श्री हनुमद् गायत्री-मंत्र-विवेचन,Shri Hanumad Gayatri-Mantra-Vivechan

श्री हनुमद् गायत्री-मंत्र-विवेचन

मन्त्र-साधना अति प्राचीन है। वैदिक, तान्त्रिक एवं पौराणिक जीवन पद्धतिमें ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, शान्ति एवं पौष्टिक कर्म, प्रायश्चित्तादि कर्म सभी मन्त्राश्रित हैं। जपयज्ञ यज्ञोंमें मुख्य है एवं वह भी मन्त्राश्रित ही है। मन्त्र-साधना योग साधनाका प्रमुख अङ्ग है। मन्त्रोंमें अचिन्त्य शक्ति होती है। एवं वे चतुर्वर्गकी प्राप्ति, देवताका साक्षात्कार एवं परब्रह्मकी अनुभूति करानेमें समर्थ होते हैं।

विभिन्न देवोंके गायत्री मन्त्र - 

  • ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात् ॥
 यह सवितृदेवताका वैदिक गायत्री मन्त्र- मूल गायत्री है। आत्मशोधन, परब्रह्मकी उपासना एवं साक्षात्कारके लिये इसका जप किया जाता है। यह गायत्री सर्वशक्तिमयी एवं सर्वदेवमयी है। परंतु साधककी प्रकृति, कामना, इष्टकी प्राप्ति एवं अनिष्टके परिहारकी आवश्यकताके अनुसार परब्रह्मकी किसी एक विशिष्ट शक्तिरूप देवताकी आराधना-उपासनाको आवश्यकता पड़ती है। यथा विद्या-प्राप्तिके लिये हयग्रीव, सरस्वती या गणेशकी, धन-प्राप्तिके लिये लक्ष्मी या कुबेरकी, विघ्न विनाशके लिये गणेशकी, रोग-विनाशके लिये त्र्यम्बक महादेव (मृत्युंजय) की, संकट-निवारणके लिये दुर्गाकी, ग्रहबाधा, अभिचारादि प्रयोगोंके निवारणके लिये नृसिंह आदिकी।


अतः भिन्न-भिन्न देवोंकी शक्तिके साक्षात्कार तथा उनकी अनुग्रह-प्राप्तिके लिये मूल गायत्री मन्त्रके अनुकरणपर भिन्न-भिन्न देवताओंके गायत्री मन्त्रोंका साक्षात्कार उस-उस देवताके उपासक ऋषियोंको हुआ है- 'येनोद्धृतस्तु यो मन्त्रः ऋषिस्तस्य स एव च।' जिस मन्त्रका जिसने समाधि-दशामें प्रथम साक्षात्कार कर उद्धार किया, वही उस मन्त्रका ऋषि होता है। मन्त्र-साधनामें ऋषि गुरु- स्थानीय होता है। परंतु देव-गायत्रीकी साधनामें सामान्य नियम यह है कि मूल गायत्रीके जपके साथ देव- गायत्रीका दशांश जप होता है। अर्थात् यदि विद्याप्राप्तिकी विशेष कामनासे गायत्री साधना करनी हो तो मूल वैदिक गायत्रीकी १० माला (एक सहस्र) जप करनेके साथ गणपति या सरस्वतीकी गायत्रीकी एक माला (सौ बार) जपनी चाहिये। विशिष्ट प्रयोजनकी सिद्धि एवं शीघ्र फल प्राप्तिकी साधनामें मूल गायत्री-मन्त्रकी एक मालाका जप प्रारम्भमें करके विशिष्ट देव-गायत्रीका यथासंख्य या एक हजार या दस हजार जप करें एवं जपके अन्तमें पुनः वैदिक गायत्रीकी एक माला (१०८ संख्या) का जप करें।

हनुमद्गायत्री-मन्त्र- उपर्युक्त विवेचनके अनुसार देवताका साक्षात्कार, भगवत्प्रेमकी प्राप्ति, ब्रह्मचर्य एवं पराक्रमकी उपलब्धि, संकटसे मुक्ति, बाधा विपत्तिका निवारण, प्रेतादिके अपसारण एवं ज्वर, शूलादि रोगोंको दूर करनेके लिये हनुमानजीकी गायत्रीका जप विधिपूर्वक व्रतानुष्ठानके साथ किया जाता है। जप-शक्तिको अभीष्ट दिशामें प्रवाहित करनेके लिये जपके पूर्व नित्य अभीष्ट कामनाकी पूर्तिके लिये नियत संख्यावाले जपका संकल्पात्मक विनियोग करना आवश्यक है। श्रीहनुमानजी श्रीरामजीकी कला हैं, अतः जपके पूर्व श्रीहनुमानजी एवं श्रीरामचन्द्रजीका विधिपूर्वक श्रद्धा, भक्ति तथा विश्वासके साथ शुद्ध हृदयसे पूजन अनिवार्यरूपसे करना चाहिये। पूजनके बाद यथाविधि न्यास, ध्यान करके गुरु, मन्त्र, देवता एवं आत्मामें तादात्म्यभावसे अभेद चिन्तन करते हुए जप करना चाहिये।

