श्री राम के राज्याभिषेक से परमधामगमन तक का प्रसंग,Shree Raam Ke Raajyaabhishek Se Paramadhaamagaman Tak Ka Prasang
श्री राम के राज्याभिषेक से परमधामगमन तक का प्रसंग
श्री महादेव जी कहते हैं- पार्वती! तदनन्तर किसी पवित्र दिनको शुभ लग्नमें मङ्गलमय भगवान् श्रीरामका राज्याभिषेक करनेके लिये लोगोंने माङ्गलिक उत्सव मनाना आरम्भ किया। वसिष्ठ, वामदेव, जाबालि, कश्यप, मार्कण्डेय, मौद्गल्य, पर्वत और नारद- ये महर्षि जप और होम करके राजशिरोमणि श्री रघुनाथ जी का शुभ अभिषेक करने लगे। नाना रत्नोंसे निर्मित दिव्य सुवर्णमय पीढ़ेपर सीतासहित भगवान् श्री राम को बिठाकर उत्तम व्रतका पालन करनेवाले महर्षि सोने और रत्नोंके कलशोंमें रखे हुए सब तीर्थोक शुद्ध एवं मन्त्रपूत जलसे, जिसमें पवित्र माङ्गलिक वस्तुएँ, दूर्वादल, तुलसीदल, फूल और चन्दन आदि पड़े थे, उनका मङ्गलमय अभिषेक करने और चारों वेदोंके वैष्णव सूक्तोंको पढ़ने लगे। उस शुभ लग्नके समय आकाशमें देवताओंकी दुन्दुभियाँ बजती थीं। चारों ओरसे फूलोंकी वर्षा होती थी। वेदोंके पारगामी मुनियोंने दिव्य वस्त्र, दिव्य आभूषण, दिव्य गन्ध और नाना प्रकारके दिव्य पुष्पों से श्रीसीतादेवीके साथ श्रीरघुनाथजीका शृङ्गार किया।
उस समय लक्ष्मणने दिव्य छत्र और चैवर धारण किये। भरत और शत्रुघ्न भगवान्के दोनों बगलमें खड़े होकर ताड़के पंखोंसे हवा करने लगे। राक्षसराज विभीषणने सामनेसे दर्पण दिखाया। वानरराज सुग्रीव भरा हुआ कलश लेकर खड़े हुए। महातेजस्वी जाम्बवान्ने मनोहर फूलों की माला पहनायी। बालिकुमार अङ्गदने श्रीहरिको कपूर मिला हुआ पान अर्पण किया। हनुमान् जी ने दिव्य दीपक दिखाया। सुषेणने सुन्दर झंडा फहराया। सब मन्त्री महात्मा श्रीरामको चारों ओरसे घेरकर उनकी सेवामें खड़े हुए। मन्त्रियोंके नाम इस प्रकार थे- सृष्टि, जयन्त, विजय, सौराष्ट्र, राष्ट्रवर्धन, अकोप, धर्मपाल तथा सुमन्त्र। नाना जनपदोंके स्वामी नरश्रेष्ठ नृपतिगण, पुरवासी, वैदिक विद्वान् तथा बड़े-बूढ़े सज्जन भी महाराजकी सेवामें उपस्थित थे। वानर, भालू, मन्त्री, राजा, राक्षस, श्रेष्ठ द्विज तथा सेवकोंसे घिरे हुए महाराज श्रीराम साकेतधाम (अयोध्या) में इस प्रकार शोभा पाने लगे, जैसे भगवान् लक्ष्मीपति विष्णु देवताओंसे घिरे होनेपर परव्योम (वैकुण्ठधाम) में सुशोभित होते हैं। देवी सीताके साथ श्रीरघुनाथजीको राज्यपर अभिषिक्त होते देख विमानोंपर बैठे हुए देवताओंका हृदय आनन्दसे भर गया। गन्धर्व और अप्सराओंके समुदाय जय-जयकार करते हुए स्तुति करने लगे।
