श्रद्धा-भक्ति,वर्णाश्रमोचित आचार तथा सत्सङ्ग की महिमा,Shraddha-Bhakti,Varnaashramochit Aachaar Tatha Satsang Kee Mahima
श्रद्धा-भक्ति, वर्णाश्रमोचित आचार तथा सत्सङ्ग की महिमा, मृकण्डु मुनि की तपस्या से संतुष्ट होकर भगवान् का मुनिको दर्शन तथा वरदान देना
श्रद्धा-भक्ति,वर्णाश्रमोचित आचार तथा सत्सङ्ग की महिमा
श्री सनक जी कहते हैं- नारद! श्रद्धापूर्वक आचरणमें लाये हुए सब धर्म मनोवाञ्छित फल देनेवाले होते हैं। श्रद्धासे सब कुछ सिद्ध होता है और श्रद्धासे ही भगवान् श्रीहरि संतुष्ट होते हैं। भक्तियोगका साधन भक्तिपूर्वक ही करना चाहिये तथा सत्कर्मोंका अनुष्ठान भी श्रद्धा-भक्तिसे ही करना चाहिये। विप्रवर नारद! श्रद्धाहीन कर्म कभी सिद्ध नहीं होते। जैसे सूर्यका प्रकाश समस्त जीवोंकी चेष्टामें कारण होता है, उसी प्रकार भक्ति सम्पूर्ण सिद्धियोंका परम कारण है। जैसे जल सम्पूर्ण लोकोंका जीवन माना गया है, उसी प्रकार भक्ति सब प्रकारकी सिद्धियोंका जीवन है। जैसे सब जीव-जन्तु पृथ्वीका आश्रय लेकर जीवन धारण करते हैं, उसी प्रकार भक्तिका सहारा लेकर सब कार्योंका साधन करना चाहिये। श्रद्धालु पुरुषको धर्मका लाभ होता है, श्रद्धालु ही धन पाता है, श्रद्धासे ही कामनाओंकी सिद्धि होती है तथा श्रद्धालु पुरुष ही मोक्ष पाता है मुनिश्रेष्ठ ! दान, तपस्या अथवा बहुत दक्षिणावाले यज्ञ भी यदि भक्तिसे रहित हैं तो उनके द्वारा भगवान् विष्णु संतुष्ट नहीं होते हैं। मेरु पर्वतके बराबर सुवर्णकी करोड़ों सहस्र राशियोंका दान भी यदि बिना श्रद्धा-भक्तिके किया जाय तो वह निष्फल होता है। बिना भक्ति जो तपस्या की जाती है, वह केवल शरीरको सुखाना मात्र है;
बिना भक्ति जो हविष्यका हवन किया जाता है, वह राखमें डाली हुई आहुतिके समान व्यर्थ है, श्रद्धा-भक्तिके साथ मनुष्य जो कुछ थोड़ा-सा भी सत्कर्म करता है, वह उसे अनन्त कालतक अक्षय सुख देनेवाला होता है। ब्रह्मन् ! वेदोक्त अश्वमेध यज्ञका एक सहस्र बार अनुष्ठान क्यों न किया जाय, यदि वह श्रद्धा-भक्तिसे रहित है तो सब-का-सब निष्फल होता है। भगवान्की उत्तम भक्ति मनुष्योंके लिये कामधेनुके समान मानी गयी है; उसके रहते हुए भी अज्ञानी मनुष्य संसाररूपी विषका पान करते हैं, यह कितने आश्चर्यकी बात है! ब्रह्मपुत्र नारदजी! इस असार संसारमें ये तीन बातें ही सार हैं- ' भगवद्भक्तोंका सङ्ग, भगवान् विष्णुकी भक्ति और सुख-दुःख आदि द्वन्द्वोंको सहन करनेका स्वभाव। ब्रह्मन् ! जिनके मनमें दूसरोंके दोष देखनेकी प्रवृत्ति है, उनके किये हुए भजन-दान आदि सभी कर्मोंको निष्फल जानो। भगवान् विष्णु उनसे बहुत दूर हैं। जो दूसरोंकी सम्पत्ति देखकर मन-ही-मन संतप्त होते हैं, जिनका चित्त पाखण्डपूर्ण आचारोंमें ही लगता है, वे व्यर्थ कर्म करनेवाले हैं। भगवान् श्रीहरि उनसे बहुत दूर हैं। जो बड़े-बड़े धर्मोंके विषयमें प्रश्न करते हैं, किंतु उन धर्मोंको झूठा बताते हैं और धर्म-कर्मके विषयमें जिनका मन श्रद्धा-भक्तिसे रहित है, ऐसे लोगोंसे भगवान् विष्णु बहुत दूर हैं।
