राजा सत्यवान की जन्म कथा - सत्यवान की शत्रुघ्न को सर्वस्व-समर्पण,Raaja Satyavaan Kee Janm Katha - Satyavaan Kee Shatrughn Ko Sarvasv-Samarpan

राजा सत्यवान की जन्म कथा - सत्यवान की शत्रुघ्न को सर्वस्व-समर्पण

शेषजी कहते हैं- मुनिवर! सुवर्णपत्रसे शोभा पानेवाला यह यज्ञसम्बन्धी अश्व पूर्वोक्त देशोंमें भ्रमण करता हुआ तेजः पुरमें गया, जहाँके राजा सत्यवान् सत्य धर्म का आश्रय लेकर प्रजाका पालन करते थे। तदनन्तर शत्रुके नगर का विध्वंस करनेवाले श्रीरघुनाथजीके भाई शत्रुघ्रजी करोड़ों वीरोंसे घिरकर घोड़ेके पीछे-पीछे उस राजाके नगरसे होकर निकले। वह नगर बड़ा रमणीय था। चित्र-विचित्र प्राकार उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। हजारों देव-मन्दिरों के कारण वह सब ओरसे शोभायमान दिखायी देता था। भगवान् शङ्करके मस्तकपर निवास करनेवाली महादेवी भगवती भागीरथी वहाँ प्रवाहित हो रही थीं। उनके तटपर ऋषि-महर्षियोंका समुदाय निवास करता था। तेजःपुरमें रहनेवाले प्रत्येक ब्राह्मणके घरमें जो अग्निहोत्रका धुआँ उठता था, वह पापमें डूबे हुए बड़े-बड़े पातकियोंको भी पवित्र कर देता था। उस नगरको देखकर शत्रुघ्नने सुमतिसे पूछा-'मन्त्रिवर ! यह सामने दिखायी देनेवाला नगर किसका है, जो धर्मपूर्वक पालित होनेके कारण मेरे मनको अपार आनन्द प्रदान करता है ?'
सुमतिने कहा- स्वामिन् ! यहाँके राजा भगवान् विष्णुके भक्त है। आप सावधान होकर उनकी कल्याणमयी कथाओं को सुनें। उनका श्रवण करनेसे मनुष्य ब्रह्महत्या-जैसे पापसे भी मुक्त हो जाता है। इस नगरके राजाका नाम है सत्यवान्। वे श्रीरामचन्द्रजीके चरणारविन्दोंका रस-पान करनेके लिये भ्रमर एवं जीवन्मुक्त हैं। उन्हें यज्ञ और उसके अङ्गोंका पूर्ण ज्ञान है। वे महान् कर्मठ और प्रजाजनोंके रक्षक हैं। पूर्वकालमें यहाँ ऋतम्भर नामके एक राजा हो गये हैं। उन्हें कोई सन्तान नहीं थी। उनके कई स्त्रियाँ थीं, परन्तु उनमेंसे किसीके गर्भसे भी राजाको पुत्रकी प्राप्ति नहीं हुई। एक दिन दैववश उनके यहाँ जाबालि नामक मुनि पधारे। राजाने कुशल-प्रश्नके पश्चात् उनसे पुत्र उत्पन्न होनेका उपाय पूछा।


ऋतम्भरने कहा- स्वामिन् ! मैं सन्तानहीन हूँ; मुझे कोई ऐसा उपाय बताइये, जो पुत्र उत्पन्न होनेमें सहायक हो। जिसका प्रयोग करनेसे मेरी वंश परम्पराकी रक्षा करनेवाला एक श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न हो। राजाकी यह बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ जाबालिने कहा- "राजन् ! सन्तान प्राप्तिकी इच्छावाले मनुष्यके लिये तीन प्रकारके उपाय बताये गये हैं- भगवान् विष्णुकी, गौकी अथवा भगवान् शिवकी कृपा; अतः तुम देवस्वरूपा गौकी पूजा करो; क्योंकि उसकी पूँछ, मुँह, सींग तथा पृष्ठभागमें भी देवताओंका निवास है। जो प्रतिदिन अपने घरपर घास आदिके द्वारा गौकी पूजा करता है, उसपर देवता और पितर सदा सन्तुष्ट रहते हैं। जो उत्तम व्रतका पालन करनेवाला मनुष्य प्रतिदिन नियमपूर्वक गौको भोजन देता है, उसके सभी मनोरथ उस सत्य धर्मका अनुष्ठान करनेके कारण पूर्ण हो जाते हैं। यदि घरमें प्यासी हुई गाय बँधी रहे, रजस्वला कन्या अविवाहित हो तथा देवताके विग्रहपर दूसरे दिनका चढ़ाया हुआ निर्माल्य पड़ा रहे तो ये सभी दोष पहलेके किये हुए पुण्यको नष्ट कर डालते हैं। जो मनुष्य घास चरती हुई गौको रोकता है, उसके पूर्वज पितर पतनोन्मुख होकर काँप उठते हैं। जो मूढ़बुद्धि मानव गौको लाठीसे मारता है, उसे हाथसे हीन होकर यमराजके नगरमें जाना पड़ता है। जो गौके शरीरसे डाँस और मच्छरोंको हटाता है, उसके पूर्वज कृतार्थ होकर अधिक प्रसत्रताके कारण नाच उठते हैं और कहते हैं 'हमारा यह वंशज बड़ा भाग्यवान् है, अपनी गो-सेवाके द्वारा यह हमें तार देगा।'

