व्रत, दान और श्राद्ध आदि के लिये तिथियों का निर्णय,Vrat, Daan Aur Shraaddh Aadi Ke Liye Tithiyon Ka Nirnay
व्रत, दान और श्राद्ध आदि के लिये तिथियों का निर्णय
श्रीसनकजी कहते हैं- ब्रह्मन् ! श्रुतियों और स्मृतियोंमें कहे हुए जो व्रत, दान और अन्य वैदिक कर्म हैं वे यदिअनिर्णीत (अनिश्चित) तिथियोंमें किये जायँ तो उनका कोई फल नहीं होता। एकादशी, अष्टमी, षष्ठी, पूर्णिमा, चतुर्दशी, अमावास्या और तृतीया-ये पर-तिथिसे विद्ध (संयुक्त) होनेपर उपवास और व्रत आदिमें श्रेष्ठ मानी जाती हैं। पूर्व-तिथिसे संयुक्त होनेपर ये व्रत आदिमें ग्राह्य नहीं होती हैं। कोई-कोई आचार्य कृष्णपक्षमें सप्तमी, चतुर्दशी, तृतीया और नवमी को पूर्वतिथिसे विद्ध होनेपर भी श्रेष्ठ कहते हैं। परंतु सम्पूर्ण व्रत आदिमें शुक्लपक्ष ही उत्तम माना गया है और अपराह्नकी अपेक्षा पूर्वाह्नको व्रतमें ग्रहण करने योग्य काल बताया गया है; क्योंकि वह उससे अत्यन्त श्रेष्ठ है। रात्रि व्रतमें सदा वही तिथि ग्रहण करनी चाहिये जो प्रदोषकालतक मौजूद रहे। दिनके व्रतमें दिनव्यापिनी तिथियाँ ही व्रतादि कर्म करनेके लिये पवित्र मानी गयी हैं। इसी प्रकार रात्रि व्रतोंमें तिथियोंके साथ रात्रिका संयोग बड़ा श्रेष्ठ माना गया है। श्रवण द्वादशीके व्रतमें सूर्योदयव्यापिनी द्वादशी ग्रहण करनी चाहिये। सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहणमें जबतक ग्रहण लगा रहे, तबतककी तिथि जप आदिमें ग्रहण करने योग्य है।
अब सम्पूर्ण संक्रान्तियोंमें होनेवाले पुण्यकालका वर्णन किया जाता है। सूर्यकी संक्रान्तियोंमें स्नान, दान और जप आदि करनेवालोंको अक्षय फल प्राप्त होता है। इन संक्रान्तियोंमें कर्ककी संक्रान्तिको दक्षिणायन संक्रम जानना चाहिये। कर्ककी संक्रान्तिमें विद्वान् लोग पहलेकी तीस घड़ीको पुण्यकाल मानते हैं। वृष, वृश्चिक, सिंह और कुम्भ राशिकी संक्रान्तियोंमें पहलेके आठ मुहूर्त (सोलह घड़ी) स्नान और जप आदिमें ग्राह्य हैं। और तुला तथा मेषकी संक्रान्तियोंमें पूर्व और परकी दस-दस घड़ियाँ स्नान आदिके लिये श्रेष्ठ मानी गयी हैं। इनमें दिया हुआ दान अक्षय होता है। ब्रह्मन् ! कन्या, मिथुन, मीन और धनकी संक्रान्तियोंमें बादकी सोलह घटिकाएँ पुण्यदायक जाननी चाहिये। मकर संक्रान्तिको उत्तरायण संक्रम कहा गया है। इसमें पूर्वकी चालीस और बादकी तीस घड़ियाँ स्नान दान आदिके लिये पवित्र मानी गयी हैं। विप्रवर! यदि सूर्य और चन्द्रमा ग्रहण लगे हुए ही अस्त हो जायँ तो दूसरे दिन उनका शुद्ध मण्डल देखकर ही भोजन करना चाहिये।
