वर्तमान काल में श्री हनुमान की आराधना की आवश्यकता | Vartamaan Kaal Mein Shree Hanumaan Kee Aaraadhana Kee Aavashyakata

वर्तमान काल में श्री हनुमान की आराधना की आवश्यकता 

आज भारत में अर्थ-काम के धर्म-नियन्त्रित न होने से अमर्यादित एषणाएँ पल्लवित, पुष्पित एवं फलित हो रही हैं। आबाल-वृद्ध नर-नारी कामाचार, अभक्ष्यभक्षण आदि प्रवृत्तियोंमें फँसकर- विमोहित होकर व्यक्ति, समाज, देश एवं राष्ट्रके प्रति अपने कर्तव्यसे परिभ्रष्ट हो रहे हैं। जहाँ थोड़ी-बहुत धार्मिकता एवं आध्यात्मिकताके अंश विद्यमान भी हैं, वहाँ भी उनके आवरणमें दम्भ, पाखण्ड आदि दुष्प्रवृत्तियाँ कार्य कर रही हैं। इस विषम विमोहक दुःस्थितिमें अञ्जनी नन्दन, केसरी-कुमार बालब्रह्मचारी श्री हनुमानजी की उपासना परमावश्यक है; क्योंकि उनके चरित्रसे हमें ब्रह्मचर्य व्रत-पालन, चरित्र-रक्षण, बलं-बुद्धिका विकास, अपने इष्ट भगवान् श्रीरामके प्रति अभिमानरहित दास्य-भाव आदि गुणोंकी शिक्षा प्राप्त होती है।
'देवो भूत्वा देवं यजेत्' - यह उपासनाका मुख्य सिद्धान्त है और इसका 'उप' अर्थात् समीप, 'आसना' अर्थात् स्थित होना अर्थ है। जिस उपासनाद्वारा अपने इष्टदेवमें उनकी गुण-धर्म-रूप शक्तियोंमें सामीप्य सम्बन्ध स्थापित होकर तदाकारता हो जाय, अभेद-सम्बन्ध हो जाय, यही उसका तात्पर्य एवं उद्देश्य है।


आजकी इस विषम परिस्थितिमें मनुष्यमात्र के लिये, विशेषतया युव कों एवं बाल कों के लिये भगवान् हनुमान की उपासना अत्यन्त आवश्यक है। हनुमानजी बुद्धि-बल-वीर्य प्रदान करके भक्तों की रक्षा करते हैं। भूत, प्रेत, पिशाच, यक्ष, राक्षस आदि उनके नामोच्चारणमात्रसे ही भाग जाते हैं और उनके स्मरणमात्रसे अनेक रोगोंका प्रशमन होता है। मानसिक दुर्बलताओंके संघर्षमें उनसे सहायता प्राप्त होती है। गोस्वामी तुलसीदासजी को श्रीराम के दर्शनमें उन्हींसे सहायता प्राप्त हुई थी।
वे आज भी जहाँ श्रीराम-कथा होती है, वहाँ पहुँचते हैं और मस्तक झुकाकर, रोमाश-कण्टकित होकर, नेत्रोंमें अश्रु भरकर श्रीराम-कथाका सादर श्रवण करते हैं। इस प्रकार वे भगवद्भक्तों में अव्यक्त रूप से उपस्थित होकर उनकी भक्ति-भावनाओंका पोषण करते हैं। आज भी अधिकांश भक्तोंको उनके अनुग्रहका प्रसाद मिलता है। अतः उनकी कृपाकी उपलब्धिके लिये शास्त्रोंमें प्रतिपादित उपासना-पद्धतिके अनुसार, जिसमें श्रीहनुमदुपासना विस्तारसे वर्णित है, उपासनामें संलग्न होनेसे अनेकों प्रकारकी लौकिक-पारलौकिक सिद्धियाँ प्राप्त हो सकती हैं। भारतको समुत्रत बनानेके लिये भौतिक क्षेत्रमें भी अनेकों कार्य किये जा रहे है, किंतु जितना आध्यात्मिक पक्षपर बल दिया जाना चाहिये, उतना नहीं दिया जा रहा है। फलतः भौतिक समृद्धि मनुष्यके लिये वरदान न बनकर अभिशाप होने जा रही है। ऐसी परिस्थितिमें राष्ट्रको जिस आदर्शकी आवश्यकता है, वह मूर्तिमान् होकर हनुमच्चारित्रमें उपलब्ध होता है। हनुमानजी भगवत्तत्त्वविज्ञान, पराभक्ति और सेवाके ज्वलन्त उदाहरण है। विचारोंकी उत्तमताके साथ भगवद‌नुरक्ति और सेवा व्यक्तित्वके पूर्ण विकासकी द्योतक है, जो हनुमानजीके चरित्रमें देखी जा सकती हैं। भारतके भटकते हुए नवयुवकोंको हनुमानजीसे बहुत बड़ी प्रेरणा प्राप्त हो सकती है।
हनुमानजी बालब्रह्मचारी है। उनके ध्यान एवं ब्रह्मचर्यानुष्ठानसे निर्मल अन्तःकरणमें भक्तिका समुदय भली प्रकार होता है। हनुमानजीके चरित्रमें शक्तिसंचय, उसका सदुपयोग, भगवद्भक्ति, निरभिमानिता आदिका पूर्ण विकास होनेके कारण उनकी आराधनासे इन गुणोंकी उपलब्धि साधक युवकों एवं बालकोंको भी हो सकेगी।