"इस विषयमें जानकार लोग एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं, जो धर्मराजके नगरमें राजा जनकके सामने अद्भुत रूपसे घटित हुआ था। एक समयकी बात है, राजा जनकने योगके द्वारा अपने शरीरका परित्याग कर दिया। उस समय उनके पास एक विमान आया, जो क्षुद्र-घण्टिकाओंसे शोभा पा रहा था। राजा दिव्य-देहसे विमानपर आरूढ़ होकर चल दिये और उनके त्यागे हुए शरीरको सेवकगण उठा ले गये। राजा जनक धर्मराजकी संयमनीपुरीके निकटवर्ती मार्गसे जा रहे थे। उस समय करोड़ों नरकोंमें जो पापाचारी जीव यातना भोग रहे थे, वे जनकके शरीरकी वायुका स्पर्श पाकर सुखी हो गये। परन्तु जब वे उस स्थानसे आगे निकले तो पापपीड़ित प्राणी उन्हें जाते देख भयभीत होकर जोर-जोरसे चीत्कार करने लगे। वे नहीं चाहते थे कि राजा जनकसे वियोग हो। उन्होंने करुणा-जनक वाणीमें कहा- 'पुण्यात्मन् ! यहाँसे न जाओ। तुम्हारे शरीरको छूकर चलनेवाली वायुका स्पर्श पाकर हम यातनापीड़ित प्राणियोंको बड़ा सुख मिल रहा है।

"राजा बड़े धर्मात्मा थे, उन दुःखी जीवोंकी पुकार सुनकर उनके हृदयमें करुणा भर आयी। वे सोचने लगे- 'यदि मेरे रहनेसे इन प्राणियोंको सुख होता है, तो अब मैं इसी नगरमें निवास करूंगा; यही मेरे लिये मनोहर स्वर्ग है।' ऐसा विचार करके राजा जनक दुःखी प्राणियोंको सुख पहुँचानेके लिये वहीं- नरकके दरवाजेपर ही ठहर गये। उस समय उनका हृदय दयासे परिपूर्ण हो रहा था। इतनेहीमें नरकके उस दुःखदायी द्वारपर नाना प्रकार पातकके करनेवाले प्राणियोंको कठोर यातना देते हुए स्वयं धर्मराज उपस्थित हुए। उन्होंने देखा, महान् पुण्यात्मा तथा दयालु राजा जनक विमानपर आरूढ़ हो नरकके दरवाजेपर खड़े हैं। उन्हें देखकर प्रेतराज हँस पड़े और बोले- 'राजन् ! तुम तो समस्त धर्मात्माओंके शिरोमणि हो, भला तुम यहाँ कैसे आये? यह स्थान तो प्राणियोंकी हिंसा करनेवाले पापाचारी एवं दुष्टात्मा जीवोंके लिये है। यहाँ तुम्हारे समान पुण्यात्मा पुरुष नहीं आते। यहाँ उन्हीं मनुष्योंका आगमन होता है, जो अन्य प्राणियोंसे द्रोह करते, दूसरोंपर कलङ्क लगाते तथा औरोंका धन लूट-खसोटकर जीविका चलाते हैं। जो अपनी सेवामें लगी हुई धर्म-परायणा पत्नीको बिना किसी अपराधके त्याग देता है, उसको भी यहाँ आना पड़ता है। जो धनके लालचमें फँसकर मित्रके साथ धोखा करता है, वह मनुष्य यहाँ आकर मेरे हाथसे भयङ्कर यातना प्राप्त करता है। जो मूढ़चित्त मानव दम्भ, द्वेष अथवा उपहासवश मन, वाणी एवं क्रियाद्वारा कभी भगवान् श्रीरामका स्मरण नहीं करता, उसे बाँधकर मैं नरकोंमें डाल देता हूँ और अच्छी तरह पकाता हूँ।