वसिष्ठ आदि महर्षियोंद्वारा अभिषेक हो जानेपर श्रीरामचन्द्रजी सीतादेवीके साथ उसी प्रकार सुशोभित हुए, जैसे लक्ष्मीजीके साथ भगवान् विष्णु शोभा पाते हैं। सीताजी अत्यन्त विनीत भावसे श्रीरघुनाथजीके चरणकमलोंकी सेवा किया करती थीं।राज्याभिषेक हो जानेके पश्चात् सम्पूर्ण दिशाओंका पालन करते हुए श्रीरामचन्द्रजीने विदेहनन्दिनी सीता के साथ एक हजार वर्षांतक मनोरम राजभोगोंका उपभोग किया। इस बीचमें अन्तःपुरकी स्त्रियाँ, नगर-निवासी तथा प्रान्तके लोग छिपे तौरपर सीताजीकी निन्दा करने लगे। निन्दाका विषय यही था कि वे कुछ कालतक राक्षसके घरमें निवास कर चुकी थीं। शत्रुओंका संहार करनेवाले श्रीरामचन्द्रजी लोकापवादके कारण मानव भावका प्रदर्शन करते हुए उन्होंने राजकुमारी सीताको गर्भवतीकी अवस्थामें वाल्मीकि मुनिके आश्रमके पास गङ्गातटपर महान् वनके भीतर छुड़वा दिया। महातेजस्विनी जानकी गर्भका कष्ट सहन करती हुई मुनिके आश्रममें रहने लगीं। उनका मन सदा स्वामीके चिन्तनमें ही लगा रहता था। मुनिपनियोंसे सत्कृत और महर्षि वाल्मीकिद्वारा सुरक्षित होकर उन्होंने आश्रममें ही दो पुत्र उत्पन्न किये, जो कुश और लवके नामसे प्रसिद्ध हुए। मुनिने ही उनके संस्कार किये और वहीं पलकर वे दोनों बड़े हुए।
उधर श्रीरामचन्द्रजी यम-नियमादि गुणोंसे सम्पन्न हो सब प्रकारके भोगोंका परित्याग करके भाइयोंके साथ पृथ्वीका पालन करने लगे। वे सदा आदि-अन्तसे रहित, सर्वव्यापी श्रीहरिका पूजन करते हुए ब्रह्मचर्यपरायण हो प्रतिदिन पृथ्वीका शासन करते थे। धर्मात्मा शत्रुघ्न्न लवणासुरको मारकर अपने दो पुत्रोंके साथ देवनिर्मित मथुरापुरीके राज्यका पालन करने लगे। भरतने सिंधु नदीके दोनों तटोंपर अधिकार जमाये हुए गन्धर्वोका संहार करके उस देशमें अपने दोनों महाबली पुत्रोंको स्थापित कर दिया। इसी प्रकार लक्ष्मणने मद्रदेशमें जाकर मद्रोंका वध किया और अपने दो महापराक्रमी पुत्रोंको वहाँके राज्यपर अभिषिक्त कर दिया। तत्पश्चात् अयोध्यामें आकर वे श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंकी सेवा करने लगे। श्रीरघुनाथजीने एक तपस्वी शूद्रको मारकर मृत्युको प्राप्त हुए एक ब्राह्मणबालकको जीवन प्रदान किया। तत्पश्चात् नैमिषारण्यमें गोमतीके तटपर श्रीरघुनाथजीने सुवर्णमयी जानकीकी प्रतिमाके साथ बैठकर अश्वमेध यज्ञ किया। वहाँ भारी जनसमाज एकत्रित था।
