श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय का महत्त्व,Shreemadbhagavadgeeta Ke Teesare Adhyaay Ka Mahattv

श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय का महत्त्व

श्रीभगवान् कहते हैं- प्रिये। जनस्थानमें एक जड नामक ब्राह्मण था, जो कौशिक-वंशमें उत्पन्न हुआ था। उसने अपना जातीय धर्म छोड़कर बनियेकी वृत्तिमें मन लगाया। उसे परायी स्त्रियोंके साथ व्यभिचार करनेका व्यसन पड़ गया था। वह सदा जुआ खेलता, शराब पीता और शिकार खेलकर जीवोंकी हिंसा किया करता था। इसी प्रकार उसका समय बीतता था। धन नष्ट हो जानेपर वह व्यापारके लिये बहुत दूर उत्तर दिशामें चला गया। वहाँसे धन कमाकर घरकी ओर लौटा। बहुत दूरतकका रास्ता उसने तै कर लिया था। एक दिन सूर्यास्त हो जानेपर जब दसों दिशाओं में अन्धकार फैल गया, तब एक वृक्षके नीचे उसे लुटेरोंने धर दबाया और शीघ्र ही उसके प्राण ले लिये। उसके धर्म का लोप हो गया था, इसलिये वह बड़ा भयानक प्रेत हुआ।

उसका पुत्र बड़ा धर्मात्मा और वेदोंका विद्वान् था। उसने अबतक पिताके लौट आनेकी राह देखी। जब वे नहीं आये, तब उनका पता लगानेके लिये वह स्वयं भी घर छोड़कर चल दिया। वह प्रतिदिन खोज करता, मगर राहगीरों से पूछने पर भी उसे उनका कुछ समाचार नहीं मिलता था। तदनन्तर एक दिन एक मनुष्यसे उसकी भेंट हुई, जो उसके पिताका सहायक था। उससे सारा हाल जानकर उसने पिताकी मृत्युपर बहुत शोक किया। वह बड़ा बुद्धिमान् था। बहुत कुछ सोच-विचार कर पिताका पारलौकिक कर्म करने की इच्छा से आवश्यक सामग्री साथ ले उसने काशी जानेका विचार किया। मार्गमें सात-आठ मुकाम डालकर वह नवें दिन उसी वृक्षके नीचे पहुँचा, जहाँ उसके पिता मारे गये थे। उस स्थानपर उसने सन्ध्योपासना की और गीता के तीसरे अध्याय का पाठ किया। इसी समय आकाशमें बड़ी भयानक आवाज हुई। उसने अपने पिताको भयंकर आकारमें देखा; फिर तुरंत ही अपने सामने आकाशमें उसे एक सुन्दर विमान दिखायी दिया, जो महान् तेजसे व्याप्त था। उसमें अनेकों क्षुद्र घण्टिकाएँ लगी थीं। उसके तेजसे समस्त दिशाएँ आलोकित हो रही थीं। यह दृश्य देखकर उसके चित्तकी व्यग्रता दूर हो गयी। उसने विमानपर अपने पिताको दिव्यरूप धारण किये विराजमान देखा। उनके शरीरपर पीताम्बर शोभा पा रहा था और मुनिजन उनकी स्तुति कर रहे थे। उन्हें देखते ही पुत्रने प्रणाम किया। तब पिताने भी उसे आशीर्वाद दिया ।


