हिरण्यकशिपुने जब देवताओं को जीतकर तीनों लोकोंका राज्य प्राप्त कर लिया तो उसे बड़ा घमण्ड हो गया। उसके पुत्र प्रह्लादजी भगवान् विष्णुके अनन्य भक्त थे; किन्तु वह पापात्मा उनसे सदा द्वेष रखता था। भक्तसे द्रोह करनेके कारण उसे दण्ड देनेके लिये भगवान् विष्णुने नृसिंहरूप धारण किया और उसका वध करके स्वर्गका राज्य इन्द्रको समर्पित कर दिया। अपना स्थान पाकर इन्द्रने गुरु बृहस्पतिके चरणोंमें मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और भगवान् नारायणके गुणोंका स्मरण करते हुए कहा- 'गुरुदेव ! समस्त जगत्‌का पालन करनेवाले नृसिंहरूपधारी श्रीहरिने मुझे पुनः देवताओंका राज्य प्रदान किया है, अतः मैं यज्ञोंद्वारा उनका पूजन करना चाहता हूँ। इसके लिये आप मुझे पवित्र स्थान बताइये और योग्य ब्राह्मणोंका परिचय दीजिये। आप हमलोगोंके हितकारी है, अतः इस कार्यमें विलम्ब नहीं करना चाहिये ।

बृहस्पतिजीने कहा- देवराज ! तुम्हारा खाण्डव वन परम पवित्र और रमणीय स्थान है। वहाँ त्रिभुवन को पवित्र करनेवाली पुण्यमयी यमुना नदी है। यदि तुम आत्मीयजनोंका कल्याण चाहते हो तो उसीके तटपर चलकर नाना प्रकारके यज्ञोंद्वारा भगवान् केशवकी आराधना करो। गुरु बृहस्पतिके वचन सुनकर देवराज इन्द्र तुरंत गुरु, देवता तथा यज्ञ सामग्री के साथ खाण्डव वनमें आये। फिर गुरुकी आज्ञासे ब्रह्मकुमार वसिष्ठ आदि सप्तर्षियों तथा अन्य ब्राह्मणोंका वरण करके इन्द्रने जगत्पति भगवान् विष्णुका यजन किया। इससे प्रसत्र होकर भगवान् विष्णु, ब्रह्मा और महादेवजीके साथ इन्द्रके यज्ञमें पधारे। सरलहृदय इन्द्र तीनों देवताओंको उपस्थित देख तुरंत आसनसे उठकर खड़े हो गये और मुनियोंके साथ उनके चरणोंमें प्रणाम किया।

फिर वाहनोंसे उतरकर वे तीनों देवता सोनेके सिंहासनोंपर विराजमान हुए। उस समय वेदियोंपर प्रज्वलित त्रिविध अग्नियोंकी भाँति उन तीनोंकी शोभा हो रही थी। श्वेत और लाल वर्णवाले शङ्कर एवं ब्रह्माजीके बीचमें बैठे हुए पीताम्बरधारी श्यामसुन्दर भगवान् विष्णु ऐसे जान पड़ते थे मानो दो पर्वत-शिखरोंके बीच बिजलीसहित मेघ दिखायी दे रहा हो। इन्द्रने उन तीनोंके चरण धोकर उस जलको अपने मस्तकपर चढ़ाया और बड़ी प्रसन्नताके साथ मधुर वाणीमें इस प्रकार स्तुति करना आरम्भ किया। इन्द्र बोले- देव ! आज मेरे द्वारा आरम्भ किया हुआ यह यज्ञ सफल हो गया; क्योंकि योगियोंको भी जिनका दर्शन मिलना अत्यन्त कठिन है, वे ही आप तीनों देवता स्वतः मुझे दर्शन देने पधारे हैं। विष्णो ! यद्यपि आप एक ही हैं, तो भी सत्त्व आदि गुणोंका आश्रय लेकर आपने अपने तीन स्वरूप बना लिये हैं। इन तीनों ही रूपोंका तीनों वेदोंमें वर्णन है अथवा ये तीनों रूप तीन वेदस्वरूप ही हैं। जैसे स्फटिकमणि स्वतः उज्ज्वल है, किन्तु भाँति-भाँतिके रंगोंके सम्पर्कमें आकर विविध रंगका जान पड़ता है, उसी प्रकार आप एक होनेपर भी उपाधिभेदसे अनेकवत् प्रतीत होते हैं। आपका यह नानात्व स्फटिकमणिके रंगोंकी भाँति मिथ्या ही है। प्रभो! जैसे लकड़ियोंमें छिपी हुई आग रगड़े बिना प्रकट नहीं होती, उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतोंके हृदयमें छिपे हुए आप परमात्मा भक्तिसे ही प्रत्यक्ष प्रकट होकर दर्शन देते हैं।