धर्मका प्रतिपादन वेदमें किया गया है और वेद साक्षात् परम पुरुष नारायणका स्वरूप है। अतः वेदोंमें जो अश्रद्धा रखनेवाले हैं, उनसे भगवान् बहुत दूर हैं। जिसके दिन धर्मानुष्ठानके बिना ही आते और चले जाते हैं, वह लुहारकी धौंकनीके समान साँस लेता हुआ भी जीवित नहीं है। ब्रह्मनन्दन ! धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-ये चार पुरुषार्थ सनातन हैं। श्रद्धालु पुरुषोंको ही इनकी सिद्धि होती है; श्रद्धाहीनको नहीं। जो मानव अपने वर्णाश्रमोचित आचारका उल्लङ्घन किये बिना ही भगवान् विष्णुकी भक्तिमें तत्पर है, वह उस वैकुण्ठधाममें जाता है, जिसका दर्शन बड़े-बड़े ज्ञानी भक्तोंको सुलभ होता है। मुनीश्वर! जो अपने आश्रमके अनुकूल वेदोक्त धर्मोंका पालन करते हुए भगवान् विष्णुके भजन-ध्यानमें लगा रहता है, वह परम पदको प्राप्त होता है। आचारसे धर्म प्रकट होता है और धर्मके स्वामी भगवान् विष्णु हैं। अतः जो अपने आश्रमके आचारमें संलग्न है, उसके द्वारा भगवान् श्रीहरि सर्वदा पूजित होते हैं। जो छहों अङ्गौंसहित वेदों और उपनिषदोंका ज्ञाता होकर भी अपने वर्णाश्रमोचित आचारसे गिरा हुआ है, उसीको पतित समझना चाहिये; क्योंकि वह धर्म-कर्मसे भ्रष्ट हो चुका है। भगवान्की भक्तिमें तत्पर तथा भगवान् विष्णुके ध्यानमें लीन होकर भी जो अपने वर्णाश्रमोचित आचारसे भ्रष्ट हो, उसे पतित कहा जाता है। द्विजश्रेष्ठ ! वेद, भगवान् विष्णुकी भक्ति अथवा शिवभक्ति भी आचार-भ्रष्ट मूढ़ पुरुषको पवित्र नहीं करती है। ब्रह्मन् !
पुण्यक्षेत्रोंमें जाना, पवित्र तीर्थोंका सेवन करना अथवा भाँति भाँतिके यज्ञोंका अनुष्ठान भी आचार-भ्रष्ट पुरुषकी रक्षा नहीं करता। आचारसे स्वर्ग प्राप्त होता है, आचारसे सुख मिलता है और आचारसे ही मोक्ष सुलभ होता है; आचारसे क्या नहीं मिलता ? साधुश्रेष्ठ ! सम्पूर्ण आचारोंका, समस्त योगोंका तथा स्वयं हरिभक्तिका भी मूल कारण भक्ति ही मानी गयी है। सबको मनोवाञ्छित फल प्रदान करनेवाले भगवान् विष्णु भक्तिसे ही पूजित होते हैं। अतः भक्ति सम्पूर्ण लोकोंकी माता कही जाती है। जैसे सब जीव माताका ही आश्रय लेकर जीवन धारण करते हैं, उसी प्रकार समस्त धार्मिक पुरुष भक्तिका आश्रय लेकर जीते हैं। नारदजी! अपने वर्ण और आश्रमके आचारका पालन करनेमें लगे हुए पुरुषको यदि भगवान् विष्णुकी भक्ति प्राप्त हो जाय तो तीनों लोकोंमें उसके समान दूसरा कोई नहीं है। भक्तिसे कर्मोंकी सिद्धि होती है, उन कर्मोंसे भगवान् विष्णु संतुष्ट होते हैं, उनके संतुष्ट होनेपर ज्ञान प्राप्त होता है और ज्ञानसे मोक्ष मिलता है। भक्ति तो भगवद्भक्तोंके सङ्गसे प्राप्त होती है, किंतु भगवद्भक्तोंका सङ्ग मनुष्योंको पूर्वजन्मोंके संचित पुण्यसे ही मिलता है। जो वर्णाश्रमोचित कर्तव्यके पालनमें तत्पर, भगवद्भक्तिके सच्चे अभिलाषी तथा काम, क्रोध आदि दोषोंसे मुक्त हैं,
