नारदजी द्वारा भगवान् विष्णु की स्तुति
ऋषियोंने पूछा - सूतजी ! सनत्कुमार जी ने महात्मा नारद को किस प्रकार सम्पूर्ण धर्मों का उपदेश किया तथा उन दोनों का समागम किस तरह हुआ ? वे दोनों ब्रह्मवादी महात्मा किस स्थानमें स्थित होकर भगवान् की महिमाका गान करते थे ? यह हमें बताइये । सूतजी बोले - महात्मा सनक आदि ब्रह्माजीके मानस पुत्र हैं। उनमें न ममता है और न अहङ्कार। वे सभी नैष्ठिक ब्रह्मचारी हैं। उनके नाम बतलाता हूँ, सुनिये। सनक, सनन्दन, सनत्कुमार और सनातन- इन्हीं नामोंसे उनकी ख्याति है। वे चारों महात्मा भगवान् विष्णुके भक्त हैं तथा निरन्तर परब्रह्म परमात्माके चिन्तनमें तत्पर रहते हैं। उनका प्रभाव सहस्त्र सूर्योके समान है। वे सत्यव्रती तथा मुमुक्षु हैं। एक दिनकी बात है, वे मेरुगिरिके शिखरपर ब्रह्माजीकी सभामें जा रहे थे। मार्गमें उन्हें भगवान् विष्णुके चरणोंसे प्रकट हुई गङ्गाजीका दर्शन हुआ। यह उन्हें अभीष्ट था। गङ्गाजीका दर्शन करके वे चारों महात्मा उनकी सीता नामवाली धाराके जलमें स्नान करनेको उद्यत हुए। द्विजवरो! इसी समय देवर्षि नारदमुनि भी वहाँ आ पहुँचे और अपने बड़े भाइयोंको वहाँ स्नानके लिये उद्यत देख उन्हें हाथ जोड़कर नमस्कार किया। उस समय वे प्रेम-भक्तिके साथ भगवान् मधुसूदनके नामोंका कीर्तन करने लगे- 'नारायण ! अच्युत ! अनन्त ! वासुदेव ! जनार्दन ! यज्ञेश! यज्ञपुरुष ! कृष्ण ! विष्णु ! आपको नमस्कार है।
कमलनयन ! कमलाकान्त । गङ्गाजनक । केशव । क्षीरसमुद्रमें शयन करनेवाले देवेश्वर। दामोदर। आपको नमस्कार है। श्रीराम। विष्णो। नृसिंह। वामन। प्रद्युम्न ! संकर्षण! वासुदेव । अज! अनिरुद्ध । निर्मल प्रकाशस्वरूप ! मुरारे! आप सब प्रकारके भयसे निरन्तर हमारी रक्षा कीजिये।' इस प्रकार उच्च स्वरसे हरिनामका उच्चारण करते हुए उन अग्रज मुनियोंको प्रणाम करके वे उनके पास बैठे और उन्हींके साथ प्रसन्नतापूर्वक वहाँ स्नान भी किया। सम्पूर्ण लोकोंका पाप दूर करनेवाली गङ्गाकी धारा सीताके जलमें स्नान करके उन निष्पाप मुनियोंने देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंका तर्पण किया। फिर जलसे बाहर आकर संध्योपासन आदि अपने नित्य-नियमका पालन किया। तत्पश्चात् वे भगवान् नारायणके गुणोंसे सम्बन्ध रखनेवाली नाना प्रकारकी कथा-वार्ता करने लगे। उस मनोरम गङ्गातटपर सनकादि मुनियोंने जब अपना नित्यकर्म समाप्त कर लिया, तब देवर्षि नारदने अनेक प्रकारकी कथा-वार्ताके बीच उनसे इस प्रकार प्रश्न किया। नारदजी बोले- मुनिवरो! आपलोग सर्वज्ञ हैं।सदा भगवान्के भजनमें तत्पर रहते हैं। आप सब-के-सब सनातन भगवान् जगदीश्वर हैं और जगत्के उद्धारमें तत्पर रहते हैं। दीन-दुःखियोंके प्रति मैत्रीभाव रखनेवाले आप महानुभावोंसे मैं कुछ प्रश्न पूछता हूँ, उसे बतायें।
