स्यमन्तक मणि की कथा, नरकासुर का वध तथा पारिजातहरण,Syamantak Mani Kee Katha, Narakaasur Ka Vadh Tatha Paarijaataharan

स्यमन्तक मणि की कथा, नरकासुर का वध तथा पारिजातहरण

महादेवजी कहते हैं- पार्वती! सत्राजित्‌ के एक यशस्विनी कन्या थी, जो भूदेवी के अंशसे उत्पन्न हुई थी। उसका नाम था (सत्या) सत्यभामा। सत्यभामा भगवान् श्री कृष्ण की दूसरी पत्नी थीं। तीसरी पत्नी सूर्य कन्या कालिन्दी थीं, जो लीलादेवीके अंशसे प्रकट हुई थीं। विन्दानुविन्दकी पुत्री मित्रविन्दाको स्वयंवरसे ले आकर भगवान् श्रीकृष्णने उसके साथ विवाह किया। वहाँ सात महाबली बैलोंको, जिनका दमन करना बहुत ही कठिन था, भगवान्ने एक ही रस्सीसे नाथ दिया और इस प्रकार पराक्रमरूपी शुल्क देकर उसका पाणिग्रहण किया। राजा सत्राजित्‌के पास स्यमन्तक नामक एक बहुमूल्य मणि थी, जिसे उन्होंने अपने छोटे भाई महात्मा प्रसेनको दे रखा था। एक दिन भगवान् मधुसूदनने वह श्रेष्ठ मणि प्रसेनसे माँगी। उस समय प्रसेनने बड़ी धृष्टताके साथ उत्तर दिया- 'यह मणि प्रतिदिन आठ भार सुवर्ण देती है; अतः इसे मैं किसी को नहीं दे सकता।' प्रसेन का अभिप्राय समझकर भगवान् श्रीकृष्ण चुप हो रहे।


एक दिनकी बात है, भगवान् श्रीकृष्ण प्रसेन आदि समस्त महाबली यादवोंके साथ शिकार खेलनेके लिये बड़े भारी वनमें गये। प्रसेन अकेले ही उस घोर वनमें बहुत दूरतक चले गये। वहाँ एक सिंहने उन्हें मारकर वह मणि ले ली। फिर उस सिंहको महाबली जाम्बवान्ने मार डाला और उस मणिको लेकर वे शीघ्र ही अपनी गुफा में चले गये। उस गुफामें दिव्य स्त्रियाँ निवास करती थीं। उस दिन सूर्यास्त हो जानेपर भगवान् वासुदेव अपने अनुचरोंके साथ चले। मार्गमें उन्होंने चतुर्थीक चन्द्रमाको देख लिया। उसके बाद अपने नगरमें प्रवेश किया। तदनन्तर समस्त पुरवासी श्रीकृष्णके विषयमें एक- दूसरेसे कहने लगे- 'जान पड़ता है, गोविन्दने प्रसेनको वनमें ही मारकर बेखटके मणि ले ली है। उसके बाद ये द्वारकामें आये हैं।' द्वारकावासियोंकी यह बात जब भगवान्‌के कानोंमें पड़ी तो वे मूर्खलोगोंके द्वारा उठाये हुए अपवादके भयसे पुनः कुछ यदुवंशियोंको साथ ले गहन वनमें गये। वहाँ सिंहद्वारा मारे हुए प्रसेनकी लाश पड़ी थी, जिसे भगवान्ने सबको दिखाया। इस प्रकार प्रसेनकी हत्याके झूठे कलङ्कको मिटाकर भगवान् श्रीकृष्णने अपनी सेनाको वहीं ठहरा दिया तथा हाथमें शार्ङ्गधनुष और गदा लिये वे अकेले ही गहन वनमें घुस गये। वहाँ एक बहुत बड़ी गुफा देखकर श्रीकृष्णने निर्भय होकर उसमें प्रवेश किया। उस गुफाके भीतर एक स्वच्छ भवन था, जो नाना प्रकारकी श्रेष्ठ मणियोंसे जगमगा रहा था। वहाँ एक धायने जाम्बवान्‌के पुत्रको पालनेमें सुलाकर उसके ऊपरी भागमें मणिको बाँधकर लटका दिया था और पालनेको धरि-धीरे लीलापूर्वक डुलाती हुई वह लोरियाँ गा रही थी। गाते-गाते वह निम्म्राङ्कित श्लोकका उच्चारण कर रही थी-