श्री हनुमान जी के गायत्री मन्त्र के निम्नलिखित तीन रूप मिलते हैं-
  1. ॐ रामदूताय विद्महे कपिराजाय धीमहि। तन्नो मारुतिः प्रचोदयात् ॥ 
  2. ॐ आञ्जनेयाय विद्महे महाबलाय धीमहि।
  3. ॐ अञ्जनीसुताय विद्महे वायुपुत्राय धीमहि। तन्नो मारुतिः प्रचोदयात् ॥
इनमेंसे हम प्रथम मन्त्रको ही मुख्य हनुमद्‌गायत्री- मन्त्र मानकर इसकी यथामति व्याख्या करनेका प्रयत्न करेंगे। यह मन्त्र एकमुखी हनुमत्कवचमें उपलब्ध होता है। इस कवचके ऋषि श्रीरामचन्द्र हैं, वे ही इस गायत्री मन्त्रके ऋषि भी हैं। श्रीरामचन्द्र परब्रह्मके सगुण अवतार हैं। श्रीरामावतार-कालमें ही श्रीहनुमानजीकी शीक्त एवं उनके स्वरूपकी अभिव्यक्ति हुई थी, अतः श्रीरामचन्द्रका हनुमद्‌गायत्रीका ऋषि, साक्षात्कर्त्ता एवं उद्धारक होना उपयुक्त ही जंचता है। इस मन्त्रका छन्द गायत्री है एवं देवता श्रीमहावीर हनुमान हैं।

देहमास्थाय भक्तानां वरदानाच्च पार्वति ।
तापत्रयादिशमनाद् देवता परिकीर्तितः ॥

भक्तके देहमें निवास करते हुए वरदान देने तथा उसके तापत्रयका शमन करनेके कारण ब्रह्मकी व्यष्टि रूपा विशेष शक्तिको देवता कहते हैं। किसी मन्त्रके ऋषि, छन्द एवं देवताका ज्ञान प्राप्त करके उस देवता के अनुग्रह की प्राप्ति पूर्वक अभीष्ट सिद्धि के लिये मन्त्र-जपका विनियोग करना प्रशस्त होता है।
श्रीहनुमद्‌गायत्रीका अर्थ इस प्रकार है-

पदार्थ- (ॐ) 'ॐ' यह परब्रह्मका वाचक नाम है। सभी मन्त्रोंका मूल 'ॐकार' है, अतः इसे महामन्त्र भी कहते हैं। यह मन्त्रोंका सेतु है, इसलिये शास्त्रीय निर्देशके अनुसार प्रत्येक मन्त्रके आरम्भमें इसका उच्चारण होता है। इससे यह भी संकेत मिलता है कि उच्चार्यमाण मन्त्र और उसके देवताकी शक्तिका मूल 'ॐ' शब्दवाच्य परब्रह्म है। यह सभी तत्त्वोंका सार एवं प्रकाशक है। (रामदूताय) रामदूतके लिये या (द्वितीयार्थमें चतुर्थी विभक्तिका प्रयोग माननेपर) रामदूतको। (विद्महे) हम जानते हैं या हम जानें।(कपिराजाय) कपिराजके लिये या कपिराजको। (धीमहि) ध्यान करते हैं, धारण करते हैं, अथवा ध्यान करें, धारण करें। (तत्) उसको, उसकी ओर (उस ध्यान करनेयोग्य एवं धारण करनेयोग्य अत्युत्कृष्ट परब्रह्म तत्त्वकी ओर)।(नः) हमको, हमें। (हनुमान्) हनुमान नामक उपास्य इष्टदेव। (प्रचोदयात्) प्रेरित करें।
सरलार्थ- ओंकारमूलक रामदूतके लिये हम जानते हैं, कपिराजके लिये ध्यान करते हैं, धारण करते हैं, हनुमान हमें उस (अनिर्देश्य परम ब्रह्म तत्त्व) की ओर प्रेरित करें। अथवा ओंकारमूलक रामदूतको हम जानें, कपिराजको हम (ध्यान करें), धारण करें, हनुमान हमें उस (परतत्त्व) की ओर प्रेरित करें।

इस मन्त्रमें देवता हनुमानका स्वरूप, उपासनाका गूढ़ रहस्य एवं साधना विधि संकेतित है। मन्त्रके तीन पदोंमें तीन क्रियाएँ हैं और ये तीनों उपासनाके तीन अंग ज्ञान, ध्यान एवं समर्पण को सूचित करती हैं। गायत्रीके ये तीन पद ब्रह्मशक्तिके तीन रूपोंके सूचक भी हैं। वस्तुतः मूलदेवशक्ति एक ही है। परंतु वही व्यवहारमें सत्, चित्, आनन्द अथवा इच्छा, ज्ञान एवं क्रियाके रूपमें विभक्त हो जाती है। सच्चिदानन्ददेवकी सत् अथवा इच्छाशक्ति ही जीवकी सत्ता, शरीर एवं कामना, अभिलाषाके रूपमें प्रकट होती है। चित्, चेतना, ज्ञान या तपःशक्ति ('यस्य ज्ञानमयं तपः') जीवके चित्त, बुद्धि एवं विविध प्रकारके ज्ञान-विज्ञानके रूपमें परिमित मात्रामें अभिव्यक्त होती है एवं आनन्द या क्रियाशक्ति जीवात्माको अनुभूत होनेवाले नाना प्रकारके सुख-दुःख, प्रसन्नता-विषयादि तथा उसकी विविध क्रियाशक्ति एवं कर्मशक्तिके रूपमें प्रकट होती है।