विद्वानो! मुझे भगवान्का लक्षण बताइये। यह सम्पूर्ण स्थावर- जङ्गम जिनसे उत्पन्न हुआ है, भगवती गङ्गा जिनके चरणोंका धोवन हैं, वे भगवान् श्रीहरि कैसे जाने जाते हैं? मनुष्योंके मन, वाणी, शरीरसे किये हुए कर्म कैसे सफल होते हैं? सबको मान देनेवाले महात्माओ ! ज्ञान और तपस्याका भी लक्षण बतलाइये। साथ ही अतिथि-पूजाका भी महत्त्व समझाइये, जिससे भगवान् विष्णु प्रसन्न होते हैं। हे नाथ। इस प्रकारके और भी जो गुह्य सत्कर्म भगवान् विष्णुको प्रसन्न करनेवाले हैं, छन सबका मुझपर अनुग्रह करके यथार्थ रूपसे वर्णन कीजिये। तदनन्तर नारदजी भगवान्की स्तुति करने लगे- 'जो परसे भी परे परम प्रकाशस्वरूप परमात्मा सम्पूर्ण कार्य-कारणरूप जगत्में अन्तर्यामी- रूपसे निवास करते हैं तथा जो सगुण और निर्गुणरूप हैं, उनको नमस्कार है। जो मायासे रहित हैं, परमात्मा जिनका नाम है, माया जिनकी शक्ति है, यह सम्पूर्ण विश्व जिनका स्वरूप है, जो योगियोंके ईश्वर, योगस्वरूप तथा योगगम्य हैं, उन सर्वव्यापी भगवान् विष्णुको नमस्कार है। जो ज्ञानस्वरूप, ज्ञानगम्य तथा सम्पूर्ण ज्ञानके एकमात्र हेतु हैं, ज्ञानेश्वर, ज्ञेय, ज्ञाता तथा विज्ञानसम्पत्तिरूप हैं, उन परमात्माको नमस्कार है। जो ध्यानस्वरूप, ध्यानगम्य तथा ध्यान करनेवाले साधकोंके पापका नाश करनेवाले हैं; जो ध्यानके ईश्वर श्रेष्ठ बुद्धिसे युक्त तथा ध्याता, ध्येयस्वरूप हैं; उन परमेश्वरको नमस्कार है।
सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि तथा ब्रह्मा आदि देवता, सिद्ध, यक्ष, असुर और नागगण जिनकी शक्तिसे संयुक्त होकर ही कुछ करनेमें समर्थ होते हैं, जो अजन्मा, पुराणपुरुष, सत्यस्वरूप तथा स्तुतिके अधीश्वर हैं, उन परमात्माको मैं सर्वदा नमस्कार करता हूँ। ब्रह्मन् ! जो ब्रह्माजीका रूप धारण करके संसारकी सृष्टि और विष्णुरूपसे जगत्का पालन करते हैं तथा कल्पका अन्त होनेपर जो रुद्ररूप धारण करके संहारमें प्रवृत्त होते हैं और एकार्णवके जलमें अक्षयवटके पत्रपर शिशुरूपसे अपने चरणारविन्दका रसपान करते हुए शयन करते हैं, उन अजन्मा परमेश्वरका मैं भजन करता हूँ। जिनके नामका संकीर्तन करनेसे गजराज ग्राहके भयानक बन्धनसे मुक्त हो गया, जो प्रकाशस्वरूप देवता अपने परम पदमें नित्य विराजमान रहते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् विष्णुकी मैं शरण लेता हूँ। जो शिवकी भक्ति करनेवाले पुरुषोंके लिये शिवस्वरूप और विष्णुका ध्यान करनेवाले भक्तोंके लिये विष्णुस्वरूप हैं, जो संकल्पपूर्वक अपने देहधारणमें स्वयं ही हेतु हैं, उन नित्य परमात्माकी मैं शरण लेता हूँ।