सिंहः प्रसेनमवधीत् सिंहो जाम्बवता हतः । 
सुकुमारक मा रोदीस्तव होष स्यमन्तकः ।।

'प्रसेनको सिंहने मारा और सिंह जाम्बवान्‌के हाथसे मारा गया है। सुन्दर कुमार ! रोओ मत। यह स्यमन्तकमणि तुम्हारी ही है।' यह सुनकर प्रतापी वासुदेवने शङ्ख बजाया। वह महान् शङ्खनाद सुनकर जाम्बवान् बाहर निकले। फिर उन दोनोंमें लगातार दस राततक भयंकर युद्ध हुआ। दोनों एक-दूसरेको वज्रके समान मुक्कोंसे मारते थे। वह युद्ध समस्त प्राणियोंको भयभीत करनेवाला था। श्रीकृष्णके बलकी वृद्धि और अपने बलका ह्रास देखकर जाम्बवान्‌को भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके कहे हुए पूर्वकालके वचनोंका स्मरण हो आया। वे सोचने लगे-ये ही मेरे स्वामी श्रीराम हैं, जो धर्मकी रक्षाके लिये पुनः इस भूतलपर अवतीर्ण हुए हैं। मेरे नाथ मेरा मनोरथ पूर्ण करनेके लिये ही यहाँ पधारे हैं।' ऐसा सोचकर ऋक्षराजने युद्ध बंद कर दिया और हाथ जोड़कर विस्मयसे पूछा- 'आप कौन हैं? कैसे यहाँ पधारे हैं?' तब भगवान् श्रीकृष्णने गम्भीर वाणीमें कहा- 'मैं वसुदेवका पुत्र हूँ।

मेरा नाम वासुदेव है। तुम मेरी स्यमन्तक नामक मणि हर ले आये हो। उसे शीघ्र लौटा दो, नहीं तो अभी मारे जाओगे।' यह सुनकर जाम्बवान्‌को बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने दण्डकी भाँति पृथ्वीपर पड़कर भगवान्‌को प्रणाम किया और विनीत भावसे कहा- 'प्रभो ! आपके दर्शनसे मैं धन्य और कृतार्थ हो गया। देवकीनन्दन ! पहले अवतारसे ही मैं आपका दास हूँ। गोविन्द ! पूर्वकालमें जो मैंने युद्धकी अभिलाषा की थी, उसीको आज आपने पूर्ण किया है। जगन्नाथ ! करुणाकर! मैंने मोहवश अपने स्वामीके साथ जो यह युद्ध किया है, उसे आप क्षमा करें। ऐसा कहकर जाम्बवान् पैरोंमें पड़ गये और बारंबार नमस्कार करके उन्होंने भगवान्‌को रत्नमय सिंहासनपर विनयपूर्वक बिठाया। फिर शरत्कालके कमलसदृश सुन्दर एवं कोमल चरणोंको उत्तम जलसे पखारकर मधुपर्क की विधिसे उन यदुश्रेष्ठका पूजन किया। दिव्य वस्त्र और आभूषण भेंट किये। इस प्रकार विधिवत् पूजा करके अमित-तेजस्वी भगवान्‌को अपनी जाम्बवती नामवाली लावण्यमयी कन्या पत्नीरूपसे दान कर दी। साथ ही अन्यान्य श्रेष्ठ मणियोंसहित स्यमन्तकमणि भी दहेजमें दे दी। विपक्षी वीरोंका दमन करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णने वहीं प्रसन्नतापूर्वक जाम्बवतीसे विवाह किया और जाम्बवान्‌को उत्तम मोक्ष प्रदान किया।

