मुक्तिप्रद योग का वर्णन,Muktiprad Yog Ka Varnan
सनन्दनजी कहते हैं- नारदजी! केशिध्वजके इस अध्यात्मज्ञानसे युक्त अमृतमय वचनको सुनकर खाण्डिक्यने पुनः उन्हें प्रेरित करते हुए कहा। खाण्डिक्य बोले- योगवेत्ताओंमें श्रेष्ठ महाभाग केशिध्वज ! आप निमिवंशमें योगशास्त्रके विशेषज्ञ हैं, अतः आप उस योगका वर्णन कीजिये।केशिध्वजने कहा- खाण्डिक्यजी! मैं योगका स्वरूप बतलाता हूँ, सुनिये। उस योगमें स्थित होनेपर मुनि ब्रह्ममें लीन होकर फिर अपने स्वरूपसे च्युत नहीं होता। मन ही मनुष्योंके बन्धन और मोक्षका कारण है। विषयोंमें आसक्त होनेपर वह बन्धनका कारण होता है और विषयोंसे दूर हटकर वही मोक्षका साधक बन जाता है। अतः विवेकज्ञानसम्पन्न विद्वान् पुरुष मनको विषयोंसे हटाकर परमेश्वरका चिन्तन करे। जैसे चुम्बक अपनी शक्तिसे लोहेको खींचकर अपनेमें संयुक्त कर लेता है, उसी प्रकार ब्रह्मचिन्तन करनेवाले मुनिके चित्तको परमात्मा अपने स्वरूपमें लीन कर लेता है। आत्मज्ञानके उपायभूत जो यम-नियम आदि साधन हैं, उनकी अपेक्षा रखनेवाली जो मनकी विशिष्ट गति है, उसका ब्रह्मके साथ संयोग होना ही 'योग' कहलाता है। जिसका योग इस प्रकारकी विशेषतावाले धर्मसे युक्त होता है, वह योगी 'मुमुक्षु' कहलाता है। पहले-पहल योगका अभ्यास करनेवाला योगी 'युञ्जान' कहलाता है। और जब उसे परब्रह्म परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है, तब वह 'विनिष्पत्रसमाधि' (युक्त) कहलाता है। यदि किसी विघ्नदोषसे उस पूर्वोक्त योगी (युआन) का चित्त दूषित हो जाता है तो दूसरे जन्मोंमें उस योगभ्रष्टकी अभ्यास करते रहनेसे मुक्ति हो जाती है।
'विनिष्पन्नसमाधि' योगी योगकी अग्निसे अपनी सम्पूर्ण कर्मराशिको भस्म कर डालता है। इसलिये उसी जन्ममें शीघ्र मुक्ति प्राप्त कर लेता है। योगीको चाहिये कि वह अपने चित्तको योगसाधनके योग्य बनाते हुए ब्रह्मचर्य, अहिंसा, सत्य, अस्तेय तथा अपरिग्रहका निष्कामभाव से सेवन करे। ये पाँच यम हैं। इनके साथ शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय तथा परब्रह्म परमात्मामें मनको लगाना- इन पाँच नियमोंका पालन करे। इस प्रकार ये पाँच यम और पाँच नियम बताये गये हैं। सकामभावसे इनका सेवन किया जाय तो ये विशिष्ट फल देनेवाले होते हैं और निष्कामभावसे किया जाय तो मोक्ष प्रदान करते हैं। यत्नशील साधकको उचित है कि स्वस्तिक, सिद्ध, पद्म आदि आसनोंमेंसे किसी एकका आश्रय ले यम और नियम नामक गुणोंसे सम्पन्न हो नियमपूर्वक योगाभ्यास करे। अभ्याससे साधक जो प्राणवायुको वशमें करता है, उस क्रियाको प्राणायाम समझना चाहिये। उसके दो भेद हैं- सबीज और निर्बीज (जिसमें भगवान्के नाम और रूपका आलम्बन हो, वह सबीज प्राणायाम है और जिसमें ऐसा कोई आलम्बन नहीं है, वह निर्बीज प्राणायाम कहलाता है)।
