नरसिंह अवतार एवं प्रह्लाद की कथा
महादेवजी कहते हैं- पार्वती ! दितिसे कश्यपजीके दो महाबली पुत्र हुए थे, जिनका नाम हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष था। वे दोनों महापराक्रमी और सम्पूर्ण दैत्योंके स्वामी थे। उनके दैत्य-योनिमें आनेका कारण इस प्रकार है। वे पूर्वजन्ममें जय-विजय नामक श्रीहरिके पार्षद थे और श्वेतद्वीपमें द्वारपालका काम करते थे। एक समय सनकादि योगीश्वर भगवान्का दर्शन करनेके लिये उत्सुक हो श्वेतद्वीपमें आये। महाबली जय-विजयने उन्हें बीचमें ही रोक दिया। इससे सनकादिने उन्हें शाप दे दिया- 'द्वारपालो ! तुम दोनों भगवान्के इस धामका परित्याग करके भूलोकमें चले जाओ।' इस प्रकार शाप देकर वे मुनीश्वर वहीं ठहर गये। भगवान्को यह बात मालूम हो गयी और उन्होंने सनकादि महात्माओं तथा दोनों द्वारपालोंको भी बुलाया। निकट आनेपर भूतभावन भगवान्ने जय-विजयसे कहा- 'द्वारपालो ! तुमलोगोंने महात्माओंका अपराध किया है। अतः तुम इस शापका उल्लङ्घन नहीं कर सकते। तुम यहाँसे जाकर या तो सात जन्मोंतक मेरे पापहीन भक्त होकर रहो या तीन जन्मोंतक मेरे प्रति शत्रुभाव रखते हुए समय व्यतीत करो।'
यह सुनकर जय-विजयने कहा- मानद ! हम अधिक समयतक आपसे अलग पृथ्वीपर रहनेमें असमर्थ हैं। इसलिये केवल तीन जन्मोंतक ही शत्रुभाव धारण करके रहेंगे। ऐसा कहकर वे दोनों महाबली द्वारपाल कश्यपके वीर्यसे दितिके गर्भमें आये और महापराक्रमी असुर होकर प्रकट हुए। उनमें बड़ेका नाम हिरण्यकशिपु था और छोटेका हिरण्याक्ष। वे दोनों सम्पूर्ण विश्वमें विख्यात हुए। उन्हें अपने बल और पराक्रमपर बड़ा अभिमान था। हिरण्याक्ष मदसे उन्मत्त रहता था। उसका शरीर कितना बड़ा था या हो सकता था- इसके लिये कोई निश्चित मापदण्ड नहीं था। उसने अपनी हजारों भुजाओंसे पर्वत, समुद्र, द्वीप और सम्पूर्ण प्राणियोंसहित इस पृथ्वीको उखाड़ लिया और सिरपर रखकर रसातलमें चला गया। यह देख सम्पूर्ण देवता भयसे पीडित हो हाहाकार करने लगे और रोग-शोकसे रहित भगवान् नारायणकी शरणमें गये। उस अद्भुत वृत्तान्तको जानकर विश्वरूपधारी जनार्दनने वाराहरूप धारण किया। उस समय उनकी बड़ी-बड़ी दाढ़ें और विशाल भुजाएँ थीं।
उन परमेश्वरने अपनी एक दाढ़से उस दैत्यपर आघात किया। इससे उसका विशाल शरीर कुचल गया और वह अधम दैत्य तुरंत ही मर गया। पृथ्वीको रसातलमें पड़ी देख भगवान् वाराहने उसे अपनी दाढ़पर उठा लिया और उसे पहलेकी भाँति शेषनागके ऊपर स्थापित करके स्वयं कच्छपरूपसे उसके आधार बन गये। वाराहरूपधारी महाविष्णुको वहाँ देखकर सम्पूर्ण देवता और मुनि भक्तिसे मस्तक झुकाकर उनकी स्तुति करने लगे। स्तुतिके पश्चात् उन्होंने गन्ध, पुष्प आदिसे श्रीहरिका पूजन किया। तब भगवान्ने उन सबको मनोवाञ्छित वरदान दिया। इसके बाद वे महर्षियोंके मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए वहीं अन्तर्धान हो गये। अपने भाई हिरण्याक्षको मारा गया जान महादैत्य हिरण्यकशिपु मेरुगिरिके पास जा मेरा ध्यान करते हुए तपस्या करने लगा। पार्वती! उस महाबली दैत्यने एक हजार दिव्य