वृन्दावन और श्री कृष्ण का महिमा,Vrindavan and Shri Krishna Mahima

वृन्दावन और श्री कृष्ण का महिमा,

ऋषियोंने कहा- सूतजी! महाराज! हमने आपके मुखसे रामाश्वमेधकी कथा अच्छी तरह सुन ली; अब परमात्मा श्रीकृष्णके माहात्म्यका वर्णन कीजिये। सूतजी बोले - महर्षियो ! जिनका हृदय भगवान् शङ्करके प्रेममें डूबा रहता है, वे पार्वती देवी एक दिन अपने पतिको प्रेमपूर्वक नमस्कार करके इस प्रकार बोलीं- 'प्रभो! वृन्दावनका माहात्म्य अथवा अद्भुत रहस्य क्या है, उसे मैं सुनना चाहती हूँ ?' महादेवजीने कहा- देवि ! मैं यह बता चुका हूँ कि वृन्दावन ही भगवान्‌का सबसे प्रियतम धाम है। वह गुह्यसे भी गुह्य, उत्तम-से-उत्तम और दुर्लभसे भी दुर्लभ है। तीनों लोकोंमें अत्यन्त गुप्तस्थान है। बड़े-बड़े देवेश्वर भी उसकी पूजा करते हैं। ब्रह्मा आदि भी उसमें रहनेकी इच्छा करते हैं। वहाँ देवता और सिद्धोंका निवास है। योगीन्द्र और मुनीन्द्र आदि भी सदा उसके ध्यानमें तत्पर रहते हैं। श्रीवृन्दावन बहुत ही सुन्दर और पूर्णानन्दमय रसका आश्रय है। वहाँकी भूमि चिन्तामणि है, और जल रससे भरा हुआ अमृत है। वहाँके पेड़ कल्पवृक्ष हैं, जिनके नीचे झुंड-की-झुंड कामधेनु गौएँ निवास करती हैं। वहाँकी प्रत्येक स्त्री लक्ष्मी और हरेक पुरुष विष्णु हैं; क्योंकि वे लक्ष्मी और विष्णुके दशांशसे प्रकट हुए हैं। उस वृन्दावनमें सदा श्याम तेज विराजमान रहता है, जिसकी नित्य-निरन्तर किशोरावस्था (पंद्रह वर्षकी उम्र) बनी रहती है।


वह आनन्दका मूर्तिमान् विग्रह है। उसमें संगीत, नृत्य और वार्तालाप आदिकी अद्भुत योग्यता है। उसके मुखपर सदा मन्द मुस्कानकी छटा छायी रहती है। जिनका अन्तःकरण शुद्ध है, जो प्रेमसे परिपूर्ण हैं, ऐसे वैष्णवजन ही उस वनका आश्रय लेते हैं। वह वन पूर्ण ब्रह्मानन्दमें निमग्न है। वहाँ ब्रह्मके ही स्वरूपकी स्फुरणा होती है। वास्तवमें वह वन ब्रह्मानन्दमय ही है। वहाँ प्रतिदिन पूर्ण चन्द्रमाका उदय होता है। सूर्यदेव अपनी मन्द रश्मियोंके द्वारा उस वनकी सेवा करते हैं। वहाँ दुःखका नाम भी नहीं है। उसमें जाते ही सारे दुःखोंका नाश हो जाता है। वह जरा और मृत्युसे रहित स्थान है। वहाँ क्रोध और मत्सरताका प्रवेश नहीं है। भेद और अहङ्कारकी भी वहाँ पहुँच नहीं होती। वह पूर्ण आनन्दमय अमृत-रससे भरा हुआ अखण्ड प्रेमसुखका समुद्र है, तीनों गुणोंसे परे है और महान् प्रेमधाम है। वहाँ प्रेमकी पूर्णरूपसे अभिव्यक्ति हुई है। जिस वृन्दावनके वृक्ष आदिने भी पुलकित होकर प्रेमजनित आनन्दके आँसू बरसाये हैं; वहाँके चेतन वैष्णवोंकी स्थितिके सम्बन्धमें क्या कहा जा सकता है ? भगवान् श्रीकृष्णकी चरण-रजका स्पर्श होनेके कारण वृन्दावन इस भूतलपर नित्य धामके नामसे प्रसिद्ध है। वह सहस्रदल-कमलका केन्द्रस्थान है। उसके स्पर्शमात्रसे यह पृथ्वी तीनों लोकोंमें धन्य समझी जाती है। 

