श्री हनुमान जी के आयुध एवं वाहन, Shree Hanumaan Jee Ke Aayudh Evan Vaahan

श्री हनुमान जी के आयुध एवं वाहन

श्री हनुमान जी अपने प्रभु श्रीरामके चरणोंमें पूर्ण समर्पित आप्तकाम-निष्काम सेवक हैं। उनका सर्वस्व प्रभुकी सेवाका उपकरण है। उनके सम्पूर्ण अङ्ग प्रत्यङ्ग, रद, मुष्टि, नख, पूँछ, गदा एवं गिरि, पादप आदि प्रभुके सेवा-मार्गमें अवरोध उत्पन्न करनेवाले अमङ्गलोंके नाशके लिये दिव्य आयुध हैं। श्री हनुमान जी वज्राङ्ग हैं- सभी आयुधोंसे अवध्य हैं। 'वरुणदेवताने उन्हें अमरत्व प्रदान किया था, यमने अपने दण्डसे अभयदान दिया था, कुबेरने गदाघात से अप्र भावित होने का वर दिया था और भगवान् शंकर ने शूल तथा पाशुपत आदि अस्त्रोंसे अभय होनेका वरदान दिया था। प्रजापतिने कहा था कि ये ब्रह्मास्त्र, ब्रह्मदण्ड आदिसे अवध्य होंगे। अस्त्र-शस्त्रोंके कर्ता विश्वकर्माने उन्हें समस्त आयुधोंसे अवध्य होनेकी बात कही थी'-

अमरत्वं च वरुणः स्वदण्डादभयं यमः । 
निष्कम्पतां गदाघाते स्वायुधेषु च वित्तपः ॥
शूलपाशुपतादिभ्योऽप्यभयं भगवान् भवः । 
ब्रह्मास्त्रब्रह्मदण्डाद्यैरवध्यत्वं प्रजापतिः ॥
सर्वायुधप्रतीघातं विश्वकर्मास्त्रशस्त्रकृत् ॥

श्रीहनुमानजी युद्धवीर हैं। गोस्वामी तुलसीदासजीका कथन है कि 'शिव, स्वामिकार्तिक, परशुराम, दैत्य और देवता वृन्द-सबकी युद्धरूपी नदीके पार जानेमें वे समर्थ एवं योग्य योद्धा हैं। वेदरूपी वन्दीजन उनकी स्तुति करते हुए कहते हैं कि आप सत्य-प्रतिज्ञ एवं चतुर योद्धा, बड़े कीर्तिमान् और यशस्वी हैं, जिनके गुणोंकी कथाको रघुनाथजीने श्रीमुखसे स्वयं कहा तथा जिनके अतिशय पराक्रमसे अपार जलसे भरा हुआ संसार-समुद्र सूख गया। उन सुन्दर राजपूत (पवनकुमार)- के बिना राक्षसोंके दलका नाश करनेवाला दूसरा कौन है? अर्थात् दूसरा कोई है ही नहीं।'

पंचमुख छमुख भृगुमुख्य-भट-असुर-सुर, सर्व-सरि-समर समरत्थ सूरो।
बाँकुरो बीर बिरुदैत बिरुदावली,बेद बंदी बदत पैज पूरो ॥
जासु गुनगाथ रघुनाथ कह, जासु बल बिपुल-जल-भरित जग-जलधि झूरो ॥
दुवन-दल-दमन को कौन तुलसीस है, पवन को पूत रजपूत रूरो ॥

पञ्चमुख हनुमान को दस आयुधोंसे समलंकृत कहा गया है-

खड्गं त्रिशूलं खट्‌वाङ्ग पाशमङ्‌कुशपर्वतम् ॥
ध्रुवमुष्टिगदामुण्डं दशभिर्मुनिपुङ्गव ।
एतान्यायुधजालानि धारयन्तं यजामहे ॥

खड्ग, त्रिशूल, खट्वाङ्ग, पाश, अङ्कुश, पर्वत, स्तम्भ, मुष्टि, गदा और वृक्ष (की डाली) ही उनके दस आयुधों के रूप में परिगणित हैं। श्रीहनुमानजीका बायाँ हाथ गदासे युक्त कहा गया है। गदा उनके हाथमें रहनेवाला एक प्रमुख आयुध है-