उन्होंने बहुत-से यज्ञ किये। इसी समय महातपस्वी वाल्मीकिजी सीताको साथ लेकर वहाँ आये और श्रीरघुनाथजीसे इस प्रकार बोले- 'उत्तम व्रतका पालन करनेवाले श्रीराम ! मिथिलेशकुमारी सीता सर्वथा निष्पाप हैं। ये अत्यन्त निर्मल और सती-साध्वी स्त्री हैं। जैसे प्रभा सूर्यसे पृथक् नहीं होती, उसी प्रकार ये भी कभी आपसे अलग नहीं होतीं। आप भी पापके सम्पर्कसे रहित हैं; फिर आपने इनका त्याग कैसे किया ?' श्रीराम बोले- ब्रह्मन् ! मैं जानता हूँ, आपके कथनानुसार जानकी सर्वथा निष्पाप है। बात यह है कि सती-साध्वी सीताको दण्डकारण्यमें रावणने हर लिया था। मैंने उस दुष्टको युद्धमें मार डाला। उसके बाद सीताने अग्निमें प्रवेश करके जब अपनेको शुद्ध प्रमाणित कर दिया, तब मैं धर्मतः इन्हें लेकर पुनः अयोध्यामें आया। यहाँ आनेपर इनके प्रति नगरनिवासियोंमें महान् अपवाद फैला। यद्यपि ये तब भी सदाचारिणी ही थीं, तो भी लोकापवादके कारण मैंने इन्हें आपके निकट छोड़ दिया। अतः अब केवल मेरे ही चिन्तनमें संलग्न रहनेवाली सीताको उचित है कि ये लोगोंके सन्तोषके लिये राजाओं और महर्षियोंके सामने अपनी शुद्धताका विश्वास दिलावें ।
मुनियों और राजाओं की सभा में श्री रामचन्द्र जी के ऐसा कहने पर सती सीताने उनके प्रति अपना अनन्य प्रेम दिखलानेके लिये सब लोगोंको आश्चर्यमें डालनेवाला प्रमाण उपस्थित किया। वे हाथ जोड़कर सबके सामने उस भरी सभामें बोलीं- 'यदि मैं श्रीरघुनाथजीके सिवा अन्य किसी पुरुषका मनसे चिन्तन भी न करती होऊँ तो हे पृथ्वीदेवी ! तुम मुझे अपने अङ्कमें स्थान दो। यदि मैं मन, वाणी और क्रियाद्वारा केवल श्रीरघुनाथजीकी ही पूजा करती होऊँ तो हे माता पृथिवी! तुम मुझे अपने अङ्कमें स्थान दो।'माता जानकीको परमधाममें चलनेके लिये उद्यत जान पक्षिराज गरुड़ अपनी पीठपर रत्नमय सिंहासन लिये रसातलसे प्रकट हुए। इसी समय पृथ्वीदेवी भी प्रत्यक्षरूपसे प्रकट हुईं। उन्होंने मिथिलेशकुमारी सीताको दोनों हाथोंसे उठा लिया और स्वागतपूर्वक अभिनन्दन करके उन्हें सिंहासनपर बिठाया। सीता देवीको सिंहासनपर बैठी देख देवगण धारावाहिकरूपसे उनके ऊपर फूलोंकी वर्षा करने लगे तथा दिव्य अप्सराओंने उनका पूजन किया। फिर वे सनातनी देवी गरुड़पर आरूढ़ हो पृथ्वीके ही मार्गसे परम धामको चली गयीं। जगदीश्वरी सीता पूर्वभागमें दासीगणोंसे धिरकर योगियोंको प्राप्त होनेयोग्य सनातन परम धाममें स्थित हुई। सीताको रसातलमें प्रवेश करते देख सब मनुष्य साधुवाद देते हुए उच्चस्वरसे कहने लगे- 'वास्तवमें ये सीतादेवी परम साध्वी हैं।'
