सगर का जन्म तथा शत्रु विजय, कपिल के क्रोध से सगर-पुत्रों का विनाश,Sagar Ka Janm Tatha Shatru Vijay, Kapil Ke Krodh Se Sagar-Putron Ka Vinaash

सगर का जन्म तथा शत्रुविजय, कपिलके क्रोध से सगर-पुत्रों का विनाश तथा भगीरथ द्वारा लायी हुई गङ्गाजी के स्पर्श से उन सबका उद्धार

श्रीसनकजी कहते हैं- मुनीश्वर! इस प्रकार राजा बाहुकी वे दोनों रानियाँ और्व मुनि के आश्रमपर रहकर प्रतिदिन भक्तिभावसे उनकी सेवा-शुश्रूषा करती रहीं। नारदजी! इस तरह छः महीने बीत जानेपर राजाकी जो जेठी रानी थी, उसके मनमें सौतकी समृद्धि देखकर पापपूर्ण विचार उत्पन्न हुआ। अतः उस पापिनीने छोटी रानीको जहर दे दिया; किंतु छोटी रानी प्रतिदिन आश्रमकी भूमि लीपने आदिके द्वारा मुनिकी भलीभाँति सेवा करती थीं, इसीलिये उस पुण्यकर्मके प्रभावसे रानीपर उस विषका असर नहीं हुआ। तत्पश्चात् तीन मास और व्यतीत होनेपर रानीने शुभ समयमें विषके साथ ही एक पुत्रको जन्म दिया। मुनिकी सेवासे रानीके सब पाप नष्ट हो चुके थे। अहो! लोकमें सत्सङ्गका कैसा माहात्म्य है? वह कौन-सा पाप नष्ट नहीं कर सकता और सत्सङ्गके प्रभावसे पाप नष्ट हो जानेपर पुण्यात्मा मनुष्योंको कौन-सा सुख अधिक से-अधिक नहीं मिल सकता ? जानकर और अनजानमें किया हुआ तथा दूसरोंसे कराया हुआ जो पाप है, उस सबको महात्मा पुरुषोंकी सेवा तत्काल नष्ट कर देती है। संसारमें सत्सङ्गके प्रभावसे जड भी पूज्य हो जाता है। जैसे भगवान् शंकरके द्वारा ललाटमें ग्रहण कर लिये जानेपर एक कलाका चन्द्रमा भी वन्दनीय हो गया। विप्रवर! इहलोक और परलोकमें सत्सङ्ग मनुष्योंको सदा उत्तम समृद्धि प्रदान करता है, इसलिये संत पुरुष परम पूजनीय हैं। मुनीश्वर! महात्मा पुरुषोंके गुणोंका वर्णन करनेमें कौन समर्थ है? अहो! उनके प्रभावसे गर्भमें पड़ा हुआ विष तीन मासतक पचता रहा।


यह कैसी अद्भुत बात है? तेजस्वी मुनि और्वने गर (विष) के सहित उत्पन्न हुए पुत्रको देखकर उसका जातकर्म-संस्कार किया और उस बालकका नाम सगर रखा। माताने बालक सगरका बड़े प्रेमसे पालन-पोषण किया। मुनीश्वर और्वने यथासमय उसके चूडाकर्म तथा यज्ञोपवीत-संस्कार किये तथा राजाके लिये उपयोगी शास्त्रोंका उसे अध्ययन कराया। मुनि सब मन्त्रोंके ज्ञाता थे। उन्होंने देखा, सगर अब बाल्यावस्थासे कुछ ऊपर उठ चुका है और मन्त्रग्रहण करनेमें समर्थ है, तब उसे अस्त्र- शस्त्रोंकी मन्त्रसहित शिक्षा दी। नारदजी! महर्षि और्वसे शिक्षा पाकर सगर बड़ा बलवान्, धर्मात्मा, कृतज्ञ, गुणवान् तथा परम बुद्धिमान् हो गया। धर्मज्ञ सगर अब प्रतिदिन अमित तेजस्वी और्व मुनिके लिये समिधा, कुशा, जल और फूल आदि लाने लगा। बालक बड़ा विनयी और सद्‌गुणोंका भण्डार था। एक दिन उसने अपनी माताको प्रणाम करके हाथ जोड़कर कहा। सगरने कहा- माँ! मेरे पिताजी कहाँ चले गये हैं? उनका क्या नाम है और वे किसके कुलमें उत्पन्न हुए हैं?