'वामहस्तगदायुक्तम्,

मन्त्रमहार्णव, पूर्वखण्ड, नवम तरंग, पृष्ठ १८५) श्रीलक्ष्मण और रावणके युद्धमें लक्ष्मणको पराजित होते देख हनुमान जी ने गदाका प्रयोग किया था। 'वे हाथमें गदा लेकर दौड़ पड़े थे। उस समय वे ऐसे लगते थे मानो प्रलय काल में जगत्के संहारमें तत्पर कुपित रुद्र हों। रावण के रथको उन्होंने गदासे भङ्ग कर दिया और उसके बाद तरु-गिरि-पाषाणकी वृष्टि की।' 

हनुमंत धायो ते समे, कर गदा ग्रही निरवाण।
प्रलय समे जेम रुद्र कोपे, लेवा जगत ना प्राण ॥
ते गदा मारी भंग कीधो, रावण नो रथ जेह।
पछे तरु-गिरि-पाषाण नी वृष्टि करी जेम मेह ॥

स्कन्दपुराण में हनुमान जी को वज्रायुध धारण करने वाला कहकर उनको नमस्कार किया गया है-

नमः श्रीरामभक्ताय अक्षविध्वंसनाय च।
नमो रक्षः पुरीदाहकारिणे वज्रधारिणे ॥

उनके हाथ में वज्र सदा विराजमान रहता है-  'हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै।' (हनुमानचालीसा) गिरि, नख और तरु उनके आयुधोंमें परिगणित हैं। उनकी 'करालशैलशस्त्रधारी' और 'द्रुमशस्त्रवाले'- के रूप में स्तुति की गयी है-

करालशैलशस्त्राय द्रुमशस्त्राय ते नमः ।

पर्वत का शिखर उठाकर राक्षसों की सेना को भगाकर मारुतात्मज हनुमान ने धूम्राक्षपर आक्रमण किया था-

विद्राव्य राक्षसं सैन्यं हनूमान् मारुतात्मजः । 
गिरेः शिखरमादाय धूम्राक्षमभिदुद्रुवे ॥

उसी गिरिशिखरसे उन्होंने धूम्राक्षका वध किया था- 

हनूमान् गिरिशृङ्गेण धूम्राक्षमवधीद्रिपुम् ।

नारदपुराण के पूर्वभाग के तृतीय पाद के ७८वें अध्यायके ४४ वें श्लोक में उन्हें 'करस्थशैल शस्त्राय' कहा गया है। लंकाके दुर्ग का विध्वंस करते समय हनुमानजीने क्रोधपूर्वक मेघनादपर पर्वतसे आक्रमण किया था-

पवनतनय मन भा अति क्रोधा। गजेंउ प्रबल काल सम जोधा ॥ 
कूदि लंक गढ़ ऊपर आवा। गहि गिरि मेघनाद कहुँ धावा ॥

रावण और विभीषण के युद्ध में भी उन्होंने पर्वत का उपयोग किया था-  

देखा श्रमित विभीषनु भारी। 
धायड हनूमान गिरि धारी ॥

नखायुध और दन्तायुधरूपमें भी उनकी स्तुति की गयी है। वे नखों और दाँतोंसे शस्त्रका काम लेते हैं-

नखायुधाय भीमाय दन्तायुधधराय च।
विहगाय शर्वाय वज्रदेहाय ते नमः ॥

'हनुमत्सहस्र नाम स्तोत्र' के ९१वें श्लोक में उन्हें 'नखयुद्धविशारदः' कहा गया है। उनके नखों की उपमा वज्रसे दी गयी है-

उर बिसाल, भुजदंड चंड नख बज्र बज्रतन ॥

अशोक वाटिका उजाड़ते समय राक्षसोंके संहारके लिये उन्होंने वृक्षको आयुध बनाया था। हनुमान जी ने एक विशाल साल-वृक्ष उखाड़कर उसे घुमाना आरम्भ किया- 

सालं विपुलमुत्पाट्ध भ्रामयामास वीर्यवान् ॥

अक्षकुमारको आते देखकर हनुमानजीने हाथमें वृक्ष ले लिया और उसको मारकर घोर नाद किया- 