इस प्रकार जीवकी त्रिविध शक्तियोंका मूल सच्चिदानन्द ब्रह्मकी शक्ति है, परंतु वह अविद्याके कारण अभिमानवश यह समझता है कि ये शक्तियाँ मेरी हैं। मैं ज्ञानी हूँ, मैं तपस्वी हूँ, मैं कर्ता हूँ, मैं सुख दुःखका भोक्ता हूँ, मेरा यह शरीरादि सम्पत्ति है- इस प्रकार वह अहंता और ममताके अभिमानसे युक्त हो जाता है। साधनाका प्रारम्भ सर्वविध कामना और अहंकारके त्याग, इष्टदेवताको ब्रह्मका रूप मानकर उसके प्रति पूर्ण समर्पण तथा देवताके स्वरूप-ज्ञानके उद्देश्यसे होता है। इस बातका संकेत 'रामदूताय विद्यहे'- हम रामदूतके लिये जानते हैं या जानें- इस प्रथम पादसे मिलता है।

'देवो भूत्वा देवं यजेत्-देवता बनकर देवताकी उपासना करे'- यह पूजा-उपासनाका मूल सिद्धान्त है। देवताके साथ तादात्म्य स्थापित करनेके पूर्व जीव भावकी- अहंभावकी बलि देनी होती है, देवोपासनाकी यज्ञाग्निमें अपनी सम्पूर्ण सत्ता- शरीर, प्राण, मन, हृदय, बुद्धि, अहंकार, चेता की पूर्णाहुति देनी पड़ती है। तब साधकका अपना कहनेको कुछ नहीं रह जाता। उसका व्यक्तित्व उसी देवतामें विलीन हो जाता है। वह देवताका वाहन या यन्त्र बन जाता है, देवतासे अधिष्ठित होता है, उसके शरीरमें देवताका वास होता है, वह सदैव इष्टदेवकी भावनासे अनुभावित रहता है। वह जीता है तो देवताके लिये। ज्ञानादिका सम्पादन कर बुद्धि आदिका विकास करता है तो देवताके लिये। साधना, ध्यान, तप आदि करता है या देव-शक्तिको अपनेमें धारण करता है 

तो देवताके लिये एवं उसके द्वारा विश्वमें 'देवताका कार्य सम्पादन होनेके लिये। चतुर्थ्यन्त पदसे 'देवताके लिये जीओ, ईश्वरके लिये ही ज्ञान-ध्यानादि साधनाओंका सम्पादन करो' का संकेत किया गया है। इस दिशामें श्रीहनुमानजीका 'रामदूत' के रूपमें चरित सभी प्रकारसे अनुकरणीय, आदर्श स्वरूप एवं जानने योग्य है। 'रामदूत' के रूपमें हनुमानजी निरभिमानता, निष्कामता, पूर्ण समर्पण, प्रभु-सेवा भक्ति, कर्म-कुशलता, विविध ज्ञान, नीतिमत्ता एवं प्रचण्ड कर्मठताकी साक्षात् मूर्ति हैं। मनुष्यकी सभी क्रियाएँ ज्ञानमूलक, ज्ञानाश्रित एवं बुद्धिप्रेरित होती हैं। ज्ञानका आश्रय बुद्धि है, जो जीवात्माके व्यवहारका प्रधान उपकरण या साधन है। जैसा ज्ञान होगा, वैसी क्रिया होगी। जैसी बुद्धि होगी, उसी रूपमें वह ज्ञानको ग्रहण कर सकेगी। उपास्यके स्वरूपका जैसा ज्ञान होगा, वैसी ही साधककी साधना एवं उसका आहार-आचार होगा। अतः ज्ञानको ग्रहण करनेवाली बुद्धि भी शुद्ध, सात्त्विक, निर्मल एवं शान्त होनी चाहिये एवं उसमें प्रतिफलित होनेवाला ज्ञान भी भ्रान्ति और अपूर्णतादि दोषोंसे रहित, यथार्थ होना चाहिये। यथार्थ ज्ञानमें शास्त्र एवं गुरु-वाक्य ही प्रमाण हैं।

तद् विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया'। तत्त्वदर्शी, ज्ञानी गुरुकी श्रद्धा एवं विनयपूर्वक सेवा करनेसे एवं प्रबुद्ध विवेकके साथ शिष्यभावसे जिज्ञासा करनेपर तत्त्व ज्ञान प्राप्त होता है। गुरु-मुखसे शास्त्रका श्रवण, अध्ययन करके स्वाध्याय, मनन एवं निदिध्यासन करनेसे ज्ञानका हृदयमें साक्षात्कार होता है। ज्ञानका अर्थ मानसिक या बौद्धिक रूपसे किसी विषयको अंशतः जानना नहीं है, अपितु ज्ञेय विषयमें प्रवेश कर उसके साथ तादात्म्य स्थापित करके उसके अशेष रूपको सम्पूर्ण रूपसे साक्षात् करना है। ऐसा ज्ञान ही पूर्ण प्रकाशमय एवं अशेष होता है। वह आत्माद्वारा प्रत्यक्षीकृत होता है। इन्द्रियजन्य ज्ञान आंशिक, त्रुटियुक्त, सीमित एवं भ्रान्तियुक्त होता है। आत्मतत्त्वका या ब्रह्मतत्त्वका ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है, अतः यहाँ उसी परतत्त्वको आत्मसाक्षात्कारद्वारा जाननेकी बात कही गयी है। ब्रह्मजिज्ञासा, देवतत्त्वको तादात्म्य एवं साक्षात्कारकी प्रक्रियासे जाननेके संकल्पके साथ उपासनाका आरम्भ होता है। साधक जो कुछ करता है, वह देव- प्रीत्यर्थ- देवार्पित बुद्धिसे करता है। श्रीकृष्णने गीतामें स्पष्ट ही अर्जुनको कहा है कि 'तुम जो भी भोजन, होम, दान, तप आदि क्रियाएँ एवं जीवन-व्यापार करते हो, वह सब मुझ ईश्वरको अर्पित कर दो। यहाँ हनुमदुपासकके ज्ञानादि कर्म हनुमत्स्वरूपको जानने एवं श्रीहनुमानजीकी प्रीतिके लिये उन्हींके समर्पित हैं। यही रामदूताय विद्यहे', इस प्रथम पादमें संकेतित है।