यह सब बातें मुझे बताओ। मेरे मनमें यह सुननेके लिये बड़ी उत्कण्ठा है। संसारमें जिनके पिता नहीं हैं, वे जीवित होकर भी मरे हुएके समान हैं। जिसके माता-पिता जीवित नहीं हैं, उसे कोई सुख नहीं है। जैसे धर्महीन मूर्ख मनुष्य इस लोक और परलोकमें निन्दित होता है, वही दशा पितृहीन बालककी भी है। माता-पितासे रहित, अज्ञानी, अविवेकी, पुत्रहीन तथा ऋणग्रस्त पुरुषका जन्म व्यर्थ है। जैसे चन्द्रमाके बिना रात्रि, कमलके बिना तालाब और पतिके बिना स्त्रीकी शोभा नहीं होती, उसी प्रकार पितृहीन बालक भी शोभा नहीं पाता। जैसे धर्महीन मनुष्य, कर्महीन गृहस्थ और गौ आदि पशुओंसे हीन वैश्यकी शोभा नहीं होती, वैसे ही पिताके बिना पुत्र सुशोभित नहीं होता। जैसे सत्यरहित वचन, साधु पुरुषोंसे रहित सभा तथा दयाशून्य तप व्यर्थ है, वही दशा पिताके बिना बालककी होती है। जैसे वृक्षके बिना वन, जलके बिना नदी और वेगहीन घोड़ा निरर्थक होता है, वैसी ही पिताके बिना बालककी दशा होती है। माँ! जैसे याचक मनुष्य-लोकमें अत्यन्त लघु समझा जाता है, उसी प्रकार पितृहीन बालक बहुत दुःख उठाता है।

पुत्रकी यह बात सुनकर रानी लंबी साँस खींचकर दुःखमें डूब गयी। उसने सगरके पूछनेपर उसे सब बातें ठीक-ठीक बता दीं। यह सब वृत्तान्त सुनकर सगरको बड़ा क्रोध हुआ। उनके नेत्र लाल हो गये। उन्होंने उसी समय प्रतिज्ञा की, ' मैं शत्रुओंका नाश कर डालूँगा।' फिर और्व मुनिकी परिक्रमा करके माताको प्रणाम किया और मुनिसे आज्ञा लेकर वहाँसे प्रस्थान किया। और्वके आश्रमसे निकलनेपर सत्यवादी एवं पवित्र राजकुमार सगरको उनके कुलपुरोहित महर्षि वसिष्ठ मिल गये। इससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। अपने कुलगुरु महात्मा वसिष्ठको प्रणाम करके सगरने अपना सब समाचार बताया; यद्यपि वे ज्ञानदृष्टिसे सब कुछ पहलेसे ही जानते थे। राजा सगरने उन्हीं महर्षिसे ऐन्द्र, वारुण, ब्राह्म और आग्रेय अस्त्र तथा उत्तम खड्ग तथा वज्रके समान सुदृढ़ धनुष प्राप्त किया। तदनन्तर शुद्ध हृदयवाले सगरने मुनिकी आज्ञा ले उनके आशीर्वादसे समादृत हो उन्हें प्रणाम करके तत्काल वहाँसे यात्रा की। शूरवीर सगरने एक ही धनुषसे अपने विरोधियोंको पुत्र-पौत्र और सेनासहित स्वर्गलोक पहुँचा दिया। उनके धनुषसे छूटे हुए अग्निसदृश बाणोंसे संतप्त होकर कितने ही शत्रु नष्ट हो गये और कितने ही भयभीत होकर भाग गये। शक, यवन तथा अन्य बहुत-से राजा प्राण बचानेकी इच्छासे तुरंत वसिष्ठ मुनिकी शरणमें गये। इस प्रकार भूमण्डलपर विजय प्राप्त करके बाहुपुत्र सगर शीघ्र ही आचार्य वसिष्ठके समीप आये। उन्हें अपने गुप्तचरोंसे यह बात मालूम हो गयी थी कि हमारे शत्रु गुरुजीकी शरणमें गये हैं।

