श्री हनुमदुपासना में सावधानी | Shree Hanumadupaasana Mein Saavadhaanee

श्री हनुमदुपासना में सावधानी 

घर में नित्यप्रति श्रीहनुमानजी महाराजकी पूजा करनेसे भूत-प्रेत नहीं सताते। उनके नाममें अमोघ शक्ति है। 
भूत पिसाच निकट नहिं आवै। महाबीर जब नाम सुनावै ।।
श्रीहनुमानजी महाराजको जो भी प्रसाद चढ़ाया जाय, वह शुद्ध घीमें शुद्धतापूर्वक घरपर बनाया हुआ होना चाहिये। यदि ऐसे प्रसादकी व्यवस्था न हो सके तो भोग लगाये ही नहीं। इसी प्रकार हनुमानजी महाराजको शुद्ध कूपजल अथवा गङ्गाजलसे स्नान कराना चाहिये। श्रीहनुमानजीका मन्दिर बनवानेके साथ ही कुआँ अवश्य बनवाना चाहिये, जिस से उपासक स्नानादि कार्य शुद्धतापूर्वक कर सके तथा देव पूजनका कार्य पवित्रतापूर्वक सम्पन्न हो सके। श्रीहनुमानजीके मन्दिरके पुजारीको सदाचारी होना चाहिये। शुद्ध सिन्दूर और शुद्ध घी आदिसे श्रीहनुमानजी महाराजका चोला चढ़ानेका विधान है। मन्दिरमें श्रीरामायण के पाठसे हनुमानजी बड़े प्रसन्न होते हैं। प्रत्येक मंगलवार और शनिवारको दर्शन करनेसे तथा हनुमानचालीसाका पाठ करनेसे साधकका परम कल्याण है।

श्री राम-भक्ति की सजीव मूर्ति - श्री हनुमान

यत्र यत्र रघुनाथकीर्तनं तत्र तत्र कृतमस्तकाञ्जलिम् ।
वाष्पवारिपरिपूर्णलोचनं मारुतिं नमत राक्षसान्तकम् ।।

परात्पर पूर्णब्ब्रह्म श्रीरामका अवतारं चतुर्यूहात्मक मात्र न होकर पञ्चायतन-रूपमें भी शास्त्रों में वर्णित है। एक ही ब्रह्मविभूति जहाँ चतुर्धा विभक्त होकर आविर्भूत हुई, वहाँ उसी परिवारके अनन्य अङ्ग श्रीहनुमान भी हैं। तत्कालीन विश्वमें अद्भुत, अलौकिक, दिव्य आनन्दामृतसिन्धुमें प्रफुल्लित श्रीराम-सरोज के दिव्याति दिव्य सौरभ के सहजोन्मत्त भ्रमर दो ही हुए - एक श्रीभरत और दूसरे श्रीहनुमान। इसी कारण गोस्वामी तुलसीदासजीके शब्दोंमें श्रीरामने हनुमानजीको कहा- 'तै मम प्रिय लछिमन ते दूना ।, 'तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई।' (ह० चा०) श्रीहनुमान श्रीराम-भक्तोंके परमाधार, रक्षक और श्रीराम-मिलनके अग्रदूत हैं। श्रीराम भक्त को श्रीहनुमानजीसे सहज प्रेम, आश्रय और सस्नेह रक्षा प्राप्त होती है। महावीर हनुमानजीके वचनमें ही नहीं, किंतु उनके वास्तविक जीवनमें भी कोई असम्भव तत्त्व नहीं था। सहज सरल निरभिमान श्री हनुमान के-

शाखामृगस्य शाखायाः शाखां गन्तुं पराक्रमः । 
यत्पुनर्लङ्घित्तोऽम्बोधिः प्रभावोऽयं प्रभो तव ।।

साखामृग कै बड़ि मनुसाई। साखा तें साखा पर जाई ।।

शब्दों में कितनी अहंकारशून्यता है, पर उनके अपने जीवन में ही नहीं, अपितु उनके कृपाकटाक्ष में भी असम्भवको सम्भव बनाने की सामर्थ्य है। इस विषयमें ऋक्षराज जाम्बवान्‌ के ये वचन प्रमाण है-

