सागर मंथन द्वारा श्री लक्ष्मी अवतार कथा
शास्त्रों एवं पुराणों के वर्णन के अनुसार कहा जाता है कि एक बार मूल से देवराज इन्द्र ने महामुनि "दुर्वासा" द्वारा दी गई पुष्पमाला का अपमान कर दिया-इस पर मुनि के आप से इन्द्र को भी "श्री" हीन होना पड़ा। जिसके कारण सभी देवगण और मृत्युलोक भी "श्री" हीन हो गये। रुष्ट होने के कारण लक्ष्मी दुखी मन से स्वर्ग को त्याग कर बैकुण्ठ आ गईं और महालक्ष्मी में लीन हो गईं।
देवता दुखी मन से ब्रह्मा के पास आये, और उन्हें साथ लेकर बैकुण्ठ गये। वहाँ उन्होंने श्री नारायण से व्यथा गाथा कही। तब उन्होंने उन्हें बताया कि वे असुरों की सहायता से सागर का मन्थन करें तब उन्हें सिन्धु कन्या के रूप में लक्ष्मी पुनः प्राप्त हो सकेगी। इघर देवासुर संग्राम में देवताओं की पराजय हो गई थी। दैत्यगण देवताओं को ढूंढ-ढूंढ कर मारने तथा उन पर अनेक प्रकार के अत्याचार कर रहे थे। इससे भयभीत होकर देवगण इंधर-उधर भागकर छिपे फिरते थे। यज्ञादि सत्कर्मों का लोप हो जाने से सर्वत्र अधर्म का साम्राज्य छा गया था। विष्णु भगवान की सलाह पर देवताओं ने असुर को यह लालच दिया कि सागर में अमृत का घड़ा और कई रत्न मौजुद हैं। यह अमृत प्राप्त करने के लिए हम सभी को मिलकर सागर मंथन करना चाहिए ताकि उसे पान कर अमर हो सकें। असुरों के सभी महानायक देवताओं के झांसे में आ गये और सागर मंथन की तैयारियाँ शुरू हो गई।
सम्मिलित प्रयास से मंदराचल पर्वत को उठाकर जैसे ही समुद्र में डाला वैसे ही यह पर्वत सागर के नीचे की ओर धंसता चला गया, तभी भगवान विष्णु ने कच्छप अवतार लेकर उस पर्वत को अपनी पीठ पर रोक लिया। इस पर मंदराचल हैरान हो गया कि ऐसी कौन सी शक्ति है जो हमें आगे जाने से रोक रही है। तभी उन्हें भगवान विष्णु के सामीप्य का बोध हुआ और स्थिर हो गये। बासुकी नाग के मुख को स्वयं विष्णु भगवान ने पकड़ा और देवगण भी उसी ओर लगे। यह देखकर दैत्यगण यह कहकर नाराज हो गये कि हम दैत्य गण इस सर्प के अमंगलकारी पूंछ की तरफ नहीं रहेंगे अर्थात् पूंछ की तरफ से मंथन में भाग नहीं लेगे।
भगवान स्वयं भी यही चाहते थे। उन्होनें खुश होकर देवताओं के साथ मुख की ओर से हटकर पूंछ पकड़ ली और सावधानी के साथ दोनों पक्ष मिलकर सागर मंथन करने लगे।सागर मंथन से सर्वप्रथम हलाहल नामक विष निकला। उस विष के तेज से तीनों लोकों में हाहाकर मच गई। देवगण घबराकर भगवान शंकर के पास पहुंचे और उनसे विषपान की प्रार्थना की। दया के सागर भोलेनाथ ने देवताओं की प्रार्थना को स्वीकार करते हुए उस हलाहल विष का पान कर कंठ में रोक लिया। उस विष के प्रभाव से शिवजी का कंठ नीला हो गया और तभी से वे "नीलकंठ" कहलाये ।
हलाहल विष के पश्चात् सागर में से अनेकों प्रकार के रत्न प्रकट हुए। एक-एक रत्न सागर से बाहर आकर प्रकट होता रहा। सारा संसार इस महाशक्ति के अविष्कार को देखकर हैरान हो रहा था। शनैः शनैः सब कुछ होता रहा। विष के बाद कामधेनु उत्पन्न हुई तत्यपश्चात् उच्चश्रुवा अश्व, ऐरावत हाथी, कौस्तुभ मणि, कल्पवृक्ष, शंख केतु, धनु, धनवंतरि, शशि और फूल मिलाकर चौदह रत्न सागर के अन्दर से निकले थे। तदनन्तर दशों दिशाओं को अपनी कान्ति से दैदीप्यमान करने वाली "श्री लक्ष्मी जी" उत्पन्न हुई। उनको देखकर कुछ समय के लिए मंथन कार्य रुक गया। क्यों कि महालक्ष्मी की अद्भुत छटा को देखकर देवता और असुर दोनों ही होश खो बैठे। सभी देवता और दैत्य उन पर मोहित होकर उनकी प्राप्ति की इच्छा करने लगे। तभी देवराज इन्द्र ने उनके लिए
