श्रीमद्भागवत के सप्ताह पारायण की विधि
श्री मद्भागवत के सप्ताह पारायण की विधि तथा भागवत-माहात्म्य का उपसंहार-श्री सनकादि कहते हैं- नारदजी ! अब हम सप्ताह-श्रवणकी विधिका वर्णन करते हैं। यह कार्य प्रायः लोगों की सहायता और धनसे साध्य होनेवाला माना गया है। पहले ज्योतिषीको बुलाकर इसके लिये यत्नपूर्वक मुहूर्त पूछना चाहिये। फिर विवाहके कार्यमें जितने धनकी आवश्यकता होती है, उतने ही धनका प्रबन्ध कर लेना चाहिये। कथा आरम्भ करनेके लिये भादों, कुआर, कार्तिक, अगहन, आषाढ़ और सावन- ये महीने श्रोताओंके लिये मोक्ष प्राप्ति के कारण माने गये हैं। महीनोंमें जो भद्रा, व्यतीपात आदि काल त्यागने योग्य माने गये हैं, उन सबको सब प्रकारसे त्याग देना ही उचित है। जो लोग उत्साही और उद्योगी हों- ऐसे अन्य व्यक्तियोंको भी सहायक बना लेना चाहिये। फिर प्रयत्नपूर्वक देश-देशान्तरोंमें यह समाचार भेज देना चाहिये कि अमुक स्थानपर श्रीमद्भागवतकी कथा होनेवाली है, अतः सब लोग कुटुम्बसहित यहाँ पधारें। कुछ लोग भगवत्कथा और कीर्तन आदिसे बहुत दूर हैं; इसलिये इस समाचारको इस प्रकार फैलावें, जिससे स्त्रियों और शूद्रः आदिको भी इसका पता लग जाय। देश-देशमें जो विरक्त और कथा-कीर्तनके लिये उत्सुक रहनेवाले वैष्णव हों, उनके पास भी पत्र भेजना चाहिये तथा उन पत्रोंमें इस प्रकार लिखना उचित है
महानुभावो ! यहाँ सात राततक सत्पुरुषोंका सुन्दर समागम होगा, जो अन्यत्र बहुत ही दुर्लभ है। इसमें श्रीमद्भागवतकी अपूर्व रसमयी कथा होगी। आपलोग श्रीमद्भागवतामृतका पान करनेके रसिक है, अतः यहाँ प्रेमपूर्वक शीघ्र ही पधारनेकी कृपा करें। यदि आपको किसी कारणवश विशेष अवकाश न हो, तब भी एक दिनके लिये तो कृपा करनी ही चाहिये; क्योंकि यहाँका एक क्षण भी अत्यन्त दुर्लभ है। इसलिये सब प्रकारसे यहाँ पधारनेके लिये ही चेष्टा करनी चाहिये।' इस प्रकार बड़ी विनयके साथ उनको आमन्त्रित करे और जो लोग आवें, उन सबके ठहरनेके लिये प्रबन्ध करे। तीर्थमें, वनमें अथवा अपने घरपर भी कथा-श्रवण उत्तम माना गया है। जहाँ भी लम्बी-चौड़ी भूमि मैदान खाली हो, वहीं कथाके लिये स्थान बनाना चाहिये। जमीनको झाड़-बुहारकर, धोकर और लीप-पोतकर शुद्ध करे। फिर उसपर गेरु आदिसे चौक पुरावे।
यदि वहाँ कोई घरका सामान पड़ा हो तो उसे उठाकर एक कोनेमें रखवा दे। कथा आरम्भ होनेसे पाँच दिन पहलेसे ही यत्नपूर्वक बहुत-से आसन जुटा लेने चाहिये। तथा एक ऊँचा मण्डप तैयार कराकर उसे केलेके खम्भोंसे सजा देना चाहिये। उसे फल, फूल, पत्तों तथा चंदोवेसे सब ओर अलङ्कृत करे; मण्डपके चारों ओर ध्वजारोपण करे और नाना प्रकारकी शोभामयी सामग्रियोंसे उसे सजावे। उस मण्डपके ऊपरी भागमें विस्तारपूर्वक सात लोकोंकी कल्पना करे और उनमें विरक्त ब्राह्मणोंको बुला-बुलाकर बिठावे। पहलेसे ही वहाँ उनके लिये यथोचित आसन तैयार करके रखे। वक्ताके लिये भी सुन्दर