भूमण्डलमें वृन्दावन गुह्यसे भी गुह्यतम, रमणीय, अविनाशी तथा परमानन्दसे परिपूर्ण स्थान है। वह गोविन्दका अक्षयधाम है। उसे भगवान्‌के स्वरूपसे भिन्न नहीं समझना चाहिये। वह अखण्ड ब्रह्मानन्दका आश्रय है। जहाँकी धूलिका स्पर्श होनेमात्रसे मोक्ष हो जाता है, उस वृन्दावनके माहात्म्यका किस प्रकार वर्णन किया जा सकता है। इसलिये देवि! तुम सम्पूर्ण चित्तसे अपने हृदयके भीतर उस वृन्दावनका चिन्तन करो तथा उसकी विहारस्थलियोंमें किशोरविग्रह श्रीकृष्णचन्द्रका ध्यान करती रहो। पहले बता आये हैं कि वृन्दावन सहस्रदल-कमलका केन्द्रस्थान है। कलिन्द-कन्या यमुना उस कमल-कर्णिकाकी प्रदक्षिणा किया करती हैं। उनका जल अनायास ही मुक्ति प्रदान करनेवाला और गहरा है। वह अपनी सुगन्धसे मनुष्योंका मन मोह लेता है। उस जलमें आनन्ददायिनी सुधासे मिश्रित घनीभूत मकरन्द (रस) की प्रतिष्ठा है। पद्म और उत्पल आदि नांना प्रकारके पुष्पोंसे यमुनाका स्वच्छ सलिल अनेक रंगका दिखायी देता है। अपनी चञ्चल तरङ्गोंके कारण वह जल अत्यन्त मनोहर एवं रमणीय प्रतीत होता है।

पार्वतीजीने पूछा- दयानिधे ! भगवान् श्रीकृष्णका आश्चर्यमय सौन्दर्य और श्रीविग्रह कैसा है, मैं उसे सुनना चाहती हूँ; कृपया बतलाइये । महादेवजीने कहा- देवि ! परम सुन्दर वृन्दावनके मध्यभागमें एक मनोहर भवनके भीतर अत्यन्त उज्ज्वल योगपीठ है। उसके ऊपर माणिक्यका बना हुआ सुन्दर सिंहासन है, सिंहासनके ऊपर अष्टदल कमल है, जिसकी कर्णिका अर्थात् मध्यभागमें सुखदायी आसन लगा हुआ है; वही भगवान् श्रीकृष्णका उत्तम स्थान है। उसकी महिमाका क्या वर्णन किया जाय? वहीं भगवान् गोविन्द विराजमान होते हैं। वैष्णववृन्द उनकी सेवामें लगा रहता है। भगवान्‌का व्रज, उनकी अवस्था और उनका रूप- ये सभी दिव्य हैं। श्रीकृष्ण ही वृन्दावनके अधीश्वर है, वे ही व्रजके राजा हैं। उनमें सदा षड्विध ऐश्वर्य विद्यमान रहते हैं। वे व्रजकी बालक-बालिकाओंके एकमात्र प्राण-वल्लभ हैं और किशोरावस्थाको पार करके यौवनमें पदार्पण कर रहे हैं। उनका शरीर अद्भुत है, वे सबके आदि कारण है, किन्तु उनका आदि कोई भी नहीं है। वे नन्दगोपके प्रिय पुत्ररूपसे प्रकट हुए हैं; परन्तु वास्तवमें अजन्मा एवं नित्य ब्रह्म हैं, जिन्हें वेदकी श्रुतियाँ सदा ही खोजती रहती हैं।