साधु पुरुषोंके उपदेशसे प्राणायामका साधन करते समय जब योगीके प्राण और अपान एक दूसरेका पराभव करते (दबाते) हैं, तब क्रमशः रेचक और पूरक नामक दो प्राणायाम होते हैं और इन दोनोंका एक ही समय संयम (निरोध) करनेसे कुम्भक नामक तीसरा प्राणायाम होता है। राजन् । जब योगी सबीज प्राणायामका अभ्यास करता है, तब उसका आलम्बन सर्वव्यापी अनन्तस्वरूप भगवान् विष्णुका साकाररूप होता है। योगवेत्ता पुरुष प्रत्याहारका अभ्यास (इन्द्रियोंको विषयोंकी ओरसे समेटकर अपने भीतर लानेका प्रयत्न) करते हुए शब्दादि विषयोंमें अनुरक्त हुई इन्द्रियोंको रोककर उन्हें अपने चित्तकी अनुगामिनी बनावे। ऐसा करनेसे अत्यन्त चञ्चल इन्द्रियाँ भलीभाँति वशमें हो जाती हैं। यदि इन्द्रियाँ वशमें नहीं हैं तो कोई योगी उसके द्वारा योगका साधन नहीं कर सकता। प्राणायामसे प्राण-अपानरूप वायु और प्रत्याहारसे इन्द्रियोंको अपने वशमें करके चित्तको उसके शुभ आश्रयमें स्थिर करे।खाण्डिक्यने पूछा- महाभाग! बताइये, चित्तका वह शुभ आश्रय क्या है, जिसका अवलम्बन करके वह सम्पूर्ण दोषोंकी उत्पत्तिको नष्ट कर देता है। केशिध्वजने कहा- राजन् !
चित्तका आश्रय ब्रह्म है। उसके दो स्वरूप हैं- मूर्त और अमूर्त अथवा अपर और पर। भूपाल! संसारमें तीन प्रकारकी भावनाएँ हैं और उन भावनाओंके कारण यह जगत् तीन प्रकारका कहा जाता है। पहली भावनाका नाम 'कर्मभावना' है, दूसरीका 'ब्रह्मभावना' है और तीसरीका 'उभयात्मिका भावना' है। इनमेंसे पहलीमें कर्मकी भावना होनेके कारण वह 'कर्मभावात्मिका' है, दूसरीमें ब्रह्मकी भावना होनेसे वह 'ब्रह्मभावात्मिका' कहलाती है और तीसरीमें दोनों प्रकारकी भावना होनेसे उसको 'उभयात्मिका' कहते हैं। इस तरह तीन प्रकारकी भावात्मक भावनाएँ हैं। ज्ञानी नरेश। सनक आदि सिद्ध पुरुष सदा ब्रह्मभावनासे युक्त होते हैं। उनसे भिन्न जो देवताओंसे लेकर स्थावर जङ्गमपर्यन्त सम्पूर्ण प्राणी हैं, वे कर्मभावनासे युक्त होते हैं। हिरण्यगर्भ, प्रजापति आदि सच्चिदानन्द ब्रह्मका बोध और सृष्टिरचनादि कर्मीका अधिकार- दोनोंसे युक्त हैं; अतः उनमें ब्रह्मभावना एवं कर्मभावना दोनोंकी ही उपलब्धि होती है।
राजन् ! जबतक विशेष भेदज्ञानके हेतुभूत सम्पूर्ण कर्म क्षीण नहीं हो जाते, तभीतक भेददर्शी मनुष्योंकी दृष्टिमें यह विश्व तथा परब्रह्म भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं। जहाँ सम्पूर्ण भेदोंका अभाव हो जाता है, जो केवल सत् है और वाणीका अविषय है तथा जो स्वयं ही अनुभवस्वरूप है, वही ब्रह्मज्ञान कहा गया है। वही अजन्मा एवं निराकार विष्णुका परम स्वरूप है, जो उनके विश्वरूपसे सर्वथा