सीता के अन्तर्धान हो जानेसे श्रीरामचन्द्रजीको बड़ा शोक हुआ। वे अपने दोनों पुत्रोंको लेकर मुनियों और राजाओंके साथ अयोध्यामें आये। तदनन्तर दीर्घकालके पश्चात् उत्तम व्रतका पालन करनेवाली श्रीरामचन्द्रजीकी माताएँ कालधर्मको प्राप्त हो पतिके समीप स्वर्गलोकमें चली गयीं। कठोर व्रतका पालन करनेवाले श्रीरघुनाथजीने ग्यारह हजार वर्षोंतक धर्मपूर्वक राज्यका पालन किया। एक दिन काल तपस्वी का वेष धारण करके श्री राम चन्द्र जी के भवन में आया और इस प्रकार बोला- 'महाभाग श्रीराम ! मुझे ब्रह्माजीने भेजा है। रघुश्रेष्ठ ! मैं उनका सन्देश कहता हूँ, आप सुनें। मेरी और आपकी बातचीत हम ही दोनोंतक सीमित रहनी चाहिये; इस बीचमें जो यहाँ प्रवेश करे, वह वधके योग्य होगा।'
ऐसा ही होगा, यह प्रतिज्ञा करके श्रीरामचन्द्रजीने लक्ष्मणको दरवाजेपर पहरा देनेके लिये बिठा दिया और स्वयं कालके साथ वार्तालाप करने लगे। उस समय कालने कहा- "श्रीराम! मेरे आनेका जो कारण है, उसे आप सुनें। देवताओंने आपसे कहा था कि 'आप रावण और कुम्भकर्णको मार ग्यारह हजार वर्षां तक मनुष्यलोकमें निवास करें।' उनके ऐसा कहनेपर आप इस भूतलपर अवतीर्ण हुए थे। वह समय अब पूरा हो गया है; अतः अब आप परमधामको पधारें, जिससे सब देवता आपसे सनाथ हों।" महाबाहु श्री राम ने 'एवमस्तु' कहकर कालका अनुरोध स्वीकार किया। उन दोनोंमें अभी बातचीत हो ही रही थी कि महातपस्वी दुर्वासामुनि राजद्वारपर आ पहुँचे और लक्ष्मणसे बोले- 'राजकुमार ! तुम शीघ्र जाकर रघुनाथ जी को मेरे आनेकी सूचना दो।
यह सुनकर लक्ष्मणने कहा- 'ब्रह्मन् ! इस समय महाराजके समीप जानेकी आज्ञा नहीं है। लक्ष्मणकी बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ दुर्वासाको बड़ा क्रोध हुआ। वे बोले- 'यदि तुम श्रीरामचन्द्रजीसे नहीं मिलाओगे तो शाप दे दूँगा।' लक्ष्मणजीने शापके भयसे श्रीरामचन्द्रजीको महर्षि दुर्वासाके आगमनकी सूचना दे दी। तब सब भूतोंको भय देनेवाले कालदेव वहीं अन्तर्धान हो गये। महाराज श्रीरामने दुर्वासाके आनेपर उनका विधिवत् पूजन किया। उधर रघुश्रेष्ठ लक्ष्मणने अपने बड़े भाईकी प्रतिज्ञाको याद करके सरयूके जलमें स्थित हो अपने साक्षात् स्वरूपमें प्रवेश किया। उस समय उनके मस्तकपर सहस्रों फन शोभा पाने लगे। उनके श्रीअङ्गोंकी कान्ति कोटि चन्द्रमाओंके समान जान पड़ती थी। वे दिव्य माला और दिव्य वस्त्र धारण किये दिव्य चन्दनके अनुलेपसे सुशोभित हो रहे थे। सहस्रों नाग-कन्याओंसे घिरे हुए भगवान् अनन्त दिव्य विमानपर बैठकर परमधामको चले गये। लक्ष्मणके परमधामगमनका हाल जानकर श्री रघुनाथ जी ने भी इस लोकसे जानेका विचार किया। उन्होंने अपने पुत्र वीरवर कुशको कुशावतीमें और लवको द्वारवतीमें धर्मपूर्वक अपने-अपने राज्यपर स्थापित किया। उस समय भगवान् श्रीरामके अभिप्रायको जानकर समस्त वानर और महाबली राक्षस अयोध्यामें आ गये।