जिन्होंने नरकके कष्टका निवारण करनेवाले रमानाथ भगवान् श्रीविष्णुका स्मरण किया है, वे मेरे स्थानको छोड़कर बहुत शीघ्र वैकुण्ठधामको प्राप्त होते हैं। मनुष्योंके शरीरमें तभीतक पाप ठहर पाता है, जबतक कि वे अपनी जिह्वासे श्रीराम-नामका उच्चारण नहीं करते। महामते ! जो बड़े-बड़े पापोंका आचरण करनेवाले हैं, उन्हीं लोगोंको मेरे दूत यहाँ ले आते हैं! तुम्हारे-जैसे पुण्यात्माओंकी ओर तो वे देख ही नहीं सकते; अतः महाराज! यहाँसे जाओ और अनेक प्रकारके दिव्य भोगोंका उपभोग करो। इस श्रेष्ठ विमानपर आरूढ़ होकर अपने उपार्जित किये हुए पुण्यको भोगो।'"जनकने कहा- 'नाथ! मुझे इन दुःखी जीवोंपर दया आती है, अतः इन्हें छोड़कर मैं नहीं जा सकता। मेरे शरीरकी वायुका स्पर्श पाकर इन लोगोंको सुख मिल रहा है। धर्मराज! यदि आप नरकमें पड़े हुए इन सभी प्राणियोंको छोड़ दें, तो मैं पुण्यात्माओंके निवासस्थान स्वर्गको सुखपूर्वक जा सकता हूँ।

"धर्मराज बोले- राजन् ! [यह जो तुम्हारे सामने खड़ा है] इस पापीने अपने मित्रकी पत्नीके साथ, जो इसके ऊपर पूर्ण विश्वास करती थी, बलात्कार किया है; इसलिये मैंने इसे लोहशङ्क नामक नरकमें डालकर दस हजार वर्षोंतक पकाया है। इसके पश्चात् इसे सूअरकी योनिमें डालकर अन्तमें मनुष्यके शरीरमें उत्पन्न करना है। मनुष्य-योनिमें यह नपुंसक होगा। इस दूसरे पापीने अनेकों बार बलपूर्वक परायी स्त्रियोंका आलिङ्गन किया है; इसलिये यह सौ वर्षोंतक रौरव नरकमें पकाया जायगा और यह जो पापी खड़ा है, यह बड़ी नीच बुद्धिका है। इसने दूसरोंका धन चुराकर स्वयं भोगा है; इसलिये इसके दोनों हाथ काटकर मैं इसे पूयशोणित नामक नरकमें पकाऊँगा। इसने सायंकालके समय भूखसे पीड़ित हो घरपर आये हुए अतिथिका वचनद्वारा भी स्वागत-सत्कार नहीं किया है; अतः इसे अन्धकारसे भरे हुए तामिस्र नामक नरकमें गिराना उचित है। वहाँ भ्रमरोंसे पीड़ित होकर यह सौ वर्षोंतक यातना भोगे। यह पापी उच्च स्वरसे दूसरोंकी निन्दा करते हुए कभी लज्जित नहीं हुआ है तथा उसने भी कान लगा-लगाकर अनेकों बार दूसरोंकी निन्दा सुनी है; अतः ये दोनों पापी अन्धकूपमें पड़कर दुःख-पर-दुःख उठा रहे हैं। यह जो अत्यन्त उद्विग्न दिखायी दे रहा है, मित्रोंसे द्रोह करनेवाला है, इसीलिये इसे रौरव नरकमें पकाया जाता है। नरश्रेष्ठ ! इन सभी पापियोंको इनके पापोंका भोग कराकर छुटकारा दूँगा। अतः तुम उत्तम लोकोंमें जाओ; क्योंकि तुमने पुण्य-राशिका उपार्जन किया है।