धर्मकी इच्छा रखनेवाले विद्वानोंने अमावास्या दो प्रकारकी बतायी है- सिनीवाली और कुहू। जिसमें चन्द्रमाकी कला देखी जाती है, वह चतुर्दशीयुक्त अमावास्या सिनीवाली कही जाती है और जिसमें चन्द्रमाकी कलाका सर्वथा क्षय हो जाता है, वह चतुर्दशीयुक्त अमावास्या कुहू मानी गयी है। अग्रिहोत्री द्विजोंको श्राद्धकर्ममें सिनीवाली अमावास्याको ही ग्रहण करना चाहिये तथा स्त्रियों, शूद्रों और अग्निरहित द्विजोंको कुहूमें श्राद्ध करना चाहिये। यदि अमावास्या तिथि अपराह्नकालमें व्याप्त हो तो क्षय (मृत्युकर्म) में पूर्व-तिथि और वृद्धि (जन्म-कर्म) में उत्तर-तिथिको ग्रहण करना चाहिये। यदि अमावास्या मध्याह्नकालके बाद प्रतीत हो तो शास्त्रकुशल साधु पुरुषोंने उसे भूतविद्धा (चतुर्दशीसे संयुक्त) कहा है। जब तिथिका अत्यन्त क्षय होनेसे दूसरे दिन वह अपराह्नव्यापिनी न हो तब (पूर्व दिनकी) सायं कालव्यापिनी सिनीवाली तिथिको ही श्राद्धमें ग्रहण करना चाहिये। यदि तिथिकी अतिशय वृद्धि होनेपर वह दूसरे दिन अपराह्नकालतक चली गयी हो तो चतुर्दशी-विद्धा अमावास्याको त्याग दे और कुहूको ही श्राद्धकर्ममें ग्रहण करे। यदि अमावास्या तिथि एक मध्याह्नसे लेकर दूसरे मध्याह्नतक व्याप्त हो तो इच्छानुसार पूर्व या पर दिनकी तिथिको ग्रहण करे।
मुनिश्रेष्ठ ! अब मैं सम्पूर्ण पर्वोपर होनेवाले अन्वाधान (अग्निस्थापन) का वर्णन करता हूँ। प्रतिपदाके दिन याग करना चाहिये। पर्वके अन्तिम चतुर्थांश और प्रतिपदाके प्रथम तीन अंशको मनीषी पुरुषोंने यागका समय बताया है। यागका आरम्भ प्रातःकाल करना चाहिये। विप्रवर! यदि अमावास्या और पूर्णिमा दोनों मध्याह्नकालमें व्याप्त हों तो दूसरे ही दिन यागका मुख्य काल नियत किया जाता है। यदि अमावास्या और पूर्णिमा दूसरे दिन सङ्गवकाल (प्रातः कालसे छः घड़ी) के बाद हो तो दूसरे ही दिन पुण्यकाल होता है। तिथिक्षयमें भी ऐसी ही व्यवस्था जाननी चाहिये। सभी लोगोंको दशमीरहित एकादशी तिथि व्रतमें ग्रहण करनी चाहिये। दशमीयुक्त एकादशी तीन जन्मोंके कमाये हुए पुण्यका नाश कर देती है। यदि एकादशी द्वादशीमें एक कला भी प्रतीत हो और सम्पूर्ण दिन द्वादशी हो और द्वादशी भी त्रयोदशीमें मिली हुई हो तो दूसरे दिनकी तिथि (द्वादशी) ही उत्तम मानी गयी है। यदि सम्पूर्ण दिन शुद्ध एकादशी हो और द्वादशीमें भी उसका संयोग प्राप्त होता हो तथा रात्रिके अन्तमें त्रयोदशी आ जाय तो उस विषयमें निर्णय बतलाता हूँ। पहले दिनकी एकादशी गृहस्थोंको करनी चाहिये और दूसरे दिनकी विरक्तोंको।