विभीषण, सुग्रीव, जाम्बवान्, पवनकुमार हनुमान्, नील, नल, सुषेण और निषादराज गुह भी आ पहुँचे। महामना शत्रुघ्न भी अपने वीर पुत्रोंको राज्यपर अभिषिक्त करके श्रीरामपालित अयोध्यानगरीमें आये। वे सभी महात्मा श्रीरामको प्रणाम करके हाथ जोड़कर कहने लगे- 'रघुश्रेष्ठ ! आप परमधाममें पधारनेको उद्यत हैं- यह जानकर हम सब लोग आपके साथ चलनेको आये हैं। प्रभो! आपके बिना हम क्षणभर भी जीवित रहनेमें समर्थ नहीं हैं; अतः हम भी साथ ही चलेंगे।' उनके ऐसा कहनेपर श्रीरघुनाथजीने 'बहुत अच्छा' कहकर उनकी प्रार्थना स्वीकार की। तत्पश्चात् उन्होंने राक्षसराज विभीषणसे कहा- 'तुम धर्मपूर्वक राज्यका पालन करो। मेरी प्रतिज्ञा व्यर्थ न होने दो। जबतक चन्द्रमा, सूर्य और पृथ्वी कायम है, तबतक प्रसन्नतापूर्वक राज्य भोगो। फिर योग्य समय आनेपर मेरे परमपदको प्राप्त होओगे।
ऐसा कहकर श्रीरामचन्द्रजीने इक्ष्वाकुकुलके देवता श्रीरङ्गशायी सनातन भगवान् विष्णुके अर्चाविग्रहको विभीषणके लिये समर्पित किया। इसके बाद शत्रुसूदन श्रीरघुनाथजीने हनुमान्जीसे कहा- 'वानरेश्वर ! संसारमें जबतक मेरी कथाका प्रचार रहे, तबतक तुम इस पृथ्वीपर सुखसे रहो। फिर समयानुसार मुझे प्राप्त होओगे।' हनुमान्जीसे ऐसा कहकर वे जाम्बवान्से बोले- 'पुरुषश्रेष्ठ ! द्वापर युग आनेपर मैं पुनः पृथ्वीका भार उतारनेके लिये यदुकुलमें अवतार लूँगा और तुम्हारे साथ युद्ध करूँगा। [अतः तुम यहीं रहो।]उपर्युक्त व्यक्तियोंसे ऐसा कहकर श्रीरामचन्द्रजीने अन्य सभी वानरों और भालुओंसे कहा- 'तुम सब लोग मेरे साथ चलो।' तदनन्तर ब्रह्मचर्यका पालन करनेवाले भगवान् श्रीराम श्वेत वस्त्र पहनकर दोनों
हाथोंमें कुश लिये अनासक्तभावसे चले। श्रीरामचन्द्रजीके दक्षिण भागमें कमल हाथमें लिये श्रीदेवी उपस्थित हो गयीं और वामभागमें भूदेवी साथ-साथ चलने लगीं।
वेद, वेदाङ्ग, पुराण, इतिहास, ॐकार, वषट्कार, लोकको पवित्र करनेवाली सावित्री तथा धनुष आदि अस्त्र-शस्त्र- सभी पुरुष-विग्रह धारण करके वहाँ उपस्थित हो गये। भरत, शत्रुघ्न तथा समस्त पुरवासी भी अपनी स्त्री, पुत्र तथा सेवकोंसहित भगवान्के साथ-साथ चले। मन्त्री, भृत्यवर्ग, किङ्कर, वैदिक, वानरगण, भालु तथा राजा सुग्रीव- इन सबने स्त्री और पुत्रोंके साथ परम बुद्धिमान् श्रीरघुनाथजीका अनुसरण किया। इतना ही नहीं, समीपवर्ती