सुन्दर आसन उपस्थित किया। जिस पर भगवती विराजमान हो गयीं। लक्ष्मी पुजन की सभी सामग्री एकत्रित कर ऋषियों ने विधिपूर्वक भगवती का अभिषेक कराया। उस अवसर पर देवताओं में अपार हर्ष फैला हुआ था। अप्सरायें नाच रही थीं, गन्धर्व गायन कर रहे थे, देवगण मिलकर मृदंग, नगाड़े शंख, भेरि और वीणा बजा रहे थे। चारों ओर खुशियों का समागम छाया हुआ था। विधिपूर्वक पूजन होने पर सागर ने भगवती को पीले वस्त्र और विश्वकर्मा ने दिव्य कमल समर्पित किया।
इसके पश्चात् मांगलिक वस्त्र और आभूषणों से सुसज्जित होकर देवताओं और असुरों पर एक दिव्य दृष्टि डाली, परन्तु उनमें से उन्हें जीवन साथी के रूप में कोई योग्य वरं दिखाई न पड़ा क्योंकि उन्हें तो श्री भगवान विष्णु की खोज थीं। ज्योंही हरि दिखाई पड़े, त्योंहीं उन्होंने अपने हाथों में पकड़ी हुई कमलों की माला भगवान के गले में अर्पण कर दी।
तत्पश्चात् फिर सागर मंथन का कार्य शुरू हो गया। अनेक रत्नों की प्राप्ति के बाद अमृत कंलश लिये भगवान धन्वन्तरी प्रकट हुए। देखते ही अमृत कलश को दानवों ने अपने कब्जे में कर लिया। देवता निराश होकर फिर विष्णु भगवान के पास गये। भगवान हरि विश्व मोहिनी का रूप धारण कर वहाँ प्रकट हो गये। उनके रूप को देखकर गण अति मोहित हो गये और अपनी सुध-बुध खो बैठे। तभी मोहिनी रूप धारी भगवान हरि ने दैत्यों को हाव- भाव एवं नेत्र कटाक्ष आदि संकेतों से संतुष्ट करते हुए समस्त अमृत देवताओं में बाँट दिया और भगवती लक्ष्मी भगवान विष्णु के पास विराजित हो गई।
"दक्षिणा" नाम की लक्ष्मी अवतार
दक्षिणा नाम की लक्ष्मी अवतार के बारे में ब्रह्मवैवर्त पुराण में आख्यान सुनाते हुए स्वयं "हरि" ने बताया है कि पूर्व काल में सुशीला नाम की गोपी, भगवान कृष्ण की प्रेयसी, अत्यन्त मनोहारी रूप वाली सुत्तनवी और कामशास्त्र में दक्ष, कृष्णकामिनी और कृष्ण में अनुरक्त थी। वह राधा के सामने ही कृष्ण की दायीं गोद में बैठ गई। राधा के सामने कृष्ण को संकोच हुआ, और ऐसे दृश्य को देखकर कुपित राधा के भय से कृष्ण अर्न्तध्यान हो गये। कंपायमान वो गोपिका भी अन्र्तहित हो गई। श्री कृष्ण को अन्र्त्तहित देखकर राधा ने सुशीला को श्राप दिया कि यदि ये गोपी फिर कभी "गोलोक" में आयेगी तो भस्म हो जायेगी और राधा जी श्राप देकर पुनः कृष्ण की आराधना करने लगीं।
जिससे कृष्ण शीघ्र आ गए और उनके साथ विहार करने लगे। वह सुशीला नाम की गोपिका ने (जो बाद में दक्षिणा कहलायी थी) गोलोक से निकलकर चिरकाल तक तप किया और "कमला" की देह में प्रविष्ट हो गयीं।.अनेक कठिन यज्ञ करने पर भी यज्ञ फल प्राप्त न होने पर खिन्न मन देवताओं ने ब्रह्मा से गुहार की। तब ब्रह्मा ने श्री नारायण और महालक्ष्मी का ध्यान किया। उससे प्रसन्न होकर महालक्ष्मी ने अपनी देह से मनुष्य लक्ष्मी दक्षिणा को ब्रह्मा को सौंप दिया और ब्रह्मा ने उन्हें यज्ञ को सौंप दिया। यज्ञ ने उसकी विधिवत् पूजा की और ब्रह्मा ने उन्हें कामपीड़ित दक्षिणा के समक्ष मूर्छित होते देखकर पत्नी के रूप में वरण करने का आदेश दिया। यज्ञ ने दक्षिणा के साथ सौ दिव्य वर्षों तक हर्षित होकर, रमण किया। जो व्यक्ति यज्ञ के बाद "दक्षिणा "देता है। उसे उसको सुफल प्राप्त होता है और जो ऐसा नहीं करता वह ब्रह्म हत्या का दोषी होता है और सभी यज्ञों को आरम्भ के समय जो भक्त दक्षिणा स्तोत्र का पाठ करता है उसे समस्त यज्ञों का फल प्राप्त होता है।
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