हनुमद्‌गायत्रीका द्वितीय पाद है- 'कपिराजाय धीमहि' कपिराजके लिये हम ध्यान करते हैं, धारण करते हैं अथवा कपिराजको हम ध्याते हैं, धारण करते हैं। 'धीमहि' यह क्रियापद चिन्तनार्थक 'ध्यै (क्रया०)' धातुसे अथवा धारणार्थक 'धा' धातुसे निष्पन्न हुआ है, अतः इसका ध्यान (चिन्तन) एवं धारणा दोनों अर्थ हो सकते हैं- 
  • ' धीमहि घ्यायामो मनसा धारयामो वा ।।'
प्रथम पादमें सत्तार्थक एवं ज्ञानार्थक 'विद्' धातु से निर्मित क्रियापद द्वारा परब्रह्ममूलक इष्टदेवकी सत्ता (आनन्द-स्पन्दलक्षणा) को जाननेकी बात कही गयी थी। इस द्वितीय पादमें मनन एवं निदिध्यासनद्वारा उस ज्ञान की विचारधारा की निरवच्छिन्नता को बनाये रखने तथा ध्यानद्वारा देवताके साथ अभेदरूप होकर उसको अपने अंदर धारण करनेका संकल्प किया गया है। अहिर्बुध्न्यसंहिताके अनुसार-
  • धीमहीत्यत्र धीर्ज्ञानं मननं भावनं तथा ।।
'धीमहि' शब्दमें 'धी' अंश ज्ञान, मनन एवं भावन अर्थका वाचक है। यह उपासनाकी प्रक्रियामें मनन एवं निदिध्यासन की अवस्थाका निर्देशक है। तत्त्वज्ञान केवल बुद्धितक सीमित न रहकर जीवात्माकी सम्पूर्ण सत्ताको प्रकाशित कर दे, उसकी सम्पूर्ण चेष्टाओं एवं कार्य- कलापोंमें वह ब्रह्मज्ञान स्थितप्रज्ञकी चेष्टाकी भाँति धारित हुआ दिखायी दे- यह 'धीमहि' पदका भाव है। 'स श्रुतेन गमेमहि' ज्ञानके अनुसार हमारी गति हो, इस वैदिक श्रुतिका भी यही अभिप्राय है।
निरवच्छिन्न तैलधाराकी भाँति ज्ञानवृत्तिका प्रवाह अविराम रूपसे बना रहना 'ध्यान' कहलाता है। भागवत-चेतना या दैव-चेतनाके साथ आत्मचेतनाके अभेदकी सतत ज्ञानमयी वृत्ति बनी रहे एवं वह वृत्ति निष्कम्प दीपशिखाके सदृश सदैव स्थिर रहे यह 'धीमहि' पदसे संकेतित है। इसी बातको भगवान् श्रीकृष्णने गीतामें 'मामनुस्मर युध्य च- मेरा सतत स्मरण करते हुए युद्धादि (जगत्‌के कार्य) करो' - इस वाक्यसे कहा है।

'यथाक्रतुः पुरुषो भवति'- जैसा संकल्प (चिन्तन) होता है, वैसा पुरुष बन जाता है- यह सिद्धान्त है। ब्रह्म या देवके सतत ध्यान (चिन्तन) से उपासक ब्रह्मरूप या देवरूप हो जाता है। वैदिक गायत्री मन्त्रके 'धीमहि' पदकी व्याख्या करते हुए प्रायः सभी व्याख्याकारोंने 'धीमहि' पदका 'सोऽहंभाव' से अभेदरूपमें ध्यान अथवा परतत्त्वका निरन्तर अनुसंधानात्मक निदिध्यासन- ऐसा अर्थ किया है। यथा -