तत्पश्चात् उसने पितासे यह सारा वृत्तान्त पूछा। उसके उत्तरमें पिताने सब बातें बताकर इस प्रकार कहना आरम्भ किया- 'बेटा! दैववश मेरे निकट गीताके तृतीय अध्यायका पाठ करके तुमने इस शरीरके द्वारा किये हुए दुस्त्यज कर्म-बन्धनसे मुझे छुड़ा दिया। अतः अब घर लौट जाओ; क्योंकि जिसके लिये तुम काशी जा रहे थे, वह प्रयोजन इस समय तृतीय अध्याय के पाठसे ही सिद्ध हो गया है।' पिताके यों कहनेपर पुत्रने पूछा- 'तात! मेरे हितका उपदेश दीजिये तथा और कोई कार्य जो मेरे लिये करनेयोग्य हो बतलाइये।' तब पिताने उससे कहा- 'अनघ ! तुम्हें यही कार्य फिर करना है। मैंने जो कर्म किया है, वही मेरे भाईने भी किया था। इससे वे घोर नरकमें पड़े हैं। उनका भी तुम्हें उद्धार करना चाहिये तथा मेरे कुलके और भी जितने लोग नरकमें पड़े हैं, उन सबका भी तुम्हारे द्वारा उद्धार हो जाना चाहिये; यही मेरा मनोरथ है। बेटा! जिस साधनके द्वारा तुमने मुझे संकटसे छुड़ाया है। उसीका अनुष्ठान औरोंके लिये भी करना उचित है। उसका अनुष्ठान करके उससे होनेवाला पुण्य उन नारकी जीवोंको सङ्कल्प करके दे दो। इससे वे समस्त पूर्वज मेरी ही तरह यातनासे मुक्त हो स्वल्पकालमें ही श्रीविष्णुके परमपदको प्राप्त हो जायेंगे।'
पिताका यह सन्देश सुनकर पुत्रने कहा- 'तात ! यदि ऐसी बात है और आपकी भी ऐसी ही रुचि है तो मैं समस्त नारकी जीवोंका नरकसे उद्धार कर दूँगा।' यह सुनकर उसके पिता बोले- 'बेटा ! एवमस्तु, तुम्हारा कल्याण हो; मेरा अत्यन्त प्रिय कार्य सम्पन्न हो गया!' इस प्रकार पुत्रको आश्वासन देकर उसके पिता भगवान् विष्णुके परमधामको चले गये। तत्पश्चात् वह भी लौटकर जनस्थानमें आया और परम सुन्दर भगवान् श्रीकृष्णके मन्दिरमें उनके समक्ष बैठकर पिताके आदेशानुसार गीताके तीसरे अध्यायका पाठ करने लगा। उसने नारकी जीवोंका उद्धार करनेकी इच्छासे गीतापाठजनित सारा पुण्य सङ्कल्प करके दे दिया।

इसी बीचमें भगवान् विष्णुके दूत यातना भोगने वाले नारकी जीवोंको छुड़ानेके लिये यमराजके पास गये। यमराजने नाना प्रकारके सत्कारोंसे उनका पूजन किया और कुशल पूछी। वे बोले 'धर्मराज ! हमलोगोंके लिये सब ओर आनन्द-ही-आनन्द है।' इस प्रकार सत्कार करके पितृलोकके सम्राट् परम बुद्धिमान् यमने विष्णुदूतोंसे यमलोकमें आनेका कारण पूछा। तब विष्णुदूतोंने कहा- यमराज ! शेषशय्यापर शयन करनेवाले भगवान् विष्णुने हमलोगोंको आपके पास कुछ सन्देश देनेके लिये भेजा है। भगवान् हमलोगोंके मुखसे आपकी कुशल पूछते हैं और यह आज्ञा देते हैं कि 'आप नरकमें पड़े हुए समस्त प्राणियोंको छोड़ दें।' अमिततेजस्वी भगवान् विष्णुका यह आदेश सुनकर यमने मस्तक झुकाकर उसे स्वीकार किया और मन-ही- मन कुछ सोचा। तत्पश्चात् मदोन्मत्त नारकी जीवोंको नरकसे मुक्त देखकर उनके साथ ही वे भगवान् विष्णुके वास स्थानको चले। यमराज श्रेष्ठ विमानके द्वारा जहाँ क्षीरसागर है, वहाँ जा पहुँचे। उसके भीतर कोटि-कोटि सूर्योक समान कान्तिमान् नील कमल-दलके समान श्यामसुन्दर लोकनाथ जगगुरु श्रीहरिका उन्होंने दर्शन किया। भगवान्‌का तेज उनकी शय्या बने हुए शेषनागके फनोंकी मणियोंके प्रकाशसे दुगुना हो रहा था। वे आनन्दयुक्त दिखायी दे रहे थे। उनका हृदय प्रसन्नतासे परिपूर्ण था। भगवती लक्ष्मी अपनी सरल चितवनसे प्रेमपूर्वक उन्हें बारम्बार निहार रही थीं।