कवन सो काज कठिन जग माहीं।
जो नहि होड़ तात तुम्ह पाहीं ॥

मृतकको जीवन-दान देना श्रीहनुमानजीके लिये अति सामान्य बात है। श्रीलक्ष्मणजीके जीवनकी तथा उनके द्वारा प्रभु श्रीरामकी भी सुरक्षाके निमित्त श्रीहनुमान ही हैं। स्वयं भगवान् श्रीराम अगस्त्यजीके समक्ष मुक्त कण्ठ से उनकी प्रशंसा करते नहीं अघाते-

शौर्य दाक्ष्यं बलं धैर्यं प्राज्ञता नयसाधनम्। 
विक्रमश्च प्रभावश्च हनूमति कृतालयाः ॥

शूरवीरता, दक्षता, बल, धैर्य, विद्वत्ता, नीति-ज्ञान, पराक्रम और प्रभाव- इन सभी सगुणोंने हनुमानजी के भीतर घर कर रखा है। समस्त जगत्के लोगोंके लिये- 'सागरः सागरोपमः सागर अपनी उपमा आप ही है।' वह अनन्वय है, पर हनुमानजीके लिये वही वारीश सिन्धु एक गोखुरके समान सर्वथा नगण्य है। राक्षस समस्त देव-दानव-मानवके लिये भीमकाय, भीमकर्मा और भीमदर्शन हैं, परंतु श्रीहनुमानजीके लिये तो वे केवल मच्छर से ही है। वे कहते हैं-

संरुद्धस्तैस्तु परितो विधमे राक्षसं बलम् ।
कामं हन्तुं समर्थोऽस्मि सहस्त्राण्यपि रक्षसाम् ।।
सर्वेषामेव पर्याप्तो राक्षसानामहं युधि ।

'चारों ओरसे राक्षसी सेनासे घिरा हुआ मैं राक्षसों के बलका पूर्णतया मर्दन कर सकता हूँ तथा सहस्रों राक्षसों का स्वेच्छ्या वध कर सकता हूँ। मैं अकेला ही युद्धमें उन सभी राक्षसोंके लिये पर्याप्त हूँ। स्वयं रावण भी लंका-दाह के समय श्रीहनुमानजी की रौद्र- विकराल मूर्ति देखकर वितर्क करता है-

वज्री महेन्द्रस्त्रिदशेश्वरो वा साक्षाद् यमो वा वरुणोऽनिलो वा ।
रौद्रोऽग्निरकों धनदश्च सोमो न वानरोऽयं स्वयमेव कालः ।।

'यह देवराज वज्रधर महेन्द्र भले हो सकता है, साक्षात्यम, वरुण, पवन अथवा विश्वको भस्म करनके लिये संवर्ताग्नि, सूर्य, कुबेर या चन्द्र अथवा साक्षात् काल ही विश्वसंहारार्थ प्रकट हुआ हो सकता है, किंतु निश्चय ही यह वानर तो नहीं है।' इस प्रकार श्रीरामचरित्रकी अनुपम महामालाके रल श्रीहनुमानजी हैं। अभि-बीज 'र' को विस्तृतकर श्रीराम-विरोधी राक्षस-सेना और उनकी स्वर्णमयी लंकापुरीको भस्म करने और  श्रीराम-भक्तोंके दुःख-शोक, दीनता दारिद्य, आधि-व्याधि, संताप तथा अज्ञानान्धकारको ज्ञानाग्रि द्वारा छिन्न-भिन्न कर देनेके कारण श्रीहनुमान श्रीराम-नामके 'र' बीजके प्रतीक हैं। अतः उनकी भक्ति, वीरता और अनन्यताका सार रामायण-महामालाके अद्वितीय, अनुपम रत्नके रूप में अङ्कित किया गया है-

गोष्पदीकृतवारीशं मशकीकृतराक्षसम् ।
रामायणमहामालारत्रं वन्देऽनिलात्मजम् ।।

'सिन्धुको गोखुर के समान लाँघ जाने वाले, राक्षसों को मच्छर-तुल्य मसल देने वाले, परमानन्दकन्द-श्री मदयोध्याचन्द्र- कौसल्या-नन्दवर्धन-दशरथनन्दन-श्रीराम-सुधारस-मन्दाकिनी- मुक्तमाल के महारल श्री हनुमान जी को सहस्त्रशः, लक्षशः, कोटिशः प्रणाम है।'

श्रीमहावीर-महिमा

जय जय श्रीहनुमन्त, कृपानिधि कृति अनन्त के।
प्रबल बुद्धि बलवन्त, जो एकै दस दिगन्त के ॥