आवत देखि बिटप गहि तर्जा। 
ताहि निपाति महाधुनि गर्जा ॥

उन्होंने लंकामें युद्ध छिड़नेपर महान् वेगसे एक वृक्ष को उखाड़ कर अकम्पन के सिरपर प्रहार किया- 

ततोऽन्यं वृक्षमुत्पाट्य कृत्वा वेगमनुत्तमम् ।
शिरस्यभिजघानाशु राक्षसेन्द्रमकम्पनम् ।।

वे रदसे भी शस्त्रका काम लेते हैं। नारद पुराण के पूर्वखण्ड के तृतीयपादके ७८वें अध्याय के ४३वें श्लोक में 'दन्तायुधधराय' कहकर उन्हें नमस्कार किया गया है। महाकवि चंदबरदाई ने 'पृथ्वी राजरा सो' में उनके रदयुद्ध का अत्यन्त सजीव वर्णन किया है- "हनुमानजीने लंकामें भ्रमण करते हुए सीताजीको खोज लिया और मनमें श्रीरामका चिन्तन कर बड़े क्रोधसे सघन उपवनको नष्ट कर दिया। उन्होंने दीवारपर चढ़कर रदयुद्धद्वारा अक्षकुमार आदि दनुजवीरोंका संहार कर दिया। जब शेष वीरोंने मेघनादको सूचना दी, तब उसने जाकर उनको पाशमें बाँध दिया और उनकी पूँछमें वस्त्र लपेटकर कहा कि 'तुम्हारा अन्त निकट है'- ऐसा कहकर उसने वस्त्रसे लिपटी हुई उनकी पूँछमें आग प्रज्वलित कर दी, इस तरह उसने सुवर्णमयी लंकाको ही जलाकर कीचड़ कर दिया"-

गयी लंक हनुयेस, भ्रमत सुधि सीता पाइय। 
वन-उपवन संघरिय, धरे मन राम दुहाइय ॥
वाय चढ्यौ प्राकार, दसन जुद्धह दनु भख्खिय।
अखै कुमारन हनिय, दौरि इंद्राजित दख्खिय ॥
निखि पास रास दृढ़ बंधयौ कहि सु मरन अंबर धरौ। 
लग्गाय पुच्छ लंका जरिय, कनक पंक किन्त्रौ खरौ ॥

मुष्टि का को भी वे शस्त्र के रूप में उपयोग करते दिखला ये गये हैं। लंकाके युद्धस्थल में उन्होंने कुम्भ कर्ण पर मुष्टि का प्रहार किया था-

तब मारुतसुत मुठिका हन्यो। 
परखो धरनि ब्याकुल सिर धुन्यो ।

उन्होंने कालनेमिपर गुरुदक्षिणाके रूपमें मुष्टि-प्रहार किया था। उन्होंने उससे दृढ़ मुष्टिकाके रूपमें गुरुदक्षिणा लेनेको कहा और उसे मार डाला-

गृहाण मत्तो मन्त्रांस्त्वं देहि मे गुरुदक्षिणाम्। 
इत्युक्तो हनुमान् मुष्टिं दृढं वद्ध्वाह राक्षसम् ॥ 
गृहाण दक्षिणामेतामित्युक्त्वा निजघान तम् ॥

उन्होंने रावणपर मुक्केसे प्रहार किया था। वे युद्ध करनेके लिये उसके सामने आये। उन्होंने कसकर मुट्ठी बाँधी और उससे उसकी छातीपर प्रहार किया। घूँसा लगते ही वह रथमें घुटनोंके बल गिर गया। रावणने कहा कि मैं मानता हूँ- 'तुम बड़े शूरवीर हो'-

हनुमानथ चोत्प्लुत्य रावणं योद्धमाययौ। आगत्य हनुमान् रक्षोवक्षस्यतुलविक्रमः ॥ 
मुष्टिबन्धं दृढं बद्ध्वा ताडयामास वेगतः । तेन मुष्टिप्रहारेण जानुभ्यामपतद् रथे । 
मूच्छितोऽथ मुहूर्तेन रावणः पुनरुत्थितः । उवाच च हनूमन्तं शूरोऽसि मम सम्मतः ॥