विलक्षण है। राजन् ! योगका साधक पहले उस निर्विशेष स्वरूपका चिन्तन नहीं कर सकता, इसलिये उसे श्रीहरिके विश्वमय स्थूलरूपका ही चिन्तन करना चाहिये। भगवान् हिरण्यगर्भ, इन्द्र, प्रजापति, मरुद्रण, वसु, रुद्र, सूर्य, तारे, ग्रह, गन्धर्व, यक्ष और दैत्य आदि समस्त देव-योनियाँ; मनुष्य, पशु, पर्वत, समुद्र, नदी, वृक्ष, सम्पूर्ण भूत तथा प्रधानसे लेकर विशेषपर्यन्त उन भूतोंके कारण तथा चेतन- अचेतन, एक पैर, दो पैर और अनेक पैरवाले जीव तथा बिना पैरवाले प्राणी- ये सब भगवान् विष्णुके त्रिविध भावनात्मक मूर्तरूप हैं। यह सम्पूर्ण चराचर जगत् परब्रह्मस्वरूप भगवान् विष्णुका उनकी शक्तिसे सम्पन्न 'विश्व' नामक रूप है। शक्ति तीन प्रकारकी बतलायी गयी है-परा, अपरा और कर्मशक्ति। भगवान् विष्णुको 'पराशक्ति'कहा गया है। 'क्षेत्रज्ञ' अपराशक्ति है तथा अविद्याको कर्मनामक तीसरी शक्ति माना गया है।
राजन् ! क्षेत्रज्ञ शक्ति सब शरीरोंमें व्याप्त है; परंतु वह इस असार संसारमें अविद्या नामक शक्तिसे आवृत हो अत्यन्त विस्तारसे प्राप्त होनेवाले सम्पूर्ण सांसारिक क्लेश भोगा करती है। परम बुद्धिमान् नरेश ! उस अविद्या शक्तिसे तिरोहित होनेके कारण वह श्रेत्रज्ञ शक्ति सम्पूर्ण प्राणियों में तारतम्यसे दिखायी देती है। वह प्राणहीन जड़ पदार्थोंमें बहुत कम है। उनसे अधिक वृक्ष-पर्वत आदि स्थावरोंमें स्थित है। स्थावरोंसे अधिक सर्प आदि जीवोंमें और उनसे भी अधिक पक्षियोंमें अभिव्यक्त हुई है। पक्षियोंकी अपेक्षा उस शक्तिमें मृग बढ़े-चढ़े हैं और मृगोंसे अधिक पशु हैं। पशुओंकी अपेक्षा मनुष्य परम पुरुष भगवान्की उस क्षेत्रज्ञ-शक्तिसे अधिक प्रभावित हैं। मनुष्योंसे भी बढ़े हुए नाग, गन्धर्व, यक्ष आदि देवता हैं। देवताओंसे भी इन्द्र और इन्द्रसे भी प्रजापति उस शक्तिमें बढ़े हैं। प्रजापतिकी अपेक्षा भी हिरण्यगर्भ ब्रह्माजीमें भगवान्की उस शक्तिका विशेष प्रकाश हुआ है। राजन् ! ये सम्पूर्ण रूप उस परमेश्वरके ही शरीर हैं। क्योंकि ये सब आकाशकी भाँति उनकी शक्तिसे व्याप्त हैं। महामते। विष्णु नामक ब्रह्मका दूसरा अमूर्त्त (निराकार) रूप है, जिसका योगीलोग ध्यान करते हैं और विद्वान् पुरुष जिसे 'सत्' कहते हैं। जनेश्वर! भगवान्का वही रूप अपनी लीलासे देव, तिर्यक् और मनुष्य आदि चेष्टाओंसे युक्त सर्वशक्तिमय रूप धारण करता है। इन रूपोंमें अप्रमेय भगवान्की जो व्यापक एवं अव्याहत चेष्टा होती है,
वह सम्पूर्ण जगत्के उपकारके लिये ही होती है, कर्मजन्य नहीं होती। राजन् ! योगके साधकको आत्मशुद्धिके लिये
