श्री हनुमत् तत्त्व | Sri Hanumat Tattva

श्री हनुमत् तत्त्व |  Sri Hanumat Tattva

उल्लङ्ग्य सिन्धोः सलिलं सलीलं यः शोकवह्नि जनकात्मजायाः । 
आदाय तेनैव ददाह लङ्कां नमामि तं प्राञ्जलिराञ्जनेयम् ।।

हमारे सनातन धर्म में अनेक उपास्य देवता हैं। स्मार्तोपासनामें पश्चदेवोपासना प्रसिद्ध है ही, किंतु इन सभी उपास्य देवोंमें यदि किसीको ब्रह्मचर्यका मूर्तिमान् स्वरूप कहा जा सकता है तो वे है हमारे श्रीहनुमानजी ही। अतः सम्यक् ब्रह्मचर्य-परिपालन, शत्रु-निग्रह, काम-विजय, कार्य-सिद्धि आदिकी दृष्टिसे ये रुद्रावतार श्रीहनुमानजी अत्यधिक प्रसिद्ध हैं। उपासना-पद्धतिकी जानकारीके लिये तो रामायणस्थ हनुमच्चरित्रका अवलोकन परमावश्यक है; क्योंकि दास्य-भक्तिके लिये हनुमानजी ही प्रमुख उदाहरण हैं। जैसा पद्यावलीके इस ६३ वें श्लोकमें कहा गया है-

श्रीविष्णोः श्रवणे परीक्षिदभवद् वैयासकिः कीर्तने 
प्रह्लादः स्मरणे तद‌भिजने लक्ष्मीः पृथुः पूजने । 
अक्क्रूरस्त्वभिवन्दने कपिपतिर्दास्येऽथ सख्येऽर्जुनः
सर्वस्वात्मनिवेदने बलिरभूत् कृष्णाप्तिरेषां परम् ॥

स्वयं वानर होनेपर भी दास्य-भक्तिके प्रतापसे भगवान् श्रीरामचन्द्रके प्रिय दास होते हुए भी आप देवता बन गये। यह सिद्धि दूसरा कोई कपिपति नहीं प्राप्त कर सका। श्री हनुमानजी का आजन्म नैष्ठिक ब्रह्मचर्य-पालनका आदर्श सर्वथा अद्वितीय है। इतिहासमें इसका ऐसा अन्य श्रेष्ठ उदाहरण कहीं नहीं मिलता। अदर्शन, अस्पर्शन, अस्मरण, असंकल्प आदि सामान्य ब्रह्मचर्यके आठ अङ्ग निर्दिष्ट हैं। किंतु इसके मूलमें एतदर्थ योग-वेदान्तादिके स्वाध्यायद्वारा दिव्य ज्ञान, वैराग्य एवं अभ्यास भी आवश्यक होते हैं तथा जन्मान्तरीय स्थिति भी देखी जाती है। इन सभी दृष्टियोंसे साधनसम्पन्न रुद्रावतार श्रीहनुमानजीने आजन्म ब्रह्मचर्यक परिपालनद्वारा अपनेको अपरिमित शक्तिशाली बनाकर श्रीरामायण-कथाको भी अमर बना दिया। इसमें लेशमात्र भी अतिशयोक्ति नहीं है।
तथापि श्री हनुमानजी की उपासना 'उग्र' कही गयी है, अतः साधकको तत्सम्बन्धी आभिचारिक (मारण, मोहन आदि) उपासनाएँ नहीं करनी चाहिये। अस्तु, हम उन्हें सादर नमस्कार करते हुए इस निबन्ध का उपसंहार करते हैं-

मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् । 
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शिरसा नमामि ॥