व्यासगद्दी बनवानी चाहिये। यदि वक्ताका मुख उत्तरकी ओर हो तो श्रोता पूर्वाभिमुख होकर बैठे और यदि वक्ताका मुख पूर्वकी ओर हो तो श्रोताको उत्तराभिमुख होकर बैठना चाहिये। अथवा वक्ता और श्रोताके बीचमें पूर्व दिशा आ जानी चाहिये। देश, काल आदिको जाननेवाले विद्वानोंने श्रोताओंके लिये ऐसा ही शास्त्रोक्त नियम बतलाया है। वक्ता ऐसे पुरुषको बनाना चाहिये जो विरक्त, वैष्णव, जातिका ब्राह्मण, वेद-शास्त्रकी विशुद्ध व्याख्या करनेमें समर्थ, भाँति-भाँतिके दृष्टान्त देकर ग्रन्थके भावको हृदयङ्गम करानेमें कुशल, धीर और अत्यन्त निःस्पृह हो। जो अनेक मत-मतान्तरोंके चक्करमें पड़कर भ्रान्त हो रहे हों, स्त्री-लम्पट हों और पाखण्डकी बातें करते हों, ऐसे लोग यदि पण्डित भी हों तो भी उन्हें श्रीमद्भागवतकथाका वक्ता न बनावे। वक्त्ताके पास उसकी सहायताके लिये उसी योग्यताका एक और विद्वान् रखे; वह भी संशय निवारण करनेमें समर्थ और लोगोंको समझानेमें कुशल होना चाहिये। वक्ताको उचित है
कि कथा आरम्भ होनेसे एक दिन पहले क्षौर करा ले, जिससे व्रतका पूर्णतया निर्वाह हो सके तथा श्रोता अरुणोदयकालमें- दिन निकलनेसे दो घड़ी पहले शौच आदिसे निवृत्त होकर विधिपूर्वक स्नान करे, फिर सन्ध्या आदि नित्यकर्मोंको संक्षेपसे समाप्त करके कथाके विघ्नोंका निवारण करनेके लिये श्रीगणेशजीकी पूजा करे। तदनन्तर पितरोंका तर्पण करके पूर्वपापोंकी शुद्धिके लिये प्रायश्चित्त करे और एक मण्डल बनाकर उसमें श्रीहरिकी स्थापना करे। फिर भगवान् श्रीकृष्णके उद्देश्यसे मन्त्रोच्चारणपूर्वक क्रमशः षोडशोपचार विधिसे पूजन करे। पूजा समाप्त होनेपर प्रदक्षिणा तथा नमस्कार करके इस प्रकार स्तुति करे- 'करुणानिधे! मैं इस संसार समुद्रमें डूबा हुआ हूँ। मुझे कर्मरूपी ग्राहने पकड़ रखा है। आप मुझ दीनका इस भवसागरसे उद्धार कीजिये।' इसके पश्चात् धूप-दीप आदि सामग्रियोंसे प्रयलपूर्वक प्रसत्रताके साथ श्रीमद्भागवतकी भी विधिवत् पूजा करनी चाहिये। फिर पुस्तकके आगे श्रीफल (नारियल) रखकर नमस्कार करे और प्रसन्न चित्तसे इस प्रकार स्तुति करे- 'श्रीमद्भागवत के रूप में आप साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण ही यहाँ विराजमान है। नाथ ! मैंने भवसागरसे छुटकारा पानेके लिये ही आपकी शरण ली है। मेरे इस मनोरथको किसी विघ्न-बाधाके बिना ही आप सब प्रकारसे सफल करें। केशव ! मैं आपका दास हूँ।' इस प्रकार दीन वचन कहकर वक्ताको वस्त्र और आभूषणोंसे विभूषित करके उसकी पूजा करे और पूजाके पश्चात् उसकी इस प्रकार स्तुति करे- 'शुकदेवस्वरूप महानुभाव! आप समझानेकी कलामें निपुण और समस्त शास्त्रोंके विशेषज्ञ हैं।