सर्वगुणसम्पन्न श्रीहनुमान

समस्त भारतमें अञ्जनीनन्दन पवनतनय श्रीहनुमानजीका महत्त्व पूजा एवं उपासनाकी दृष्टिसे अप्रतिम है। श्रीहनुमानजीके उपासक, पूजक न केवल सनातनधर्मावलम्बी ही हैं, अपितु अन्य मतावलम्बी भी हैं। कतिपय ऐसे व्यक्तियोंसे मेरा सुपरिचय है, जो हनुमानजीके अनन्य उपासक हैं, यद्यपि उनका सम्बन्ध मूलतः जैनमत तथा आर्यसमाजसे है। शाक्त, शैव आदि सम्प्रदायोंके लोग भी श्रीहनुमानजीकी पूजा-अर्चना श्रद्धासे करते हैं। शास्त्रका सिद्धान्त है कि 'कार्य कारणमन्तरेण नोत्पद्यते' अर्थात् कोई भी कार्य कारणके बिना उत्पन्न नहीं होता। अतः श्रीहनुमानजीकी इस महती लोकप्रियताके मूलमें निश्चितरूपसे कोई प्रबल कारण छिपा हुआ है।
संस्कृत-वाङ्गयमें श्रीहनुमानजीकी कीर्तिवैजयन्ती सर्वत्र फहरा रही है। इन्हें शिवका अवतार माना जाता है। उत्सव एवं व्रत-सम्बन्धी प्रायः सभी निबन्ध-कथाओंमें, विशेषतः वायुपुराणमें इनके विषयमें स्पष्टरूपसे यह वचन प्राप्त होता है- 

आश्विनस्यासिते पक्षे स्वात्यां भौमे च मारुतिः ।
मेषलग्नेऽञ्जनागर्भात् स्वयं जातो हरः शिवः ।।

अर्थात् आश्विन (चान्द्रमास - कार्तिक) के कृष्णपक्षकी चतुर्दशी तिथिको स्वाती नक्षत्र और मेष लग्नमें माता अञ्जनाके गर्भसे स्वयं भगवान् शंकर ही प्रकट हुए।
किसी के व्यक्तित्व, स्वभाव, बल, पौरुष आदिका परिचय प्राप्त करनेके लिये उसके विषय में स्वयं का कथन, तत्कालीन व्यक्तियोंका वर्णन, उसके विरोधियोंके कथन आदि प्रधान साधन माने जाते हैं। इस दृष्टि से हमें श्री हनुमान जी के विषयमें विचार करने पर उन का लोकोत्तर एवं दिव्य स्वरूप स्पष्ट हो जाता है।

ऋक्षराज जाम्बवान्‌जी कहते हैं-

हनूमन् हरिराजस्य सुग्रीवस्य समो हासि । 
रामलक्ष्मणयोश्चापि तेजसा च बलेन च ॥

पक्षयोर्यद् बलं तस्य भुजवीर्यबलं तव । 
विक्रमश्चापि वेगश्च न ते तेनापहीयते ।।

बलं बुद्धिश्च तेजश्च सत्त्वं च हरिपुंगव । 
विशिष्टं सर्वभूतेषु किमात्मानं न बुध्यसे ।! 