बाहुपुत्र सगरको आया हुआ सुनकर महर्षि वसिष्ठ शरणागत राजाओंकी रक्षा करने तथा अपने शिष्य सगरकी प्रसन्नताके लिये क्षणभर विचार करने लगे। फिर उन्होंने कितने ही राजाओंके सिर मुँड़वा दिये और कितने ही राजाओंकी दाढ़ी-मूँछ मुँडवा दी। यह देखकर सगर हँस पड़े और अपने तपोनिधि गुरुसे इस प्रकार बोले। सगरने कहा- गुरुदेव ! आप इन दुराचारियोंकी व्यर्थ रक्षा करते हैं। इन्होंने मेरे पिताके राज्यका अपहरण कर लिया था, अतः मैं सब प्रकारसे इनका संहार कर डालूँगा। पापात्मा दुष्ट मनुष्य तबतक दुष्टता करते हैं, जबतक कि उनकी शक्ति प्रबल होती है। इसलिये शत्रु यदि दास बनकर आये, वेश्याएँ सौहार्द दिखायें और साँप साधुता प्रकट करें तो कल्याणकी इच्छा रखनेवाले पुरुषोंको उनपर विश्वास नहीं करना चाहिये। क्रूर मनुष्य पहले तो जीभसे बड़ी कठोर बातें बोलते हैं, किंतु जब निर्बल पड़ जाते हैं तो उसी जीभसे बड़ी करुणाजनक बातें कहने लगते हैं। जिसको अपने कल्याणकी इच्छा हो, वह नीतिशास्त्रका ज्ञाता पुरुष दुष्टोंक दम्भपूर्ण साधुभाव और दासभावपर कभी विश्वास न करे। नम्रता दिखाते हुए दुर्जन, कपटी मित्र और दुष्टस्वभाववाली स्त्रीपर विश्वास करनेवाला पुरुष मृत्युतुल्य खतरेमें ही है। अतः गुरुदेव ! आप इनकी प्राणरक्षा न करें। 

ये रूप तो गौका-सा बनाकर आये हैं, परंतु इनका कर्म व्याघ्रोंके समान है। इन सब दुष्टोंका वध करके मैं आपकी कृपासे इस पृथ्वीका पालन करूँगा। वसिष्ठ बोले- महाभाग ! तुम्हें अनेकानेक साधुवाद है। सुव्रत! तुम ठीक कहते हो। फिर भी मेरी बात सुनकर तुम्हें पूर्ण शान्ति मिलेगी। राजन् ! सभी जीव कर्मोंकी रस्सीमें बँधे हुए हैं, तथापि जो अपने पापोंसे ही मारे गये हैं, उन्हें फिर किसलिये मारते हो? यह शरीर पापसे उत्पन्न हुआ और पापसे ही बढ़ रहा है। इसे पापमूलक जानकर भी तुम क्यों इसका वध करनेको उद्यत हुए हो ? तुम वीर क्षत्रिय हो। इस पापमूलक शरीरको मारकर तुम्हें कौन-सी कीर्ति प्राप्त होगी ? ऐसा विचारकर इन लोगोंको मत मारो। गुरु वसिष्ठका यह वचन सुनकर सगरका क्रोध शान्त हो गया। उस समय मुनि भी सगरके शरीरपर अपना हाथ फेरते हुए बहुत प्रसन्न हुए। तदनन्तर महर्षि वसिष्ठने उत्तम व्रतका पालन करनेवाले अन्य मुनियोंके साथ महात्मा सगरका राज्याभिषेक किया। सगरकी दो स्त्रियाँ थीं- केशिनी और सुमति। नारदजी! ये दोनों विदर्भराज काश्यपकी कन्याएँ थीं। एक समय राजा सगरकी दोनों पत्नियोंद्वारा प्रार्थना करनेपर भृगुवंशी मन्त्रवेत्ता और्व मुनिने उन्हें पुत्र-प्राप्तिके लिये वर दिया। वे मुनीश्वर तीनों कालकी बातें जानते थे। उन्होंने क्षणभर ध्यानमें स्थित होकर केशिनी और सुमतिका हर्ष बढ़ाते हुए इस प्रकार कहा।

