परशुराम अवतार की कथा,Parshuram Avatar Kee Katha

परशुराम अवतार की कथा


श्री महादेव जी कहते हैं- पार्वती! भृगुवंशमें द्विजवर जमदग्नि अच्छे महात्मा हो गये हैं। वे सम्पूर्ण वेद-वेदाङ्गोंके पारगामी विद्वान् और महान् तपस्वी थे। धर्मात्मा जमदग्निने इन्द्रको प्रसन्न करनेके लिये गङ्गाके किनारे एक हजार वर्षांतक भारी तपस्या की। इससे प्रसन्न होकर देवराज इन्द्रने कहा- 'विप्रवर ! तुम्हारे मनमें जैसी इच्छा हो, उसके अनुसार वर माँगो ।'

जमदनि बोले- देव! मुझे सदा सब कामनाओं को पूर्ण करने वाली सुरभि गौ प्रदान कीजिये। तब देवराज इन्द्रने प्रसन्नतापूर्वक उन्हें सब कामनाओंको पूर्ण करनेवाली सुरभि गौ प्रदान की। सुरभिको पाकर महातपस्वी जमदग्नि दूसरे इन्द्रकी भाँति महान् ऐश्वर्यसे सम्पन्न होकर रहने लगे। उन्होंने राजा रेणुक की सुन्दरी कन्या रेणुका के साथ विधिपूर्वक विवाह किया। तत्पश्चात् परम धार्मिक जमदग्निने पुत्रकी कामनासे पुत्रेष्टि नामक यज्ञ किया और उस यज्ञके द्वारा देवराज इन्द्रको सन्तुष्ट किया। सन्तुष्ट होने पर शचीपति इन्द्रने जमदग्निको एक महाबाहु, महातेजस्वी और महाबलवान् पुत्र होनेका वरदान दिया। समय आने पर विप्रवर जमदग्रिने रेणुका के गर्भ से एक महापराक्रमी और बलवान् पुत्र उत्पन्न किया, जो भगवान् विष्णु के अंशके अंशसे प्रकट हुआ था। उसमें सब प्रकारके शुभ लक्षण मौजूद थे।


पितामह भृगुने आकर उस महापराक्रमी पुत्रका नामकरण संस्कार किया और बड़ी प्रसन्नता के साथ उसका नाम 'राम' रखा। जमदग्निका पुत्र होने के कारण वह जामदग्न्य भी कहलाया। भार्गववंशी बालक राम धरि-धीरे बड़े हुए। उपनयन संस्कारके पश्चात् उन्होंने सब विद्याओंमें प्रवीणता प्राप्त कर ली। तदनन्तर विप्रवर राम शालग्राम पर्वतके शिखरपर तपस्या करनेके लिये गये। वहाँ उन्हें परमतेजस्वी ब्रह्मर्षि कश्यपजीका दर्शन हुआ। रामने बड़े हर्षके साथ उनका पूजन किया। तब उन्होंने रामको विधि पूर्वक अविनाशी वैष्णव मन्त्रका उपदेश दिया। महात्मा कश्यपसे मन्त्रका उपदेश पाकर राम विधिपूर्वक लक्ष्मीपति श्रीविष्णुकी आराधना करने लगे। उन्होंने दिन-रात षडक्षर महा मन्त्र का जप करते हुए कमलनयन श्री हरि के ध्यान पूर्वक अनेक वर्षों तक तपस्या की। महातपस्वी ब्रह्मर्षि जमदग्नि जितेन्द्रिय एवं मौनभावसे तप करते हुए गङ्गाके सुन्दर तटपर निवास करते थे। उन्होंने यज्ञ, दान आदि महान् धर्मोका विधिपूर्वक अनुष्ठान किया। इन्द्रकी दी हुई गौके प्रसाद से उनके पास सब सम्पत्तियाँ भरी पूरी रहती थीं।