हनुमानजी ! तुम वानरराजं सुग्रीवके तुल्य हो। यही नहीं, प्रत्युत तेज तथा बलमें तुम श्री राम चन्द्र जी और श्री लक्ष्मण जी के समान हो। गरुड़ जी के दोनों पंखों में जितना बल है, तुम्हारी दोनों भुजाओंमें भी उतना ही बल और पराक्रम है। अतः तुम्हारा विक्रम एवं वेग भी उनसे किसी प्रकार कम नहीं है। वानरश्रेष्ठ तुम्हारा बल, बुद्धि, तेज तथा सत्त्व (उत्साह) समस्त प्राणियों से विशिष्ट अर्थात् अधिक है। फिर तुम अपना स्वरूप क्यों नहीं पहचानते ?' श्रीजाम्बवान्‌ के उपर्युक्त वचन श्री हनुमान जी के बल, बुद्धि, तेज और सत्त्वके विषयमें कितना महत्त्वपूर्ण चित्र उपस्थित करते हैं

वानरराज सुग्रीव हनुमानजीसे कहते हैं-

न भूमौ नान्तरिक्षे वा नाम्बरे नामरालये। 
नाप्सु वा गतिभङ्गं ते पश्यामि हरिपुंगव ।।

सासुराः सहगन्धर्वाः सनागनरदेवताः । 
विदिताः सर्वलोकास्ते ससागरधराधराः ।।

गतिर्वेगश्च तेजश्च लाघवं च महाकपे । 
पितुस्ते सदृशं वीर मारुतस्य महौजसः॥

तेजसा वापि ते भूतं न समं भुवि विद्यते ।
तद् यथा लभ्यते सीता तत्त्वमेवानुचिन्तय।।

त्वय्येव हनुमन्नस्ति बलं बुद्धिः पराक्रमः ।
देशकालानुवृत्तिश्च नयश्च नयपण्डित ।।

'वानरश्रेष्ठ ! मैं देखता हूँ कि भूमि, अन्तरिक्ष, आकाश, अमरालय अथवा जलमें भी तुम्हारी गतिका अवरोध नहीं है। तुम असुर, गन्धर्व, नाग, नर, देवता, सागर और पर्वतोंसहित समस्त लोकोंको जानते हो। वीर महाकपे! गति, वेग, तेज और फुर्ती- ये सभी सगुण तुममें अपने महापराक्रमी पिता वायुके ही समान है। तुम्हारे समान इस पृथ्वीपर दूसरा कोई तेजस्वी नहीं है। अतएव वीर ! ऐसा प्रयल करो जिससे सीताका (शीघ्र) पता लग जाय। नीतिशास्त्रविशारद हनुमान ! तुममें बल, बुद्धि, विक्रम तथा देश एवं कालका अनुसरण और नीतिका ज्ञान भी पूर्णरूपसे है।'

महर्षि अगस्त्यसे भगवान् श्रीराघवेन्द्र कहते हैं-

अतुलं बलमेतद् वै वालिनो रावणस्य च।
न त्वेताभ्यां हनुमता समं त्वितिं मतिर्मम ।।

शौर्य दाक्ष्यं बलं धैर्यं प्राज्ञता नयसाधनम् ।
विक्रमश्च प्रभावश्च हनूमति कृतालयाः ॥

दृष्ट्दैव सागरं वीक्ष्य सीदन्तीं कपिवाहिनीम् ।
समाश्वास्य महाबाहुर्योजनानां शतं प्लुतः ।।

धर्षयित्वा पुरीं लङ्कां रावणान्तःपुरं तदा ।
दृष्टा सम्भाषिता चापि सीता ह्याश्वासिता तथा ।।

सेनाप्रगा मन्त्रिसुताः किंकरा रावणात्मजः । 
एते हनुमता तत्र एकेन विनिपातिताः ॥

भूयो बन्धाद् विमुक्तेन भाषयित्वा दशाननम् ।
लङ्का भस्मीकृता येन पावकेनैव मेदिनी ।।

न कालस्य न शक्रस्य न विष्णोर्वित्तपस्य च ।
कर्माणि तानि श्रूयन्ते यानि युद्धे हनूमतः ॥

एतस्य बाहुवीर्येण लङ्का सीता च लक्ष्मणः ।
प्राप्ता मया जयश्चैव राज्यं मित्राणि बान्धवाः ॥

हनूमान् यदि मे न स्याद् वानराधिपतेः सखा ।
प्रवृत्तिमपि को वेत्तुं जानक्याः शक्तिमान् भवेत् ॥