वे ही सम्पूर्ण लोकोंको शिक्षा देनेवाले संत हैं। ब्रह्मन् ! जो पुण्यात्मा अथवा जितेन्द्रिय नहीं हैं, उन्हें परम उत्तम सत्सङ्गकी प्राप्ति नहीं होती। यदि सत्सङ्ग मिल जाय तो उसमें पूर्वजन्मोंके संचित पुण्यको ही कारण जानना चाहिये। जिसके पूर्वजन्मोंमें किये हुए समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं, उसीको सत्सङ्ग सुलभ होता है; अन्यथा उसकी प्राप्ति असम्भव है। सूर्य अपनी किरणोंके समूहसे दिनमें बाहरके अन्धकारका नाश करते हैं, किंतु संत-महात्मा अपने उत्तम वचनरूपी किरणोंके समुदायसे सदा भीतरके अज्ञानान्धकारका नाश करते रहते हैं। संसारमें भगवद्भक्तिके लिये लालायित रहनेवाले पुरुष दुर्लभ हैं; उनका सङ्ग जिसे प्राप्त होता है, उसे सनातन शान्ति सुलभ होती है। नारद जी ने पूछा- भगवद्भक्त पुरुषोंका क्या लक्षण है ? वे कैसा कर्म करते हैं तथा उन्हें कैसे लोककी प्राप्ति होती है? यह सब आप यथार्थरूपसे बताइये। सनकजी ! आप सुदर्शनचक्रधारी देवाधिदेव लक्ष्मीपति भगवान् विष्णुके भक्त हैं। अतः आप ही ये सब बातें बतानेमें समर्थ हैं। आपसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है। सनकजीने कहा- ब्रह्मन् ! योगनिद्रासे मुक्त होनेपर जगदीश्वर भगवान् विष्णुने बुद्धिमान् महात्मा मार्कण्डेयजीको जिस परम गोपनीय रहस्यका उपदेश किया था, वही तुम्हें बतलाता हूँ, सुनो।
वे जो परम ज्योतिःस्वरूप देवाधिदेव सनातन भगवान् विष्णु हैं, वे ही जगत्-रूपमें प्रकट होते हैं। इस जगत्के स्रष्टा भी वे ही हैं। भगवान् शिव तथा ब्रह्माजी भी उन्हींके स्वरूप हैं। वे प्रलयकालमें भयंकर रुद्ररूपसे प्रकट होते हैं और समस्त ब्रह्माण्डको अपना ग्रास बनाते हैं। स्थावर जङ्गमरूप सम्पूर्ण जगत् नष्ट होकर जब एकार्णवके जलमें विलीन हो जाता है, उस समय भगवान् विष्णु ही वटवृक्षके पत्रपर शिशुरूपसे शयन करते हैं। उनका एक-एक रोम असंख्य ब्रह्मा आदिसे विभूषित होता है। महाप्रलयके समय जब भगवान् वटपत्रपर सो रहे थे, उस समय उसी स्थानपर भगवान् नारायणके परम भक्त महाभाग मार्कण्डेयजी भगवान्की विविध लीलाओंका दर्शन करते हुए खड़े थे। ऋषियोंने पूछा- मुने ! हमने पहलेसे सुन रखा है कि उस महाभयंकर प्रलयकालमें स्थावर- जङ्गम समस्त प्राणी नष्ट हो गये थे और एकमात्र भगवान् श्रीहरि ही विराजमान थे। जब समस्त चराचर जगत् नष्ट होकर एकार्णवमें विलीन हो चुका था, तब सबको अपना ग्रास बनानेवाले श्रीहरिने मार्कण्डेय मुनिको किसलिये बचा रखा था ? सूतजी ! इस विषयको लेकर हमारे मनमें बड़ा कौतूहल हो रहा है। अतः इसका निवारण कीजिये। भगवान् विष्णुकी सुयश-सुधाका पान करनेमें किसे आलस्य हो सकता है!