फिर जाम्बवतीको साथ ले गुफासे बाहर निकलकर वे द्वारकापुरीको गये। वहाँ पहुँचकर यदुश्रेष्ठ श्रीकृष्णने सत्राजित्‌को स्यमन्तकमणि दे दी और सत्राजित्ने उसे अपनी कन्या सत्यभामाको दे दिया। भादोंके शुक्लपक्षमें चतुर्थीको चन्द्रमाका दर्शन करनेसे झूठा कलङ्क लगता है; अतः उस दिन चन्द्रमाको नहीं देखना चाहिये। यदि कदाचित् उस तिथिको चन्द्रमाका दर्शन हो जाय तो इस स्यमन्तकमणिकी कथा सुननेपर मनुष्य मिथ्या कलङ्कसे छूट जाता है। मद्रराजकी तीन कन्याएँ थीं- सुलक्ष्मणा, नाग्नजिती और सुशीला। इन तीनोंने स्वयंवरमें भगवान् श्रीकृष्णका वरण किया और एक ही दिन भगवान्‌ने उन तीनोंके साथ विवाह किया। इस प्रकार महात्मा श्रीकृष्णके रुक्मिणी, सत्यभामा, कालिन्दी, मित्रविन्दा, जाम्बवती, नाग्नजिती, सुलक्ष्मणा और सुशीला- ये आठ पटरानियाँ थीं।

नरकासुर नामक एक महान् पराक्रमी राक्षस था, जो भूमिसे उत्पन्न हुआ था। उसने देवराज इन्द्र तथा सम्पूर्ण देवताओंको युद्धमें जीतकर देवमाता अदितिके दो तेजस्वी कुण्डल छीन लिये थे। साथ ही देवताओंके भाँति-भाँतिके रत्न, इन्द्रका ऐरावत हाथी, उच्चैःश्रवा घोड़ा, कुबेरके मणि-माणिक्य आदि तथा पद्मनिधि नामक शङ्खा भी ले लिये थे। वह आकाशमें विचरण करनेवाला था और आकाशमें ही नगर बनाकर उसके भीतर निवास करता था। एक दिन सम्पूर्ण देवता उसके भयसे पीड़ित हो शचीपति इन्द्रको आगे करके अनायास ही महान् कर्म करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णकी शरणमें गये। श्रीकृष्णने भी नरकासुरकी सारी चेष्टाएँ सुनकर देवताओंको अभयदान दे विनतानन्दन गरुड़का स्मरण किया। सर्वदेववन्दित महाबली गरुड़ उसी समय भगवान्‌के सामने हाथ जोड़े उपस्थित हो गये। भगवान् सत्यभामाके साथ गरुड़पर सवार हुए और मुनियोंके द्वारा अपनी स्तुति सुनते हुए उस राक्षसके नगरमें गये। जैसे आकाशमें सूर्यका मण्डल देदीप्यमान होता है, उसी प्रकार उसका नगर भी उद्भासित हो रहा था। उसमें दिव्य आभूषण धारण किये बहुत-से राक्षस निवास करते थे। वह नगर देवताओंके लिये भी दुर्भेद्य था।

भगवान्ने उसके कई आवरण देख चक्रसे उन्हें काट डाला, ठीक उसी तरह, जैसे सूर्य अन्धकारको नष्ट कर देते हैं। आवरण कट जानेपर समस्त राक्षस शूल उठाये सैकड़ों और हजारोंके झुंड बनाकर युद्धके लिये चले। विजयकी अभिलाषा रखनेवाले निशाचर तोमर, भिन्दिपाल और पट्टिश आदि अस्त्र-शस्त्रोंसे भगवान् श्रीकृष्णपर प्रहार करने लगे। तब भगवान् श्रीकृष्णने भी शार्ङ्गधनुष लेकर उनके दिव्य अस्त्र-शस्त्रोंको काट डाला तथा अग्निके समान तेजस्वी बाणोंसे उन सबका संहार आरम्भ किया। इस प्रकार समस्त राक्षस मारे जाकर पृथ्वीपर गिर पड़े। सम्पूर्ण दानवोंका वध करके कमलनयन भगवान् पुरुषोत्तमने पाञ्चजन्य नामक महान् शङ्ख बजाया ।