अरुन रंग सो तरुन, अंग तान्त्रिक तरंग सों।
बिकट बीर बजरंग, अचल अच्युत अभंग सों ॥

हे प्रभु 'द्विजेश' मैं भजि तुम्हें, भय भञ्जन के काम सों। जेहि तें तौ पद अभिराम प्रद, पेखि सु करत प्रनाम सों। 

जिन अद्भुत अद्वितीय तीय बिनु अनुज तनुज के। 
सुर मनुजहि सुमतीय, नेकु नहिं मीत दनुज के ॥

अंजनि जननि सों जन्य, मन्य मारुत मन रंजन । 
रंजन भुज आजानु, भानु भक्षक जिमि ब्यंजन ।।

अवलोकि 'द्विजेश' त्रिलोक जेहिं, दै तिहुँ काल प्रमान इमि ।
 भूतो न भविष्यत अस कोऊ वर्तमान हनुमान जिमि ॥

स्वयं वानर होने पर भी दास्य-भक्तिके प्रतापसे भगवान्‌ श्री राम चन्द्र के प्रिय दास होते हुए भी आप देवता बन गये। यह सिद्धि दूसरा कोई कपि पति नहीं प्राप्त कर सका। श्री हनुमान जी का आजन्म नैष्ठिक ब्रह्मचर्य-पालन का आदर्श सर्वथा अद्वितीय है। इतिहास में इसका ऐसा अन्य श्रेष्ठ उदाहरण कहीं नहीं मिलता। अदर्शन, अस्पर्शन, अस्मरण, असंकल्प आदि सामान्य ब्रह्मचर्यके आठ अड्ड निर्दिष्ट हैं। किंतु इसके मूलमें एतदर्थ योग-वेदान्तादिके स्वाध्यायद्वारा दिव्य ज्ञान, वैराग्य एवं अभ्यास भी आवश्यक होते हैं तथा जन्मान्तरीय स्थिति भी देखी जाती है। इन सभी दृष्टियोंसे साधनसम्पन्न रुद्रावतार श्रीहनुमानजीने आजन्म ब्रह्मचर्यके परिपालनद्वारा अपनेको अपरिमित शक्ति शाली बनाकर श्रीरामायण-कथा को भी अमर बना दिया। इसमें लेशमात्र भी अतिशयोक्ति नहीं है।
तथापि श्रीहनुमानजीकी उपासना “उग्र' कही गयी है, अतः: साधकको तत्सम्बन्धी आभिचारिक (मारण, मोहन आदि) उपासनाएँ नहीं करनी चाहिये। अस्तु, हम उन्हें सादर नमस्कार करते हुए इस निबन्धका उपसंहार करते हैं

