श्री विष्णु और लक्ष्मी के स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियों का वर्णन
पार्वती जी बोलीं - देवेश्वर! आप मन्त्रों के अर्थ और पदोंकी महिमाको विस्तार के साथ बतलाइये। साथ ही ईश्वरके स्वरूप, गुण, विभूति, श्रीविष्णुके परम धाम तथा व्यूह-भेदोंका भी यथार्थरूपसे वर्णन कीजिये।
महादेव जी ने कहा- देवि ! सुनो मैं परमात्माके स्वरूप, विभूति, गुण तथा अवस्थाओंका वर्णन करता हूँ। भगवान् के हाथ, पैर और नेत्र सम्पूर्ण विश्वमें व्याप्त हैं। समस्त भुवन और श्रेष्ठ धाम भगवान्में ही स्थित है। वे महर्षियोंका मन अपनेमें स्थिर करके विराजमान हैं। उनका स्वरूप विशाल एवं व्यापक है। वे लक्ष्मीके पति और पुरुषोत्तम हैं। उनका लावण्य करोड़ों कामदेवोंके समान है। वे नित्य तरुण किशोर विग्रह धारण करके जगदीश्वरी भगवती लक्ष्मी जी के साथ परमपद - वैकुण्ठधाममें विराजते हैं। वह परम धाम ही परमव्योम कहलाता है। परमव्योम ऐश्वर्यका उपभोग करने के लिये है और यह सम्पूर्ण जगत् लीला करनेके लिये। इस प्रकार भोगभूमि और क्रीड़ाभूमिके रूप में श्रीविष्णुकी दो विभूतियाँ स्थित हैं। जब वे लीलाका उपसंहार करते हैं, तब भोगभूमिमें उनकी नित्य स्थिति होती है। भोग और लीला दोनोंको वे अपनी शक्तिसे ही धारण करते हैं।
भोगभूमि या परमधाम त्रिपाद्-विभूतिसे व्याप्त है। अर्थात् भगवद्विभूतिके तीन अंशोंमें उसकी स्थिति है और इस लोकमें जो कुछ भी है, 'वह भगवान्की पाद-विभूतिके अन्तर्गत है। परमात्माकी त्रिपाद्-विभूति नित्य और पाद-विभूति अनित्य है। परमधाममें भगवान्का जो शुभ विग्रह विराजमान है, वह नित्य है। वह कभी अपनी महिमासे च्युत नहीं होता, उसे सनातन एवं दिव्य माना गया है। वह सदा तरुणावस्थासे सुशोभित रहता है। वहाँ भगवान्को भगवती श्रीदेवी और भूदेवीके साथ नित्य संभोग प्राप्त है। जगन्माता लक्ष्मी भी नित्यरूपा है। वे श्रीविष्णुसे कभी पृथक् नहीं होतीं। जैसे भगवान् विष्णु सर्वत्र व्याप्त हैं, उसी प्रकार भगवती लक्ष्मी भी हैं। पार्वती। श्रीविष्णुपत्नी रमा सम्पूर्ण जगत् की अधीश्वरी और नित्य कल्याणमयी हैं। उनके भी हाथ, पैर, नेत्र, मस्तक और मुख सब ओर व्याप्त हैं। वे भगवान् नारायणकी शक्ति, सम्पूर्ण जगत्की माता और सबको आश्रय प्रदान करनेवाली हैं। स्थावर- जङ्गमरूप सारा जगत् उनके कृपा कटाक्षपर ही निर्भर है। विश्वका पालन और संहार उनके नेत्रोंके खुलने और बंद होनेसे ही हुआ करते हैं। वे महालक्ष्मी सबकी आदिभूता, त्रिगुणमयी और परमेश्वरी हैं।