चारों ओर योगीजन भगवान्‌की सेवामें खड़े थे। उन योगियोंकी आँखोंके तारे ध्यानस्थ होनेके कारण निश्चल प्रतीत होते थे। देवराज इन्द्र अपने विरोधियोंको परास्त करनेके उद्देश्यसे भगवान्‌की स्तुति कर रहे थे। ब्रह्माजीके मुखसे निकले हुए वेदान्त-वाक्य मूर्तिमान् होकर भगवान्‌के गुणोंका गान कर रहे थे। भगवान् पूर्णतः सन्तुष्ट होनेके साथ ही समस्त योनियोंकी ओरसे उदासीन प्रतीत होते थे। जीवोंमेंसे जिन्होंने योग-साधनके द्वारा अधिक पुण्य सञ्चय किया था, उन सबको एक ही साथ वे कृपा- दृष्टिसे निहार रहे थे। भगवान् अपने स्वरूपभूत अखिल चराचर जगत्‌को आनन्दपूर्ण दृष्टिसे आमोदित कर रहे थे। शेषनागकी प्रभासे उद्भासित एवं सर्वत्र व्यापक दिव्य विग्रह धारण किये नील कमलके सदृश श्याम- वर्णवाले श्रीहरि ऐसे जान पड़ते थे, मानो चाँदनीसे घिरा हुआ आकाश सुशोभित हो रहा हो। इस प्रकार भगवान्‌की झाँकी करके यमराज अपनी विशाल बुद्धिके द्वारा उनकी स्तुति करने लगे।

यमराज बोले- सम्पूर्ण जगत्‌का निर्माण करनेवाले परमेश्वर ! आपका अन्तःकरण अत्यन्त निर्मल है। आपके मुखसे ही वेदोंका प्रादुर्भाव हुआ है। आप ही विश्वस्वरूप और इसके विधायक ब्रह्मा हैं। आपको नमस्कार है। अपने बल और वेगके कारण जो अत्यन्त दुर्धर्ष प्रतीत होते हैं, ऐसे दानवेन्द्रोंका अभिमान चूर्ण करनेवाले भगवान् विष्णुको नमस्कार है। पालनके समय सत्त्वमय शरीर धारण करनेवाले, विश्वके आधारभूत, सर्वव्यापी श्रीहरिको नमस्कार है। समस्त देहधारियोंकी पातक-राशिको दूर करनेवाले परमात्माको प्रणाम है। जिनके ललाटवर्ती नेत्रके तनिक-सा खुलनेपर भी आगकी लपटें निकलने लगती हैं, उन रुद्ररूपधारी आप परमेश्वरको नमस्कार है। आप सम्पूर्ण विश्वके गुरु, आत्मा और महेश्वर हैं; अतः समस्त वैष्णवजनोंको सङ्कटसे मुक्त करके उनपर अनुग्रह करते हैं। आप मायासे विस्तारको प्राप्त हुए अखिल विश्वमें व्याप्त होकर भी कभी माया अथवा उससे उत्पन्न होनेवाले गुणोंसे मोहित नहीं होते।

माया तथा मायाजनित गुणोंके बीचमें स्थित होनेपर भी आपपर उन में से किसी का प्रभाव नहीं पड़ता। आपकी महिमाका अन्त नहीं है; क्योंकि आप असीम हैं। फिर आप वाणीके विषय कैसे हो सकते हैं। अतः मेरा मौन रहना ही उचित है। इस प्रकार स्तुति करके यमराजने हाथ जोड़कर कहा- 'जगदुरो ! आपके आदेशसे इन जीवोंको गुणरहित होनेपर भी मैंने छोड़ दिया है। अब मेरे योग्य और जो कार्य हो, उसे बताइये।' उनके यों कहनेपर भगवान् मधुसूदन मेघके समान गम्भीर वाणीद्वारा मानो अमृत-रससे सींचते हुए बोले- 'धर्मराज ! तुम सबके प्रति समान भाव रखते हुए लोकोंका पापसे उद्धार कर रहे हो। तुमपर देहधारियोंका भार रखकर मैं निश्चिन्त हूँ। अतः तुम अपना काम करो और अपने लोकको लौट जाओ ।' यों कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये। यमराज भी अपनी पुरीको लौट आये। तथा वह ब्राह्मण अपनी जातिके और समस्त नारकी जीवोंका नरकसे उद्धार करके स्वयं भी श्रेष्ठ विमानद्वारा श्रीविष्णुधामको चला गया।

टिप्पणियाँ