इस श्रीमद्भागवतकथाको प्रकाशित करके आप मेरे अज्ञानको दूर कीजिये। तदनन्तर वक्ताके आगे अपने कल्याणके लिये प्रसन्नतापूर्वक नियम ग्रहण करे और यथाशक्ति सात दिनोंतक निश्चय ही उसका पालन करे। कथामें कोई विघ्न न पड़े, इसके लिये पाँच ब्राह्मणोंका वरण करे। उन ब्राह्मणोंको द्वादशाक्षर मन्त्रका जप करना चाहिये। इसके बाद वहाँ उपस्थित हुए ब्राह्मणों, विष्णुभक्तों और कीर्तन करनेवाले लोगोंको नमस्कार करके उनकी पूजा करे और उनसे आज्ञा लेकर स्वयं श्रोताके आसनपर बैठे। जो पुरुष लोक, सम्पत्ति, धन, घर और पुत्र आदिकी चिन्ता छोड़कर शुद्ध बुद्धिसे केवल कथामें ही मन लगाये रहता है, उसे उत्तम फलकी प्राप्ति होती है।
बुद्धिमान् वक्ताको उचित है कि वह सूर्योदयसे लेकर साढ़े तीन पहरतक मध्यम स्वरसे अच्छी तरह कथा बाँचे, दोपहरके समय दो घड़ीतक कथा बंद रखे। कथा बंद होनेपर वैष्णव पुरुषोंको वहाँ कीर्तन करना चाहिये। कथाके समय मल-मूत्रके वेगको काबूमें रखनेके लिये हलका भोजन करना अच्छा होता है। अतः कथा सुननेकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको एक बार हविष्यान्न भोजन करना उचित है। यदि शक्ति हो तो सात रात उपवास करके कथा श्रवण करे अथवा केवल घी या दूध पीकर सुखपूर्वक कथा सुने। इससे काम न चले तो फलाहार अथवा एक समय भोजन करके कथा सुने। तात्पर्य यह कि जिसके लिये जो नियम सुगमतापूर्वक निभ सके, वह उसीको कथा सुननेके लिये ग्रहण करे। मैं तो उपवासकी अपेक्षा भोजनको ही श्रेष्ठ मानता हूँ, यदि वह कथा-श्रवणमें सहायक हो सके। अगर उपवाससे कथामें विघ्न्न पड़ता हो तो वह अच्छा नहीं माना गया है।
नारदजी ! नियमसे सप्ताह-कथा सुननेवाले पुरुषोंके लिये पालन करनेयोग्य जो नियम हैं, उन्हें बतलाता हूँ; सुनिये। जिन्होंने श्रीविष्णुमन्त्रकी दीक्षा नहीं ली है अथवा जिनके हृदयमें भगवान्की भक्ति नहीं है, उन्हें इस कथाको सुननेका अधिकार नहीं है। कथाका व्रत लेनेवाला पुरुष ब्रह्मचर्यसे रहे, भूमिपर शयन करे और कथा समाप्त होनेपर पत्तलमें भोजन करे। दाल, मधु, तेल, गरिष्ठ अन्न, भावदूषित पदार्थ और बासी अन्नको वह सर्वथा त्याग दे। काम, क्रोध, मद, मान, मत्सर, लोभ, दम्भ, मोह तथा द्वेषको बुरा समझकर पास न आने दे। वेद, वैष्णव, ब्राह्मण, गुरु, गोसेवक, स्त्री, राजा और महापुरुषोंकी निन्दा न करे। रजस्वला स्त्री, अन्त्यज (चाण्डाल आदि), मलेच्छ, पतित, गायत्रीहीन द्विज, ब्राह्मणद्रोही तथा वेदको न माननेवाले पुरुषोंसे वार्तालाप न करे। नियमसे कथाका व्रत लेनेवाले पुरुषको सदा सत्य, शौच, दया, मौन, सरलता, विनय और उदारताका बर्ताव करना चाहिये। दखि, क्षयका रोगी, अन्य किसी रोगसे पीड़ित, भाग्यहीन, पापाचारी, सन्तानहीन तथा मुमुक्षु पुरुष इस कथाको अवश्य सुने। जिस स्त्रीका मासिक धर्म रुक गया हो, जिसके एक ही सन्तान होकर रह गयी हो, जो बाँझ हो, जिसके बच्चे पैदा होकर मर जाते हों तथा जिसका गर्भ गिर जाता हो, उस स्त्रीको प्रयत्नपूर्वक इस कथाका श्रवण करना चाहिये। इन्हें विधिपूर्वक दिया हुआ कथाका दान अक्षय फल देने वाला है [अर्थात् ये यदि कथा सुनें तो इनके उक्त दोष अवश्य मिट जाते हैं]। कथाके लिये सात दिन अत्यन्त उत्तम माने गये हैं। वे कोटि यशोंका फल देनेवाले हैं।