व्यक्त और अव्यक्त भेदसे उनके दो रूप हैं। वे उन दोनों रूपोंसे सम्पूर्ण विश्वको व्याप्त करके स्थित हैं। जल आदि रसके रूप से वे ही लीलामय देह धारण करके प्रकट होती हैं। लक्ष्मी रूप में आकर वे धन प्रदान करने की अधिकारिणी होती हैं। ऐसे स्वरूपवाली लक्ष्मी देवी श्रीहरिके आश्रयमें रहती हैं। सम्पूर्ण वेद तथा उनके द्वारा जाननेयोग्य जितनी वस्तुएँ हैं, वे सब श्रीलक्ष्मीके ही स्वरूप है। स्त्रीरूपमें जो कुछ भी उपलब्ध होता है, वह सब लक्ष्मीका ही विग्रह कहलाता है। स्त्रियोंमें जो सौन्दर्य, शील, सदाचार और सौभाग्य स्थित है, वह सब लक्ष्मीका ही रूप है। पार्वती! भगवती लक्ष्मी समस्त स्त्रियोंकी शिरोमणि हैं, जिनकी कृपा कटाक्षके पड़नेमात्रसे ब्रह्मा, शिव, देवराज इन्द्र, चन्द्रमा, सूर्य, कुबेर, यमराज तथा अग्निदेव प्रचुर ऐश्वर्य प्राप्त करते हैं।
उनके नाम इस प्रकार है- लक्ष्मी, श्री, कमला, विद्या, माता, विष्णुप्रिया, सती, पद्मालया, पद्महस्ता, पद्माक्षी, पद्मसुन्दरी, भूतेश्वरी, नित्या, सत्या, सर्वगता, शुभा, विष्णुपली, महादेवी, क्षीरोदतनया (क्षीरसागरकी कन्या), रमा, अनन्त लोक नाभि (अनन्त लोकों की उत्पत्तिका केन्द्रस्थान), भू, लीला, सर्वसुखप्रदा, रुक्मिणी, सर्ववेदवती, सरस्वती, गौरी, शान्ति, स्वाहा, स्वधा, रति, नारायणवरारोहा, (श्रीविष्णुकी सुन्दरी पत्नी) तथा विष्णोर्नित्यानुपायिनी (सदा श्रीविष्णुके समीप रहनेवाली)। जो प्रातःकाल उठकर इन सम्पूर्ण नामोंका पाठ करता है, उसे बहुत बड़ी सम्पत्ति तथा विशुद्ध धन-धान्यकी प्राप्ति होती है।
हिरण्यवर्णां हरिर्णी सुवर्णरजतस्त्रजाम् ।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं विष्णोरनपगामिनीम् ॥
गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम् ।
ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम् ।।
'जिनके श्रीअङ्गोंका रङ्ग सुवर्णके समान सुन्दर एवं गौर है, जो सोने-चाँदीके हारों से सुशोभित और सबको आह्लादित करनेवाली हैं, भगवान् श्रीविष्णुसे जिनका कभी वियोग नहीं होता, जो स्वर्णमयी कान्ति धारण करती है, उत्तम लक्षणोंसे विभूषित होनेके कारण जिनका नाम लक्ष्मी है, जो सब प्रकारकी सुगन्धोंका द्वार हैं, जिनको परास्त करना कठिन है, जो सदा सब अङ्गोंसे पुष्ट रहती हैं, गायके सूखे गोबरमें जिनका निवास है तथा जो समस्त प्राणियोंकी अधीश्वरी हैं, उन भगवती श्रीदेवीका मैं यहाँ आवाहन करता हूँ।
ऋग्वेदमें कहे हुए इस मन्त्रके द्वारा स्तुति करनेपर महेश्वरी लक्ष्मीने शिव आदि सभी देवताओंको सब प्रकारका ऐश्वर्य और सुख प्रदान किया था। श्रीविष्णुपत्नी लक्ष्मी सनातन देवता हैं। वे ही इस जगत्का शासन करती हैं। सम्पूर्ण चराचर जगत्की स्थिति उन्हींक कृपा-कटाक्षपर निर्भर है। अग्निमें रहनेवाली प्रभाकी भाँति भगवती लक्ष्मी जिनके वक्षःस्थलमें निवास करती हैं, वे भगवान् विष्णु सबके ईश्वर, परम शोभा सम्पन्न, अक्षर एवं अविनाशी पुरुष हैं; वे श्रीनारायण वात्सल्य गुणके समुद्र हैं। सबके स्वामी, सुशील, सुभग, सर्वशं, सर्वशक्तिमान्, नित्य पूर्णकाम, स्वभावतः सबके सुहृद्, सुखी, दयासुधाके सागर; समस्त देहधारियोंके आश्रय, स्वर्ग और मोक्षका सुख देनेवाले और भक्तोंपर दया करनेवाले हैं। उन श्रीविष्णुको नमस्कार है।