सूतजी बोले- ब्राह्मणो ! पूर्वकालमें मृकण्डु नामसे विख्यात एक महाभाग मुनि हो गये हैं। उन महातपस्वी महर्षिने शालग्राम नामक महान् तीर्थमें बड़ी भारी तपस्या की। ब्रह्मन् ! उन्होंने दस हजार युगोंतक सनातन ब्रह्मका गुणगान करते हुए उपवास किया। वे बड़े क्षमाशील, सत्यप्रतिज्ञ तथा जितेन्द्रिय थे। समस्त प्राणियोंको अपने समान देखते थे। उनके मनमें विषय-भोगोंके लिये तनिक भी कामना नहीं थी। वे सम्पूर्ण जीवोंके हितैषी तथा मन और इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाले थे। उन्होंने उक्त तीर्थमें बड़ी भारी तपस्या की। उनकी तपस्यासे शङ्कित हो इन्द्र आदि सब देवता उस समय अनामय परमेश्वर भगवान् नारायणकी शरणमें गये। क्षीरसागरके उत्तर तटपर जाकर देवताओंने देवदेवेश्वर जगद्गुरु पद्मनाभका इस प्रकार स्तवन किया। देवता बोले- हे अविनाशी नारायण ! हे अनन्त ! हे शरणागतपालक ! हम सब देवता मृकण्डु मुनिकी तपस्यासे भयभीत हो आपकी शरणमें आये हैं। आप हमारी रक्षा कीजिये। देवाधिदेवेश्वर ! आपकी जय हो। शङ्ख और गदा धारण करनेवाले देवता! आपकी जय हो। यह सम्पूर्ण जगत् आपका स्वरूप है। आपको नमस्कार है। आप ही ब्रह्माण्डकी उत्पत्तिके आदि कारण हैं। आपको नमस्कार है। देवदेवेश्वर ! आपको नमस्कार है।
लोकपाल ! आपको नमस्कार है। सम्पूर्ण जगत्की रक्षा करनेवाले! आपको नमस्कार है। लोकसाक्षिन् ! आपको नमस्कार है। ध्यानगम्य ! आपको नमस्कार है। ध्यानके हेतुभूत ! ध्यानस्वरूप तथा ध्यानके साक्षी परमेश्वर! आपको नमस्कार है। पृथिवी आदि पाँच भूत आपके ही स्वरूप हैं; आपको नमस्कार है। आप चैतन्यरूप हैं; आपको नमस्कार है। आप सबसे ज्येष्ठ हैं, आपको नमस्कार है। आप शुद्धस्वरूप हैं, निर्गुण हैं तथा गुणरूप हैं; आपको नमस्कार है। निराकार-साकार तथा अनेक रूप धारण करनेवाले आपको नमस्कार है। गौओं तथा ब्राह्मणोंके हितैषी ! आपको नमस्कार है। जगत्का हित साधन करनेवाले सच्चिदानन्दस्वरूप गोविन्द ! आपको बार-बार नमस्कार है।
इस प्रकार देवताओंद्वारा की हुई स्तुतिको सुनकर शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् लक्ष्मीपतिने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया। उनके नेत्र खिले हुए कमलदलके समान शोभा पा रहे थे। उनका करोड़ों सूर्योके समान प्रभाव था। सब प्रकारके दिव्य आभूषणोंसे वे युक्त थे। भगवान्के वक्षःस्थलपर श्रीवत्सचिह्न सुशोभित हो रहा था। वे पीताम्बर धारण किये हुए थे। उनकी आकृति बड़ी सौम्य थी। बायें कंधेपर सुनहले रंगका यज्ञोपवीत चमक रहा था। बड़े-बड़े महर्षि उनकी स्तुति कर रहे थे तथा श्रेष्ठ पार्षद उन्हें सब ओरसे घेरकर खड़े थे। उनका दर्शन करके वे सम्पूर्ण देवता उनके तेजके समक्ष फीके पड़ गये और बड़ी प्रसन्नताके साथ पृथिवीपर लेटकर अपने आठों अङ्गोंसे उन्हें प्रणाम किया। तब प्रसन्न हुए भगवान् विष्णु प्रणाम करनेवाले इन्द्रादि देवताओंको आनन्दित करते हुए गम्भीर वाणीमें बोले।