जो केशी तथा नरकासुरका नाश करनेवाले हैं, जिन्होंने बाल्यावस्थामें अपने हाथके अग्रभागसे गिरिराज गोवर्धनको धारण किया था, पृथ्वीके भारका अपहरण जिनका स्वाभाविक विनोद है, उन दिव्य शक्तिसम्पन्न भगवान् वासुदेवको मैं सदा प्रणाम करता हूँ। जिन्होंने खम्भमें भयङ्कर नृसिंहरूपसे अवतीर्ण हो पर्वतकी चट्टानके समान कठोर दैत्य हिरण्यकशिपुके वक्षःस्थलको विदीर्ण करके अपने भक्त प्रह्लादकी रक्षा की; उन अजन्मा परमेश्वरको मैं नमस्कार करता हूँ। जो आकाश आदि तत्त्वोंसे विभूषित, परमात्मा नामसे प्रसिद्ध, निरञ्जन, नित्य, अमेयतत्त्व तथा कर्मरहित हैं, उन विश्वविधाता पुराणपुरुष परमात्माको मैं नमस्कार करता हूँ। जो ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र, अग्नि, वायु, मनुष्य, यक्ष, गन्धर्व, असुर तथा देवता आदि अपने विभिन्न स्वरूपोंके साथ स्थित हैं, जो एक अद्वितीय परमेश्वर हैं, उन आदिपुरुष परमात्माका मैं भजन करता हूँ। यह भेदयुक्त सम्पूर्ण जगत् जिनसे उत्पन्न हुआ है, जिनमें स्थित है और संहारकालमें जिनमें लीन हो जायगा, उन परमात्माकी मैं शरण लेता हूँ। जो विश्वरूपमें स्थित होकर यहाँ आसक्त से प्रतीत होते हैं, परंतु वास्तवमें जो असङ्ग और परिपूर्ण हैं, उन परमेश्वरकी मैं शरण लेता हूँ।
जो भगवान् सबके हृदयमें स्थिर होकर भी मायासे मोहित चित्तवालोंके अनुभवमें नहीं आते तथा जो परम शुद्धस्वरूप हैं, उनकी मैं शरण लेता हूँ। जो लोग सब प्रकारकी आसक्तियोंसे दूर रहकर ध्यानयोगमें अपने मनको लगाये हुए हैं, उन्हें जो सर्वत्र ज्ञानस्वरूप प्रतीत होते हैं, उन परमात्माकी मैं शरण लेता हूँ। क्षीरसागर में अमृतमन्थनके समय जिन्होंने देवताओंके हितके लिये मन्दराचलको अपनी पीठपर धारण किया था, उन कूर्म-रूपधारी भगवान् विष्णुकी मैं शरण लेता हूँ। जिन अनन्त परमात्माने अपनी दाढ़ोंके अग्रभागद्वारा एकार्णवके जलसे इस पृथ्वीका उद्धार करके सम्पूर्ण जगत्को स्थापित किया, उन वाराह रूपधारी भगवान् विष्णुको मैं नमस्कार करता हूँ। अपने भक्त प्रह्लादकी रक्षा करते हुए जिन्होंने पर्वतकी शिलाके समान अत्यन्त कठोर वक्षवाले हिरण्यकशिपु दैत्यको विदीर्ण करके मार डाला था, उन भगवान् नृसिंहको मैं नमस्कार करता हूँ। विरोचनकुमार बलिसे तीन पग भूमि पाकर जिन्होंने दो ही पगाँसे ब्रह्मलोकपर्यन्त सम्पूर्ण विश्वको माप लिया और उसे पुनः देवताओंको समर्पित कर दिया, उन अपराजित भगवान् वामनको मैं नमस्कार करता हूँ।