इस प्रकार व्रतकी विधि पूर्ण करके उसका उद्यापन करे। उत्तम फलकी इच्छा रखनेवाले पुरुषोंको जन्माष्टमी- व्रतके समान इसका उद्यापन करना चाहिये। जो अकिञ्चन भक्त हैं, उनके लिये प्रायः उद्यापनका आग्रह नहीं है। वे कथा-श्रवणमात्रसे ही शुद्ध हो जाते हैं; क्योंकि वे निष्काम वैष्णव हैं। इस तरह सप्ताह-यज्ञ पूर्ण होनेपर श्रोताओंको बड़ी भक्तिके साथ पुस्तक तथा कथावाचककी पूजा करनी चाहिये और वक्ताको उचित है कि वह श्रोताओंको प्रसाद एवं तुलसीकी माला दे। तत्पश्चात् मृदङ्ग बजाकर तालस्वरके साथ कीर्तन किया जाय, जय-जयकार और नमस्कार शब्दके साथ शङ्खोंकी ध्वनि हो तथा ब्राह्मणों और याचकोंको धन दिया जाय। यदि श्रोता विरक्त हो तो कथा-समाप्तिके दूसरे दिन गीता बाँचनी चाहिये और गृहस्थ हो तो कर्मकी शान्तिके लिये होम करना चाहिये। उस हवनमें दशम स्कन्धका एक-एक श्लोक पढ़कर विधिपूर्वक खीर, मधु, घी, तिल और अन्न आदिसे युक्त हवन सामग्रीकी आहुति दे अथवा एकाग्रचित्त होकर गायत्री मन्त्रसे हवन करे; क्योंकि वास्तवमें यह महापुराण गायत्रीमय ही है। यदि होम करानेकी शक्ति न हो तो उसका फल प्राप्त करनेके लिये विद्वान् पुरुष ब्राह्मणोंको कुछ हवन-सामग्रीका दान करे तथा कर्ममें जो नाना प्रकारकी त्रुटियाँ रह गयी हों या विधिमें जो न्यूनता अथवा अधिकता हो गयी हो, उनके दोषकी शान्तिके लिये विष्णुसहस्त्रनामका पाठ करे।
उससे सभी कर्म सफल हो जाते हैं; क्योंकि इससे बढ़कर दूसरा कोई साधन नहीं है। हवनके पश्चात् बारह ब्राह्मणोंको मीठी खीर भोजन करावे और व्रतकी पूर्तिके लिये दूध देनेवाली गौ तथा सुवर्णका दान करे। यदि शक्ति हो तो तीन तोले सोनेका एक सिंहासन बनवावे, उसपर सुन्दर अक्षरोंमें लिखी हुई श्रीमद्भागवतकी पोथी रखकर आवाहन आदि उपचारोंसे उसका पूजन करे। फिर वस्त्र, आभूषण और गन्ध आदिके द्वारा जितेन्द्रिय आचार्यकी पूजा करके उन्हें दक्षिणासहित वह पुस्तक दान कर दे। जो बुद्धिमान् श्रोता ऐसा करता है, वह भव-बन्धनसे मुक्त हो जाता है। यह सप्ताह-यज्ञका विधान सब पापोंका निवारण करनेवाला है; इसका इस प्रकार यथावत् पालन करनेसे कल्याणमय श्रीमद्भागवत- पुराण मनोवाञ्छित फल प्रदान करता है तथा धर्म, अर्थ काम और मोक्ष - इन चारों पुरुषार्थोंका साधक होता है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।
श्रीसनकादि कहते हैं- नारदजी ! इस प्रकार तुम्हें यह सप्ताह-श्रवणकी सारी विधि सुना दी। अब और क्या सुनना चाहते हो ? श्रीमद्भागवतसे ही भोग और मोक्ष दोनों हाथ लगते हैं। श्रीमद्भागवत नामक एक कल्पवृक्ष है, जिसका अङ्कुर बहुत ही उज्ज्वल है। सत्स्वरूप परमात्मासे इस वृक्षका उद्गम हुआ है, यह बारह स्कन्धों (मोटी डालियों) से सुशोभित है, भक्ति ही इसका थाल्हा है, तीन सौ बत्तीस अध्याय ही इसकी सुन्दर शाखाएँ हैं और अठारह हजार श्लोक ही इसके पत्ते हैं। यह सम्पूर्ण अभीष्ट फलोंको देनेवाला है। इस प्रकार यह भागवतरूपी दिव्य वृक्ष अत्यन्त सुलभ होनेपर भी अपनी अनुपम महत्ताके कारण सर्वोपरि विराजमान है।