श्री मारुति का महत्त्व

श्री मद्रामायण एक ऐसा महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रन्थ है, जो मानव-जीवन के लिये धर्मशास्त्रों की तरह ही धर्मका प्रबोध करता है। इसमें कई पात्र प्रतिबिम्बित होते हैं- जैसे लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, विश्वामित्र, सुग्रीव, विभीषण आदि। किंतु श्रीराम और माता सीता इसके प्रधान पात्र है। इन दोनोंके द्वारा श्रीहनुमानजी प्रधान बने हैं। अञ्जनादेवीके पुत्र होनेके कारण इनका नाम 'आञ्जनेय' पड़ा। मस्तका अर्थ है- वायु। मरुतका पुत्र होनेके कारण इन्हें 'मारुति' भी कहा जाता है। श्रीरामके अवतारको पूर्ण एवं सफल बनानेके लिये रामायण में श्रीहनुमान ही प्रधान पात्र परिलक्षित होते हैं। ये रामायणके एक ऐसे महान् पात्र हैं, जिन्होंने भगवान् श्रीरामको खोयी हुई सीताका संदेश दिया तथा रावणके संहार-कार्यमें भी उनकी पूर्ण सहायता की। श्रीमन्मारुति-पात्रके बिना रामायण रामायण ही नहीं रहती। श्रीहनुमानजी केवल शारीरिक बल-सम्पन्न ही नहीं, अपितु बुद्धि-बलसम्पन्न भी हैं। यदि उनका बल शरीरतक ही सीमित रहता तो उनके जीवनमें केवल युद्ध-ही-युद्ध रह जाता। हनुमानजी बुद्धि-बलसम्पत्र, चतुर, प्रतिभावान् और समर्थ हैं, जो समय और संदर्भक अनुसार भाषण कर अपने कार्यमें सफलता प्राप्त करते हैं। उदाहरणार्थ- सीतामाताकी खोजमें अशोक-वनमें पहुँचकर अपने आगमनका समाचार व्यक्त करनेके लिए उन्होंने जिस बौद्धिक प्रणालीका उपयोग किया, वही इसके लिये प्रबल प्रमाण है। ऐसे महाबली और पर्वततक उखाड़ लानेवाले हनुमानजी अपने स्वामी श्रीरामके सम्मुख हाथ जोड़‌कर नतमस्तक हो केवल भक्तिभावसे ही विद्यमान रहते हैं। उन्होंने श्रीरामभद्रकी तन और मनसे जो महान् सेवा की, उसके प्रतिफलके रूपमें देनेके लिये श्रीरामचन्द्रजी-जैसे महान् दानीके पास भी कुछ नहीं था। जो निःस्वार्थभावसे सेवा करते हैं, उनके मनकी पवित्रता होती है और साथ-ही-साथ उन्हें आत्माका साक्षात्कार भी होता है। वही उसका प्रतिफल है। इसीलिये जो निरन्तर आत्माका साक्षात्कार करके अहर्निश श्रीरामके ध्यानमें मन रहते हैं, वे चिरंजीवी होते हैं। हनुमानजीके विषयमें श्रीमदाद्य शंकराचार्यने 'हनुमत्पञ्चरत्न' के नामसे पाँच श्लोक रचे हैं, जिनमें एक नीचे उद्धृत किया जा रहा है-

दूरीकृतसीतार्तिः प्रकटीकृतरामवैभवस्फूर्तिः ।
दारितदशमुखकीर्तिः पुरतो मम भातु हनुमतो मूर्तिः ।

अर्थात् 'श्रीराम-नाम' के स्मरणकी महिमा से ही हनुमानजीने माता सीताका दुःख दूर किया, श्रीराम-महिमा को व्यक्त किया, श्रीरामके वैभवको प्रकट किया, श्रीराम-नाम- जपकी महिमासे समुद्रको पार किया और अन्तमें लेका प्रवेश के समय समुद्रपर पुल बाँधकर सुगमतासे सेनाके साथ लंकामें भी प्रवेश किया तथा रावणकी कीर्तिपताकाको ध्वस्त किया। ऐसे हनुमानजीका श्रीविग्रह मेरे सामने सुशोभित हो। उपर्युक्त महत्त्वपूर्ण घटनाओंके आधारपर हमें श्रीरामनाम-स्मरणकी महिमा स्पष्टरूपसे विदित होती है। साधारणतया तो उपासक जिन-जिन मूर्तियोंकी उपासना करते हैं, उन-उनके नाम-जप या अनुष्ठान से तत्सम्बन्धित देवताओं- का साक्षात्कार कर लेते हैं। किंतु हनुमान जी की बात अलग है, उन्हें 'श्रीराम-नाम' के अतिरिक्त अन्य कोई जप प्रसन्न नहीं कर सकता, श्रीराम-मन्त्र ही उनके लिये सर्वस्व है। इस महान् महिमाके कारण ही उन्होंने दशकण्ठका यश मिटा दिया था। हमारी भी यही कामना है कि ऐसे महिमापूर्ण हनुमानजी सदैव हमारे सम्मुख विद्यमान हों। साथ ही यह भी हमारी आकाङ्क्षा है कि सभी सज्जन इस प्रकारकी प्रार्थना करें और अपने जीवनमें हनुमानजीका साक्षात्कार कर लेनेका अहोभाग्य प्राप्त करें। आप किसी एक देवताकी आराधना- द्वारा तो एक ही फल प्राप्त कर सकते हैं, किंतु श्री हनुमान जी की आराधना द्वारा तो आप बुद्धि, बल, कीर्ति, धीरता, निर्भीकता, आरोग्य, सुदृढ़ता और वाक्पटुता आदि सभी फल प्राप्त कर सकते हैं-

बुद्धिबले यशो धैर्य निर्भयत्वमरोगता ।
सुदाय वाक्स्फुरत्वं च हनुमत्स्मरणाद् भवेत् ।।

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