मैं सम्पूर्ण देश-काल आदि अवस्थाओंमें पूर्णरूपसे भगवान्का दासत्व स्वीकार करता हूँ। इस प्रकार स्वरूपका विचार करके सिद्धिप्राप्त पुरुष अनायास ही दासभावको प्राप्त कर लेता है। यही पूर्वोक्त मन्त्रका अर्थ है। इसको जानकर भगवान्में भलीभांति भक्ति करनी चाहिये। यह चराचर जगत् भगवान्का दास ही है। श्रीनारायण इस जगत्के स्वामी, प्रभु, ईश्वर, भ्राता, माता, पिता, बन्धु, निवास, शरण और गति हैं। भगवान् लक्ष्मीपति कल्याणमय गुणोंसे युक्त और समस्त कामनाओंका फल प्रदान करनेवाले हैं। वे ही जगदीश्वर शास्त्रोंमें निर्गुण कहे गये हैं। 'निर्गुण' शब्दसे यही बताया गया है कि भगवान् प्रकृतिजन्य हेय गुणोंसे रहित हैं। जहाँ वेदान्तवाक्योंद्वारा प्रपञ्चका मिथ्यात्व बताया गया है और यह कहा गया है कि यह सारा दृश्यमान जगत् अनित्य है, वहाँ भी ब्रह्माण्डके प्राकृत रूपको ही नश्वर बताया गया है।
प्रकृति से उत्पन्न होने वाले रूपोंकी ही अनित्यताका प्रतिपादन किया गया है। महादेवि ! इस कथनका तात्पर्य यह है कि लीला- विहारी देवदेव श्रीहरिकी लीलाके लिये ही प्रकृतिकी उत्पत्ति हुई है। चौदह भुवन, सात समुद्र, सात द्वीप, चार प्रकारके प्राणी तथा ऊँचे-ऊँचे पर्वतोंसे भरा हुआ यह रमणीय ब्रह्माण्ड प्रकृतिसे उत्पन्न हुआ है। यह उत्तरोत्तर महान् दस आवरणोंसे घिरा हुआ है। कला-काष्ठा आदि भेदसे जो कालचक्र चल रहा है, उसीके द्वारा संसारकी सृष्टि, पालन और संहार आदि कार्य होते हैं। एक सहस्र चतुर्युग व्यतीत होनेपर अव्यक्तजन्मा ब्रह्माजीका एक दिन पूरा होता है। इतने ही बड़े दिनसे सौ वर्षोंकी उनकी आयु मानी गयी है। ब्रह्माजीकी आयु समाप्त होनेपर सबका संहार हो जाता है। ब्रह्माण्डके समस्त लोक कालाग्निसे दग्ध हो जाते हैं। सर्वात्मा श्रीविष्णुकी प्रकृतिमें उनका लय हो जाता है। ब्रह्माण्ड और आवरणके समस्त भूत प्रकृतिमें लीन हो जाते हैं। सम्पूर्ण जगत्का आधार प्रकृति है और प्रकृतिके आधार श्रीहरि। प्रकृतिके द्वारा ही भगवान् सदा जगत्की सृष्टि और संहार करते हैं। देवाधिदेव श्रीविष्णुने लीलाके लिये जगन्मयी मायाकी सृष्टि की है।
वही अविद्या, प्रकृति, माया और महाविद्या कहाती है। सृष्टि, पालन और संहारका कारण भी वही है। वह सदा रहनेवाली है। योगनिद्रा और महामाया भी उसीके नाम है। प्रकृति सत्त्व, रज और तम - इन तीन गुणोंसे युक्त है। उसे अव्यक्त और प्रधान भी कहते हैं। वह लीलाविहारी श्रीकृष्णकी क्रीड़ास्थली है। संसारकी उत्पत्ति और प्रलय सदा उसीसे होते हैं। प्रकृतिके स्थान असंख्य हैं, जो घोर अन्धकारसे पूर्ण हैं। प्रकृतिसे ऊपरकी सीमामें विरजा नामकी नदी है; किन्तु नीचेकी ओर उस सनातनी प्रकृतिकी कोई सीमा नहीं है। उसने स्थूल, सूक्ष्म आदि अवस्थाओंके द्वारा सम्पूर्ण जगत्को व्याप्त कर रखा है। प्रकृतिके विकाससे सृष्टि और संकोचावस्थासे प्रलय होते है। इस प्रकार सम्पूर्ण भूत प्रकृतिके ही अन्तर्गत हैं। यह जो महान् शून्य (आकाश) है, वह सब भी प्रकृतिके ही भीतर है। इस तरह प्राकृतरूप ब्रह्माण्ड अथवा पादविभूतिके स्वरूपका अच्छी तरह वर्णन किया गया।