वर्षातक केवल वायु पीकर जीवन-निर्वाह किया और 'ॐ नमः शिवाय' इस पञ्चाक्षर मन्त्रका जप करते हुए वह सदा मेरा पूजन करता रहा। तब मैंने प्रसन्न होकर उस महान् असुरसे कहा- 'दितिनन्दन ! तुम्हारे मनमें जो इच्छा हो, उसके अनुसार वरं माँगो ।' तब वह मुझे प्रसन्न जानकर बोला- 'भगवन् ! देवता, असुर, मनुष्य, गन्धर्व, नाग, राक्षस, पशु, पक्षी, मृग. सिद्ध, महात्मा, यक्ष, विद्याधर और किन्नरोंसे, समस्त रोगोंसे, सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंसे तथा सम्पूर्ण महर्षियोंसे भी मेरी मृत्यु न हो सके यह वरदान दीजिये।' 'एवमस्तु' कहकर मैंने उसे वरदान दे दिया। मुझसे महान् वर पाकर वह महाबली दैत्य इन्द्र और देवताओंको जीत करके तीनों लोकोंका सम्राट् बन बैठा। उसने बलपूर्वक समस्त यज्ञ-भागोंपर अधिकार जमा लिया।
देवताओंको कोई रक्षक न मिला। वे उससे परास्त हो गये। गन्धर्व, देवता और दानव- सभी उसके किङ्कर हो गये। यक्ष, नाग और सिद्ध- सभी उसके अधीन रहने लगे। उस महाबली दैत्यराजने राजा उत्तानपादकी पुत्री कल्याणीके साथ विधिपूर्वक विवाह किया। उसके गर्भसे महातेजस्वी प्रह्लादका जन्म हुआ, जो आगे चलकर दैत्योंके राजा हुए। वे गर्भमें रहते समय भी सम्पूर्ण इन्द्रियोंके स्वामी श्रीहरिमें अनुराग रखते थे। सब अवस्थाओं और समस्त कार्योंमें मन, वाणी, शरीर और क्रियाद्वारा वे देवताओंके स्वामी सनातन भगवान् पद्मनाभके सिवा दूसरे किसीको नहीं जानते थे। उनकी बुद्धि बड़ी निर्मल थी। समयानुसार उपनयन संस्कार हो जानेपर वे गुरुकुलमें अध्ययन करने लगे। सम्पूर्ण वेदों और नाना प्रकारके शास्त्रोंका अध्ययन करके वे प्रह्लाद किसी समय अपने गुरुके साथ घरपर आये। उन्होंने पिताके पास जाकर बड़ी विनयके साथ उनके चरणोंमें प्रणाम किया। हिरण्यकशिपुने उत्तम लक्षणोंसे युक्त पुत्रको चरणोंमें पड़ा देख भुजाओंसे उठाकर छातीसे लगा लिया और गोदमें बिठाकर कहा- 'बेटा प्रह्लाद ! तुमने दीर्घकालतक गुरुकुलमें निवास किया है।
वहाँ गुरुजीने जो तुम्हें जानने योग्य तत्त्व बतलाया हो, वह मुझसे कहो।' पिताके इस प्रकार पूछनेपर जन्मसे ही वैष्णव प्रह्लादने बड़ी प्रसन्नताके साथ पापनाशक वचन कहा- 'पिताजी ! जो सम्पूर्ण उपनिषदोंके प्रतिपाद्य तत्त्व, अन्तर्यामी पुरुष और ईश्वर हैं, उन सर्वव्यापी भगवान् विष्णुको नमस्कार करके मैं आपसे कुछ निवेदन करता हूँ।' प्रह्लादके मुखसे इस प्रकार विष्णुकी स्तुति सुनकर दैत्यराज हिरण्यकशिपुको बड़ा विस्मय हुआ। उसने कुपित होकर गुरुसे पूछा- 'खोटी बुद्धिवाले ब्राह्मण! तूने मेरे पुत्रको क्या सिखा दिया। मेरा पुत्र और इस प्रकार विष्णुकी स्तुति करे- तूने ऐसी शिक्षा क्यों दी? यह मूर्खतापूर्ण न करनेयोग्य कार्य ब्राह्मणोंके ही योग्य है। ब्राह्मणाधम ! मेरे शत्रुकी यह स्तुति, जो कदापि सुननेयोग्य नहीं है, आज मेरे ही आगे इस बालकने भी सुना दी। यह सब तेरा ही प्रसाद है।' इतना कहते-कहते दैत्यराज हिरण्यकशिपु क्रोधके मारे अपनी सुध-बुध खो बैठा और चारों ओर देखकर दैत्योंसे बोला- 'अरे ! इस ब्राह्मणको मार डालो।' आज्ञा पाते ही क्रोधमें भरे हुए राक्षस आ पहुँचे और उन श्रेष्ठ ब्राह्मणके गलेमें रस्सी लगाकर उन्हें बाँधने लगे। ब्राह्मणोंके प्रेमी प्रह्लाद अपने गुरुको बँधते देख पितासे बोले- 'तात ! यह गुरुजीने नहीं सिखाया है।