"जनकने पूछा - धर्मराज! इन दुःखी जीवोंका नरकसे उद्धार कैसे होगा? आप वह उपाय बतावें, जिसका अनुष्ठान करनेसे इन्हें सुख मिले।  "धर्मराज बोले- महाराज! इन्होंने कभी भगवान् विष्णुकी आराधना नहीं की, उनकी कथा नहीं सुनी, फिर इन पापियोंको नरकसे छुटकारा कैसे मिल सकता है ! इन्होंने बड़े-बड़े पाप किये हैं तो भी यदि तुम इन्हें छुड़ाना चाहते हो तो अपना पुण्य अर्पण करो। कौन-सा पुण्य ? सो मैं बतलाता हूँ। एक दिन प्रातः काल उठकर तुमने शुद्ध चित्तसे श्रीरघुनाथजीका ध्यान किया था, जिनका नाम महान् पापोंका भी नाश करनेवाला है। नरश्रेष्ठ ! उस दिन तुमने जो अकस्मात् 'राम-राम' का उच्चारण किया था, उसीका पुण्य इन पापियोंको दे डालो; जिससे इनका नरकसे उद्धार हो जाय।" जाबालि कहते हैं- महाराज! बुद्धिमान् धर्मराजके उपर्युक्त वचन सुनकर राजा जनकने अपने जीवनभरका कमाया हुआ पुण्य उन पापियोंको दे डाला। उनके सङ्कल्प करते ही नरकमें पड़े हुए जीव तत्क्षण वहाँसे मुक्त हो गये और दिव्य शरीर धारण करके जनकसे बोले- 'राजन् ! आपकी कृपासे हमलोग एक ही क्षणमें इस दुःखदायी नरकसे छुटकारा पा गये, अब हम परमधामको जा रहे हैं।' राजा जनक सम्पूर्ण प्राणियों पर दया करनेवाले थे; उन्होंने नरकसे निकले हुए प्राणियोंका सूर्यके समान तेजस्वी रूप देखकर मन-ही- मन बड़े सन्तोषका अनुभव किया। वे सभी प्राणी दयासागर महाराज जनककी प्रशंसा करते हुए दिव्य लोकको चले गये। नरकस्थ प्राणियोंके चले जानेपर राजा जनकने सम्पूर्ण धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ यमराजसे प्रश्न किया।

राजाने कहा - धर्मराज। आपने कहा था कि पाप करनेवाले मनुष्य ही आपके स्थानपर आते हैं, धार्मिक चर्चामें लगे रहनेवाले जीवोंका यहाँ आगमन नहीं होता। ऐसी दशामें मेरा यहाँ किस पापके कारण आना हुआ है? आप धर्मात्मा हैं; इसलिये मेरे पापका समस्त कारण आरम्भसे ही बतावें । धर्मराज बोले- राजन् ! तुम्हारा पुण्य बहुत बड़ा है। इस पृथ्वीपर तुम्हारे समान पुण्य किसीका नहीं है। तुम श्रीरघुनाथजीके युगलचरणारविन्दोंका मकरन्द पान करनेवाले भ्रमर हो। तुम्हारी कीर्तिमयी गङ्गा मलसे भरे हुए समस्त पापियोंको पवित्र कर देती है। वह अत्यन्त आनन्द प्रदान करनेवाली और दुष्टोंको तारनेवाली है। तथापि तुम्हारा एक छोटा-सा पाप भी है, जिसके कारण तुम पुण्यसे भरे होनेपर भी संयमनीपुरीके पास आये हो। एक समयकी बात है- एक गाय कहीं चर रही थी, तुमने पहुँचकर उसके चरनेमें रुकावट डाल दी। उसी पापका यह फल है कि तुम्हें नरकका दरवाजा देखना पड़ा है। इस समय तुम उससे छुटकारा पा गये तथा तुम्हारा पुण्य पहलेसे बहुत बढ़ गया; अतः अपने पुण्यद्वारा उपार्जित नाना प्रकारके उत्तम भोगोंका उपभोग करो। श्रीरघुनाथजी करुणाके सागर हैं। उन्होंने इन दुःखी जीवोंका दुःख दूर करनेके लिये ही संयमनीके इस महामार्गमें तुम-जैसे वैष्णवको भेज दिया है। सुव्रत ! यदि तुम इस मार्गसे नहीं आते तो इन बेचारोंका नरकसे उद्धार कैसे होता! महामते ! दूसरोंके दुःखसे दुःखी होनेवाले तुम्हारे-जैसे दया-धाम महात्मा आर्त प्राणियोंका दुःख दूर करते ही हैं।