'यद्यपि वाली और रावणमें अतुल बल था, तथापि मेरी समझमें ये दोनों भी हनुमानजीके समान न थे। शौर्य, दक्षता, बल, धैर्य, प्राज्ञता, नीतिपूर्वक कार्य करनेकी क्षमता, पराक्रम तथा प्रभाव इन सभी सगुणों ने हनुमान जी के भीतर घर कर रखा है। सीताके अन्वेषणमें तत्पर वानरी सेना समुद्रको देखकर जब विकल हो रही थी, तब महावीर हनुमानने उसे आश्वासन दिया तथा वे सौ योजन समुद्रको लाँध गये। पुनः लंकापुरी की अधिष्ठात्री राक्षसी को परास्तकर उन्होंने रावण के अन्तःपुरको देखा, सीता का पता लगाया, उनसे वार्तालाप करके उन्हें ढाढस बँधाया। पुनः वीर हनुमानने अकेले ही रावणके सेनापतियों, मन्त्रिपुत्रों, किंकरोंका तथा रावण-पुत्र अक्षकुमारका वध किया। पश्चात् ब्रह्मास्त्रके बन्धनसे छूटकर उन्होंने रावणसे वार्तालाप करते हुए उसे फटकारा और अग्नि जैसे पार्थिव पदार्थोंको जलाती है, उसी प्रकार लंकापुरीको जलाकर भस्म कर दिया। युद्धके समय हनुमानजीने जो अद्वितीय पराक्रमके कार्य किये, वैसे काल, इन्द्र, विष्णु तथा कुबेरके भी नहीं सुने जाते। इन्हींके बाहुबलसे मैंने लंका, सीता, लक्ष्मण, राज्य, मित्र और बान्धवोंको प्राप्त किया है। अधिक क्या कहूँ, यदि वानराधिपति सुग्रीवके मित्र, श्रीहनुमानजी न होने, उनकी सहायता मुझे न मिलती तो सीताका पता भी कौन लगा सकता था ?'

श्री हनुमान जी लंका में रावण के अन्तःपुरमें जाकर वहां के दृश्य को देखनेके अनन्तर विचार करते हैं-

परदारावरोधस्य प्रसुप्तस्य निरीक्षणम् । 
इदं खलु ममात्यर्थं धर्मलोपं करिष्यति ।।

न हि मे परदाराणां दृष्टिर्विषयवर्तिनी ।
कामं दृष्टा मया सर्वा विश्वस्ता रावणस्त्रियः ।

न तु मे मनसा किंचिद् वैकृत्यमुपपद्यते ।।
 मनो हि हेतुः सर्वेषामिन्द्रियाणां प्रवर्तने ।

शुभाशुभास्ववस्थासु तच्च मे सुव्यवस्थितम् ।।

'रावण के अन्तःपुर में प्रसुप्त स्त्रियोंका मैंने दर्शन किया। कहीं यह कार्य मेरे धर्म का लोप तो न कर देगा इत्यादि ? पुनः स्वयं ही इसका समाधान करते हुए वे कहते हैं कि यद्यपि मैंने रावणकी स्त्रियोंका दर्शन किया है, तथापि मेरे मनमें कोई विकार उत्पन्न नहीं हुआ है। समस्त इन्द्रियोंकी शुभाशुभ-प्रवृत्तिमें मन ही कारण होता है और मेरा वह मन सर्वथा विकारशून्य रहा है, अतः धर्मलोपका यहाँ कोई प्रसङ्ग नहीं है।' इस उक्तिसे श्रीहनुमानजी परमयोगी सिद्ध होते हैं।
रावण भी कहता है-

न ह्यहं तं कपिं मन्ये कर्मणा प्रतितर्कयन् ।

"उसके अद्भुत पराक्रमको जानते हुए मैं उसे वानर-मात्र नहीं मान सकता।' उसे इन्द्र आदिने अपने तपोबल से हमारे विनाशके लिये वानररूप बनाया होगा। सेनापतियो ! आप लोग उसका अपमान न करना; क्योंकि वह अत्यन्त धीर एवं पराक्रमशाली है। मैंने वाली, सुग्रीव आदिको भी देखा है, परंतु उन सबकी इस वानरकी गति, तेज, पराक्रम, मति, बल, उत्साह आदिमें तुलना नहीं की जा सकती।