उन्होंने गोपीजनोंका चित्त चुरा लिया है। वे ही परमधाम हैं। उनका स्वरूप सबसे उत्कृष्ट है। उनका श्रीविग्रह दो भुजाओंसे सुशोभित है। वे गोकुलके अधिपति हैं। ऐसे गोपीनन्दन श्रीकृष्णका इस प्रकार ध्यान करना चाहिये- भगवान्‌की कान्ति अत्यन्त सुन्दर और अवस्था नूतन है। वे बड़े स्वच्छ दिखायी देते हैं। उनके शरीरकी आभा श्याम रङ्गकी है, जिसके कारण उनकी झाँकी बड़ी मनोहर जान पड़ती है। उनका विग्रह नूतन मेघ-मालाके समान अत्यन्त स्निग्ध है। वे कानोंमें मनोहर कुण्डल धारण किये हुए हैं। उनकी कान्ति खिले हुए नील कमलके समान जान पड़ती है। उनका स्पर्श सुखद है। वे सबको सुख पहुँचानेवाले हैं। वे अपनी साँवली छटासे मनको मोहे लेते हैं। उनके केश बहुत ही चिकने, काले और घुँघराले हैं। उनसे सब प्रकारकी सुगन्ध निकलती रहती है। केशोंके ऊपर ललाटके दक्षिण भागमें श्याम रङ्गकी चूड़ाके कारण वे अत्यन्त मनोहर जान पड़ते हैं। नाना रंगके आभूषण धारण करनेसे उनकी दीप्ति बड़ी उज्ज्वल दिखायी देती है। सुन्दर मोरपल उनके मस्तककी शोभा बढ़ाता है। उनकी सज-धज बड़ी सुन्दर है। वे कभी तो मन्दारपुष्पोंसे सुशोभित गोपुच्छके आकारकी बनी हुई चूड़ा (चोटी) धारण करते हैं, कभी मोरपलके मुकुटसे अलङ्कृत होते हैं और कभी अनेकों मणि-माणिक्योंके बने हुए सुन्दर किरीटोंसे विभूषित होते हैं। चञ्चल अलकावली उनके मस्तककी शोभा बढ़ाती है।

उनका मनोहर मुख करोड़ों चन्द्रमाओंके समान कान्तिमान् है। ललाटमें कस्तूरीका तिलक है, साथ ही सुन्दर गोरोचनकी बिंदी भी शोभा दे रही है। उनका शरीर इन्दीवरके समान स्निग्ध और नेत्र कमल-दलकी भाँति विशाल हैं। वे कुछ-कुछ भौहें नचाते हुए मन्द मुसकानके साथ तिरछी चितवनसे देखा करते हैं। उनकी नासिकाका अग्रभाग रमणीय सौन्दर्यसे युक्त है, जिसके कारण वे अत्यन्त मनोहर जान पड़ते हैं। उन्होंने नासाग्रभागमें गजमोती धारण करके उसकी कान्तिसे त्रिभुवनका मन मोह लिया है। उनका नीचेका ओठ सिन्दूरके समान लाल और चिकना है, जिससे उनकी मनोहरता और भी बढ़ गयी है। वे अपने कानोंमें नाना प्रकारके वर्णांस सुशोभित सुवर्णनिर्मित मकराकृत कुण्डल पहने हुए हैं। उन कुण्डलोंकी किरण पड़नेसे उनका सुन्दर कपोल दर्पणके समान शोभा पा रहा है। वे कानोंमें पहने हुए कमल, मन्दारपुष्प और मकराकार कुण्डलसे विभूषित हैं। उनके वक्षःस्थलपर कौस्तुभमणि और श्रीवत्सचिह्न शोभा पा रहे हैं। गलेमें मोतियोंका हार चमक रहा है। उनके विभिन्न अङ्गोंमें दिव्य माणिक्य तथा मनोहर सुवर्णमिश्रित आभूषण सुशोभित हैं। हाथोंमें कड़े, भुजाओंमें बाजूबन्द तथा कमरमें करधनी शोभा दे रही है। सुन्दर मञ्जीरकी सुषमासे चरणोंकी श्री बहुत बढ़ गयी है, जिससे भगवान्‌का श्रीविग्रह अत्यन्त शोभायमान दिखायी दे रहा है। श्रीअङ्गोंमें कर्पूर, अगरु, कस्तूरी और चन्दन आदि सुगन्धित द्रव्य शोभा पा रहे हैं। गोरोचन आदिसे मिश्रित दिव्य अङ्गरागोंद्वारा विचित्र पत्र-भङ्गी (रंग-बिरंगे चित्र) आदिकी रचना की गयी है। कटिसे लेकर पैरोंके अग्रभागतक चिकने पीताम्बरसे शोभायमान है।