आप सब प्राणियोंका उपकार करनेवाले हैं। आपमें एककी भी भक्ति हो तो अनेकोंको सुख होता है। प्रह्लादजीकी की हुई भक्तिके द्वारा आज सम्पूर्ण देवता सुखी हो गये हैं। देव हम सभी देवता विषय-भोगोंमें ही फँसे हैं। हमारे मनपर आपकी मायाका पर्दा पड़ा है, अतः हम आपके स्वरूपको नहीं जानते; उसका यथावत् ज्ञान तो उन्हींको होता है, जो आपके चरणोंके सेवक हैं। ब्रह्मा और महादेवजी! आप दोनों भी इस जगत्‌के गुरु हैं; यह गुरुत्व भगवान् विष्णुका ही है, इसलिये आपलोग इनसे पृथक् नहीं हैं। वाणीसे जो कुछ भी कहा जाता है और मनसे जो कुछ सोचा जाता है, वह सब भगवान् विष्णुकी माया ही है। जो कुछ देखनेमें आ रहा है, यह सारा प्रपञ्च ही मिथ्या है - ऐसा विचार करके जो मनुष्य भगवान् विष्णुके चरणोंका भजन करते हैं, वे संसार-सागरसे तर जाते हैं। महादेवजी ! इन चरणोंकी महिमाका कहाँतक वर्णन किया जाय, जिनका जल आप भी अपने मस्तकपर धारण करते हैं। ब्रह्माजी ! मैं तो यही चाहता हूँ कि जिनकी दृष्टि पड़नेमात्रसे विकारको प्राप्त होकर प्रकृति महत्तत्त्व आदि समस्त जगत्‌की सृष्टि करती है, उन्हीं भगवान् विष्णुके चरण कमलोंमें मेरा जन्म-जन्म दृढ़ अनुराग बना रहे। भगवान् नृसिंह ! आपके समान दयालु प्रभु दूसरा कोई नहीं है; क्योंकि जो आपसे शत्रुभाव रखते हैं, उनके लिये भी आप सुखका ही विस्तार करते हैं। जो लोग ऐसा कहते हैं कि आप अपने भक्तोंका शोक दूर करनेके लिये ही दयालु हैं- यह उनकी अज्ञता है।

राजन् ! इस प्रकार भगवान् केशवकी स्तुति करके देवराज इन्द्रने उनके चरणोंमें प्रणाम किया तथा उनका वचन सुननेके लिये वे दत्तचित्त होकर खड़े हो गये। तब यज्ञसभामें आये हुए मुनि इन्द्रद्वारा की हुई रमापति भगवान् विष्णुकी यह स्तुति सुनकर भगवद्भक्तिकी प्रशंसा करते हुए उन्हें साधुवाद देने लगे। नारदजी कहते हैं- मुनियोंद्वारा त्रिलोकीसे अतीत नित्य धामकी प्राप्ति करानेवाली तथा सबके सेवन करनेयोग्य अपनी भक्तिका समर्थन सुनकर सम्पूर्ण जगत्के गुरु भगवान् श्रीहरि उस समाजके भीतर इन्द्रसे मधुर वाणीमें बोले। श्रीभगवान्ने कहा- देवराज! ये मुनि परम ज्ञानी हैं। अतः यदि ये मेरी भक्तिको गौरव देते और उसका सत्कार करते हैं तो यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है; क्योंकि ये तीनों लोकोंमें निवास करनेवाले प्राणियोंको उपदेश देनेवाले हैं। ये ही सदा नष्ट हुए वैदिक मार्गको पुनः स्थापित करते हैं। यद्यपि तुम स्वर्गके भोगोंमें आसक्त थे, तथापि जो भक्तिपूर्वक मेरी शरणमें आ गये-इसमें कोई आश्चर्य नहीं है; क्योंकि देवगुरु बृहस्पति-जैसे महात्मा तुम्हारे गुरु हैं। सुरश्रेष्ठ । तुम बहुत-सी दक्षिणावाले यज्ञोंसे मेरा यजन करो, किन्तु मनमें कोई कामना न रखो। इससे तुम तुरंत ही मेरे समीपवर्ती पद - परम धामको प्राप्त होओगे। तुम प्रत्येक यज्ञमें रत्नोंके अनेक प्रस्थ (ढेर) दान करो; फिर इसी नामसे यह स्थान इन्द्रप्रस्थ कहलायेगा। महादेवजी ! आप यहीं काशी और शिवकाञ्ची की स्थापना कीजिये और पार्वती जी के साथ सदा इस तीर्थ में निवास कीजिये। बृहस्पति जी! आप भी यहाँ निगमोद्बोधक तीर्थ की स्थापना कीजिये। यहाँ स्रान करनेसे पूर्वजन्मकी स्मृति और परमात्मा का ज्ञान प्राप्त हो। मैं भी यहाँ परम मनोहर द्वारकापुरी, अयोध्यापुरी, मधुवन और बदरिकाश्रमकी स्थापना करता हूँ तथा सदा यहाँ उपस्थित रहूँगा।