मुझे तो देवाधिदेव भगवान् विष्णुकी ही कृपासे ऐसी शिक्षा मिली है। दूसरा कोई गुरु मुझे उपदेश नहीं देता। मेरे लिये तो श्रीहरि ही प्रेरक हैं। सुनने, मनन करने, बोलने तथा देखनेवाले सर्वव्यापी ईश्वर केवल श्रीविष्णु ही हैं। वे ही अविनाशी कर्त्ता हैं और वे ही सब प्राणियोंपर नियन्त्रण करनेवाले हैं। अतः प्रभो। मेरे गुरु इन ब्राह्मणदेवताका कोई अपराध नहीं है। इन्हें बन्धनसे मुक्त कर देना चाहिये। पुत्रकी यह बात सुनकर हिरण्यकशिपुने ब्राह्मणका बन्धन खुलवा दिया और स्वयं बड़े विस्मयमें पड़कर प्रह्लादसे कहा- 'बेटा! तुम ब्राह्मणोंके झूठे बहकावेमें आकर क्यों भ्रममें पड़ रहे हो? कौन विष्णु है? कैसा उसका रूप है और कहाँ वह निवास करता है ? संसारमें मैं ही ईश्वर हूँ। मैं ही तीनों लोकोंका स्वामी माना गया हूँ। विष्णु तो हमारे कुलका शत्रु है। उसे छोड़ो और मेरी ही पूजा करो। अथवा लोकगुरु भगवान् शंकरकी आराधना करो, जो देवताओंके अध्यक्ष, सम्पूर्ण ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले और परम कल्याणमय हैं। ललाटमें भस्मसे त्रिपुण्ड्र धारण करके पाशुपत-मार्गसे दैत्यपूजित महादेवजीकी पूजामें संलग्न रहो।
पुरोहितोंने कहा- ठीक ऐसी ही बात है। महाभाग ! प्रह्लाद ! तुम पिताकी बात मानो। अपने कुलके शत्रु विष्णुको छोड़ो और त्रिनेत्रधारी महादेवजीकी पूजा करो। महादेवजीसे बढ़कर सब कुछ देनेवाला दूसरा कोई देवता नहीं है। उन्हींकी कृपासे आज तुम्हारे पिता भी ईश्वरपदपर प्रतिष्ठित हैं। प्रह्लाद बोले- अहो ! भगवान्की कैसी महिमा है, जिनकी मायासे सारा जगत् मोहित हो रहा है! कितने आश्वर्यकी बात है कि वेदान्तके विद्वान् और सब लोकोंमें पूजित ब्राह्मण भी मदोन्मत्त होकर चपलतावश ऐसी बातें कहते हैं। मेरा तो दृढ़ विश्वास है कि नारायण ही परब्रह्म हैं। नारायण ही परमतत्त्व है, नारायण ही सर्वश्रेष्ठ ध्याता और नारायण ही सर्वोत्तम ध्यान है। सम्पूर्ण जगत्की गति भी वे ही हैं। वे सनातन, शिव, अच्युत, जगत्के धाता, विधाता और नित्य वासुदेव हैं। परम पुरुष नारायण ही यह सम्पूर्ण विश्व हैं और वे ही इस विश्वको जीवन प्रदान करते हैं। उनका श्रीअङ्ग सुवर्णके समान कान्तिमान् है।
वे नित्य देवता हैं। उनके नेत्र कमलके समान हैं। वे श्री, भू और लीला- इन तीनों देवियोंके स्वामी हैं। उनकी आकृति सुन्दर और सौम्य है तथा अन्तःकरण अत्यन्त निर्मल है। उन्होंने ही सम्पूर्ण देवताओंमें श्रेष्ठ ब्रह्मा और महादेवजीको उत्पन्न किया है। ब्रह्मा और महादेवजी उन्हींक आज्ञानुसार चलते हैं। उन्हींक भयसे वायु सदा गतिशील रहती है। उन्हकि डरसे सूर्यदेव ठीक समयपर उदित होते हैं। और उन्होंके भयसे अग्नि, इन्द्र तथा मृत्यु देवता सदा दौड़ लगाते रहते हैं। सृष्टिके आदिमें एकमात्र नित्य देवता भगवान् नारायण ही थे। उस समय न ब्रह्मा थे