सूतजी कहते हैं- ऐसा कहकर सनकादि महात्माओंने परम पवित्र श्रीमद्भागवतकी कथा बाँचनी आरम्भ की, जो सब पापोंको हरनेवाली तथा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली है। उस समय समस्त प्राणी अपने मनको काबूमें रखकर सात दिनोंतक वह कथा सुनते रहे। तत्पश्चात् सबने विधिपूर्वक भगवान् पुरुषोत्तमकी स्तुति की। कथाके अन्तमें ज्ञान, वैराग्य और भक्तिकी पूर्णरूपसे पुष्टि की। उन्हें उत्तम तरुण अवस्था प्राप्त हुई, जो समस्त प्राणियोंका मन हर लेनेवाली थी। नारदजी भी अपना मनोरथ सिद्ध हो जानेसे कृतार्थ हो गये, उनके सारे शरीरमें रोमाञ्च हो आया और वे परमानन्दमें निमग्न हो गये। इस प्रकार कथा सुनकर भगवान्के प्रिय भक्त नारदजी हाथ जोड़कर प्रेमपूर्ण गद्गद वाणीमें सनकादि महात्माओंसे बोले- 'तपोधनो ! आज मैं धन्य हो गया। आप दयालु महात्माओंने मुझपर बड़ा अनुग्रह किया। सप्ताह-यज्ञमें श्रीमद्भागवतका श्रवण करनेसे आज मुझे भगवान् श्रीहरि समीपमें ही मिल गये। मैं तो सब धर्मोंकी अपेक्षा श्रीमद्भागवत-श्रवणको ही श्रेष्ठ मानता हूँ, क्योंकि उसके सुननेसे वैकुण्ठवासी भगवान् श्रीकृष्णकी प्राप्ति होती है।
सूतजी कहते हैं- वैष्णवोंमें श्रेष्ठ श्रीनारदजी जब इस प्रकार कह रहे थे, उसी समय सोलह वर्षकी अवस्थावाले व्यासपुत्र योगेश्वर श्रीशुकदेव मुनि वहाँ घूमते हुए आ पहुँचे। वे ऐसे जान पड़ते थे मानो ज्ञानरूपी महासागरसे निकले हुए चन्द्रमा हों। वे ठीक कथा समाप्त होनेपर वहाँ पहुँचे थे। आत्मलाभसे परिपूर्ण श्रीशुकदेवजी उस समय बड़े प्रेमसे धीरे-धीरे श्रीमद्भागवतका पाठ कर रहे थे। उन परम तेजस्वी मुनिको आया देख सारे सभासद् तुरंत ही उठकर खड़े हो गये और उन्हें बैठनेके लिये एक ऊँचा आसन दिया; फिर देवर्षि नारदजीने बड़ी प्रसन्नताके साथ उनका पूजन किया। जब वे सुखपूर्वक आसनपर विराजमान हो गये तो 'मेरी उत्तम वाणी सुनो' ऐसा कहते हुए बोले- 'भगवत्कथाके रसिक भावुक भक्तजन ! यह श्रीमद्भागवत वेदरूप कल्पवृक्षका पका एवं चूकर गिरा हुआ फल है, जो परमानन्दमय अमृत-रससे भरा है। यह श्रीशुकदेवरूप तोतेके मुखसे इस पृथ्वीपर प्राप्त हुआ है; जबतक यह जीवन रहे, जबतक संसारका प्रलय न हो जाय, तबतक आपलोग इस दिव्य रसका नित्य- निरन्तर बारम्बार पान करते रहिये।