इन्द्र ! हरिद्वार और पुष्कर नामक जो दो श्रेष्ठ तीर्थ हैं, उनको भी मैं तुम्हारे हितकी कामनासे यहाँ स्थापित करता हूँ। नैमिषारण्य, कालञ्जरगिरि तथा सरस्वतीके तटपर भी जितने तीर्थ हैं, उन सबकी मैं यहाँ स्थापना करता हूँ। नारदजी कहते हैं- राजा शिबि ! श्रीहरिके ये कल्याणमय वचन सुनकर सबने वैसा ही किया। अब यह स्थान सम्पूर्ण तीर्थोंका स्वरूप बन गया, अतः देवराज इन्द्रने सुवर्णके यूपोंसे सुशोभित अनेक यज्ञोंद्वारा पुनः भगवान् लक्ष्मीपतिका यजन किया और भगवान्‌के सामने ही ब्राह्मणोंको रत्नोंके कितने ही प्रस्थ दान किये। दान देते समय उन्होंने केवल यही उद्देश्य रखा कि मुझपर सर्वात्मा नारायण सन्तुष्ट हों। तभीसे यह तीर्थ इन्द्रप्रस्थ कहलाता है। इन्द्रने यहाँ सुवर्ण-यूपोंसे सुशोभित यज्ञोंका विधिपूर्वक अनुष्ठान पूर्ण किया और भगवान् विष्णु आदि देवताओंकी पूजा करके उन्हें विदा किया। फिर ब्रह्माजीके पुत्र वसिष्ठ आदि ऋत्विजोंको धन आदिके द्वारा सन्तुष्ट करके बृहस्पतिको आगे करके इन्द्र स्वर्गलोकको चले गये। राजन् ! वहाँ भगवान्‌की भक्तिसे युक्त हो इन्द्रने राज्य किया और पुण्य क्षीण होनेपर पुनः हस्तिनापुरमें जन्म लिया। वहाँ शिवशर्मा नामक एक ब्राह्मण थे, जो वेद- वेदाङ्गोंके पारङ्गत विद्वान् थे। उनकी पत्नीका नाम गुणवती था। भगवान् विष्णुके सेवक देवराज इन्द्र उसीके गर्भसे उत्पन्न हुए। शिवशर्मान ज्यौतिषियोंको बुलवाया। ज्यौतिषी लग्न देखकर उसका फल बतलाने लगे- 'शिवशर्माजी ! आपका यह बालक भगवान् विष्णुका प्रिय भक्त होगा तथा आपके कुलका उद्धार करेगा।' ज्यौतिषियोंका यह शान्तिदायक वचन सुनकर शिवशमनि अपने पुत्रका नाम विष्णुशर्मा रखा और उन्हें धन देकर विदा किया।