और्व बोले- महाभागे ! तुम दोनोंमेंसे एक रानी तो एक ही पुत्र प्राप्त करेगी; किंतु वह वंशको चलानेवाला होगा। परंतु दूसरी केवल संतानविषयक इच्छाकी पूर्तिके लिये साठ हजार पुत्र पैदा करेगी। तुमलोग अपनी-अपनी रुचिके अनुसार इनमेंसे एक-एक वर माँग लो। और्व मुनिका यह वचन सुनकर केशिनीने वंशपरम्पराके हेतुभूत एक ही पुत्रका वरदान माँगा तथा रानी सुमतिके साठ हजार पुत्र उत्पन्न हुए। मुनिश्रेष्ठ ! केशिनीके पुत्रका नाम था असमञ्जस । दुष्ट असमञ्जस उन्मत्तकी-सी चेष्टा करने लगा। उसकी देखा-देखी सगरके सभी पुत्र बुरे आचरण करने लगे। इन सबके दूषित कर्मोंको देखकर बाहुपुत्र राजा सगर बहुत दुःखी हुए। उन्होंने अपने पुत्रोंके निन्दित कर्मपर भलीभाँति विचार किया। वे सोचने लगे- अहो! इस संसारमें दुष्टोंका सङ्ग अत्यन्त कष्ट देनेवाला है। तदनन्तर असमञ्जसके अंशुमान् नामक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो बड़ा धर्मात्मा, गुणवान् और शास्त्रोंका ज्ञाता था। वह सदा अपने पितामह राजा सगरके हितमें संलग्न रहता था। सगरके सभी दुराचारी पुत्र लोकमें उपद्रव करने लगे। 

वे धार्मिक अनुष्ठान करनेवाले लोगोंके कार्यमें सदा विघ्न डाला करते थे। वे दुष्ट राजकुमार सदा मद्यपान करते और पारिजात आदि दिव्य वृक्षोंके फूल लाकर अपने शरीरको सजाते थे। उन्होंने साधु पुरुषोंकी जीविका छीन ली और सदाचारका नाश कर डाला। यह सब देखकर इन्द्र आदि देवता अत्यन्त दुःखसे पीड़ित हो इन सगरपुत्रोंके नाशके लिये कोई उत्तम उपाय सोचने लगे। सब देवता कुछ निश्चय करके पातालकी गुफामें रहनेवाले देवदेवेश्वर भगवान् कपिलके समीप गये। कपिलजी अपने मनसे परमानन्दस्वरूप आत्माका ध्यान कर रहे थे। देवताओंने भूमिपर दण्डकी भाँति लेटकर उन्हें साष्टाङ्ग प्रणाम किया और इस प्रकार स्तुति की। देवता बोले- भगवन् ! आप योगशक्तियोंसे सम्पन्न हैं, आपको नमस्कार है। आप सांख्ययोगमें रत रहनेवाले हैं, आपको नमस्कार है। आप नररूपसे छिपे हुए नारायण हैं, आपको नमस्कार है। संसाररूपी वनको भस्म करनेके लिये आप दावानलके समान हैं तथा धर्मपालनके लिये सेतुरूप हैं, आपको नमस्कार है। प्रभो! आप महान् वीतराग महात्मा हैं, आपको बारम्बार नमस्कार है। हम सब देवता सगरके पुत्रोंसे पीड़ित होकर आपकी शरणमें आये हैं। आप हमारी रक्षा करें। कपिलजीने कहा- श्रेष्ठ देवगण ? जो लोग इस जगत्में अपने यश, बल, धन और आयुका नाश चाहते हैं, वे ही लोगोंको पीड़ा देते हैं। जो सर्वदा मन, वाणी और क्रियाद्वारा दूसरोंको पीड़ा देते हैं, उन्हें दैव ही शीघ्र नष्ट कर देता है। थोड़े ही दिनोंमें इन सगरपुत्रोंका नाश हो जायगा।