महाबलवान् भगवान् हनुमान 

अञ्जनी पुत्र, पवन सुत, शंकरसुवन, केसरीनन्दन आदि पद संत-शिरोमणि, कविशिरोमणि, भक्तशिरोमणि, कलिपावनावतार श्रीतुलसीदासजी ने महाबलवान् भगवान् श्री हनुमानजी के लिये प्रयुक्त किये हैं। लोगोंको भ्रम होता है कि एक साथ ये इतने व्यक्तियोंके पुत्र कैसे कहे गये ? किंतु वस्तुस्थितिपर विचार करें तो सब सुव्यवस्थित ही है। भगवान् भूतभावन विश्वनाथ शंकरके अवतार होनेके कारण ये शंकरसुवन हैं। 'आत्मा वै जायते पुत्रः' इस शास्त्र-वचनानुसार वानरराज केसरीके औरस पुत्र होनेके कारण इन्हें केसरीनन्दन कहना सर्वथा सुसङ्गत ही है। पुञ्जिकस्थला नामकी अप्सरा शापभ्रष्ट होकर कामरूप वानरी के  रूप में अवतरित हुई। एक बार वह मनुष्यरूपमें दिव्यातिदिव्य वस्त्राभूषणसे सुसज्जित हो पर्वतपर विचरण कर रही थी। वायुदेवने एक सपाटेमें उसकी ओर वहन किया। उसने तुरंत कहा- 'कौन मुझ पतिव्रताका स्पर्श करके अपने सर्वनाशको आमन्त्रित कर पतनके घोर गर्त में गिरने को लालायित हो रहा है?' सर्वप्राण वायुदेव बोले- 'देवि! ऐसी बात नहीं है। अनन्तकोटि ब्रह्माण्डनायक अशरणशरण अकारणकरुण करुणावरुणालय निर्गुण-निराकार भगवान् भूभारापहरणार्थ मानवरूप धारणकर रावणादि असुरोंका कदन करनेके लिये अवतरित हो रहे हैं। मैं उनकी सेवाके लिये तुम्हारे उदरमें पुत्ररूपमें आना चाहता हूँ, कृपया क्षमा करें।' बस, पवनसुत और अञ्जनीपुत्र-रूपसे इनकी विख्यातिका यही कारण है। इन सब बातोंपर विश्वास न करनेवाले सज्जनोंसे भी इतना मान लेनेकी आशा तो हमें रखनी ही चाहिये कि श्रीहनुमानजी महाराजके रूपमें एक निखरा हुआ व्यक्तित्व सबके सामने आता है। एक अकेला व्यक्ति रावण-जैसे विश्वविजयी शत्रुके घरमें घुसकर अपना ध्येय पूर्ण करनेके बाद शत्रुसमुदायसे घिरा होनेपर भी निर्भीक रूपसे ललकारकर अपने स्वामीका जय-जयकार करता हुआ कहता है- 'खबरदार! मेरा सामना करने की थोड़ी-सी भी चेष्टा विनाशक सिद्ध होगी। मैं उन स्वामीका सेवक हूँ, जो स्वयं अति बलवान् हैं और जिनके अनुज भी वैसे ही है। वानरराज सुग्रीव उनके सेवक बन चुके हैं, जिनके बल-पराक्रमकी कहीं तुलना नहीं। फिर मैं उन स्वामीका सेवक हूँ, जिन्हें संसारमें कठिन-से-कठिन कार्य करनेमें भी कोई क्लेश नहीं होता। मैं स्वयं भी वह हनुमान हूँ, जिसके शरीरपर इन्द्रका वज्र भी कुछ प्रभाव न डाल सका। समस्त संसार भी शत्रु बनकर अपनी सेनाएँ मेरे सामने भेज दे तो मैं उनका विनाश करके ही छोडूंगा। याद रखो, मैं वायुदेवका पुत्र होनेके कारण उतना ही बलवान् भी हूँ।' 'अजी, और कहीं यह डींग हाँको, पता भी है- यह रावणकी लंका है, जिससे सभी देव-दानव- मानव थरति हैं?' 'होगी; हमें इसकी चिन्ता नहीं। एक क्या हजारों रावण भी अकेले मेरे सामने नहीं टिक सकते।' 'रावणके पास तोप, टैंक, मशीनगन, एटमबम, हाइड्रोजन बम, राकेट आदि हैं, तुम्हारे पास तो कुछ नहीं।' 'ये सब-के-सब धरे ही रह जायेंगे। जब मैं पर्वतों, पर्वत-शिलाओं, वृक्षों-महावृक्षोंसे प्रहार करने लगूँगा तो सृष्टि उलट-पलट हो जायगी। तुमसे जो करते बने, करो। मैं इस सोनेकी लंकाको तहस-नहसकर, रावण के देखते-देखते जगन्माता जानकीके चरणोंमें प्रणाम कर, अपना काम पूरा करके चला जाऊँगा और तुम सभी हाथ मलते और पछताते ही रह जाओगे।'
कहना न होगा कि महाबलवान् भगवान् हनुमानने ये सब-की-सब प्रतिज्ञाएँ एकाकी, असहाय और अस्त्रबल, शस्त्रबल, सैन्यब्रल एवं संघटनबलसे शून्य होते हुए भी केवल बुद्धिबल और बाहुबलके आधारपर परिपूर्ण कीं। इष्टदेव भगवान् चन्द्रमौलीश्वर और भगवती विमलाम्बाके चरणोंमें हमारी विनम्र प्रार्थना है कि इस संकटके समय राष्ट्रमें घर-घर एवं जन-जनमें भगवान् हनुमान-जैसी भावना और कार्य-क्षमता उत्पन्न हो।

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