महामुनि श्रीव्यासजीके द्वारा रचित इस श्रीमद्भागवतमें परम उत्तम निष्काम धर्मका प्रतिपादन किया गया है तथा जिनके हृदयमें ईर्ष्या-द्वेषका अभाव है, उन साधु पुरुषोंके जानने योग्य उस कल्याणप्रद परमार्थ-तत्त्वका निरूपण किया गया है, जो आध्यात्मिक आदि तीनों तापोंका समूल नाश करनेवाला है। इस श्रीमद्भागवतकी शरण लेनेवाले पुरुषोंको दूसरे साधनोंकी क्या आवश्यकता है। जो बुद्धिमान् एवं पुण्यात्मा पुरुष इस पुराणको श्रवण करनेकी इच्छा करते हैं, उनके हृदयमें स्वयं भगवान् ही तत्काल प्रकट होकर सदाके लिये स्थिर हो जाते हैं। श्रीमद्भागवत समस्त पुराणोंका तिलक और वैष्णव पुरुषोंकी प्रिय वस्तु है। इसमें परमहंस महात्माओंको प्राप्त होने योग्य परम उत्तम विशुद्ध अद्वैत-ज्ञानका वर्णन किया गया है तथा ज्ञान, वैराग्य और भक्तिके सहित नैष्कर्म्य धर्म- (निवृत्तिमार्ग) को प्रकाशित किया गया है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इसके श्रवण, पठन और मननमें संलग्र रहता है, वह संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है। यह रस स्वर्गलोक, सत्यलोक, कैलास तथा वैकुण्ठमें भी नहीं है; अतः सौभाग्यशाली पुरुषो ! तुम इसका निरन्तर पान करते रहो। कभी किसी प्रकार भी इसको छोड़ो मत, छोड़ो मत।'
शौनकजी ! व्यासपुत्र श्रीशुकदेवजी इस प्रकार कह ही रहे थे कि वहाँ बीच सभामें प्रह्लाद, बलि, उद्धव और अर्जुन आदि पार्षदोंके सहित साक्षात् श्रीहरि प्रकट हो गये। देवर्षि नारदने भगवान् और उनके भक्तोंका पूजन किया। भगवान्को प्रसन्न देखकर नारदजीने उन्हें एक श्रेष्ठ आसनपर बिठा दिया और सब लोग मिलकर उनके सामने कीर्तन करने लगे। उस कीर्तनको देखनेके लिये पार्वतीसहित महादेवजी और ब्रह्माजी भी वहाँ आ गये। प्रह्लादजी चञ्चल गतिसे थिरकते हुए करताल बजाने लगे, उद्धवने मँजीर ले लिये, देवर्षि नारदजीने वीणाकी तान छेड़ दी, स्वरमें कुशल होनेके कारण अर्जुन राग अलापने लगे, इन्द्रने मृदङ्ग बजाना आरम्भ किया। महात्मा सनक, सनन्दन, आदि कीर्तनके बीचमें जय-जयकार करने लगे और इन सबके आगे व्यासपुत्र शुकदेवजी रसकी अभिव्यक्ति करते हुए भाव बताने लगे। उस कीर्तन-मण्डलीके बीच परम तेजस्वी ज्ञान, भक्ति और वैराग्य नटोंके समान नृत्य कर रहे थे। यह अलौकिक कीर्तन देखकर भगवान् बहुत प्रसन्न हुए और बोले- 'भक्तजन ! मैं तुम्हारी इस कथा और कीर्तनसे बहुत प्रसन्न हूँ, अतः तुमलोग मुझसे वर माँगो।' भगवान्का यह वचन सुनकर सब लोगोंको बड़ी प्रसन्नता हुई, उनका हृदय भगवत्प्रेमसे सराबोर हो गया। वे श्रीहरिसे कहने लगे- 'भगवन् ! हमारी इच्छा है कि जहाँ कहीं भी श्रीमद्भागवतकी सप्ताह-कथा हो, वहाँ इन समस्त पार्षदोंके साथ यनपूर्वक पधारें। हमलोगोंका यह मनोरथ अवश्य पूर्ण होना चाहिये।' तब भगवान् 'तथास्तु' कहकर वहाँसे अन्तर्धान हो गये।
तत्पश्चात् नारदजीने भगवान् तथा उनके भक्तोंके चरणोंको लक्ष्य करके मस्तक झुकाया और शुकदेव आदि तपस्वियोंको भी प्रणाम किया। इस प्रकार कथामृतका पान करके सब लोगोंको बड़ी प्रसन्नता हुई और उन सबका मोह नष्ट हो गया। फिर वे सब लोग अपने-अपने स्थानको चले गये। उस समय श्रीशुकदेवजीने ज्ञान- वैराग्यसहित भक्तिको श्रीमद्भागवत-शास्त्रमें स्थापित कर दिया। इसीसे श्रीमद्भागवतका सेवन करनेपर भगवान् विष्णु वैष्णवोंके हृदयोंमें विराजमान हो जाते हैं; जो लोग दरिद्रता (तरह-तरहके अभाव) और दुःखरूप ज्वरसे दग्ध हो रहे हैं, जिनको मायापिशाचीने अपने पैरोंसे कुचल डाला है तथा जो संसार-समुद्रमें पड़े हुए हैं, उनका कल्याण करनेके लिये श्रीमद्भागवत-शास्त्र निरन्तर गर्जना कर रहा है।