  1. धीमहि आत्मना आत्मरूपेण ध्यायेम। ध्यानं नाम सर्वशरीरेषु चैतन्यैकतानता ।। "धीमहि' का अर्थ है- आत्माद्वारा आत्मरूपका ध्यान, चिन्तन करें। सभी शरीरोंमें एक ही चैतन्य है, ऐसा ज्ञान एवं अनुभव होना 'ध्यान' है।"
  2. धीमहि तद् योऽहं सोऽसौ योऽसौ सोऽहमिति वयं ध्यायेम ॥ 'जो मैं हूँ, वह वह (आदित्यतेजोगत) पुरुष है, जो वह है, वह मैं हूँ इस प्रकार (जीव एवं ब्रह्ममें सोऽहं-भावसे अभेदका) हम ध्यान करें।'
  3. धीमहि तदेवाहमस्मि तद्दासोऽहमिति वा ध्यायेम ॥ - भट्टोजी दीक्षित 'वह ब्रह्म ही मैं हूँ अथवा मैं उस (ब्रह्म) का दास हूँ इस प्रकार हम ध्यान करें।'
  4. धीमहीति - निगमाद्येन दिव्येन विद्यारूपेण चक्षुषा। यः सूक्ष्मः सोऽहमित्येव चिन्तयामः सदैव तु ॥प्रपश्शसारतन्त्र 'वेद-शास्त्रादि दिव्य विद्यारूपी चक्षुके द्वारा  'जो सूक्ष्म ब्रह्म है, वह मैं हूँ'- ऐसा सदैव चिन्तन करें।'
  5. यन्मे स्वरूपं तत्सर्वाधिष्ठानभूतं परमानन्दं निरस्तसमस्तानर्थरूपं स्वप्रकाशचिदात्मकं ब्रह्येत्येवं धीमहि, ध्यायेम।"जो मेरा स्वरूप है, वह सभीका अधिष्ठानभूत, परमानन्द, समस्त अविद्याप्रपञ्चरूप अनर्थसे रहित, प्रकाशचैतन्यात्मक ब्रह्म है' ऐसा हम ध्यान करें।"
'घ्यातृध्येयव्यापाराभिन्नतत्त्वमेव ध्यानम्'- चित्तको सभी वृत्तियोंसे शून्य करके 'सोऽहम्' की भावनाके द्वारा ध्याता एवं ध्येयमें अभेदवृत्तिका सम्पादन करना ही 'ध्यान' है। ध्यानकी यह यौगिक प्रक्रिया उपासना का मुख्य अङ्ग, जीवात्माका परम कल्याण करनेवाली, देवताका सांनिध्य प्राप्त करानेवाली एवं ब्रह्मसाक्षात्कारके साधनभूत समाधिकी प्राप्तिमें परम सहायक है। गायत्रीका जप इस अभेद ध्यानके साथ ही नित्य अविरामरूपसे नियत स्थान एवं नियत समयपर करना चाहिये। ध्यानावस्था में जो अभेद रूपसे सर्वत्र एक चैतन्यात्मा का चिन्तन होता है, उसकी वृत्तिका प्रवाह जाग्रत्-दशा एवं व्यवहार-कालमें भी प्रवाहित होते रहना चाहिये। इसके लिये यह आवश्यक है कि हम देहादिके पार्थिव बोधसे अपनेको पृथक् करके आत्मचैतन्यके स्वस्वरूप- बोधमें प्रतिष्ठित हों। जितना ही अधिक हम अपने चैतन्यरूपके स्वरूप-बोधके प्रति जाग्रत् होंगे, उतना ही अधिक हम सर्वव्यापक चैतन्यके साथ एकात्मताका अनुभव करेंगे तथा इस स्वरूप-बोधकी सतत स्मृतिके साथ ही हम अधिक व्यापकता, सामर्थ्य एवं गम्भीरताके साथ ब्रह्म-चैतन्य या देव-चैतन्यको अपने अंदर धारण कर सकेंगे।

तब हमें अपनी सत्ताके सभी अंगोंसे उन सभी भावों, विचारों, कामनाओं, कार्योंको निकाल बाहर करना होगा, जो देवत्वके विरोधी हैं, आसुरी हैं। इस प्रकार जब हमारी सत्ताके सभी अङ्ग निर्मल, पवित्र, आत्माके प्रकाशसे पूर्ण एवं केवल ब्रह्म या इष्टदेवताके निवासके लिये ही वासभूमि या मन्दिरके रूपमें होंगे, तभी हम देवशक्तिको अधिकाधिकरूपमें एवं स्थायी तौरपर अपने अंदर धारण करनेमें समर्थ हो सकेंगे। तब इस अभेदभावनारूपी धारणा एवं ध्यानके निरन्तर अभ्याससे भावनाकी प्रगाढ़ता होनेपर उपासकका देवरूपमें रूपान्तर होना सम्भव हो सकेगा, अथवा जैसे हनुमानजीद्वारा हृदय फाड़कर दिखा देनेपर वहाँसे भी श्रीराम-रामकी ध्वनि सुनायी पड़ती थी, वैसे ही इष्टदेवमय उपासकके रोम-रोमसे इष्टदेवताके नामकी ध्वनि गूँजती हुई सुनायी पड़ेगी। तभी यह कहा जा सकेगा कि उसने इष्टदेवको अपने अंदर धारण कर लिया।
'धीमहि' के साथ 'कपिराजाय' का प्रयोग सार्थक एवं साभिप्राय है। हनुमानजीका राम-दूतत्व कपिराजके रूपमें प्रकट हुआ था। प्रत्येक योनि-शरीरका अपना- अपना विशेष गुण एवं धर्म है। कपि-जातिकी स्वामिभक्ति प्रसिद्ध है। रामचरितमानसमें रावणने भी वानरोंके इस जाति-सिद्ध गुणकी प्रशंसा की है-

हँसि बोलेउ दसमौलि तब कपि कर बड़ गुन एक। 
जो प्रतिपालङ्ग तासु हित करड़ उपाय अनेक ॥

धन्य कीस जो निज प्रभु काजा। 
जहें तहँ नाचड़ परिहरि लाजा ॥ 
नाचि कूदि करि लोग रिझाई। 
पति हित करड़ धर्म निपुनाई ॥
अंगद स्वामिभक्त तव जाती। 
प्रभु गुन कस न कहसि एहि भाँती ॥ 

हनुमानजी स्वामिभक्तोंके तो आदर्श हैं। रावणकी सभा में बाँधे जाने और अपमानित किये जानेपर भी वे बुरा नहीं मानते। उस प्रतिकूल परिस्थितिमें भी वे स्वामिकाज साधनकी ही बात सोचते हैं-