श्रीहनुमानजी ने अक्षकुमार के (रथके) आठ घोड़ों को थप्पड़ से मार डाला। थप्पड़ भी उनके शस्त्ररूप में परिगणित हैं-

स तस्य तानष्टवरान् महाहयान् समाहितान् भारसहान् विवर्तने।
जघान वीरः पथि वायुसेविते तलप्रहारैः पवनात्मजः कपिः ॥

वज्रदेह हनुमानजीका अत्यन्त प्रभावशाली शस्त्र लाङ्गूल-पूँछ है। गन्धमादनपर्वतपर कदली-वनमें विश्राम करते समय भीमने उन्हें देखा था। उन्होंने भीमका मार्ग रोक लिया और अपना शरीर बड़ा कर लिया। 'जब श्रीहनुमानजी इन्द्रकी ध्वजाके समान ऊँची तथा विशाल अपनी लाङ्गलको फटकारते, उस समय वज्रकी गड़गड़ाहटके समान आवाज होती थी। । वह पर्वत उनकी पूँछकी फटकारके उस महान् शब्दको सुन्दर कन्दरा रूपी मुखर्वोद्वारा चारों ओर प्रतिध्वनिके रूपमें दुहराता था, मानो कोई साँड़ जोर-जोरसे डकार रहा हो। पूँछके फटकारने की आवाजसे वह महान् पर्वत हिल उठा। उसके शिखर झूमते-से जान पड़े और वह सब ओरसे टूट-फूटकर बिखरने लगा। वह शब्द मतवाले हाथीके चिग्घाड़नेकी आवाजको भी दबाकर विचित्र पर्वत शिखरोंपर चारों ओर फैल गया।'

जृम्भमाणः सुविपुलं शक्रध्वजमिवोच्छ्रितम् ।
आस्फोटयश्च लाङ्गलमिन्द्राशनिसमस्वनम् ।।
तस्य लाडूलनिनदं पर्वतः सुगुहामुखैः ।
उद्वारमिव गौर्नर्दन्नुत्ससर्ज समन्ततः ॥
लाङ्गलास्फोटशब्दाच्च चलितः स महागिरिः।
विघूर्णमानशिखरः समन्तात् पर्यशीर्यत ।।
स लाङ्गुलरवस्तस्य मत्तवारणनिःस्वनम् ।
अन्तर्धाय विचित्रेषु चचार गिरिसानुषु ।।

उनकी पूँछके प्रचण्ड आघातका वर्णन 'हनुमन्नाटक'- में इस प्रकार उपलब्ध होता है- 'हनुमानजीके कर- कमल में स्थित पर्वत सुमेरुपर्वतपर स्थित मैनाकके समान शोभित हुआ और बड़े-बड़े समर्थ वीरोंकी समाप्ति जिसमें हो, उस समरमें कुम्भकर्णके हाथका मुद्रर मन्दराचलपर भगवान्‌की मूर्तिके समान दीख पड़ा। उस समय आञ्जनेयद्वारा फेंके गये पर्वतको राक्षस कुम्भकर्णने अपने मुगरसे टुकड़े-टुकड़े कर डाला। तब उन्होंने बड़े क्रोधसे अपनी पूँछसे उस मुद्ररको खींच लिया। उद्यत पवन कुमारके प्रचण्ड चपेटकी चोटसे कुम्भकर्णका सिर हिमालयपर पड़ा, जिसके जलमें भीमसेन गोते लगायेंगे और पूँछसे कटा धड़ आकाशमें जाकर घूमने लगा'- 

मैनाको मेरुशृङ्गस्थित इव हनुमत्पाणिपदो नगेन्द्रः कल्पान्ते मन्दराग्रेऽजन इव समरे मुद्ररः कुम्भकर्णे।
अद्रिं क्रव्यादवीरः प्रहितमनिलजेनाच्छिनन्मुद्गरेण लाङ्गलेनाञ्जनेयोऽद्भुतजनितरुषा मुद्गरं द्राक् चकर्ष ॥ 
उद्यन्मरुत्तनयचण्डचपेटघाता- न्मूर्धा पपात तुहिने रजनीचरस्य। 
भग्नो भविष्यति यदम्भसि भीमसेनो बभ्राम पुच्छनिकृतो गगने कबन्धः ॥

