श्री गणेश, शिव, राम, कृष्ण आदि रूपों में एक ही परमात्मा उपास्य,Shree Ganesh, Shiv, Raam, Krshn Aadi Roopon Mein Ek Hee Paramaatma Upaasy Hai
श्री गणेश, शिव, राम, कृष्ण आदि रूपोंमें एक ही परमात्मा उपास्य है
निराकार ब्रह्म भौंके प्रेमवश उनके उद्धारार्थ साकाररूप से प्रकट होकर उन्हें दर्शन देते हैं। उनके साकार रूपों का वर्णन मनुष्यकी बुद्धिके बाहर है। क्योंकि वे अनन्त हैं। मक्क जिस रूपते उन्हें देखना चाहता है। वे उच्ची रूपमें प्रत्यक्ष प्रकट होकर उन्हें दर्शन देते हैं। मगवान्का साकार रूप धारण करना' भगवान्के अधीन नहीं, प्रेमी मक्तोंके अधीन है। अर्जुन ने पहले विश्वरूप-दर्शनकी इच्छा प्रकट की, फिर चतुर्भुजकी और तदनन्तर द्विभुजकी। मक्तमायन भगवान् कृष्णने अर्जुन को उसके इच्छानुसार थोड़ी ही देरमें तीनों रूपोंसे दर्शन दे दिये और उसे निराकारका भाव भी भलीभाँति समक्षा दिया। इसी प्रकार जो मक्त परमात्माफे जिस स्वरूपकी उपासना करता है, उसको उसी रूपके दर्शन हो सकते हैं।
अतएव उपासना के स्वरूप में परिवर्तन की कोई आवश्यकता नहीं। भगवान् विष्णु, राम, कृष्ण, शिव, नृसिंह, देवी, गणेश आदि किसी भी रूपकी उपासना की जाय, सब उच्चीकी होती है। मजनमें कुछ भी बदलनेकी जरूरत नहीं है। बदलनेकी जरूरत यदि है, तो परमात्मार्ने अस्यत्व बुदिकी । मक्कको चाहिये, वह अपने इष्टदेवकी उपासना करता हुआ सदा समझता रहे कि मैं जिस परमात्माकी उपासना करता हूँ, वे ही परमेश्वर निराकार रूपये चराचरमें व्यापक है, सर्वश हैं, सब कुछ उन्हींकी दृष्टिमें हो रहा है। वे सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, सर्वगुणसम्पन्नः सर्व समर्थ, सर्वसाक्षी, सत्-चित्-आनन्दधन मेरे इष्टदेव परमात्मा ही अपनी डीलासे मक्तोंके उद्धारके लिये उनके इच्छानुसार मिन्न-मिन्न स्वरूप धारणकर अनेक लीलाएँ करते हैं। श्री विष्णु पुराण में श्री विष्णु को ही सर्वोपरि बतलाया गया है और कहा गया है कि संसारकी उत्पचिः स्थिति और छम श्रीविष्णुसे ही होते हैं; वे ही साक्षात् पूर्णत्रका परमात्मा हैं। वे ही सर्वशः सर्वशक्तिमान्, सर्वान्तर्यामी और सर्वश्रेष्ठ हैं; उनसे बढ़कर और कोई नहीं है। इसी प्रकार शिवपुराणर्ने श्रीशिवको, देवीभागवतमें श्रीदेवीको, गणेशपुराणमें श्रीगणेशको तथा सौरपुराणमें श्रीसूर्यको ही सर्वोपरि सर्वश्शक्तिमान्, सर्वाधार, पूर्णत्रका परमात्मा कहा गया है। इसी प्रकार अन्य सब पुराणोंमें भी वर्णन आता है।