मोहि न कछु बाँधे कड़ लाजा। 
कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा ।।

श्रीमद्भागवतपुराण (५। १९। ७) में हनुमानजी कहते हैं कि 'भगवान् श्रीरामकी वानरोंके साथ मित्रता होनेमें भक्तिकी अतिशयता एवं प्रभुकी भक्तवत्सलता प्रकट होती है। प्रभुकी प्राप्तिमें भक्ति ही प्रधान कारण है, जन्म, बुद्धि, सौन्दर्यादि नहीं। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि महापुरुष उसी शरीरका आदर करते हैं, जिससे भगवान्‌की भक्ति-सेवा हो सके। वानर-शरीरसे प्रभु श्रीरामकी स्वाभाविक रूपसे आदर्श सेवा हो सकेगी-ऐसा विचार कर भगवान् शंकर कपि-योनिमें हनुमान बन गये।

जेहि सरीर रति राम सों सोइ आदरहिं सुजान। 
रुद्रदेह तजि नेहबस बानर भे हनुमान ॥

'कपि' शब्द चलनार्थक 'कम्प' धातुसे (कुडि- कम्प्योर्नलोपश्च) इस औणादिक सूत्रद्वारा 'इ' प्रत्यय तथा 'न' लोप करनेसे निष्पन्न हुआ है। 'चलना' नाना प्रकारकी क्रियाओंका सूचक है। 'कपिराज' शब्दसे रामदूतकी वेगवत्ता, क्षिप्रकारिता, सर्वत्र गतिशीलता एवं विविध प्रकारके कर्मोंमें दक्षता सूचित होती है। पूर्वपदमें वर्णित परतत्त्व एवं रामदूतके स्वरूप ज्ञानकी अविराम गतिशीलता भी इस कपिराज शब्दसे संकेतित है।
एकमुखी हनुमत्कवचमें 'कपिराज' का ध्येय रूप इस प्रकारका है-

उद्यन्मार्तण्डकोटिप्रकटरुचियुतं चारुवीरासनस्थं
मौञ्जीयज्ञोपवीतारुणरुचिरशिखाशोभितं कुण्डलाङ्कम् ।
भक्तानामिष्टदं तं प्रणतमुनिजनं वेदनादप्रमोदं
ध्यायेद् देवं विधेयं प्लवगकुलपतिं गोष्पदीभूतवाद्धिम् ॥ 

जो उदय होते हुए कोटि सूर्यके समान कान्तिसे युक्त, सुन्दर वीरासनसे स्थित, मुञ्ज निर्मित मेखला, यज्ञोपवीत, सुन्दर अरुण शिखासे सुशोभित, कानोंमें स्वर्णकुण्डलसे युक्त, भक्तोंकी मनोवाञ्छाको पूर्ण करनेवाले, मुनिजनोंसे नमस्कृत, वेदध्वनिके श्रवणसे प्रमुदित समुद्रको लाँघनेके समय गोष्पद (गौके खुरके समान अत्यल्प) के समान कर देनेवाले और श्रीरघुनाथके किंकर हैं, उन वानरकुलपति हनुमानदेवका ध्यान करना चाहिये। श्रीतुलसीदासजीने भी कपीन्द्रका उदयकालीन सूर्यके समान रक्तवर्णका ध्यान करनेका संकेत किया है- 

लाल देह लाली लसे अरु धरि लाल लँगूर। 
बज्रदेह दानव दलन जय जय जय कपि सूर ॥ 

जिस देवताकी श्रद्धापूर्वक भक्ति की जाती है, उसका वास भक्त-शरीरमें तथा भक्तका वास देवता- शरीरमें हो जाता है। यही है ध्यानद्वारा देवतत्त्वको धारण करना। 'ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ॥' (गीता ९। २९) यह भगवद्वचन भी इसकी पुष्टि करता है।

हनुमद्‌गायत्री का तृतीय पाद है- तन्नो हनुमान् प्रचोदयात्। तत्नः तन्नः। 'तत्पदवाच्य परब्रह्मके प्रति हनुमान हमें प्रेरित करें।'- यह उपासककी प्रार्थना है। 'तत्' शब्द द्वितीयाके एक वचनमें है। इसका अर्थ है वह, उसको, उसकी ओर। यह सर्वनाम अन्यपुरुषवाची है एवं दूरस्थ वस्तुका संकेत करनेमें प्रयुक्त होता है। यहाँ 'तत्' पद मन-वाणीके अगोचर, अकृतात्माके लिये अति दूर, सर्वोत्कृष्ट ब्रह्मके लिये प्रत्युक्त हुआ है। गीता (१७। २३) के अनुसार ब्रह्मका संकेत ओम्, तत्, सत्-इन तीन पदोंसे किया जाता है। 'तद्‌बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः।' (गीता ५।१७) इस श्लोकमें भी तत्पद ब्रह्मवाची है। प्रपञ्चसारतन्त्र' के अनुसार वैदिक गायत्रीमें 'तत्' पद अखिल सृष्टिकी उत्पत्ति-स्थिति-लयके कारणभूत, आदित्य-मण्डलस्थ तेजोरूप सदानन्द परब्रह्मका वाचक है-

त‌द्वितीयैकवचनमनेनाखिलवस्तुनः !!
सृष्ट्यादिकारणं तेजोरूपमादित्यमण्डले।
अभिध्येयं सदानन्दं परब्रह्माभिधीयते ॥