'रंगनाथ-रामायण' के युद्धकाण्डके १२७ वें अध्यायमें वर्णन है कि द्रोणाचल-आनयनके समय हनुमान जी ने कालनेमि का वध किया; दस योजन विशाल और दस योजन ऊँचे पर्वत को उखाड़ लिया तथा चित्र सेन आदि तेईस करोड़ गन्धर्वो को पूँछमें लपेटकर समुद्रमें फेंक दिया।' नारदपुराणके पूर्वभागके तृतीयपादके ७८वें अध्यायके १३वें श्लोकमें सनत्कुमारद्वारा वर्णित 'हनुमत्कवच' में उन्हें 'चरणायुधः' कहा गया है। जिनके चरण आयुध हैं, वे हनुमानजी हाथोंकी रक्षा करें'-
करौ च चरणायुधः ।'
गोस्वामी तुलसीदासजीका कथन है कि 'कच्छपकी पीठमें जिनके पाँवके गड़हे समुद्रका जल भरनेके लिये मानो नापके पात्र हुए। राक्षसों के नाशके समय वह समुद्र ही उनके छिपनेका गढ़ हुआ तथा वही बड़े- बड़े मत्स्योंका निवास बना'-

कमठ की पीठि जाके गोड़नि की गाड़ें मानो
नाप के भाजन भरि जलनिधि-जल भो।
जातुधान-दावन परावन को दुर्ग भयो,
महामीन-बास तिमि तोमनि को थल भो ॥

अध्यात्मरामायण में उल्लेख है कि हनुमान जी ने मुगर से अक्षकुमार को मार डाला। 'उसे देख कर वे अपना मुगर लेकर आकाश में उड़ गये और बड़े वेगसे ऊपर से ही उन्होंने उसके मस्तकपर मुद्ररसे प्रहार किया। इस प्रकार अक्षको मारकर उसकी सेनाको भी समाप्त कर दिया'-

तमुत्पपात हनुमान् दृष्ट्वाऽऽकाशे समुद्ररः ।
गगनात्त्वरितो मूचि मुद्ररेण व्यताडयत् ॥
हत्वा तमक्षं निःशेषं बलं सर्वं चकार सः ॥
उन्होंने स्तम्भसे मेघनादपर प्रहार किया था-
ततोऽतिहर्षाद्धनुमान् स्तम्भमुद्यम्य वीर्यवान् ।
जघान सारथिं साश्वं रथं चाचूर्णयत् क्षणात्।

हनुमानजीने राम-रावण युद्धमें तोमरसे प्रहार किया था । महाकवि केशवदासका कथन है- सूरज मुसल, नील पट्टिस परिध, नल- जामवंत असि, हनू तोमर प्रहारे हैं। हनुमानजीने परिघसे जम्बुमालीका नाश किया था-

ततः परिघमादाय घोरघोषभ्रमं युधि।
अपातयत् कपिवरः स्यन्दनाञ्जम्बुमालिनम् ।।

महर्षि वाल्मीकि का कथन है कि प्रमदावनका विध्वंस करने पर राक्षसों से घिरे हनुमान जी ने फाटक पर रखे हुए परिघको उठाकर उसीसे उन्हें मार डाला- 

स तं परिघमादाय जघान रजनीचरान्।

'जिस तरह पूर्वकालमें इन्द्रने त्वष्टाके पुत्र विश्वरूपके तीनों मस्तकोंको वज्रसे काट डाला था, उसी तरह कुपित हुए पवनपुत्र हनुमानजीने त्रिशिरा (रावण-पुत्र) के किरीट-कुण्डल-मण्डित तीनों मस्तकोंको तीखी तलवारसे काट दिया'-

स तस्य शीर्षाण्यसिना शितेन किरीटजुष्टानि सकुण्डलानि ।
कुद्धः प्रचिच्छेद सुतोऽनिलस्य त्वष्टुः सुतस्येव शिरांसि शक्रः ॥

वज्राङ्ग हनुमान जी अपने-आपमें ही एक अखण्ड सम्पूर्ण आयुध हैं। अपने किसी भी अङ्गसे जब वे किसी आयुध को स्पर्श या ग्रहण करते हैं, तब उसमें दिव्यता और शक्ति का विशेषरूपसे संचार हो जाता है।