महात्मा कपिल मुनिके ऐसा कहनेपर देवता विधिपूर्वक उन्हें प्रणाम करके स्वर्गलोकको चले गये। इसी बीचमें राजा सगरने वसिष्ठ आदि महर्षियोंके सहयोगसे परम उत्तम अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान आरम्भ किया। उस यज्ञके लिये नियुक्त किये हुए घोड़ेको देवराज इन्द्रने चुरा लिया और पातालमें जहाँ कपिल मुनि रहते थे, वहीं ले जाकर बाँध दिया। इन्द्रके द्वारा चुराये हुए उस अश्वको खोजनेके लिये सगरके सभी पुत्र आश्चर्यचकित होकर भू आदि लोकोंमें घूमने लगे। जब ऊपरके लोकोंमें कहीं भी उन्हें वह अश्व दिखायी नहीं दिया, तब वे पातालमें जानेको उद्यत हुए। फिर तो सारी पृथ्वीको खोदना शुरू किया। एक एकने अलग-अलग एक-एक योजन भूमि खोद डाली। खोदी हुई मिट्टीको उन्होंने समुद्रके तटपर बिखेर दिया और उसी द्वारसे वे सभी सगरपुत्र पाताललोकमें जा पहुँचे। वे सब अविवेकी मदसे उन्मत्त हो रहे थे। पातालमें सब ओर उन्होंने अश्वको ढूँढ़ना आरम्भ किया। खोजते खोजते वहाँ उन्हें करोड़ों सूर्योंके समान प्रभावशाली महात्मा कपिलका दर्शन हुआ। वे ध्यानमें तन्मय थे। उनके पास ही वह घोड़ा भी दिखायी दिया। फिर तो वे सभी अत्यन्त क्रोधमें भर गये और मुनिको देखकर उन्हें मार डालनेका विचार करके वेगपूर्वक दौड़ते हुए उनपर टूट पड़े। उस समय आपसमें एक-दूसरेसे वे इस प्रकार कह रहे थे 'इसे मार डालो, मार डालो। बाँध लो, बाँध लो। पकड़ो, जल्दी पकड़ो। देखो न, घोड़ा चुराकर यहाँ साधुरूपमें बगुलेकी भाँति ध्यान लगाये बैठा है। अहो! संसारमें ऐसे भी खल हैं, जो बड़े-बड़े आडम्बर रचते हैं।' इस तरहकी बातें बोलते हुए वे मुनीश्वर कपिलका उपहास करने लगे। कपिलजी अपने समस्त इन्द्रियवर्ग और बुद्धिको आत्मामें स्थिर करके ध्यानमें तत्पर थे; अतः उनकी इस करतूतका उन्हें कुछ भी पता नहीं चला। सगरपुत्रोंकी मृत्यु निकट थी, इसलिये उन लोगोंकी बुद्धि मारी गयी थी। वे मुनिको लातोंसे मारने लगे। 

