श्री हनुमान जी नम्रता की मूर्ति,Shree Hanumaan Jee Namrata Kee Moorti

श्री हनुमान जी नम्रता की मूर्ति

अधिकांश भगवत्प्रेमी पुरुष पवनसुत हनुमान जी को प्रमुखतः शक्ति के आराध्य देव के रूप में ही मानते एवं पूजते हैं। किंतु जैसा विद्याके विषयमें कहा है-
  • 'विद्या विनयेन शोभते ।'
उसी प्रकार नम्रता भी बलवान्‌का ही आभूषण है। बल होना एवं उसका दर्प होना मनुष्यको रावण बना देता है, जिससे वह अन्यायी अत्याचारी हो जाता है। यथार्थमें तो प्रत्येक अत्याचारी व्यक्ति डरपोक होता है, निर्भीक कभी नहीं। क्रूरता निर्बलताकी निशानी है। अतः सच्चा बलशाली व्यक्ति अपने बलका प्रदर्शन नहीं करता। उसका बल तो उस समय प्रकट होता है, जब उसे निर्बलोंकी तथा धर्मकी रक्षा एवं आततायीका मर्दन करना हो या अपने स्वामीके हितमें कोई शुभ कार्य करनेके हेतु ललकारा जाता हो, जैसा कि जाम्बवान्ने समुद्र-लङ्घनकी समस्याके समय कहा-
'का चुप साधि रहेछु बलवाना ।।'

  • तथा-

कवन सो काज कठिन जग माहीं। जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं॥ 
राम काज लगि तव अवतारा। सुनतर्हि भयउ पर्वताकारा॥

हनुमानजी पर्वताकार तो अवश्य हुए, गरजे-तरजे भी, किंतु उन्होंने अपना मानसिक संतुलन नहीं खोया। नम्रतापर अधिकार बनाये रखा एवं जाम्बवान्से बोले- 'मैं समुद्रको लील सकता हूँ, लाँघ सकता हूँ, बन्धुसहित रावणको मारकर त्रिकूटपर्वतको उखाड़कर अभी ला सकता हूँ' पर- 

जामवंत मैं पूँछउँ तोही। 
उचित सिखावनु दीजहु मोही ॥

अतः हनुमानजीकी उतनी महानता उनकी शक्तिमें नहीं थी, जितनी उनकी भक्ति तथा नम्रतामें। जब श्रीराम-दलके वीरोंकी यह स्थिति थी-

निज निज बल सब काहूँ भाषा।
पार जाइ कर संसय राखा ॥

ऐसे अवसरपर भी सबमें शक्ति शाली होते हुए भी आप चुप्पी साधे रहे। इसी प्रकार 'राम-काज' कर आनेके बाद भी वही नम्रताकी मूर्ति, वही प्रशंसासे पृथक् छिपे रहनेकी प्रवृत्ति। उन्होंने सुग्रीवसे स्वयं आगे बढ़कर यह नहीं कहा कि 'हे स्वामी! मैंने आपका दिया काम पूरा किया है तथा मैं सीता का संदेश भी ले आया हूँ।

पूँछी कुसल कुसल पद देखी। 
राम कृाँ भा काजु बिसेषी ॥ 
नाथ काजु कीन्हेठ हनुमाना । 

आदि अङ्गदने ऐसी सूचना दी तथा ऐसी ही सूचना फिर सुग्रीवने भी श्री राम को दी।

'प्रभु की कृपा भयउ सबु काजू ।'

  • तथा-

पवनतनय के चरित सुहाए। 
जामवंत रघुपतिहि सुनाए ।

यद्यपि श्रीरामने हनुमानजीको अपना विशेष दूत बनाकर भेजा था अपनी मुद्रिका देकर। अतः श्रीरामको स्वयं सूचना देनेका उन्हें अधिकार था। साथ ही वे सीताजीका विशेष संदेश तथा चूड़ामणि भी तो लाये थे। अतः आगे बढ़कर भेट कर सकते थे। पर नहीं, श्रीरामदलमें उनका चतुर्थ स्थान था- पहले सुग्रीव, फिर जाम्बवान्, फिर अङ्गद, तब हनुमान का नाम आता है एवं अपनेसे बड़ोंको सीधे सूचना देना बड़ोंका अपमानसूचक होता है। फिर हनुमानजी तो नम्रताकी प्रतिमूर्ति थे, तभी तो लंका-यात्रापर जाते समय भी वे सबको शीश नवाकर ही चले-

'यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा।'

हनुमान जी द्वारा सीता जी की सुध लानेपर जब उनका संदेश एवं निशानी प्राप्त कर श्रीराम उन्हें अपने निकट बैठाकर प्रेमपूर्वक पूछते हैं-

कहु कपि रावन पालित लंका।
केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका ॥

तब अभिमानगलित, नम्रताके अवतार श्रीहनुमानजी कहते हैं-

साखामृग कै बड़ि मनुसाई। साखा तें साखा पर जाई ॥ 
नाधि सिंधु हाटकपुर जारा। निसिचर गन बधि विपिन उजारा ।। 
सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछू मोरि प्रभुताई ॥

इस प्रकार जब भगवान् श्रीराम कहते हैं-

सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं। 
देखेउँ करि बिचार मन माहीं ॥ 

देखिये, सफलताके चरम विन्दुपर भी दीनता, महावीर होते हुए भी अपने-आपको एक शाखामृग मानना कितनी बड़ी नम्रता है। इसी प्रकार जब सीताजी हनुमानजीके लघु रूप- साधारण रूपको देखकर शंका प्रकट करती हैं कि कैसे ऐसे वानरोंकी सेनासे प्रबल राक्षसोंपर श्रीराम विजय प्राप्त करेंगे, तब पुनः ऐसे अवसरपर अपने प्रभुका प्रताप प्रदर्शन तथा एक दुष्टके चंगुलमें फँसी हुई दुःखी माताकी सान्त्वनाके लिये वे अपनी देह-अपना पौरुषमय विराट्स्वरूप प्रदर्शित करते हैं-