श्रीभगवान्ने कहा- देवताओ ! मैं जानता हूँ, मृकण्डु मुनिकी तपस्यासे तुम्हारे मनमें बड़ा खेद हो रहा है, परंतु वे महर्षि साधुपुरुषोंमें अग्रगण्य हैं। अतः तुम्हें कष्ट नहीं देंगे। श्रेष्ठ देवताओ! जो साधुपुरुष हैं, वे सम्पत्तिमें हों या विपत्तिमें, किसी प्रकार भी दूसरेको कष्ट नहीं देते। वे स्वप्नमें भी ऐसा नहीं करते। सज्जनो ! जो मानव सम्पूर्ण जगत्का हित करनेवाला, दूसरोंके दोष न देखनेवाला तथा ईर्ष्यारहित है, वह इहलोक और परलोकमें साधुपुरुषोंद्वारा 'निःशङ्क' कहा जाता है। सशङ्क व्यक्ति सदा दुःखी रहता है और निःशङ्क पुरुष सुख पाता है। अतः तुमलोग निश्चिन्त होकर अपने-अपने घर जाओ। मृकण्डु मुनि तुम्हें कोई कष्ट नहीं देंगे। इसके सिवा तुम्हारी रक्षा करनेवाला मैं तो हूँ ही। अतः सुखपूर्वक विचरो। इस प्रकार अलसीके फूलकी भाँति श्यामकान्तिवाले भगवान् विष्णु देवताओंको वर देकर उनके देखते-देखते वहीं अन्तर्धान हो गये। देवताओंका मन प्रसन्न हो गया। वे जैसे आये थे, उसी प्रकार स्वर्गको लौट गये। भगवान् श्रीहरिने प्रसन्न होकर मृकण्डुको भी प्रत्यक्ष दर्शन दिया। जो स्वयंप्रकाश, निरञ्जन एवं निराकार परब्रह्म हैं, वही अलसीके फूलके समान श्यामसुन्दर विग्रह धारण करके प्रकट हो गये।
दिव्य आयुधोंसे सुशोभित उन पीताम्बरधारी भगवान् विष्णुको देखकर मृकण्डु मुनि आश्चर्यचकित हो गये। उन्होंने ध्यानसे आँखें खोलकर देखा, भगवान् विष्णु सम्मुख विराजमान हैं। उनके मुखसे प्रसन्नता टपक रही है, वे शान्तभावसे स्थित हैं। जगत्का धारण-पोषण उन्हींके द्वारा होता है। यह सम्पूर्ण विश्व उन्हींका तेज है। भगवान्का दर्शन करके मुनिका शरीर पुलकित हो उठा। उनके नेत्रोंसे आनन्दके आँसू झरने लगे। उन्होंने पृथ्वीपर दण्डकी भाँति गिरकर उन देवाधिदेव सनातन परमात्माको प्रणाम किया। फिर हर्षजनक आँसुओंसे भगवान्के दोनों चरण पखारते हुए वे सिरपर अञ्जलि बाँधे उनकी स्तुति करने लगे। मृकण्डुजी बोले- परमात्मस्वरूप परमेश्वरको नमस्कार है। जो परसे भी अति परे हैं, जिनका पार पाना असम्भव है, जो दूसरोंपर अनुग्रह करनेवाले तथा दूसरोंको संसार-सागरके उस पार पहुँचा देनेवाले हैं, उन भगवान् श्रीहरिको नमस्कार है। जो नाम और जाति आदिकी कल्पनाओंसे रहित हैं, जिनका स्वरूप शब्दादि विषयोंके दोषसे दूर है, जिनके अनेक स्वरूप हैं तथा जो तमोगुणसे सर्वथा शून्य हैं, उन स्तुति करनेयोग्य परमेश्वरका मैं भजन करता हूँ।