कुछ लोगोंने उनकी बाहें पकड़ लीं। तब मुनिकी समाधि भङ्ग हो गयी। उन्होंने विस्मित होकर लोकमें उपद्रव करनेवाले सगरपुत्रोंको लक्ष्य करके गम्भीरभावसे युक्त यह वचन कहा- 'जो ऐश्वर्यके मदसे उन्मत्त हैं, जो भूखसे पीड़ित हैं, जो कामी हैं तथा जो अहंकारसे मूढ़ हो रहे हैं- ऐसे मनुष्योंको विवेक नहीं होता। यदि दुष्ट मनुष्य सज्जनोंको सताते हैं तो इसमें आश्चर्य क्या है? नदीका वेग किनारेपर उगे हुए वृक्षोंको भी गिरा देता है। जहाँ धन है, जवानी है तथा परायी स्त्री भी है, वहाँ सदा सब अन्धे और मूर्ख बने रहते हैं। दुष्टके पास लक्ष्मी हो तो वह लोकका विनाश करनेवाली ही होती है। जैसे वायु अग्निकी ज्वालाको बढ़ानेमें सहायक होता है और जैसे दूध साँपके विषको बढ़ानेमें कारण होता है, उसी प्रकार दुष्टकी लक्ष्मी उसकी दुष्टताको बढ़ा देती है। अहो ! धनके मदसे अन्धा हुआ मनुष्य देखते हुए भी नहीं देखता। यदि वह अपने हितको देखता है तभी वह वास्तवमें देखता है।' ऐसा कहकर कपिलजीने कुपित हो अपने नेत्रोंसे आग प्रकट की। उस आगने समस्त सगरपुत्रोंको क्षणभरमें जलाकर भस्म कर डाला। उनकी नेत्राग्निको देखकर पातालनिवासी जीव शोकमें डूब गये और असमयमें प्रलय हुआ जानकर चीत्कार करने लगे। उस अग्निसे संतप्त हो सम्पूर्ण सर्प तथा राक्षस समुद्रमें शीघ्रतापूर्वक समा गये। अवश्य ही साधु-महात्माओंका कोप दुस्सह होता है।

तदनन्तर देवदूतने राजाके यज्ञमें आकर यजमान सगरको वह सब समाचार बताया। राजा सगर सब शास्त्रोंके ज्ञाता थे। यह सब वृत्तान्त सुनकर उन्होंने अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक कहा- दैवने ही उन दुष्टोंको दण्ड दे दिया। माता, पिता, भाई अथवा पुत्र जो भी पाप करता है, वही शत्रु माना गया है। जो पापमें प्रवृत्त होकर सब लोगोंके साथ विरोध करता है, उसे महान् शत्रु समझना चाहिये-यही शास्त्रोंका निर्णय है। मुनीश्वर नारदजी! राजा सगरने अपने पुत्रोंका नाश होनेपर भी शोक नहीं किया; क्योंकि दुराचारियोंकी मृत्यु साधु पुरुषोंके लिये संतोषका कारण होती है। 'पुत्रहीन पुरुषोंका यज्ञमें अधिकार नहीं है'। धर्मशास्त्रकी ऐसी आज्ञा होनेके कारण महाराज सगरने अपने पौत्र अंशुमान्‌को ही दत्तक पुत्रके रूपमें गोद ले लिया। सारग्राही राजा सगरने बुद्धिमान् और विद्वानोंमें श्रेष्ठ अंशुमान्‌को अश्व ढूँढ़ लानेके कार्यमें नियुक्त किया। अंशुमान्ने उस गुफाके द्वारपर जाकर तेजोराशि मुनिवर कपिलको देखा और उन्हें साष्टाङ्ग प्रणाम किया। फिर दोनों हाथोंको जोड़कर वह विनयपूर्वक उनके सामने खड़ा हो गया और शान्तचित्त सनातन देवदेव कपिलसे इस प्रकार बोला।