कनक भूधराकार सरीरा। 
समर भयंकर अतिबल बीरा ॥

पर तुरंत ही, विशाल शक्तिके प्रदर्शनके साथ ही फिर अपने-आपको शाखामृग ही कहते हैं-

'सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।'

विशालताके साथ लघुताका कैसा अद्भुत समन्वय है, जो विरलोंमें ही पाया जाता है। फिर यह बात नहीं कि अपने प्रभु या स्वामी सम्मुख ही उनकी यह नम्रता, आत्मश्लाघा या अभिमानसे दूर रहनेकी प्रवृत्ति प्रकट होती हो, प्रत्युत यह तो उनका स्वभाव ही बन गया था। तभी तो वे बेचारे दूतगण, जो श्रीरामसेनाका भेद लेने रावणद्वारा भेजे गये थे, धोखा खा गये। उन्होंने देखा कि यह हनुमान, जिसने लंकामें इतना उपद्रव मचाया, एक शान्त नगण्य-सा बंदर है। अतः उन्होंने सूचना दे दी

जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा। 
सकल कपिन्ह महुँ तेहि बलु थोरा ॥

पर निरभिमानता का तो परम उत्कृष्ट उदाहरण उपस्थित होता है तब, जब उनकी विभीषण जी से भेंट होती है एवं विभीषण दीन-भावसे कहते हैं-

तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा। 
करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा ।। 

तब परम भक्त हनुमानजी अपने उस महापौरुषको भूल जाते हैं, जो अभी-अभी दिखा आये हैं। यथा-समुद्र-लङ्घन तथा समुद्री राक्षसोंका हनन या मानमर्दन करनेके बाद भी वे यही कहते हैं- 'प्रिय सखा विभीषण ! सुनो, प्रभुकी शरणमें अधम-से- अधमको स्थान है। मुझको ही देखो न-

कहरु कवन मैं परम कुलीना। 
कपि चंचल सबहीं बिधि हीना ।। 
प्रात लेइ जो नाम हमारा। 
तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा ।।
अस मैं अधम सखा सुनु !

इस प्रकार महावीर विक्रमी बजरंगी अपने-आपको एक परम साधारण बंदरसे अधिक कुछ नहीं मानते। वे तो अपना बल श्रीरामको मानते थे एवं अपनी गरिमा एक नदीकी भाँति शक्तिके पुंज श्रीरामरूप समुद्रमें खोकर अपने-आपको हलका पाते थे। इसलिये प्रत्येक कार्यके पूर्व उन्होंने श्रीरामका स्मरण किया एवं सुगमतापूर्वक अभिमानसे रहित होकर विलक्षण कार्य किये। यही सम्भवतः उनकी अभयताका भी कारण था। तभी तो मेघनादद्वारा बाँधे जानेपर रावण दरबारमें सभीत दिक्पालोंको- वरुण, कुबेरको हाथ जोड़े देखकर भी उन्होंने-

जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका ॥'

निःशङ्क प्रवेश किया एवं रावणको निर्भय उपदेश देते हुए कहा-

मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा। 
कीन्ह वहउँ निज प्रभु कर काजा ॥ 

ठीक है, पहले ही तुलसीने कहा है-

प्रभु कारज लगि कपिर्हि बँधावा ।।' '

पर रामायण में एक प्रसंग ऐसा अवश्य आता है, जिसमें श्रीहनुमानजीको कुछ क्षणोंके लिये अपने बलका घमंड आ जाता है। वह प्रसंग लक्ष्मण-शक्ति के समय जड़ी लेकर आते हुए भरत द्वारा बाण मारे जानेपर एवं उनके द्वारा त्वरित उन्हें भेजनेके हेतु अपने बाणोंपर बैठनेका आह्वान करनेपर होता है-

सुनि कपि मन उपजा अभिमाना। 
मोरें भार चलिहि किमि बाना ।। 

किंतु श्रीरामके प्यारे, अनन्य भक्त एवं सेवक को घमंड का स्पर्श ही आश्चर्य की बात है, उसका टिकना तो असम्भव ही है। 

अस्तु- राम प्रभाव बिचारि बहोरी। 
बंदि चरन कह कपि कर जोरी ।।

श्री राम-प्रभाव की स्मृति होते ही उनके संशयका तुरन्त नाश हो जाता है। रावण-जैसे महान् बलशाली से टक्कर लेने वाले एवं उस विशाल शैलकायको भी अपने एक मुष्टिका- प्रहार से धराशायी कर देनेवाले पवनसुत के महापराक्रम की बरबस दैत्य-सम्राट् रावणको भी प्रशंसा करनी पड़ी- 

मुरुछा गै बहोरि सो जागा। 
कपि बल बिपुल सराहन लागा।

पर वे ही अतुलितबलधाम हेमशैलाभदेह परम दीनतापूर्वक प्रभुसे परिचयके समय कहते हैं-

'एकु मैं मंद मोहबस कुटिल हृदय अग्यान।' 

अस्तु, इससे यही सिद्ध होता है कि पवनसुत हनुमान न केवल एक आदर्श सेवक, निर्मल हृदय संत तथा श्रेष्ठ भक्त हैं, वरं अतुलित बलके धाम होते हुए भी वे विनय, नम्रता और सौजन्यकी साक्षात् मूर्ति हैं। अतुलनीय शक्तिके साथ विनम्रताका रहना ही वास्तविक विनम्रता है। 

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