सभी वेदादि शास्त्र, मन्त्र, तप, व्रतादिके एकमात्र लक्ष्य सच्चिदानन्द ब्रह्म हैं-

सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति तपासि सर्वाणि च यद्वदन्ति ।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदः संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत् ॥

सम्पूर्ण सृष्टि ब्रह्मरूपात्मक है। सभी देवता परब्रह्मके अंश हैं। जैसे अंशका अंशीमें अवसान होता हैं, वैसे ही किसी भी देवताकी उपासनाका अवसान अन्तमें परब्रह्ममें ही होता है। किसी भी देवताकी पूजा प्रकारान्तरसे परब्रह्मकी ही पूजा है, ऐसा स्पष्ट कथन गीतामें मिलता है-

येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः । 
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।

परब्रह्म महेश्वर ही सभी यज्ञोंके, सभी पूजा एवं उपासनाके भोक्ता तथा स्वामी हैं। जो उनको न जानकर सीमित बुद्धिसे यजन-पूजनादि कर्म कामनापूर्वक करते हैं, वे तत्त्व-भ्रष्ट हो जाते हैं-

अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ॥
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् । 
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ।।

अतः यहाँ तत्पद परब्रह्मका ही वाचक है। हनुमद्‌गायत्रीका लक्ष्य भी श्रीहनुमानजीके अनुग्रहसे सच्चिदानन्दात्मक श्रीरामपदवाच्य परब्रह्मको पाना है। उसीकी प्राप्तिकी ओर हमारी बुद्धि, कर्मादिकी चेष्टाओं एवं अन्तःकरणकी वृत्तियोंको हनुमान प्रेरित करें, ऐसी प्रार्थना की गयी है। 'नः' (हमको) पदमें बहुवचनका प्रयोग गूढ़ अभिप्रायसे किया गया है। उपासनाके प्रारम्भमें उपासक जब अपने 'अहं' का लोप करके अपनी चेतनाको विश्व-चेतनामें मिलाकर विश्वात्मरूप हो देवतासे तादात्म्य स्थापित करता है, तब उसके व्यक्तित्वकी इकाईका, निज बुद्धिका भी लोप हो जाता है। उस समय वह उपासकरूपमें व्यष्टि होते हुए भी मानव- चेतनाकी समष्टिका केन्द्र होता है। जितने अंशोंमें वह ब्रह्मपदके निकट पहुँचता है, उतने ही अंशोंमें समग्र मानव-चेतना भी अध्यात्मके ब्रह्मपथपर अग्रसर होती है। वह अकेले ब्रह्मानन्दका उपभोग नहीं करना चाहता, अपितु सम्पूर्ण मानव जातिको ही ब्रह्म-चैतन्यसे आप्लावित कर ब्रह्मपदतक ले जाना चाहता है। सर्वत्र आत्मदर्शनकी भावनाके कारण ही यहाँ प्रार्थनामें एकवचनके स्थानपर बहुवचनका प्रयोग हुआ है।

'हनुमान' रामदूत कपिराजका व्यक्तिसंज्ञक नाम है। श्रीरामकार्य-साधनके लिये ही इनका जन्म हुआ था। ये अञ्जना देवी के गर्भसे सम्भूत वानरराज केसरीके क्षेत्रज पुत्र एवं वायुके औरस पुत्र हैं। भगवान् सूर्य इनके आचार्य हैं। ये सभी विद्याओंके निधान, महातपस्वी, महापराक्रमी, कामरूप, कामचारी, अति तेजस्वी एवं शौर्य, दक्षता, प्रज्ञा, धैर्य, नीति, प्रभाव एवं भक्तिसे सम्पन्न हैं। ये सुग्रीवके सखा थे। ये दास्य-भक्तिके परमादर्श एवं चिरंजीवी हैं। 'हनुमान' शब्दकी व्युत्पत्ति हिंसागत्यर्थक 'हन्' धातुसे 'उ' एवं 'मतुप्' प्रत्यय लगानेसे हुई है। 'गति' शब्दके ज्ञान, गमन आदि कई अर्थ होते हैं। इस प्रकार इनके नामसे ही इनका पराक्रम, संहारशक्ति, ज्ञान, गति, भक्ति, नीति एवं विविध सिद्धियोंसे सम्पन्न होना सूचित होता है। कहते हैं, बचपनमें इन्द्रके वज्र प्रहारसे इनकी बार्थी ठुड्डी टूट गयी थी, अतः इनका नाम 'हनुमान' पड़ा। ये स्वयं परब्रह्मके अवतार श्रीरामके परम प्रिय भक्त तो हैं ही, कृपाकर अपने भक्तोंको भी श्रीरामका दर्शन करा देते हैं। श्रीगोस्वामी तुलसीदासजीको इनकी कृपासे ही भगवान् श्रीरामके दर्शन हुए थे। श्रीरामके साथ हनुमानजीकी कीर्तिका प्रीतिपूर्वक गान संसार-समुद्रसे पार करनेवाला है, ऐसा स्वयं भगवान् श्रीरामने रामचरितमानस में कहा है- 

मोहि सहित सुभ कीरति तुम्हारी परम प्रीति जो गाइहैं। 
संसार सिंधु अपार पार प्रयास बिनु नर पाइहैं।

हनुमानजी सभी सिद्धियोंको तथा परम प्रसन्न होनेपर श्रीराम-भक्तिको भी देनेवाले हैं। उनकी उपासनासे सभी संकट दूर होते हैं, व्याधिजनित पीड़ाएँ नष्ट होती हैं, दुर्गम कार्य सिद्ध होते हैं, कुमति दूर होकर सुमति एवं सर्वसुखकी प्राप्ति होती है। 