शौनकजीने पूछा- सूतजी ! शुकदेवजीने राजा परीक्षित्को, गोकर्णजीने धुन्धुकारीको तथा सनकादिने देवर्षि नारदको किस-किस समय श्रीमद्भागवतकी कथा सुनायी थी ? सूतजीने कहा- भगवान् श्रीकृष्णके परमधाम पधारनेके पश्चात् जब कलियुगको आये तीस वर्ष हो गये, उस समय भादोंके शुक्लपक्षकी नवमी तिथिको श्रीशुकदेवजीने कथा आरम्भ की। राजा परीक्षित्के कथा सुननेके पश्चात् कलियुगके दो सौ वर्ष बीत जानेपर शुद्ध आषाढ़ मासकी शुक्ला नवमीको गोकर्णजीने कथा सुनायी थी। उसके बाद जब कलियुगके तीन सौ छः वर्ष व्यतीत हो गये, तब कार्तिक शुक्लपक्षकी नवमी तिथिको सनकादिने कथा आरम्भ की थी। पापरहित शौनकजी ! आपने जो कुछ पूछा था, वह सब मैंने बता दिया। इस कलियुगमें श्रीमद्भागवतकी कथा संसाररूपी रोगका नाश करनेवाली है। संतजन । आपलोग श्रद्धापूर्वक इस कथामृतका पान करें। यह भगवान् श्रीकृष्णको परम प्रिय, समस्त पापोंका नाश करनेवाला, मुक्तिका एकमात्र कारण तथा भक्तिको बढ़ानेवाला है। इसको छोड़कर लोकमें अन्य कल्याणकारी साधनोंके विचार करने की क्या आवश्यकता है? अपने सेवकको पाश हाथमें लिये देख यमराज उसके कानमें कहते हैं- 'देखो, जो लोग भगवान्की कथा-वार्तामें मस्त हो रहे हों, उनसे दूर ही रहना। मैं दूसरे ही लोगोंको दण्ड देनेमें समर्थ हूँ, वैष्णवोंको नहीं।' इस असार संसारमें विषयरूपी विषके सेवनसे व्याकुलचित्तं हुए मनुष्यो !
यदि कल्याण चाहते हो तो आधे क्षणके लिये भी श्रीमद्भागवतकथारूपी अनुपम सुधाका पान करो। अरे भाई ! घृणित चर्चासे भरे हुए कुमार्गपर क्यों व्यर्थ भटक रहे हो। इस कथाके कानमें पड़ते ही मुक्ति हो जाती है। मेरे इस कथनमें राजा परीक्षित् प्रमाण हैं। श्रीशुकदेवजीने प्रेम-रसके प्रवाहमें स्थित होकर यह कथा कही है। जो इसे अपने कण्ठ से लगाता है, वह वैकुण्ठका स्वामी बन जाता है। शौनकजी। मैंने समस्त शास्त्र-समुदायका मन्थन करके इस समय आपको यह परम गुह्य रहस्य सुनाया है। यह समस्त सिद्धान्तोंद्वारा प्रमाणित है। संसारमें श्रीमद्भागवतकी कथासे अधिक पवित्र और कोई वस्तु नहीं है, अतः आपलोग परमानन्दकी प्राप्तिके लिये द्वादशस्कन्धरूप इस सारमय कथामृतका किञ्चित्- किञ्चित् पान करते रहिये। जो मनुष्य नियमपूर्वक इस कथाको भक्तिभावसे सुनता है और जो विशुद्ध वैष्णव पुरुषोंके आगे इसे सुनाता है, वे दोनों ही उत्तम विधिका पालन करनेके कारण इसका यथार्थ फल प्राप्त करते हैं। उनके लिये संसारमें कुछ भी असाध्य नहीं है।
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