शिवशर्मा बड़े बुद्धिमान् थे। वे मन-ही-मन सोचने लगे- 'मेरा जीवन धन्य है; क्योंकि मेरा पुत्र भगवान् विष्णुका भक्त होगा।' मनमें ऐसी ही बात विचारते हुए शिवशर्मान किसी अच्छे दिनको श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके द्वारा शिशुके जात-कर्म आदि संस्कार कराये। जब सात वर्ष व्यतीत हो गये और आठवाँ वर्ष आ लगा तब उन्होंने अपने पुत्रका उपनयन संस्कार किया। इसके बाद बारह वर्षोंतक उसे अङ्गोंसहित वेद पढ़ाये। तत्पश्चात् शिवशर्माने पुत्रका विवाह कर दिया। बुद्धिमान् विष्णुशर्मान अपनी पत्नीसे एक पुत्र उत्पन्न करके अपने विषय-वासनारहित मनको तीर्थयात्रामें लगाया और पिताके पास जाकर उनके दोनों चरणोंमें प्रणाम किया। तत्पश्चात् महाप्राज्ञ विष्णुशर्मा इस प्रकार बोले- 'पिताजी ! मुझे आज्ञा दीजिये। मैं सत्सङ्ग प्रदान करने वाले तृतीय आश्रमको स्वीकार करके अब श्रीविष्णुकी आराधना करूँगा। स्त्री, गृह, धन, सन्तान और सुहृद् ये सभी जलमें उठनेवाले बुद्बुदोंकी तरह क्षणभङ्गुर हैं; अतः विद्वान् पुरुष इनमें आसक्त नहीं होता। मैंने वेदोंके स्वाध्यायसे और सन्तानोत्पत्तिके द्वारा क्रमशः ऋषि ऋण और पितृ ऋणसे उद्धार पा लिया है। अब तीर्थोंमें रहकर निष्कामभावसे भगवान् केशवकी आराधना करना चाहता हूँ। गुणमय पदार्थोकी आसक्तिका त्याग करके जबतक प्रारब्ध शेष है, किसी उत्तम तीर्थमें रहनेका विचार करता हूँ।' शिवशर्माने कहा- बेटा। मेरे लिये भी अहङ्कारशून्य होकर चतुर्थ आश्रममें प्रवेश करनेका समय आ गया है, अतः मैं भी विषयोंको विषकी भाँति त्यागकर श्रीकेशवरूपी अमृतका सेवन करूँगा।

अब मेरी वृद्धावस्था आ गयी, अतः घरमें मेरा मन नहीं लगता। तुम्हारा छोटा भाई सुशर्मा कुटुम्बका पालन पोषण करेगा। हम दोनों श्रीहरिके चरण-कमलोंका चिन्तन करते हुए अब यहाँसे चल दें। श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! ऐसा निश्चय करके वे दोनों मुमुक्षु पिता-पुत्र अन्धकारपूर्ण आधी रातके समय घरसे चल दिये और घूमते हुए इस परम कल्याणदायक तीर्थ इन्द्रप्रस्थमें आये। यहाँ अपने पूर्वजन्मके किये हुए यज्ञयूपोंको देखकर विष्णुशर्माको श्रीहरिके समागमका स्मरण हो आया। उन्होंने अपने पितासे कहा- 'पिताजी ! मैं पूर्वजन्ममें इन्द्र था। मैंने ही भगवान् विष्णुको प्रसन्न करनेकी इच्छासे यहाँ यज्ञ किये थे। यहीं मेरे ऊपर भक्तवत्सल भगवान् केशव प्रसन्न हुए थे। मैंने रत्नोंके प्रस्थ दान करके यहाँ ब्राह्मणों और सप्तर्षियोंको सन्तुष्ट किया था। उन्होंने ही मुझे विष्णुभक्तिकी प्राप्ति तथा इस जन्ममें मोक्ष होनेका आशीर्वाद दिया था। इस तीर्थको सर्वतीर्थमय बनाकर इन्द्रप्रस्थ नाम दिया गया था। उन मुनिवरोंने इसी स्थानपर मेरी मृत्यु होनेकी बात बतायी है और अन्तमें भगवान्‌के परमधामकी प्राप्ति होनेका आश्वासन दिया है। ये सब बातें मुझे इस समय याद आ रही हैं। यह निगमोद्बोधक नामक तीर्थ है, जिसे मेरे गुरु बृहस्पतिजीने स्थापित किया था। सप्ततीर्थ और निगमोद्बोध - इन दो तीर्थोक बीचमें देवताओंने इस इन्द्रप्रस्थनामक महान् क्षेत्रकी स्थापना की है। पिताजी ! यह पूर्वसे पश्चिमकी ओर एक योजन चौड़ा है और यमुनाके दक्षिण तटपर चार योजनकी लंबाईमें फैला हुआ है। महर्षियोंने इन्द्रप्रस्थकी इतनी ही सीमा बतायी है।

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