शङ्खनाद सुनकर पराक्रमी दैत्य नरकासुर दिव्य रथपर आरूढ़ हो भगवान्से युद्ध करनेके लिये आया। उन दोनोंमें अत्यन्त भयङ्कर घमासान युद्ध हुआ, जो रोंगटे खड़े कर देनेवाला था। वे दोनों बरसते हुए मेघोंकी भाँति हजारों बाणोंकी झड़ी लगा रहे थे। इसी बीचमें सनातन भगवान् वासुदेवने अर्द्धचन्द्राकार बाणसे उस राक्षसका धनुष काट दिया और उसकी छातीपर महान् दिव्यास्त्रका प्रहार किया। उससे हृदय विदीर्ण हो जानेके कारण वह महान् असुर पृथ्वीपर गिर पड़ा। तब भूमिकी प्रार्थनासे भगवान् श्रीकृष्ण उस राक्षसके समीप गये और बोले- 'तुम कोई वर माँगो।' यह सुनकर राक्षसने गरुड़पर बैठे हुए भगवान् श्रीकृष्णसे कहा- 'सम्पूर्ण भूतोंके स्वामी श्रीकृष्ण ! मुझे वरदानकी कोई आवश्यकता नहीं। फिर भी दूसरे लोगोंके हितके लिये आपसे एक उत्तम वर माँगता हूँ। मधुसूदन । जो मनुष्य मेरी मृत्युके दिन माङ्ग‌लिक स्नान करें, उन्हें कभी नरककी प्राप्ति न हो।

एवमस्तु' कहकर भगवान्‌ने उसे वह वर दे दिया। नरकासुरने ब्रह्मा और शिव आदि देवताओंद्वारा पूजित, वज्र एवं वैदूर्यमणिसे बने हुए नूपुरोंसे सुशोभित तथा शरत्कालके खिले हुए कमलसदृश कोमल भगवच्चरणोंका दर्शन करते हुए अपने प्राणोंका परित्याग किया और श्रीहरिका सारूप्य प्राप्त कर लिया। तदनन्तर सम्पूर्ण देवता और महर्षि आनन्दमग्न हो भगवान्‌के ऊपर फूलोंकी वर्षा और स्तुति करने लगे। इसके बाद कमलनयन श्रीकृष्णने नरकासुरके नगरमें प्रवेश किया और उसने बलपूर्वक जो देवताओंका धन लूट लिया था, वह सब उन्हें वापस कर दिया। देवमाता अदितिके दोनों कुण्डल, उच्चैःश्रवा घोड़ा, ऐरावत हाथी और दीप्तिमान् मणिमय पर्वत- ये सारी वस्तुएँ भगवान्‌ने इन्द्रको दे दीं। बलवान् नरकासुरने समस्त राजाओंको जीतकर सभी राष्ट्रोंसे जो सोलह हजार कन्याओंका अपहरण किया था, वे सब-की-सब उसके अन्तःपुरमें कैद थीं। सैकड़ों कामदेवकी शोभाको तिरस्कृत करनेवाले महापराक्रमी श्रीकृष्णको देखकर उन सबने उन्हें अपना पति बना लिया। तब अनन्त रूप धारण करनेवाले भगवान् गोविन्दने एक ही लग्नमें उन सबका पाणिग्रहण किया। नरकासुरके सभी पुत्र पृथ्वीदेवीको आगे करके भगवान् गोविन्दकी शरणमें गये। तब दयानिधान भगवान्‌ने उन सबकी रक्षा की और पृथ्वीके वचनोंका आदर करते हुए उन्हें नरकासुरके राज्यपर स्थापित कर दिया। तत्पश्चात् उन सभी सुन्दरी स्त्रियोंको इन्द्रके विमानपर बिठाकर देवदूतोंके साथ द्वारकामें भेज दिया। इसके बाद सत्यभामाके साथ गरुड़पर आरूढ़ हो भगवान् श्रीकृष्ण देवमाताका दर्शन करनेके लिये स्वर्गलोकमें गये। अमरावतीपुरीमें पहुँचकर महाबली श्रीकृष्ण पलीसहित गरुड़से उतरे और देवताओंकी वन्दनीया माता अदितिके चरणोंमें उन्होंने प्रणाम किया।