इससे एक-दूसरेमें परस्पर विरोध, एक-दूसरेकी अपेक्षा परस्पर श्रेष्ठता तथा उसकी महिमाकी अतिशयोक्ति प्रतीत होती है। इसका भाब यह है कि जैसे सती-शिरोमणि पार्वती के लिये केवल एक श्रीशिव ही सर्वोपरि हैं, उनसे बढ़कर और कोई नहीं; और भगवती सक्ष्मीके लिये केवल एक श्रीविष्णु ही सबसे बढ़कर हैं, इसी तरह सच्चिदानन्दधन पूर्णब्रह्म परमात्माको लक्ष्यमै रखकर सभी उपासकोंको परमात्माकी शीम प्रासि हो जाय, इस दृष्टिले महर्षि वेदव्यास- जीने एक-एक देवताको प्रधानता देकर तत्तत्पुराणोंकी रचना की है। प्रत्येक पुराणके अधिष्ठाता देवताके नाम-रूप परमात्माके ही नाम-रूप है यह मीभौति समझ लेनेपर उपयुक्त शङ्का रह नहीं सकती। किसी भी देवताका उपासक क्यों न हो, उस उपासकको पूर्णब्रा परमात्माकी प्रातिरूप सर्वोपरि फछ मिलना चाहिये यह पुराण-रचयिताका उद्देश्य बहुत ही उत्तम और तात्त्विक है। प्रत्येक पुराणर्मे उसमें प्रतिपाद्य स्वरूपको सर्वोपरि बतानेका प्रयोजन दूसरेकी निन्दासे नहीं है, किंतु उसकी प्रशंसानें है और उसकी प्रशंसा उस उपासककी उस पुराण और देवतार्मे मदापूर्वक एकनिष्ठ मक्ति करानेके उद्देश्यले ही है और यह उचित मी है। इस प्रकार होनेसे ही साधकका अनुष्धन चाङ्गोपाङ्ग पूर्ण होकर उसे पूर्णब्रह्म परमात्माकी प्राप्ति शीघ्र हो सकती है।
जितने भी पुराण-उपपुराण हैं। उनके अधिवाता देवता- का नाम और रूप (आकृति) मित्र होते हुए भी उनका लक्ष्य एक पूर्णब्रह्म परमात्माकी ओर रखा गया है। क्योंकि गुण, प्रभावः लक्षण, महिमा और स्तुति-प्रार्थनाका वर्णन करते हुए प्रत्येक देवताको नक्षका रूप दिया गया है। इसीलिये एक-दूसरे देवताकी स्तुति परस्पर प्रायः मिलती-जुलती आती है, जो पूर्ण नवा सचिदानन्दद्वन परमात्मानें ही घटती है। पुराणोंमें जो पुराणोंके अधिष्ठातू-देवताकी प्रशंसा एवं स्तुति की गयी है, वह अतिशयोक्ति नहीं है। क्योंकि परमात्मा की महिमा अतिशय, अपार और अपरिमित होनेचे उस अधिष्ठातू-देवताको परमात्माका रूप देनेपर जितनी भी उसकी महिमा बतायी जाय, वह अस्प ही है। वाणीके द्वारा को कुछ कहा जाता है। यह परिमित ही है। अतएव वास्तवमें वाणीद्वारा परमात्माकी महिमाका कोई किसी प्रकार भी वर्णन नहीं कर सकता ।
आशय यह है कि जो भक्त जित देवताकी उपासना करता है, उस उपासकको अपने उपास्यदेवको सर्वोपरि पूर्ण ब्रा परमात्मा मानकर उपासना करनी चाहिये। इस प्रकारकी दृष्टि रखकर उपासना करनेसे ही सर्वोपरि सच्चिदानन्दधन पूर्ण प्रश्न परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है। क्योंकि सभी नाम और रूप परमात्माके ही होनेसे वह उपासना परमात्माकी ही उपासना है। अतः परमात्माको लक्ष्य करके किसी भी नाम और रूपकी उपासना की जाय, उसका फल एक पूर्ण ब्रह्म परमात्माकी ही प्राप्ति होता है। इसलिये मनुष्यको अपने इष्टदेवको पूर्ण ब्रह्म परमात्मा समझ कर उसके नामका जप और स्वरूपका ध्यान नित्य-निरन्तर करना चाहिये।
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