वाहन

एक ऐसा प्रश्न है, जिसके उत्तरमें केवल इतना ही कहकर संतोष किया जा सकता है कि उनके सिवा उनका वाहन होनेकी शक्ति किसी दूसरेमें है ही नहीं। वे इतने वेगवान् हैं कि उनके वेगके समान तीनों लोकोंमें किसीका भी वेग नहीं है। यद्यपि 'श्रीहनुमत्सहस्त्रनामस्तोत्र' के ७२वें श्लोकमें उन्हें 'वायुवाहनः' कहा गया है और यह युक्तिसंगत भी है, तथापि वायु भी उनके भारका वहन करनेमें प्रायः असमर्थ ही हैं। उन्होंने किष्किन्धामें स्वयं श्रीराम (भगवान् विष्णु) और श्रीलक्ष्मण (विष्णुके ही अभिन्न शेष अंश) को अपनी पीठपर बिठा लिया और सुग्रीवके पास ले गये- 

एहि बिधि सकल कथा समुझाई। 
लिए दुऔं जन पीठि चढ़ाई ॥

श्री लक्ष्मण जी जगदाधार हैं, साक्षात् शेष हैं। वे ब्रह्माण्ड को कन्दुक के समान उठा लेने की शक्ति रखते हैं। उनके मूच्छित होनेपर हनुमानजी अकेले ही उन्हें उठाकर श्रीरामके सम्मुख ला सके; परंतु मेघनाद-जैसे करोड़ों वीर भी उन्हें उठा न सके -

मेघनाद सम कोटि सत जोधा रहे उठाई। 
जगदाधार सेष किमि उठे चले खिसिआइ ॥

जगदाधार शेषको उठानेवाले हनुमानजीको वहन करनेकी शक्ति किसीमें नहीं है। वे बात-की-बातमें द्रोणाचलपर्वत को उखाड़कर अपनी पूँछके अग्रभागपर रखकर लंका ले गये और उसी रातको यथास्थान रख आये। उन्होंने श्री राम से कहा था कि 'आज्ञा दीजिये। हम सब वीर आपके हित साधनके लिये उपस्थित हैं। यहाँसे द्रोणाचल साठ लाख योजन है; जितना समय प्रज्वलित अग्निमें भुननेसे सरसोंके दानेको चटकनेमें लगता है, उतनी ही अवधिमें मैं (पवनकुमार) वहाँ जाकर यहाँ लौट आऊँगा'-

नीत्वा लङ्कनं सुषेणं पुनरनिलसुतः प्रार्थयामास रामं देवाज्ञां देहि वीरास्तव हितकरणोपस्थिताः सन्ति सर्वे। 
लक्षाणां षष्टिरास्ते द्रुहिणगिरिरितो योजनानां हनूमां- स्तैलाग्नेः सर्षपस्य स्फुटनखपरस्तत्र गत्वात्र चैमि ॥

समूचे द्रोणाचलको उखाड़कर क्षणमात्रमें उसे लंकामें पहुँचाने और यथास्थान रख आनेवाले पवननन्दनके वेगसे बढ़कर किसका वेग हो सकता है, जो उनका वाहन बने। स्पष्ट है, किसीमें भी ऐसी सामर्थ्य नहीं है। उन्हें 'मारुततुल्य वेगसे युक्त' कहा गया है। मारुतने उन्हें द्रुत गतिसे सम्पन्न होनेका वरदान दिया था। स्कन्दपुराणके अवन्तीखण्डके चतुरशीतिलिङ्गमाहात्म्यके ७९वें अध्यायके ३४वें श्लोकमें 'पवनेन गतिर्छुता' का उल्लेख मिलता है। वायु, गरुड और मनकी गति भी उनके वेगके सम्मुख कुछ नहीं है। उनके वेग-गतिका वर्णन नहीं हो सकता। गोस्वामी तुलसीदासजी की उक्ति है- 'मैं उनके वेगका वर्णन करता, पर मेरे हृदयमें उनकी उपमाकी सामग्री नहीं मिली'-

तीखी तुरा 'तुलसी' कहतो पै हिएँ उपमा को समाउ न आयो।

सचमुच उनकी गति नितान्त अवर्णनीय है।

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