पशु, पक्षी तथा समस्त स्थावर जङ्गम प्राणी भी महात्मा रघुनाथजीके साथ गये। उस समय श्रीरामचन्द्रजीको. जो भी देख लेते, वे ही उनके साथ लग जाते थे। उनमेंसे कोई भी पीछे नहीं लौटता था। तदनन्तर अयोध्यासे तीन योजन दूर जाकर, जहाँ नदीका प्रवाह पच्छिमकी ओर था, भगवान्ने अनुयायियोंसहित पुण्यसलिला सरयूमें प्रवेश किया। उस समय पितामह ब्रह्माजी सब देवताओं और ऋषियोंके साथ आकर रघुनाथजीकी स्तुति करते हुए बोले- 'श्रीविष्णो । आइये। आपका कल्याण हो। बड़े सौभाग्यकी बात है जो आप यहाँ पधारे हैं। मानद ! अब आप अपने देवोपम भाइयोंके साथ अपने वैष्णव स्वरूपमें प्रवेश कीजिये। वही आपका सनातन रूप है। देव! आप ही सम्पूर्ण विश्वकी गति है। कोई भी आपके स्वरूपको वास्तवमें नहीं जानते।
आप अचिन्त्य, महात्मा, अविनाशी और सबके आश्रय हैं। भगवन् ! आप आइये।' उस समय भगवान् श्रीरामने अपने स्वरूपमें प्रवेश किया। भरत और शत्रुघ्र क्रमशः शङ्ख और चक्रके अंश थे। वे दोनों महात्मा दिव्य तेजसे सम्पन्न हो अपने तेजमें मिल गये। तब शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये हुए चतुर्भुज भगवान् विष्णुके रूपमें स्थित हो श्रीरामचन्द्रजी श्री और भू देवियोंके साथ विमानपर आरूढ़ हुए। वहाँ दिव्य कल्पवृक्षके मूल भागमें सुन्दर सिंहासनपर भगवान् विराजमान हुए। उस समय सब देवता उनकी स्तुति कर रहे थे। श्रीराम- चन्द्रजीके पीछे जो वानर, भालु और मनुष्य आये थे, उन्होंने सरयूके जलका स्पर्श करते ही सुखपूर्वक प्राण त्याग दिये और श्रीरघुनाथजीकी कृपासे सबने दिव्य रूप धारण कर लिया। उनके अङ्गोंमें दिव्य हार और दिव्य वस्त्र शोभा पा रहे थे। वे दिव्य मङ्गलमय कान्तिसे सम्पन्न थे। असंख्य देहधारियोंसे घिरे हुए राजीवलोचन भगवान् श्रीराम उस विमानपर आरूढ़ हुए। उस समय देवता, सिद्ध, मुनि और महात्माओंसे पूजित होकर वे अपने दिव्य, अविनाशी एवं सनातन धाममें चले गये। पार्वती ! जो मनुष्य श्रीरामचन्द्रजी के चरित्र के एक या आधे श्लोकको पढ़ता अथवा सुनता या भक्तिपूर्वक स्मरण करता है, वह कोटि जन्मोंके उपार्जित ज्ञाताज्ञात पापसे मुक्त हो स्त्री, पुत्र एवं बन्धु-बान्धवोंके साथ योगियोंको प्राप्त होनेयोग्य विष्णु लोक में अनायास ही चला जाता है। देवि! यह मैंने तुमसे श्री रामचन्द्र जी के महान् चरित्रका वर्णन किया है। तुम्हारी प्रेरणासे मुझे श्रीरामचन्द्रजीकी लीलाओंके कीर्तनका शुभ अवसर प्राप्त हुआ, इससे मैं अपनेको धन्य मानता हूँ।
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