और न महादेवजी, न चन्द्रमा थे न सूर्य, न आकाश था न पृथ्वी । नक्षत्र और देवता भी उस समय प्रकट नहीं हुए थे। विद्वान् पुरुष सदा ही भगवान् विष्णुके उस परमधामका साक्षात्कार करते हैं। परम योगी महात्मा सनकादि भी जिन भगवान् विष्णुका ध्यान करते हैं, ब्रह्मा, शिव तथा इन्द्र आदि देवता भी जिनकी आराधनामें लगे रहते हैं, जिनकी पत्नी भगवती लक्ष्मीकी कृपा-कटाक्षपूर्ण आधी दृष्टि पड़नेपर ही ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र, वरुण, यर्म, चन्द्रमा और कुबेर आदि देवता हर्षसे फूल उठते हैं, जिनके नामोंका स्मरण करनेमात्रसे पापियोंकी भी तत्काल मुक्ति हो जाती है
वे भगवान् लक्ष्मीपति ही देवताओंकी भी सदा रक्षा करते हैं। मैं लक्ष्मीसहित उन परमेश्वरका ही सदा पूजन करूँगा। तथा अनायास ही श्रीविष्णुके उस परम पदको प्राप्त कर लूँगा। प्रह्लादकी ये बातें सुनकर हिरण्यकशिपु अत्यन्त क्रोधमें भरकर द्वितीय अग्निकी भाँति जल उठा और चारों ओर देखकर दैत्योंसे बोला- 'अरे! यह प्रह्लाद बड़ा पापी है। यह शत्रुकी पूजामें लगा है। मैं आज्ञा देता हूँ इसे भयंकर शस्त्रोंसे मार डालो। जिसके बलपर यह 'श्रीहरि ही रक्षक है' ऐसा कहता है, उसे आज ही देखना है। उस हरिका रक्षा कार्य कितना सफल है- यह अभी मालूम हो जायगा। दैत्य राज की यह आज्ञा पाते ही दैत्य हथियार उठाकर महात्मा प्रह्लादको मार डालनेके लिये उन्हें चारों ओरसे घेरकर खड़े हो गये। इधर प्रह्लाद भी अपने हृदय-कमलमें श्रीविष्णुका ध्यान करते हुए अष्टाक्षर- मन्त्रका जप करने लगे और दूसरे पर्वतकी भाँति अविचलभावसे खड़े रहे। दैत्यवीर चारों ओरसे उनके ऊपर शूल, तोमर और शक्तियोंसे प्रहार करने लगे। परन्तु श्रीहरिका स्मरण करनेके कारण प्रह्लादका शरीर उस समय भगवान्के प्रभावसे दुर्धर्ष वज्रके समान हो गया। देवद्रोहियोंके बड़े-बड़े अस्त्र-शस्त्र प्रह्लादके शरीरसे टकराकर टूट जाते और कमलके पत्तोंके समान छिन्न-भिन्न होकर पृथ्वीपर गिर जाते थे। दैत्य उनके अङ्गमें छोटा-सा भी घाव करनेमें समर्थ न हो सके। तब विस्मयसे नीचा मुँह किये वे सभी योद्धा दैत्यराजके पास जा चुपचाप खड़े हो गये। अपने महात्मा पुत्रको इस प्रकार तनिक भी चोट पहुँचती न देख दैत्यराज हिरण्यकशिपुको बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने क्रोधसे व्याकुल होकर वासुकि आदि बड़े-बड़े विषैले और भयंकर सर्पोंको आज्ञा दी कि 'इस प्रह्लादको काट खाओ।
राजाका यह आदेश पाकर अत्यन्त भयंकर और महाबली नाग, जिनके मुखोंसे आगकी लपटें निकल रही थीं, प्रह्लादको काट खानेकी चेष्टा करने लगे; किन्तु उनके शरीरमें दाँत लगाते ही वे सर्प विषोंसे हाथ धो बैठे। उनके दाँत भी टूट गये तथा हजारों गरुड़ प्रकट होकर उनके शरीरको छिन्न-भिन्न करने लगे। इससे व्याकुल होकर मुखसे रक्त वमन करते हुए सभी सर्प इधर-उधर भाग गये। बड़े-बड़े सर्पोंकी ऐसी दुर्दशा देख दैत्यराजका क्रोध और भी बढ़ गया। अब उसने मतवाले दिग्गजोंको प्रह्लादपर आक्रमण करनेकी आज्ञा दी। राजाज्ञासे प्रेरित होकर मदोन्मत्त दिग्गज प्रह्लादको चारों