अष्ट सिद्धि नव निधि के दाता।
अस बर दीन जानकी माता ॥
राम रसायन तुम्हरे पासा।
सदा रहो रघुपति के दासा ॥
दुर्गम काज जगत के जेते। 
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ॥
नासै रोग हरै सब पीरा।
जपत निरंतर हनुमत बीरा ॥
संकट तें हनुमान छुड़ावै।
मन क्रम बचन ध्यान जो लावै ॥
और देवता चित्त न धरई।
हनुमत सेइ सर्व सुख करई ॥

'प्रचोदयात्' (प्रेरित करे) पद साधकके यन्त्र- भाव एवं पूर्ण समर्पणको सूचित करता है। साधनाके आरम्भमें जबतक साधकके अहंभाव तथा कामनाओंका लोप नहीं होता एवं बुद्धिमें रजोविकारात्मक चञ्चलता रहती है, तबतक उसका अपना संकल्प और प्रयत्न अधिक कार्यशील रहता है। वह सजग साक्षीभावसे देखता रहता है कि उसके बुद्धि-मन-प्राणकी कौन-सी चेष्टाएँ देवताके प्रति निरन्तर समर्पणशील हैं तथा कौन-सी असुरत्वके प्रति झुकाव रखती हैं। वह आत्मनिरीक्षणके द्वारा खोज-खोजकर अपनेमेंसे देवविरोधी आसुरीवृत्तियों, भावों एवं चेष्टाओंको निकालता जाता है तथा उनके स्थानपर समर्पणके द्वारा देवत्वकी स्थापना करता जाता है। बढ़ती हुई समर्पणशीलताके साथ देवशक्ति भी उसमें बढ़ने लगती है, अधिकाधिक क्षेत्रमें स्थायीरूपसे निवास करने लगती है एवं अन्तःकरण, बुद्धि, मन, प्राणादिको अधिकाधिक दैव संकल्पके अनुकूल संचालित करने लगती है। अहंकार और कामनाके पूर्ण विनाशके साथ सर्वाङ्गीण आत्मसमर्पणके होते ही साधकके निज संकल्प या निज चेष्टाका भी लोप हो जाता है। वह पूर्णरूपसे देवताका यन्त्र बन जाता है।

शरीरसे बुद्धिपर्यन्त सभी अंग देवशक्तिद्वारा नियन्त्रित, प्रेरित, संचालित और रूपान्तरित होते हैं। साधकको जगत्में ईश्वरका कौन-सा कार्य किस रूपमें करना है तथा उसकी सत्ताके कौन-से अंग कब किस रूपमें कार्यशील होने हैं- यह सब निर्णय देवशक्ति करती है। जैसे मशीन अपने-आप कुछ नहीं सोचती या करती, उसमें विद्युत्-शक्तिका संचार होते ही या चालकके चलाते ही वह अपनी प्रकृतिके अनुसार निर्धारित कार्य लगती है, उसी प्रकार साधक निज संकल्प, निज एवं कर्तृत्वभावनासे रहित होकर केवल देवताका यन्त्रमात्र होता है। उसकी निर्मल एवं शान्त बुद्धि तथा अन्तःकरणमें देवताका संकल्प प्रतिभासित होकर उसे देवशक्तिद्वारा प्रेरित एवं चालित करता है। इसी अवस्थातक पहुँचानेकी प्रार्थना यहाँ की गयी है। हमारी बुद्धि आदि वृत्तियाँ कामना या अहंकारसे संचालित न होकर देवतासे प्रेरित एवं संचालित हों तथा उस देवप्रेरित बुद्धि आदिकी चेष्टाओंको ब्रह्मार्पित भावसे करते हुए हम ब्रह्मपदतक पहुँचें। चेतनाचेतन सबका प्रेरक ब्रह्म है,

देवताके द्वारा प्रेरणा करनेवाला भी वही है, इस रूपमें हमारी बुद्धि सर्वत्र ब्रह्मशक्तिका ही कार्य कर रही है- इस तत्त्वका अनुभव करें- ऐसा भी भाव इस 'प्रचोदयात्' में संकेतित किया गया है। सर्वत्र ब्रह्मशक्तिके दर्शन होनेसे तथा शरीर, प्राण, मन, हृदय एवं बुद्धि-सभीके देवताद्वारा नियन्त्रित एवं ब्रह्मत्वके प्रति प्रेरित होनेसे जीवन देवसंचालित बन जाता है। देवशक्तियुक्त एवं देवसंचालित दिव्य जीवनसे ही देवकार्य सिद्ध होते हैं। अतः मनुष्यत्वसे देवत्वकी ओर बढ़ो और पुनः देवत्वसे ऊपर उठकर परब्रह्मको प्राप्त होओ-यही हनुमद्‌गायत्रीका संदेश है। मनुष्यसे देव बननेकी साधनाका रहस्य 'रामदूत' के चरित एवं आदर्शमें पूर्णतया प्रस्फुटित हुआ है। हनुमानके सम्पूर्ण चरितमें कहीं भी निजकी इच्छा, संकल्प या कर्तापनका अभिमान नहीं है। उनका चरित भगवदर्पित, भगवत्प्रेरित, भगवत्संकल्पसे संचालित एवं भक्तकार्य-कर्ताका आदर्श रूप है।

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