जाबालि कहते हैं- ऐसा कहते हुए यमराजको प्रणाम करके राजा जनक परमधामको चले गये। इसलिये नृपश्रेष्ठ ! तुम गौकी पूजा करो; वह सन्तुष्ट होनेपर तुम्हें शीघ्र ही धर्मपरायण पुत्र देगी। सुमति कहते हैं- सुमित्रानन्दन ! जाबालिके मुँहसे धेनु-पूजाकी बात सुनकर राजा ऋतम्भरने आदर पूर्वक पूछा- 'मुने ! गौकी किस प्रकार यत्त्रपूर्वक पूजा करनी चाहिये ? पूजा करनेसे वह मनुष्यको कैसा बना देती है ?' तब जाबालिने विधिके अनुसार धेनु-पूजाका इस प्रकार वर्णन किया- 'राजन् ! गो-सेवाका व्रत लेनेवाला पुरुष प्रतिदिन गौको चरानेके लिये जंगलमें जाय। गायको यव खिलाकर उसके गोबरमें जो यव आ जायें, उनका संग्रह करे। पुत्रकी इच्छा रखनेवाले पुरुषके लिये उन्हीं यवोंको भक्षण करनेका विधान है। जब गौ जल पीये तभी उसको भी पवित्र जल पीना चाहिये। जब वह ऊँचे स्थानमें रहे तो उसको उससे नीचे स्थानमें रहना चाहिये, प्रतिदिन गौके शरीरसे डाँस और मच्छरोंको हटावे और स्वयं ही उसके खानेके लिये घास ले आवे। इस प्रकार सेवामें लगे रहनेपर गौ तुम्हें धर्मपरायण पुत्र प्रदान करेगी।

जाबालि मुनिकी यह बात सुनकर राजा ऋतम्भरने श्रीरघुनाथजीका स्मरण किया और शुद्धचित्त होकर व्रतका पालन आरम्भ किया। वे पहले बताये अनुसार घेनुकी रक्षा करते हुए उसे चरानेके लिये प्रतिदिन महान् वनमें जाया करते थे। श्रीरामचन्द्रजीके नामका स्मरण करना और सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें लगे रहना- यही उनका प्रतिदिनका कार्य था। उनकी सेवासे सन्तुष्ट होकर सुरभिने कहा- 'राजन् । तुम अपने हार्दिक अभिप्रायके अनुसार मुझसे कोई वर माँगो, जो तुम्हारे मनको प्रिय लगे ।' तब राजा बोले- 'देवि ! मुझे ऐसा पुत्र दो, जो परम सुन्दर, श्रीरघुनाथजीका भक्त, पिताका सेवक तथा अपने धर्मका पालन करनेवाला हो।' पुत्रकी इच्छा रखनेवाले राजाको मनोवाञ्छित वरदान देकर दयामयी देवी कामधेनु वहाँसे अन्तर्धान हो गयीं। समय आनेपर राजाको पुत्रकी प्राप्ति हुई, जो परम वैष्णव- श्रीरामचन्द्रजीका सेवक हुआ। पिताने उसका नाम सत्यवान् रखा। सत्यवान् बड़े ही पितृभक्त और इन्द्रके समान पराक्रमी हुए। उनको पुत्रके रूपमें पाकर राजा ऋतम्भरको बड़ी प्रसन्नता हुई। अपने पुत्रको धार्मिक जानकर राजा हर्षमें मग्न रहते थे। वे राज्यका भार सत्यवान्‌को ही सौंप स्वयं तपस्याके लिये वनमें चले गये। वहाँ भक्तिपूर्ण हृदयसे भगवान् हृषीकेशकी आराधना करके वे निष्पाप हो गये और शरीरसंहित भगवद्धामको प्राप्त हुए।