हैहयराज सहस्रबाहु अर्जुनके अपराधसे जिन्होंने समस्त क्षत्रियकुलका इक्कीस बार संहार किया, उन जमदग्निनन्दन भगवान् परशुरामको नमस्कार है। जिन्होंने राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न इन चार रूपोंमें प्रकट हो वानरोंकी सेनासे घिरकर राक्षसदलका संहार किया था, उन भगवान् श्रीरामचन्द्रको मैं नमस्कार करता हूँ। जिन्होंने श्रीबलराम और श्रीकृष्ण-इन दो स्वरूपोंको धारण करके पृथ्वीका भार उतारा और अपने यादवकुलका संहार कर दिया, उन भगवान् श्रीकृष्णका मैं भजन करता हूँ। भूः, भुवः, स्वः - तीनों लोकोंमें व्याप्त अपने हृदयमें साक्षात्कार करनेवाले निर्मल बुद्धरूप परमेश्वरका मैं भजन करता हूँ। कलियुगके अन्तमें अशुद्ध चित्तवाले पापियोंको तलवारकी तीखी धारसे मारकर जिन्होंने सत्ययुगके आदिमें धर्मकी स्थापना की है, उन कल्किस्वरूप भगवान् विष्णुको मैं प्रणाम करता हूँ। इस प्रकार जिनके अनेक स्वरूपोंकी गणना बड़े-बड़े विद्वान् करोड़ों वर्षोंमें भी नहीं कर सकते, उन भगवान् विष्णुका मैं भजन करता हूँ। जिनके नामकी महिमाका पार पानेमें सम्पूर्ण देवता, असुर और मनुष्य भी समर्थ नहीं हैं, उन परमेश्वरकी मैं एक क्षुद्र जीव किस प्रकार स्तुति करूँ। महापातकी मानव जिनके नामका श्रवण करनेमात्रसे ही पवित्र हो जाते हैं,
उन भगवान्की स्तुति मुझ जैसा अल्प बुद्धिवाला व्यक्ति कैसे कर सकता है। जिनके नामका जिस किसी प्रकार कीर्तन अथवा श्रवण कर लेनेपर भी पापी पुरुष अत्यन्त शुद्ध हो जाते हैं और शुद्धात्मा मनुष्य मोक्षको प्राप्त कर लेते हैं, निष्पाप योगीजन अपने मनको बुद्धिमें स्थापित करके जिनका साक्षात्कार करते हैं, उन ज्ञानस्वरूप परमेश्वरकी मैं शरण लेता हूँ। सांख्ययोगी सम्पूर्ण भूतोंमें आत्मारूपसे परिपूर्ण हुए जिन जरारहित आदिदेव श्रीहरिका साक्षात्कार करते हैं, उन ज्ञानस्वरूप भगवान्का मैं भजन करता हूँ। सम्पूर्ण जीव जिनके स्वरूप हैं, जो शान्तस्वरूप हैं, सबके साक्षी, ईश्वर, सहस्त्रों मस्तकोंसे सुशोभित तथा भावरूप हैं, उन भगवान् श्रीहरिकी मैं वन्दना करता हूँ। भूत और भविष्य चराचर जगत्को व्याप्त करके जो उससे दस अङ्गुल ऊपर स्थित हैं, उन जरा-मृत्युरहित परमेश्वरका मैं भजन करता हूँ। जो सूक्ष्मसे भी अत्यन्त सूक्ष्म, महान्से भी अत्यन्त महान् तथा गुह्यसे भी अत्यन्त गुह्य हैं, उन अजन्मा भगवान्को मैं बार-बार प्रणाम करता हूँ। जो परमेश्वर ध्यान, चिन्तन, पूजन, श्रवण अथवा नमस्कारमात्र कर लेनेपर भी जीवको अपना परम पद दे देते हैं, उन भगवान् पुरुषोत्तमकी मैं वन्दना करता हूँ। इस प्रकार परम पुरुष परमेश्वरकी नारदजीके स्तुति करनेपर नारदसहित वे सनन्दन आदि मुनीश्वर बड़ी प्रसन्नताको प्राप्त हुए। उनके नेत्रोंमें आनन्दके आँसू भर आये थे। जो मनुष्य प्रातःकाल उठकर परम पुरुष भगवान् विष्णुके उपर्युक्त स्तोत्रका पाठ करता है, वह सब पापोंसे शुद्धचित्त होकर भगवान् विष्णुके लोकमें जाता है।
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