विश्वरूपभगवान के उस सर्वपापनाशक स्वरूपका ही चिन्तन करना चाहिये। जैसे वायुका सहयोग पाकर प्रज्वलित हुई अग्नि ऊँची लपटें उठाकर तृणसमूहको भस्म कर डालती है, उसी प्रकार योगियोंके चित्तमें विराजमान भगवान् विष्णु उनके समस्त पापोंको जला डालते हैं। इसलिये सम्पूर्ण शक्तियोंके आधारभूत भगवान् विष्णुमें चित्तको स्थिर करे-यही शुद्ध धारणा है। राजन् ! तीनों भावनाओंसे अतीत भगवान् विष्णु ही योगियोंकी मुक्तिके लिये इनके सब ओर जानेवाले चञ्चल चित्तके शुभ आश्रय हैं। पुरुषसिंह ! भगवान्के अतिरिक्त जो मनके दूसरे आश्रय सम्पूर्ण देवता आदि हैं, वे सब अशुद्ध हैं। भगवान्का मूर्तरूप चित्तको दूसरे सम्पूर्ण आश्रयोंसे निःस्पृह कर देता है- चित्तको जो भगवान्में धारण करना स्थिरतापूर्वक लगाना है, इसे ही 'धारणा' समझना चाहिये। नरेश! बिना किसी आधारके धारणा नहीं हो सकती; अतः भगवान्के सगुण-साकार स्वरूपका जिस प्रकार चिन्तन करना चाहिये, वह बतलाता हूँ, सुनो। भगवान्का मुख प्रसन्न एवं मनोहर है। उनके नेत्र विकसित कमलदलके समान विशाल एवं सुन्दर हैं। दोनों कपोल बड़े ही सुहावने और चिकने हैं। ललाट चौड़ा और प्रकाशसे उद्भासित है।
उनके दोनों कान बराबर हैं और उनमें धारण किये हुए मनोहर कुण्डल कंधेके समीपतक लटक रहे हैं। ग्रीवा शङ्खकी-सी शोभा धारण करती है। विशाल वक्षः स्थलमें श्रीवत्सका चिह्न सुशोभित है। उनके उदरमें तिरङ्गाकार त्रिवली तथा गहरी नाभि है। भगवान् विष्णु बड़ी-बड़ी चार अथवा आठ भुजाएँ धारण करते हैं। उनके दोनों ऊरु तथा जंघे समानभावसे स्थित हैं और मनोहर चरणारविन्द हमारे सम्मुख स्थिरभावसे खड़े हैं। उन्होंने स्वच्छ पीताम्बर धारण कर रखा है। इस प्रकार उन ब्रह्मस्वरूप भगवान् विष्णुका चिन्तन करना चाहिये। उनके मस्तकपर किरीट, गलेमें हार, भुजाओंमें केयूर और हाथोंमें कड़े आदि आभूषण उनकी शोभा बढ़ा रहे हैं। शार्ङ्गधनुष, पाञ्चजन्य शङ्ख, कौमोदकी गदा, नन्दक खड्ग, सुदर्शन चक्र, अक्षमाला तथा वरद और अभयकी मुद्रा ये सब भगवान्के करकमलोंकी शोभा बढ़ाते हैं। उनकी अंगुलियोंमें रत्नमयी मुद्रिकाएँ शोभा दे रही हैं। राजन् ! इस प्रकार योगी भगवान्के मनोहर स्वरूपमें अपना चित्त लगाकर तबतक उसका चिन्तन करता रहे, जबतक उसी स्वरूपमें उसकी धारणा दृढ़ न हो जाय। चलते-फिरते, उठते-बैठते अथवा अपनी इच्छाके अनुसार दूसरा कोई कार्य करते समय भी जब वह धारणा चित्तसे अलग न हो, तब उसे सिद्ध हुई मानना चाहिये।
इसके दृढ़ होनेपर बुद्धिमान् पुरुष भगवान्के ऐसे स्वरूपका चिन्तन करे, जिसमें शङ्ख, चक्र, गदा तथा शार्ङ्गधनुष आदि आयुध न हों। वह स्वरूप परम शान्त तथा अक्षमाला एवं यज्ञोपवीतसे विभूषित हो। जब यह धारणा भी पूर्ववत् स्थिर हो जाय तो भगवान्के किरीट, केयूर आदि आभूषणोंसे रहित स्वरूपका चिन्तन करे। तत्पश्चात् विद्वान् साधक अपने चित्तसे भगवान्के किसी एक अवयव (चरण या