महत्सत्त्वमिदं ज्ञेये कपिरूपं व्यवस्थितम् ।।

यह वानररूपमें निश्चित ही कोई महाबलशाली अलौकिक पौरुषसम्पन्न प्राणी है।" इस प्रकार रावण-जैसा दुर्दान्त शत्रु हनुमानजीसे आन्तरिक रूपसे भयाक्रान्त हो जाता है। इसलिये श्रीहनुमानजीकी दिव्यतामें कोई संशयका स्थान ही नहीं हो सकता।

रामरहस्योपनिषद् के आधारपर श्रीहनुमानजी ब्रह्म- ज्ञानियोंमें सर्वोत्तम ज्ञानीके रूपमें उपलब्ध होते हैं-

  सनकाद्या योगिवर्या अन्ये च ऋषयस्तथा ।
प्रह्लादाद्या विष्णुभक्ता हनुमन्तमथाब्नुवन् ।।

वायुपुत्र महाबाहो किं तत्त्वं ब्रह्मवादिनाम् ।
पुराणेष्वष्टादशसु स्मृतिष्वष्टादशस्वपि ।।

चतुर्वेदेषु शास्त्रेषु विद्यास्वाध्यात्मिकेऽपि च । 
सर्वेषु विद्यादानेषु विघ्नसूर्येशशक्तिषु ।

एतेषु मध्ये किं तत्त्वं कथय त्वं महाबल ।।

"ऋषिगण, प्रह्लाद आदि विष्णु-भक्त तथा योगियों एवं ज्ञानियों में श्रेष्ठ सनकादि भी श्री हनुमान जी के पास जाकर जिज्ञासापूर्वक प्रश्न करते हैं- 'महाबाहु वायुपुत्र ! अठारह पुराणों, अठारह स्मृतियों, चारों वेदों, छहों शास्त्रों, सभी विद्याओं तथा आध्यात्मिक शास्त्रमें ब्रह्मवादियोंका तत्त्व क्या है? अर्थात् ब्रह्मवादी किस तत्त्वको यथार्थ सत्य मानते या ब्रह्मरूपसे समझते हैं। सम्पूर्ण विद्याओंके दानमें तथा गणेश, सूर्य, शिव और शक्ति- इनमें यथार्थ तत्त्व क्या है ? महाबली हनुमान जी ! हम सबपर अनुग्रह करके आप उस तत्त्व का कथन कीजिये।"
इस प्रकार सनकादि-जैसे ब्रह्मज्ञानियोंका जिज्ञासु रूप से श्री हनुमान जी से तत्त्वविषयक प्रश्न करना तथा उन्हें उनके द्वारा उपदेश दिया जाना स्पष्टतया श्रीहनुमानजीकी तत्त्वदर्शिताका परिचायक है। इन्हीं सब कारणोंसे संतशिरोमणि गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी श्रीरामचरितमानसके सुन्दरकाण्डमें श्रीहनुमानजीकी वन्दना करते हुए उनके उपर्युक्त गुणगणविशिष्ट स्वरूपका वर्णन करते हैं-

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् ।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिप्रियभक्त वातजातं नमामि ।।

प्रसन्नता तथा आनन्दका विषय यह है कि श्रीहनुमानजी आज भी हम सबकी आराधनाके आधारपर हमारे कष्टोंको दूर करते हैं, हम सबकी चित्तवृत्तिको दैवी शक्तिकी ओर उन्मुख करते हैं एवं अपनी अदृश्य प्रेरणासे भगवान्‌में श्रद्धा एवं भक्तिका स्रोत प्रवाहित करते हैं।
भगवान् श्रीरामने स्पष्ट शब्दोंमें श्रीहनुमानजीसे कहा है-

मत्कथाः प्रचरिष्यन्ति यावल्लोके हरीश्वर ।। 
तावद् रमस्व सुप्रीतो मद्वाक्यमनुपालयन् ।

'वानरराज ! जबतक लोकमें मेरी कथाओंका प्रचार रहे, तबतक तुम मेरी आज्ञाका पालन करते हुए प्रसन्नता पूर्वक विचरते रहो।'
श्री हनुमान जी भगवान् श्री राम की आज्ञा सहर्ष शिरोधार्य करते हुए कहते हैं-

यावत्तव कथा लोके विचरिष्यति पावनी ।। 
तावत् स्थास्यामि मेदिन्यां तवाज्ञामनुपालयन् ।

भगवन् ! जबतक संसारमें आपकी पावन कथा का प्रचार रहेगा, तबतक मैं आपकी आज्ञा का पालन करता हुआ भूमण्डलपर अवस्थित रहूँगा।'

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