अंशुमान्ने कहा- ब्रह्मन् ! मेरे पिताके भाइयोंने यहाँ आकर जो दुष्टता की है, उसे आप क्षमा करें; क्योंकि साधु पुरुष सदा दूसरोंके उपकारमें लगे रहते हैं और क्षमा ही उनका बल है। संत- महात्मा दुष्ट जीवोंपर भी दया करते हैं। चन्द्रमा चाण्डालके घरसे अपनी चाँदनी खींच नहीं लेते हैं। सज्जन पुरुष दूसरोंसे सताये जानेपर भी सबके लिये सुखकारक ही होता है। देवताओंद्वारा अपनी अमृतमयी कलाके भक्षण किये जानेपर भी चन्द्रमा उन्हें परम संतोष ही देता है। चन्दनको काटा जाय या छेदा जाय, वह अपनी सुगन्धसे सबको सुवासित करता रहता है। साधु पुरुषोंका भी ऐसा ही स्वभाव होता है। पुरुषोत्तम ! आपके गुणोंको जाननेवाले मुनीश्वरगण ऐसा मानते हैं कि आप क्षमा, तपस्या तथा धर्माचरणद्वारा समस्त लोकोंको शिक्षा देनेके लिये इस भूतलपर अवतीर्ण हुए हैं। ब्रह्मन् ! आपको नमस्कार है। मुने! आप ब्रह्मस्वरूप हैं, आपको नमस्कार है। आप स्वभावतः ब्राह्मणोंका हित करनेवाले हैं और सदा ब्रह्मचिन्तनमें लगे रहते हैं, आपको नमस्कार है।

अंशुमान्के इस प्रकार स्तुति करनेपर कपिल मुनिका मुख प्रसन्नतासे खिल उठा। उस समय वे बोले- 'निष्पाप राजकुमार ! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ, वर माँगो।' मुनिके ऐसा कहनेपर अंशुमान्ने प्रणाम करके कहा-'भगवन् ! हमारे इन पितरोंको ब्रह्मलोकमें पहुँचा दें।' तब कपिल मुनि अंशुमान्पर अत्यन्त प्रसन्न हो आदरपूर्वक बोले- 'राजकुमार ! तुम्हारा पौत्र यहाँ गङ्गाजीको लाकर अपने पितरौंको स्वर्गलोक पहुँचायेगा। वत्स ! तुम्हारे पौत्र भगीरथद्वारा लायी हुई पुण्यसलिला गङ्गा नदी इन सगरपुत्रोंके पाप धोकर इन्हें परम पदकी प्राप्ति करा देगी। बेटा! इस घोड़ेको ले जाओ, जिससे तुम्हारे पितामहका यज्ञ पूर्ण हो जाय।' तब अंशुमान् अपने पितामहके पास लौट गये और उन्हें अश्वसहित सब समाचार निवेदन किया। सगरने उस पशुके द्वारा ब्राह्मणोंके साथ वह यज्ञ पूर्ण किया और तपस्याद्वारा भगवान् विष्णुकी आराधना करके वे वैकुण्ठधामको चल गये। अंशुमान्के दिलीप नामक पुत्र हुआ। दिलीपसे भगीरथका जन्म हुआ, जो दिव्य लोकसे गङ्गाजीको इस भूतलपर ले आये। मुने ! भगीरथकी तपस्यासे संतुष्ट हो ब्रह्माजीने उन्हें गङ्गा दे दी; फिर भगीरथ, गङ्गाजीको धारण कौन करेगा- इस विषयमें विचार करने लगे। तदनन्तर भगवान् शिवकी आराधना करके उनकी सहायतासे वे देवनदी गङ्गाको पृथ्वीपर ले आये और उनके जलसे स्पर्श कराकर पवित्र हुए पितरोंको उन्होंने दिव्य स्वर्गलोकमें पहुँचा दिया।

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