मुखारविन्द) का ध्यान करे। तदनन्तर अवयवोंका चिन्तन छोड़कर केवल अवयवी भगवान्के ध्यानमें तत्पर हो जाय। राजन् ! जिसमें भगवान्के स्वरूपकी ही प्रतीति होती है, ऐसी जो अन्य वस्तुओंकी इच्छासे रहित ध्येयाकार चित्तकी एक अनवरत धारा है, उसीको 'ध्यान' कहते हैं। वह अपने पूर्व यम- नियम आदि छः अङ्गोंसे निष्पन्न होता है। उस ध्येय पदार्थका ही जो मनके द्वारा सिद्ध होनेयोग्य कल्पनाहीन (ध्याता, ध्येय और ध्यानकी विपुटीसे रहित) स्वरूप ग्रहण किया जाता है, उसे ही 'समाधि' कहते हैं'। राजन् ! प्राप्त करनेयोग्य वस्तु है परब्रह्म परमात्मा और उसके समीप पहुँचानेवाला सहायक है पूर्वोक्त समाधिजनित विज्ञान तथा उस परमात्मातक पहुँचनेका पात्र है सम्पूर्ण कामनाओंसे रहित आत्मा। क्षेत्रज्ञ कर्ता है और ज्ञान करण है; अतः उस ज्ञानरूपी करणके द्वारा वह प्रापक विज्ञान उस क्षेत्रज्ञका मुक्तिरूप कार्य सिद्ध करके कृतकृत्य होकर निवृत्त हो जाता है। उस समय वह भगवद्भावमयी भावनासे पूर्ण हो परमात्मासे अभिन्न हो जाता है। वास्तवमें क्षेत्रज्ञ और परमात्माका भेद तो अज्ञानजनित ही है। भेद उत्पन्न करनेवाले अज्ञानके सर्वथा नष्ट हो जानेपर आत्मा और ब्रह्ममें भेद नहीं रह जाता। उस दशामें भेदबुद्धि कौन करेगा। खाण्डिक्यजी! इस प्रकार आपके प्रश्नके अनुसार मैंने संक्षेप और विस्तारसे योगका वर्णन किया। अब मैं आपका दूसरा कौन कार्य करूँ?
खाण्डिक्य बोले- राजन् ! आपने योगद्वारा परमात्मभावको प्राप्त करनेके उपायका वर्णन किया। इससे मेरा सभी कार्य सम्पन्न हो गया। आज आपके उपदेशसे मेरे मनकी सारी मलिनता नष्ट हो गयी। मैंने जो 'मेरे' शब्दका प्रयोग किया, यह भी असत्य ही है, अन्यथा ज्ञेय तत्त्वको जाननेवाले ज्ञानी पुरुष तो यह भी नहीं कह सकते। 'मैं' और 'मेरा' यह बुद्धि तथा अहंता-ममताका व्यवहार भी अविद्या ही है। परमार्थ वस्तु तो अनिर्वचनीय है, क्योंकि वह वाणीका विषय नहीं है। केशिध्वजजी! आपने जो इस अविनाशी मोक्षदायक योगका वर्णन किया है, इसके द्वारा मेरे कल्याणके लिये आपने सब कुछ कर दिया। सनन्दनजी कहते हैं- ब्रह्मन् ! तदनन्तर राजा खाण्डिक्यने यथोचितरूपसे महाराज केशिध्वजका पूजन किया और वे उनसे सम्मानित होकर पुनः अपनी राजधानीमें लौट आये। खाण्डिक्य भगवान् विष्णुमें चित्त लगाये हुए योगसिद्धिके लिये विशालापुरी (बदरिकाश्रम)- को चले गये। वहाँ यम-नियम आदि गुणोंसे युक्त हो उन्होंने भगवान्की अनन्यभावसे उपासना की और अन्तमें वे अत्यन्त निर्मल परब्रह्म परमात्मा भगवान् विष्णुमें लीन हो गये। नारदजी ! तुमने आध्यात्मिक आदि तीनों तापोंकी चिकित्साके लिये जो उपाय पूछा था, वह सब मैंने बताया।
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