शत्रुघ्न्नजी ! ऋतम्भरके चले जानेपर राजा सत्यवान्ने भी अपने धर्मके अनुष्ठानसे लोकनाथ श्रीरघुनाथजीको सन्तुष्ट किया। भगवान् रमानाथने प्रसन्न होकर सत्यवान्‌को अपने चरणकमलोंमें अविचल भक्ति प्रदान की, जो यज्ञ करनेवाले पुरुषोंके लिये करोड़ों पुण्योंके द्वारा भी दुर्लभ है। वे प्रतिदिन सुस्थिर चित्तसे सम्पूर्ण लोकोंको पवित्र करनेवाली श्रीरघुनाथजीकी कथाका आयोजन करते हैं। उनके हृदयमें सबके प्रति दया भरी हुई है। जो लोग रमानाथ श्रीरघुनाथजीका पूजन नहीं करते, उनको वे इतना कठोर दण्ड देते हैं, जो यमराजके लिये भी भयङ्कर है। आठ वर्षके बाद अस्सी वर्षकी अवस्था होनेतक सभी मनुष्योंसे वे एकादशीका व्रत कराया करते हैं। तुलसीकी सेवा उन्हें बड़ी प्रिय है। लक्ष्मीपतिके चरणकमलोंमें चढ़ी हुई उत्तम माला उनके गलेसे कभी दूर नहीं होती है [अपनी भक्तिके कारण] वे ऋषियोंके भी पूजनीय हो गये हैं, फिर औरोंके लिये क्यों न होंगे। श्रीरघुनाथजीके स्मरणसे तथा उनके प्रति प्रेम करनेसे राजा सत्यवान्‌के सारे पाप धुल गये हैं, सम्पूर्ण अमङ्गल नष्ट हो गये हैं। ये श्रीरामचन्द्रजीके अद्भुत अश्वको पहचानकर यहाँ आयेंगे और तुम्हें अपना यह अकण्टक राज्य समर्पित करेंगे। राजन् ! जिसके विषयमें तुमने पूछा था, वह उत्तम प्रसंग मैंने तुमको सुना दिया।

शेषजी कहते हैं- तदनन्तर नाना प्रकारके आश्चर्योंसे युक्त वह यज्ञसम्बन्धी अश्व राजा सत्यवान्‌के नगरमें प्रविष्ट हुआ। उसे देखकर वहाँकी सारी जनताने राजाके पास जा निवेदन किया- 'महाराज ! भगवान् श्रीरामका अश्व इस नगरके मध्यसे होकर आ रहा है। शत्रुघ्न उसके रक्षक हैं।' 'राम' यह दो अक्षरोंका अत्यन्त मनोरम नाम सुनकर सत्यवान्‌के हृदयमें बड़ी प्रसन्नता हुई। उनकी वाणी गद्‌गद हो गयी। वे कहने लगे- 'जिन भगवान् श्रीरामको मैं सदा अपने हृदयमें धारण करता हूँ, मनमें चिन्तन करता हूँ, उन्हींका अश्व शत्रुघ्रजीके साथ मेरे नगरमें आया है। उसके पास श्रीरामके चरणोंकी सेवा करनेवाले हनुमान्‌जी भी होंगे, जो कभी भी श्रीरघुनाथजीको अपने मनसे नहीं बिसारते। जहाँ शत्रुघ्न हैं, जहाँ वायुनन्दन हनुमान्‌जी हैं तथा जहाँ श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमलोंकी सेवामें रहनेवाले अन्य लोग मौजूद हैं, वहीं मैं भी जाता हूँ।' उन्होंने मन्त्रीको आज्ञा दी- 'तुम समूचे राज्यका बहुमूल्य धन लेकर शीघ्र ही मेरे साथ आओ। मैं श्रीरघुनाथजीके श्रेष्ठ अश्वकी रक्षा अथवा श्रीरामचरणोंकी सुदुर्लभ सेवा करनेके लिये जाऊँगा।' यह कहकर वे सैनिकोंके साथ शत्रुघ्नके पास चल दिये। इतनेहीमें श्रीरामके छोटे भाई शत्रुघ्न भी राजधानीमें आ पहुँचे। राजा सत्यवान् मन्त्रियोंके साथ उनके पास आये और चरणोंमें पड़कर उन्हें अपना समृद्धिशाली राज्य अर्पण कर दिया। शत्रुघ्न्नने राजा सत्यवान्‌को श्रीरामभक्त जानकर उनका विशाल राज्य उन्हींक पुत्रको, जिसका नाम रुक्म था, दे दिया। सत्यवान् हनुमान्‌जीसे मिलनेके पश्चात् श्रीरामसेवक सुबाहुसे मिले तथा और भी जितने राम- भक्त वहाँ पधारे थे, उन सबको हृदयसे लगाकर उन्होंने अपने-आपको कृतार्थ माना। फिर शत्रुनजीके साथ होकर वे मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए। इतनेहीमें वीर पुरुषोंद्वारा सुरक्षित वह अश्व दूर निकल गया; अतः शूरवीरोंसे घिरे हुए शत्रुघ्रजी भी राजा सत्यवान्‌को साथ लेकर वहाँसे चल दिये।

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