भगवान्‌का नाभि-कमल गम्भीर है, उसके नीचेकी रोमावलियोंतक माला लटक रही है। उनके दोनों घुटने सुन्दर गोलाकार हैं तथा कमलोंकी शोभा धारण करनेवाले चरण बड़े मनोहर जान पड़ते हैं। हाथ और पैरोंके तलुवे ध्वज, वज्र, अङ्कुश और कमलके चिह्नसे सुशोभित है तथा उनके ऊपर नखरूपी चन्द्रमाकी किरणावलियोंका प्रकाश पड़ रहा है। सनक-सनन्दन आदि योगीश्वर अपने हृदयमें भगवान्‌के इसी स्वरूपकी झाँकी करते हैं। उनकी त्रिभङ्गी छवि है। उनके श्रीअङ्ग इतने सुन्दर, इतने मनोहर हैं, मानो सृष्टिकी समस्त निर्माण सामग्रीका सार निकालकर बनाये गये हों। जिस समय वे गर्दन मोड़कर खड़े होते हैं, उस समय उनका सौन्दर्य इतना बढ़ जाता है कि उसके सामने अनन्तकोटि कामदेव लज्जित होने लगते हैं। बायें कंधेपर झुका हुआ उनका सुन्दर कपोल बड़ा भला मालूम होता है। उनके सुवर्णमय कुण्डल जगमगाते रहते हैं। वे तिरछी चितवन और मंद मुसकानसे सुशोभित होनेवाले करोड़ों कामदेवोंसे भी अधिक सुन्दर हैं। सिकोड़े हुए ओठपर वंशी रखकर बजाते हैं और उसकी मीठी तानसे त्रिभुवनको मोहित करते हुए सबको प्रेम-सुधाके समुद्रमें निमग्न कर रहे हैं।

पार्वतीजीने कहा- देवदेवेश्वर! आपके उपदेशसे यह ज्ञात हुआ कि गोविन्द नामसे प्रसिद्ध भगवान् श्रीकृष्ण ही इस जगत्के परम कारण हैं। वे ही परमपद हैं, वृन्दावनके अधीश्वर हैं तथा नित्य परमात्मा हैं। प्रभो! अब मैं यह सुनना चाहती हूँ कि श्रीकृष्णका गूढ रहस्य, माहात्म्य और सुन्दर ऐश्वर्य क्या है; आप उसका वर्णन कीजिये। महादेव जी ने कहा- देवि ! जिनके चन्द्र-तुल्य चरण-नखोंकी किरणोंके माहात्यका भी अन्त नहीं है, उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णकी महिमाके सम्बन्धमें मैं कुछ बातें बता रहा हूँ, तुम आनन्दपूर्वक श्रवण करो। सृष्टि, पालन और संहारकी शक्तिसे युक्त, जो ब्रह्मा आदि देवता है, वे सब श्रीकृष्णके ही वैभव हैं। उनके रूपका जो करोड़वाँ अंश है, उसके भी करोड़ अंश करनेपर एक-एक अंश कलासे असंख्य कामदेवोंकी उत्पत्ति होती है, जो इस ब्रह्माण्डके भीतर व्याप्त होकर जगत्‌के जीवोंको मोहमें डालते रहते हैं। भगवान्‌के श्रीविग्रहकी शोभामयी कान्तिके कोटि-कोटि अंशसे चन्द्रमाका आविर्भाव हुआ है। श्रीकृष्णके प्रकाशके करोड़वें अंशसे जो किरणें निकलती हैं, वे ही अनेकों सूर्यकि रूपमें प्रकट होती हैं। उनके साक्षात् श्रीअङ्गसे जो रश्मियाँ प्रकट होती हैं, वे परमानन्दमय रसामृतसे परिपूर्ण हैं, परम आनन्द और परम चैतन्य ही उनका स्वरूप है। उन्हींसे इस विश्वके ज्योतिर्मय जीव जीवन धारण करते हैं, जो भगवान्‌के ही कोटि-कोटि अंश हैं। उनके युगल चरणारविन्दोंके नखरूपी चन्द्रकान्तमणिसे निकलनेवाली प्रभाको ही सबका कारण बताया गया है। वह कारण-तत्त्व वेदोंके लिये भी दुर्गम्य है। विश्वको विमुग्ध करनेवाले जो नाना प्रकारके सौरभ (सुगन्ध) हैं, वे सब भगवद्विग्रहकी दिव्य सुगन्धके अनन्तकोटि अंशमात्र हैं। भगवान्‌के स्पर्शसे ही पुष्पगन्ध आदि नाना सौरभोंका प्रादुर्भाव होता है। श्रीकृष्णकी प्रियतमा - उनकी प्राणवल्लभा श्रीराधा है, वे ही आद्या प्रकृति कही गयी है।

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