ओरसे घेरकर अपने विशाल और मोटे दाँतोंसे उनपर प्रहार करने लगे। किन्तु उनके शरीरसे टक्कर लेते ही दिग्गजोंके दाँत जड़-मूलसहित टूटकर पृथ्वीपर गिर पड़े। अब वे बिना दाँतोंके हो गये। इससे उन्हें बड़ी पीड़ा हुई और वे सब ओर भाग गये। बड़े-बड़े गजराजोंको इस प्रकार भागते देख दैत्यराजके क्रोधकी सीमा न रही। उसने बहुत बड़ी चिता जलाकर उसमें अपने बेटेको डाल दिया। जलमें शयन करनेवाले भगवान् विष्णुके प्रियतम प्रह्लादको धीरभावसे बैठे देख भयंकर लपटोंवाले अग्निदेवने उन्हें नहीं जलाया। उनकी ज्वाला शान्त हो गयी। अपने बालकको आगमें भी जलते न देख दैत्यपतिके आश्चर्यकी सीमा न रही। उसने पुत्रको अत्यन्त भयंकर विष दे दिया, जो सब प्राणियोंके प्राण हर लेनेवाला था। किन्तु भगवान् विष्णुके प्रभावसे प्रह्लादके लिये विष भी अमृत हो गया। भगवान्को अर्पण करके उनके अमृतस्वरूप प्रसादको ही वे खाया करते थे। इस प्रकार राजा हिरण्यकशिपुने अपने पुत्रके वधके लिये बड़े भयंकर और निर्दयतापूर्ण उपाय किये; किन्तु प्रह्लादको सर्वथा अवध्य देखकर वह विस्मयसे व्याकुल हो उठा और बोला ।
हिरण्यकशिपुने कहा- प्रह्लाद ! तुमने मेरे सामने विष्णुकी श्रेष्ठताका भलीभाँति वर्णन किया है। वे सब भूतोंमें व्यापक होनेके कारण विष्णु कहलाते हैं। जो सर्वव्यापी देवता हैं, वे ही परमेश्वर हैं। अतः तुम मुझे विष्णुकी सर्वव्यापकताको प्रत्यक्ष दिखाओ। उनके ऐश्वर्य, शक्ति, तेज, ज्ञान, वीर्य, बल, उत्तम रूप, गुण और विभूतियोंको अच्छी तरह देख लूँ, तब मैं विष्णुको देवता मान सकता हूँ। इस समय संसारमें तथा देवताओंमें भी मेरे बलकी समानता करनेवाला कोई भी नहीं है। भगवान् शंकरके वरदानसे मैं सब प्राणियों के लिये अवध्य हो गया हूँ। मुझे परास्त करना किसी भी प्राणीके लिये कठिन है। यदि विष्णु मुझे अपने बल और पराक्रमसे जीत लें तो ईश्वरका पद प्राप्त कर सकते हैं। पिताकी यह बात सुनकर प्रह्लादको बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने दैत्यराजके सामने श्रीहरिके प्रभावका वर्णन करते हुए कहा- 'पिताजी ! योगी पुरुष भक्तिके बलसे उनका सर्वत्र दर्शन करते हैं। भक्तिके बिना वे कहीं भी दिखायी नहीं देते। रोष और मत्सर आदिके द्वारा श्रीहरिका दर्शन होना असम्भव है। देवता, पशु, पक्षी, मनुष्य तथा स्थावर समस्त छोटे-बड़े प्राणियोंमें वे व्याप्त हो रहे हैं।
प्रह्लादके ये वचन सुनकर दैत्यराज हिरण्यकशिपुने क्रोधसे लाल-लाल आँखें करके उन्हें डाँटते हुए कहा- 'यदि विष्णु सर्वव्यापी और परम पुरुष है तो इस विषयमें अधिक प्रलाप करनेकी आवश्यकता नहीं है। इसपर विश्वास करनेके लिये कोई प्रत्यक्ष प्रमाण उपस्थित करो।' ऐसा कहकर दैत्यने सहसा अपने महलके खंभेको हाथसे ठोंका और प्रह्लादसे फिर कहा- 'यदि विष्णु सर्वत्र व्यापक है तो उसे तुम इस खंभेमें दिखाओ। अन्यथा झूठी बातें बनानेके कारण तुम्हारा वध कर डालूँगा।' यों कहकर दैत्यराजने सहसा तलवार खींच ली और क्रोधपूर्वक प्रह्लाद को मार डालने के लिये उनकी छातीपर प्रहार करना चाहा। उसी समय खंभेके भीतरसे बड़े जोरकी आवाज सुनायी पड़ी, मानो वज्रकी गर्जनाके साथ आसमान फट पड़ा हो। उस महान् शब्दसे दैत्योंके कान बहरे हो गये। वे जड़से कटे हुए वृक्षोंकी भाँति पृथ्वीपर गिर पड़े। उनपर आतङ्क छा गया। उन्हें ऐसा जान पड़ा, मानो अभी तीनों लोकोंका प्रलय हो जायगा। तदनन्तर उस खंभेसे महान् तेजस्वी श्रीहरि विशालकाय सिंहकी आकृति धारण किये निकले। निकलते ही उन्होंने प्रलयकालीन मेघोंके समान महाशुयंकर गर्जना की।