गिरिराजकुमारी ! अब त्रिपाद्-विभूतिके स्वरूपका वर्णन सुनो। प्रकृति एवं परम व्योमके बीचमें विरजा नामकी नदी है। वह कल्याणमयी सरिता वेदाङ्गोंके स्वेदजनित जलसे प्रवाहित होती है। उसके दूसरे पारमें परम व्योम है, जिस में त्रिपाद्-विभूतिमय सनातन, अमृत, शाश्वत, नित्य एवं अनन्त परम धाम है। वह शुद्ध, सत्त्वमय, दिव्य, अक्षर एवं परब्रह्मका धाम है। उसका तेज अनेक कोटि सूर्य तथा अग्नियों के समान है। वह धाम अविनाशी, सर्ववेदमय, शुद्ध, सब प्रकार के प्रलयसे रहित, परिमाण शून्य, कभी जीर्ण न होनेवाला, नित्य, जाग्रत्, स्वप्र आदि अवस्थाओंसे रहित, हिरण्यमय, मोक्षपद, ब्रह्मानन्दमय, सुख से परिपूर्ण, न्यूनता अधिकता तथा आदि-अन्तसे शून्य, शुभ, तेजस्वी होनेके कारण अत्यन्त अद्भुत, रमणीय, नित्य तथा आनन्दका सागर है। श्री विष्णु का वह परमपद ऐसे ही गुणोंसे युक्त है। उसे सूर्य, चन्द्रमा तथा अग्निदेव नहीं प्रकाशित करते - वह अपने ही प्रकाशसे प्रकाशित है। जहाँ जाकर जीव फिर कभी नहीं लौटते, वही श्री हरि का परम धाम है।
श्रीविष्णुका वह परमधाम नित्य, शाश्वत एवं अच्युत है। सौ करोड़ कल्पोंमें भी उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। मैं, ब्रह्मा तथा श्रेष्ठ मुनि श्रीहरिके उस पदका वर्णन नहीं कर सकते। जहाँ अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले साक्षात् परमेश्वर श्रीविष्णु विराजमान है, उसकी महिमाको वे स्वयं ही जानते हैं। जो अविनाशी पद है, जिसकी महिमाका वेदोंमें गूढ़रूपसे वर्णन है तथा जिसमें सम्पूर्ण देवता और लोक स्थित हैं उसे जो नहीं जानता, वह केवल ऋचाओंका पाठ करके क्या करेगा। जो उसे जानते हैं, वे ही ज्ञानी पुरुष समभावसे स्थित होते हैं। श्रीविष्णुके उस परम पदको ज्ञानी पुरुष सदा देखते है। वह अक्षर, शाश्वत, नित्य एवं सर्वत्र व्याप्त है। कल्याणकारी नामसे युक्त भगवान् विष्णुके उस परमधाम - गोलोक में बड़े सींगोंवाली गौएँ रहती हैं तथा वहाँकी प्रजा बड़े सुखसे रहा करती है। गौओं तथा पीनेयोग्य सुखदायक पदार्थोंसे उस परम धाम की बड़ी शोभा होती है।
वह सूर्यके समान प्रकाशमान, अन्धकारसे परे, ज्योतिर्मय एवं अच्युत- अविनाशी पद है। श्रीविष्णुके उस परम धामको ही मोक्ष कहते हैं। वहाँ जीव बन्धनसे मुक्त होकर अपने लिये सुखकर पदको प्राप्त होते हैं। वहाँ जानेपर जीव पुनः इस लोकमें नहीं लौटते; इसलिये उसे मोक्ष कहा गया है। मोक्ष, परमपद, अमृत, विष्णुमन्दिर, अक्षर, परमधाम, वैकुण्ठ, शाश्वतपद, नित्यधाम, परमव्योम, सर्वोत्कृष्ट पद तथा सनातन पद- ये अविनाशी परम् धामके पर्यायवाची शब्द हैं। अब उस त्रिपाद्विभूतिके स्वरूपका वर्णन करूँगा।
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