पुत्रवत्सला माताने भगवान्‌को दोनों हाथोंसे पकड़कर छातीसे लगा लिया और एक श्रेष्ठ आसनपर बिठाकर उन्होंने भक्तिपूर्वक भगवान्‌का पूजन किया। तत्पश्चात् आदित्य, वसु, रुद्र और इन्द्र आदि देवताओंने भी परमेश्वरका यथायोग्य पूजन किया। उस समय यशस्विनी सत्यभामा शचीके महलमें गयीं। वहाँ इन्द्राणीने उन्हें सुखमय आसनपर बिठाकर उनका भलीभाँति पूजन किया। उसी समय सेवकोंने इन्द्रकी प्रेरणासे पारिजातके सुन्दर फूल ले जाकर शचीदेवीको भेंट दिये। सुन्दरी शचीने उन फूलोंको लेकर अपने काले एवं चिकने केशोंमें गूँथ लिया और सत्यभामाकी अवहेलना कर दी। उन्होंने सोचा- 'ये फूल देवताओंके योग्य हैं और सत्यभामा मानुषी है, अतः ये इन फूलोंकी अधिकारिणी नहीं है।' ऐसा विचार करके उन्होंने वे फूल सत्यभामाको नहीं दिये।

सत्यभामा क्रोधमें भरकर इन्द्राणीके घरसे चली आर्यों और अपने स्वामीके पास आकर बोलीं- 'यदुश्रेष्ठ ! उस शचीको पारिजातके फूलोंपर बड़ा घमंड है। उसने मुझे दिये बिना ही सब फूल अपने ही केशोंमें धारण कर लिये हैं।' सत्यभामाकी यह बात सुनकर महाबली वासुदेवने पारिजातका पेड़ उखाड़ लिया और उसे गरुड़की पीठपर रखकर वे सत्यभामाके साथ द्वारकापुरीकी ओर चल दिये। यह देख देवराज इन्द्रको बड़ा क्रोध हुआ। और वे देवताओंको साथ लेकर भगवान् जनार्दनपर अस्त्र-शस्त्रोंकी वर्षा करने लगे, मानो मेघ किसी महान् पर्वतपर जलकी बूँदें बरसा रहे हों।

भगवान् श्री कृष्ण के चक्र और गरुड़जीके पंखोंकी मारसे देवता परास्त हो गये और इन्द्र भयभीत होकर गजराज ऐरावतसे नीचे उतर पड़े तथा गद्गद वाणीसे भगवान्‌की स्तुति करके बोले- 'श्रीकृष्ण ! यह पारिजात देवताओंके उपभोगमें आने योग्य है। पूर्वकालमें आपने ही इसे देवताओंके लिये दिया था। अब यह मनुष्यलोकमें कैसे रह सकेगा ?' तब भगवान्ने इन्द्रसे कहा- 'देवराज ! तुम्हारे घरमें शचीने सत्यभामाका अपमान किया है। उन्होंने इनको पारिजातके फूल न देकर स्वयं ही उन्हें अपने मस्तकमें धारण किया है। इसलिये मैंने पारिजातका अपहरण किया है। मैंने सत्यभामासे प्रतिज्ञा की है कि मैं तुम्हारे घरमें पारिजातका वृक्ष लगा दूंगा; अतः आज यह पारिजात तुम्हें नहीं मिल सकता। मैं मनुष्योंके हितके लिये उसे भूतलपर ले जाऊँगा। जबतक मैं वहाँ रहूँगा, मेरे भवनमें पारिजात भी रहेगा। मेरे परमधाम पधारनेपर तुम अपनी इच्छाके अनुसार इसे ले लेना। इन्द्रने भगवान्‌को नमस्कार करके कहा- 'अच्छा, ऐसा ही हो।' यों कहकर वे देवताओंके साथ अपनी पुरीमें लौट गये और भगवान् श्रीकृष्ण सत्यभामादेवीके साथ गरुड़पर बैठकर द्वारकापुरीमें चले आये। उस समय मुनिगण उनकी स्तुति करते थे। सर्वव्यापी भगवान् श्रीहरि सत्यभामाके निकट देववृक्ष पारिजातकी स्थापना करके समस्त भार्याओंके साथ विहार करने लगे। विश्वरूपधारी मधुसूदन रात्रिमें इन सभी पलियोंके घरोंमें रहकर उन्हें सुख प्रदान करते थे।

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