वे अनेक कोटि सूर्य और अग्रियोंके समान तेजसे सम्पत्र थे। उनका मुँह तो सिंहके समान था और शरीर मनुष्यके समान। दाढ़ोंके कारण मुख बड़ा विकराल दिखायी देता था। लपलपाती हुई जीभ उनके उद्धत भावकी सूचना दे रही थी। उनके बालोंसे आगकी लपटें निकल रही थीं। क्रोधसे जलती हुई अँगारे-जैसी लाल-लाल आँखें अलातचक्रके समान घूम रही थीं। हजारों बड़ी-बड़ी भुजाओंमें सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्र लिये भगवान् नरसिंह अनेक शाखावाले वृक्षोंसे युक्त मेरुपर्वतके समान जान पड़ते थे। उनके अङ्गोंमें दिव्य मालाएँ, दिव्य वस्त्र और दिव्य आभूषण शोभा पाते थे। भगवान् नरसिंह सम्पूर्ण दानवोंका संहार करनेके लिये वहाँ खड़े हुए। भयानक आकृतिवाले महाबली नरसिंहको उपस्थित देख दैत्यराज हिरण्यकशिपुकी आँखोंकी बरौनियाँ जल उठीं। उसका सारा शरीर व्याकुल हो गया। और वह अपनेको सँभाल न सकनेके कारण पृथ्वीपर गिर पड़ा।
उस समय प्रह्लादने भगवान् जनार्दनको नरसिंहकी आकृतिमें उपस्थित देख जय-जयकार करते हुए उनके चरणोंमें मस्तक झुकाया और उन महात्माके अद्भुत अनोंपर दृष्टिपात किया। उनकी गर्दनके बालोंमें कितने ही लोक, समुद्र, द्वीप, देवता, गन्धर्व, मनुष्य और हजारों अण्डज प्राणी दिखायी देते थे। दोनों नेत्रोंमें सूर्य और चन्द्रमा आदि तथा कानोंमें अश्विनीकुमार और सम्पूर्ण दिशा एवं विदिशाएँ थीं। ललाटमें ब्रह्मा और महादेव, नासिकामें आकाश और वायु, मुखके भीतर इन्द्र और अग्नि, जिह्वामें सरस्वती, दाढ़ोंपर सिंह, व्याघ्र, शरभ और बड़े-बड़े साँपोंका दर्शन होता था। कण्ठमें मेरुगिरि, कंधोंमें महान् पर्वत, भुजाओंमें देवता, मनुष्य और पशु-पक्षी, नाभिमें अन्तरिक्ष और दोनों पैरोंमें पृथ्वी थी। रोमावलियोंमें ओषधियाँ, नखोंमें सम्पूर्ण विश्व और निःश्वासोंमें साङ्गोपाङ्ग वेद थे। उनके सम्पूर्ण अङ्गोंमें आदित्य, वसु, रुद्र, विश्वेदेव, मरुद्गण, गन्धर्व तथा अप्सराएँ दृष्टिगोचर होती थीं। इस प्रकार उन परमात्माकी विभूतियाँ दिखायी दे रही थीं। उनका वक्षःस्थल श्रीवत्सचिह्न, कौस्तुभमणि और वनमालासे विभूषित था। वे शङ्ख, चक्र, गदा, खङ्ग और शार्ङ्गधनुष आदि अस्त्र-शस्त्रोंसे सम्पन्न थे।