यदि कलाभर भी द्वादशी न रहनेसे पारणाका अवसर न मिलता हो तो उस दशामें दशमीविद्धा एकादशीको भी उपवास-व्रत करना चाहिये। यदि शुक्ल या कृष्णपक्षमें दो एकादशियाँ हों तो पहली गृहस्थोंके लिये और दूसरी विरक्त यतियोंके लिये ग्राह्य मानी गयी है। यदि दिनभर दशमीयुक्त एकादशी हो और दिनकी समाप्तिके समय द्वादशी में भी कुछ एकादशी हो तो सबके लिये दूसरे ही दिन (द्वादशी) व्रत बताया गया है। यदि दूसरे दिन द्वादशी न हो तो पहले दिनकी दशमीविद्धा एकादशी भी व्रतमें ग्राह्य है। और यदि दूसरे दिन द्वादशी है तो पहले दिनकी दशमीविद्धा एकादशी भी निषिद्ध ही है (इसलिये ऐसी परिस्थितिमें द्वादशीको व्रत करना चाहिये)। यदि एक ही दिन एकादशी, द्वादशी तथा रातके अन्तिम भागमें त्रयोदशी भी आ जाय तो त्रयोदशीमें पारणा करनेपर बारह द्वादशियोंका पुण्य होता है। यदि द्वादशीके दिन कलामात्र ही एकादशी हो और त्रयोदशीमें द्वादशीका योग हो या न हो तो गृहस्थोंके पहले दिनकी विद्धा एकादशी भी व्रतमें ग्रहण करनी चाहिये। और विरक्त साधुओं तथा विधवाओंको दूसरे दिनकी तिथि (द्वादशी) स्वीकार करनी चाहिये। यदि पूरे दिनभर शुद्ध एकादशी हो, द्वादशीमें उसका तनिक भी योग न हो तथा द्वादशी त्रयोदशीमें संयुक्त हो तो वहाँ कैसे व्रत रहना चाहिये- इसका उत्तर देते हैं- गृहस्थोंको पूर्वकी (एकादशी) तिथिमें व्रती रहना चाहिये और विरक्त साधुओंको दूसरे दिनकी (द्वादशी) तिथिमें। कोई-कोई विद्वान् ऐसा कहते हैं कि सब लोगोंको दूसरे दिनकी तिथिमें ही भक्तिपूर्वक उपवास करना चाहिये।
जब एकादशी दशमीसे विद्ध हो, द्वादशीमें उसकी प्रतीति न हो और द्वादशी त्रयोदशीसे संयुक्त हो तो उस दशामें सबको शुद्ध द्वादशी तिथिमें उपवास करना चाहिये- इसमें संशय नहीं है। कुछ लोग पूर्व तिथिमें व्रत कहते हैं; किंतु उनका मत ठीक नहीं है। जो रविवारको दिनमें, अमावास्या और पूर्णिमाको रातमें, चतुर्दशी और अष्टमी तिथिको दिनमें तथा एकादशी तिथिको दिन और रात दोनोंमें भोजन कर लेता है, उसे प्रायश्चित्तरूपमें चान्द्रायण- व्रतका अनुष्ठान करना चाहिये। सूर्यग्रहण प्राप्तहोनेपर तीन पहर पहलेसे ही भोजन न करे। यदि कोई कर लेता है तो वह मदिरा पीनेवालेके समान होता है। मुनिश्रेष्ठ ! यदि अग्न्याधान और दर्शपौर्णमास आदि यागके बीच चन्द्रग्रहण अथवा सूर्यग्रहण हो जाय तो यज्ञकर्ता पुरुषोंको प्रायश्चित्त करना चाहिये। ब्रह्मन् ! चन्द्रग्रहणमें 'दशमे सोमः' 'आप्यायस्व' तथा 'सोमपास्ते' इन तीन मन्त्रोंसे हवन करें। और सूर्यग्रहण होनेपर हवन करनेके लिये 'उदुत्यं जातवेदसम्', 'आसत्येन', 'उद्वयं तमसः'- ये तीन मन्त्र बताये गये हैं। जो पण्डित इस प्रकार स्मृतिमार्गसे तिथिका निर्णय करके व्रत आदि करता है उसे अक्षय फल प्राप्त होता है। वेदमें जिसका प्रतिपादन किया गया है वह धर्म है। धर्मसे भगवान् विष्णु संतुष्ट होते हैं। अतः धर्मपरायण मनुष्य भगवान् विष्णुके परम धाममें जाते हैं। जो धर्माचरण करना चाहते हैं, वे साक्षात् भगवान् कृष्णके स्वरूप हैं। अतः संसाररूपी रोग उन्हें कोई बाधा नहीं पहुँचाता।
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