जो वेदान्तवेद्य और पुराणपुरुष हैं, ब्रह्मा आदिसे लेकर सम्पूर्ण जगत् जिनका स्वरूप है, जिनकी कहीं भी उपमा नहीं है तथा जो भक्तजनोंपर अनुग्रह करनेवाले हैं, उन स्तवन करनेयोग्य आदिपरमेश्वरकी मैं आराधना करता हूँ। जिनके समस्त दोष दूर हो गये हैं, जो एकमात्र ध्यानमें स्थित रहते हैं, जिनकी कामना निवृत्त और मोह दूर हो गये हैं, ऐसे महात्मा पुरुष जिनका दर्शन करते हैं, संसार-बन्धनको नष्ट करनेवाले उन परम पवित्र परमात्माको मैं प्रणाम करता हूँ। जो स्मरणमात्रसे समस्त पीड़ाओंका नाश कर देते हैं, शरणमें आये हुए भक्तजनोंका पालन करते हैं, जो समस्त संसारके सेव्य हैं तथा सम्पूर्ण जगत् जिनके भीतर निवास करता है, उन करुणासागर परमेश्वर विष्णुको मैं नमस्कार करता हूँ। महर्षि मृकण्डुके इस प्रकार स्तुति करनेपर शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् विष्णुको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने अपनी चार विशाल भुजाओंसे खींचकर मुनिको हृदयसे लगा लिया और अत्यन्त प्रेमपूर्वक कहा- 'उत्तम व्रतका पालन करनेवाले मुने ! तुम सर्वथा निष्पाप हो, तुम्हारी तपस्या और स्तुतिसे मैं बहुत प्रसन्न हूँ। तुम कोई वर माँगो। सुव्रत ! तुम्हारे मनको जो अभीष्ट हो, वही वर माँग लो।'मृकण्डुने कहा- देवदेव ! जगन्नाथ ! मैं कृतार्थ हो गया, इसमें तनिक भी संशय नहीं है; क्योंकि जो पुण्यात्मा नहीं हैं,
उनके लिये आपका दर्शन सर्वथा दुर्लभ है। ब्रह्मा आदि देवता तथा तीक्ष्ण व्रतका पालन करनेवाले योगीजन भी जिनका दर्शन नहीं कर पाते, धर्मनिष्ठ, यज्ञोंकी दीक्षा लेनेवाले यजमान, वीतराग साधक तथा ईर्ष्यारहित साधुओंको भी जिनका दर्शन दुर्लभ है, उन्हीं परम तेजोमय आप श्रीहरिका मैं दर्शन कर रहा हूँ, इससे बढ़कर दूसरा क्या वर माँगूँ ? जगद्गुरु जनार्दन ! मैं इतनेसे ही कृतार्थ हूँ। अच्युत ! महापातकी मनुष्य भी आपके नामोंका स्मरण करनेमात्रसे आपके परम पदको प्राप्त कर लेते हैं; फिर जो आपका दर्शन कर लेता है, उसके लिये तो कहना ही क्या है? श्रीभगवान् बोले- ब्रह्मन् ! तुमने ठीक कहा है। विद्वन् ! मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ, मेरा दर्शन कदापि व्यर्थ नहीं होगा। अतः तुम्हारी तपस्यासे संतुष्ट होकर मैं तुम्हारे यहाँ (अंशरूपसे) समस्त गुणोंसे युक्त, रूपवान् तथा दीर्घजीवी पुत्रके रूपमें उत्पन्न होऊँगा। मुनिश्रेष्ठ ! जिसके कुलमें मेरा जन्म होता है, उसका समस्त कुल मोक्षको प्राप्त कर लेता है। मेरे प्रसन्न होनेपर तीनों लोकोंमें कौन-सा कार्य असाध्य है। ऐसा कहकर देवदेवेश्वर भगवान् विष्णु मृकण्डु मुनिके देखते-देखते अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर वे मुनि तपस्यासे निवृत्त हो गये।
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