सम्पूर्ण उपनिषदोंके अर्थभूत भगवान् श्रीविष्णुको उपस्थित देख दैत्य राजकुमार प्रह्लादके नेत्रोंसे आनन्दके आँसू बह चले। उनका सर्वाङ्ग अश्रुजलसे अभिषिक्त होने लगा और वे बारम्बार श्रीहरिके चरणोंमें प्रणाम करने लगे। दैत्य राज हिरण्यकशिपु सिंहको सामने आया देख क्रोधवश युद्धके लिये तैयार हो गया। वह मृत्युके अधीन हो रहा था। इसलिये हाथमें तलवार लेकर भगवान् नृसिंहकी ओर दौड़ा। इसी बीचमें महाबली दैत्य भी होशमें आ गये और वे अपने-अपने आयुध लेकर बड़ी उतावलीके साथ श्रीहरिपर प्रहार करने लगे। दैत्योंकी उस सेनाको देखकर भगवान् नरसिंहने अपनी अयालसे निकलती हुई लपटोंके द्वारा उसे जलाकर भस्म कर दिया। समस्त दानव उनकी जटाकी आगसे जलकर राखकी ढेर हो गये। प्रह्लाद और उनके अनुचरोंको छोड़कर दैत्यसेनामें कोई भी नहीं बचा। यह देख दैत्यराजने क्रोधमें भरकर तलवार खींच ली और भगवान् नरसिंहपर धावा किया; किन्तु भगवान्ने एक ही हाथसे तलवारसहित दैत्यराजको पकड़ लिया और जैसे आँधी वृक्षकी शाखाको गिरा देती है,
उसी प्रकार उसे पृथ्वीपर दे मारा। पृथ्वीपर पड़े हुए उस विशालकाय दैत्यको भगवान् नरसिंहने फिर पकड़ा और अपनी गोदमें रखकर उसके मुखकी ओर दृष्टिपात किया। उसमें श्रीविष्णुकी निन्दा तथा वैष्णवभक्तसे द्वेष करनेका जो पाप था, वह भगवान्के स्पर्शमात्रसे ही जलकर भस्म हो गया। तत्पश्चात् भगवान् नृसिंहने दैत्यराजके उस विशाल शरीरको वज्रके समान कठोर और तीखे नखोंसे विदीर्ण कर डाला। इससे दैत्यराजका अन्तःकरण निर्मल हो गया। उसने साक्षात् भगवान्का मुख देखते हुए प्राणोंका परित्याग किया। इसलिये वह कृतकृत्य हो गया। महान् नृसिंहरूपधारी श्रीहरिने अपने तीखे नखोंसे उसकी देहके सैकड़ों टुकड़े करके उसकी लम्बी आँतें बाहर निकाल लीं और उन्हें अपने गलेमें डाल लिया।
तदनन्तर, सम्पूर्ण देवता और तपस्वी मुनि ब्रह्मा तथा महादेवजीको आगे करके धीरे-धीरे भगवान्की स्तुति करनेके लिये आये। उस समय सब ओर मुखवाले भगवान् नृसिंह क्रोधाग्निसे प्रज्वलित हो रहे थे। इसलिये सब देवता और मुनि भयभीत हो गये। उन्होंने भगवान्को प्रसन्न करनेके लिये जगन्माता भगवती लक्ष्मीका चिन्तन किया, जो सबका धारण पोषण करनेवाली, सबकी अधीश्वरी, सुवर्णमय कान्तिसे सुशोभित होनेवाली तथा सब प्रकारके उपद्रवोंका नाश करनेवाली हैं। उन्होंने भक्तिपूर्वक देवीसूक्तका जप करते हुए श्रीविष्णुकी शक्ति अनिन्द्यसुन्दरी नारायणीको नमस्कार किया। देवताओंके स्मरण करनेपर सनातन देवता भगवती लक्ष्मी वहाँ प्रकट हुई। देवाधिदेव गुकी वल्लभा महालक्ष्मीका दर्शन करके सम्पूर्ण देवता बहुत प्रसन्न हुए और हाथ जोड़कर बोले- 'देवि ! अपने प्रियतमको प्रसन्न करो। तुम्हारे स्वामी जिस प्रकार भी तीनों लोकोंको अभय दान दें, वही उपाय करो।
देवताओंके ऐसा कहनेपर भगवती लक्ष्मी सहसा अपने प्रियतम भगवान् जनार्दनके पास गयीं और चरणोंमें पड़कर नमस्कार करके बोलीं- 'प्राणनाथ । प्रसन्न होइये।' अपनी प्यारी महारानीको उपस्थित देख सर्वेश्वर श्रीहरिने राक्षस-शरीरके प्रति उत्पन्न क्रोधको तत्काल त्याग दिया और कृपारूपी अमृतसे सरस दृष्टिके द्वारा देखा। उस समय उनके कृपापूर्ण दृष्टिपातसे संतुष्ट होकर जय-जयकार करते हुए उच्च स्वरसे स्तुति और नमस्कार करनेवाले लोगोंमें आनन्द और उल्लास छा गया। तत्पश्चात् सम्पूर्ण देवता हर्षमग्न हो जगदीश्वर श्रीविष्णुको नमस्कार करके हाथ जोड़कर बोले- 'भगवन् ! अनेक भुजाओं और चरणोंसे युक्त आपके इस अद्भुत रूप और तीनों लोकोंमें व्याप्त दुःसह तेजकी ओर देखने और आपके समीप ठहरनेमें हम सभी देवता असमर्थ हो रहे हैं।