एक समयकी बात है- हैहयराज अर्जुन सब राष्ट्रोंको जीतकर अपनी सारी सेनाके साथ जमदग्नि मुनिके आश्रमपर आये। राजाने महाभाग मुनिवरका दर्शन करके उन्हें प्रणाम किया, उनकी कुशल पूछी और उन्हें भांति-भाँतिके वस्त्र तथा आभूषण दान किये। मुनिने भी अपने घरपर आये हुए राजाका मधुपर्ककी विधिसे प्रेमपूर्वक सत्कार किया तथा शक्तिशालिनी सुरभि गौके प्रभावसे सेनासहित राजाको उत्तम भोजन दिया। राजाको उस गौकी शक्ति देखकर बड़ा कौतूहल हुआ और उन्होंने महर्षि जमदग्निसे उस गौको माँगा।जमदग्नि मुनिके अस्वीकार करनेपर हैहयराजने उस सबला गौको बलपूर्वक ले लिया। तब महाभागा सबलाने क्रोधमें भरकर अपने सींगोंसे राजाके सब सैनिकोंको मार डाला। तदनन्तर स्वयं अन्तर्धान होकर क्षणभरमें इन्द्रके पास जा पहुँची। इधर अपनी सेनाका विनाश देखकर राजा अर्जुन क्रोधसे पागल हो उठा। उसने मुक्कोंसे मार-मारकर मुनि जमदग्निका वध कर डाला और लौटकर अपने नगरमें प्रवेश किया।

उधर रामने देवदेवेश्वर भगवान् विष्णुकी आराधना करके उन्हें प्रसन्न किया। भगवान्ने अपने परशु, वैष्णव महाधनुष और अनेक दिव्यास्त्र प्रदान करके उनसे कहा- 'मैं तुम्हें अपनी उत्तम शक्ति प्रदान करता हूँ। मेरी शक्तिसे आविष्ट होकर तुम पृथ्वीका भार उतारने और देवताओंका हित करनेके लिये दुष्ट राजाओंका वध करो। इस समय पृथ्वीपर बहुत-से मदोन्मत्त राजा एकत्र हो रहे हैं। उन्हें मारकर समुद्रपर्यन्त सारी पृथ्वी अपने अधिकारमें कर लो और महान् पराक्रमसे सम्पन्न हो धर्मपूर्वक इसका पालन करो। फिर समय आनेपर मेरी ही कृपासे मेरे परमपदको प्राप्त होओगे।' भगवान् विष्णुके अन्तर्धान होनेपर राम भी तुरंत अपने पिताके आश्रमको लौट गये। वहाँ जब उन्होंने अपने पिताको मारा गया देखा तो वे क्रोधसे मूर्च्छित हो गये और इस पृथ्वीको क्षत्रियविहीन करनेकी इच्छासे हैहयराजके नगरमें जा पहुँचे। वहाँ राजाको ललकारकर महायुद्ध में प्रवृत्त हुए और उसकी सेनाका संहार करके अन्तमें उन्होंने उसको भी मार डाला। इस प्रकार सहस्त्रबाहु अर्जुन का वध करने के अनन्तर प्रतापी परशुरामजीने कुपित होकर सम्पूर्ण राजाओंका संहार कर डाला। केवल राजा इक्ष्वाकुके महान् कुलपर उन्होंने हाथ नहीं उठाया। एक तो वह नानाका कुल था, दूसरे माता रेणुकाने इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रियोंको मारनेकी मनाही कर दी थी। इसलिये उक्त वंशकी उन्होंने रक्षा की।

इस प्रकार क्षत्रियोंका संहार करनेके पश्चात् प्रतापी परशुरामजीने अश्वमेध नामक महायज्ञका विधिवत् अनुष्ठान किया और उसमें श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको सात द्वीपोंसहित पृथ्वी दान कर दी। तदनन्तर वे भगवान् नर- नारायणके आश्रममें तपस्या करनेके लिये चले गये। पार्वती! यह मैंने तुमसे परशुरामजीके चरित्रका वर्णन किया है। वे भगवान् विष्णुकी शक्तिके आवेशावतार थे। इसीलिये शक्तिके आवेशसे उन्होंने जो कुछ किया, उसकी उपासना नहीं करनी चाहिये। भगवद्भक्त महात्माओं तथा श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके लिये भगवान् श्रीराम तथा श्रीकृष्णके अवतार ही उपासना करनेयोग्य हैं; क्योंकि वे अपने ईश्वरीय गुणोंसे परिपूर्ण हैं और उपासना करनेपर मनुष्योंको मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं।

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