देवताओंके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर देवेश्वर श्रीविष्णुने उस अत्यन्त भयानक तेजको समेट लिया और सुखपूर्वक दर्शन करनेयोग्य हो गये। उस समय उनका प्रकाश शरत्कालके करोड़ों चन्द्रमाओंके समान प्रतीत होता था। कमलके समान विशाल नेत्र शोभा पा रहे थे। जटापुञ्जसे सुधाकी वृष्टि हो रही थी। उसमें इतनी चमक थी, मानो करोड़ों चपलाएँ चमक रही हों। नाना प्रकारके रत्ननिर्मित दिव्य केयूर और कड़ोंसे विभूषित भुजाओंद्वारा वे ऐसे जान पड़ते थे मानो शाखा और फलोंसे युक्त कल्पवृक्ष सुशोभित हो। कोमल, दिव्य तथा जपाकुसुमके समान लाल रंगवाले चार हाथोंसे परमेश्वर श्रीहरिकी बड़ी शोभा हो रही थी। उनकी ऊपरवाली दो भुजाओंमें शङ्ख और चक्र थे तथा शेष दो हाथोंमें वरदान और अभयकी मुद्राएँ शोभा पाती थीं। भगवान्का वक्षःस्थल श्रीवत्स-चिह्न, कौस्तुभमणि तथा वनमालासे विभूषित था। कानोंमें उदयकालीन दिनकरकी-सी दीप्तिवाले दो कुण्डल जगमगा रहे थे। हार, केयूर और कड़े आदि आभूषण भिन्न-भिन्न अङ्गोंकी सुषमा बढ़ा रहे थे। वामाङ्गमें भगवती लक्ष्मीजीको साथ ले भगवान् नृसिंह बड़ी शोभा पाने लगे।
उस समय लक्ष्मी और नृसिंह को एक साथ देख देवता और महर्षि मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए। उनके नेत्रोंसे आनन्दाश्रुकी धारा बह चली, जिससे उनका शरीर भीगने लगा। वे आनन्दसमुद्रमें निमग्न होकर बारम्बार भगवान्को नमस्कार करने लगे। उन्होंने अमृतसे भरे हुए रत्नमय कलशोंद्वारा सनातन भगवान्का अभिषेक करके वस्त्र, आभूषण, गन्ध, दिव्य पुष्प तथा मनोरम धूप अर्पण करके उनका पूजन किया और दिव्य स्तोत्रोंसे स्तुति करके बार-बार उनके चरणोंमें मस्तक झुकाया। इससे प्रसन्न होकर भगवान् लक्ष्मीपतिने उन देवताओंको मनोवाञ्छित वरदान दिया। तत्पश्चात् सबके स्वामी भक्तवत्सल श्रीहरिने देवताओंको साथ ले प्रह्लादको सब दैत्योंका राजा बनाया। प्रह्लादको आश्वासन दे देवताओंद्वारा उनका अभिषेक कराकर उन्हें अभीष्ट वरदान और अनन्य भक्ति प्रदान की। इसके बाद भगवान्के ऊपर फूलोंकी वर्षा हुई और वे देवगणोंसे अपनी स्तुति सुनते हुए वहीं अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर सब देवता अपने-अपने स्थानको चले गये और प्रसन्नतापूर्वक यज्ञभागका उपभोग करने लगे। तबसे उनका आतङ्क दूर हो गया। उस महादैत्यके मारे जानेसे सबको बड़ा हर्ष हुआ। तदनन्तर विष्णु भक्त प्रह्लाद धर्मपूर्वक राज्य करने लगे। वह उत्तम राज्य उन्हें भगवानके प्रसादसे ही उपलब्ध हुआ था । उन्होंने अनेक यज्ञ-दान आदिके द्वारा नरसिंहजीका पूजन किया ओर समय आनेपर वे श्रीहरिके सनातन धामको प्राप्त हुए। जो प्रतिदिन इस प्रह्लाद-चरित्रको सुनते हैं, वे सब पापों से मुक्त हो परम गतिको प्राप्त होते हैं। पार्वती ! इस प्रकार मैंने तुम्हें श्रीहरिके नुसिंहावतारका वैभव बतलाया है। अंब शेष अवतारोंके वैभवका क्रमशः वर्णन सुनो।
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