मुक्ति के लिये भगवान विष्णु के भजन का उपदेश
नारदजीने कहा- हे सर्वज्ञ महामुने ! सबके स्वामी देवदेव भगवान् जनार्दन जिस प्रकार संतुष्ट होते हैं, वह उपाय मुझे बताइये। श्रीसनकजी बोले- नारदजी ! यदि मुक्ति चाहते हो तो सच्चिदानन्दस्वरूप परमदेव भगवान् नारायणका सम्पूर्ण चित्तसे भजन करो। भगवान् विष्णुकी शरण लेनेवाले मनुष्यको शत्रु मार नहीं सकते, ग्रह पीड़ा नहीं दे सकते तथा राक्षस उसकी ओर आँख उठाकर देख नहीं सकते। भगवान् जनार्दनमें जिसकी दृढ़ भक्ति है, उसके सम्पूर्ण श्रेय सिद्ध हो जाते हैं। अतः भक्त पुरुष सबसे बढ़कर है। मनुष्योंके उन्हीं पैरोंको सफल जानना चाहिये, जो भगवान् विष्णुके मन्दिरमें दर्शनके लिये जाते हैं। उन्हीं हाथोंको सफल समझना चाहिये, जो भगवान् विष्णुकी पूजामें तत्पर होते हैं। पुरुषोंके उन्हीं नेत्रोंको पूर्णतः सफल जानना चाहिये, जो भगवान् जनार्दनका दर्शन करते हैं। साधुपुरुषोंने उसी जिह्वाको सफल बताया है, जो निरन्तर हरिनामके जप और कीर्तनमें लगी रहती है। मैं सत्य कहता हूँ, हितकी बात कहता हूँ और बार-बार सम्पूर्ण शास्त्रोंका सार बतलाता हूँ- इस असार संसारमें केवल श्रीहरिकी आराधना ही सत्य है।
यह संसारबन्धन अत्यन्त दृढ़ है और महान् मोहमें डालनेवाला है। भगवद्भक्तिरूपी कुठारसे इस को काटकर अत्यन्त सुखी हो जाओ। वही मन सार्थक है, जो भगवान् विष्णु चिन्तनमें लगता है, तथा वे ही दोनों कान समस्त जगत्के लिये वन्दनीय हैं, जो भगवत्कथाकी सुधाधारासे परिपूर्ण रहते हैं। नारदजी ! जो आनन्दस्वरूप, अक्षर एवं जाग्रत् आदि तीनों अवस्थाओंसे रहित तथा हृदयमें विराजमान हैं, उन्हीं भगवान्का तुम निरन्तर भजन करो। मुनिश्रेष्ठ ! जिनका अन्तःकरण शुद्ध नहीं है-ऐसे लोग भगवान्के स्थान या स्वरूपका न तो वर्णन कर सकते हैं और न दर्शन ही। विप्रवर ! यह स्थावर-जंगमरूप जगत् केवल भावनामय है और बिजलीके समान चञ्चल है। अतः इसकी ओरसे विरक्त होकर भगवान् जनार्दनका भजन करो।जिनमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह विद्यमान हैं, उन्हींपर जगदीश्वर श्रीहरि संतुष्ट होते हैं। जो सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति दयाभाव रखता है और ब्राह्मणोंके आदर-सत्कारमें तत्पर रहता है, उसपर जगदीश्वर भगवान् विष्णु प्रसन्न होते हैं। जो भगवान् और उनके भक्तोंकी कथामें प्रेम रखता है, स्वयं भगवान्की कथा कहता है, साधु-महात्माओंका संग करता है और मनमें अहङ्कार नहीं लाता, उसपर भगवान् विष्णु प्रसन्न रहते हैं। जो भूख-प्यास और लड़खड़ाकर गिरने आदिके अवसरोंपर भी सदा भगवान् विष्णुके नामका उच्चारण करता है, उसपर भगवान् अधोक्षज (विष्णु) प्रसन्न होते हैं। मुने! जो स्त्री पतिको प्राणके समान समझकर उनके आदर-सत्कारमें सदा लगी रहती है,
उसपर प्रसन्न हो जगदीश्वर श्रीहरि उसे अपना परम धाम दे देते हैं। जो ईर्ष्या तथा दोषदृष्टिसे रहित होकर अहङ्कारसे दूर रहते हैं और सदा देवाराधन किया करते हैं, उनपर भगवान् केशव प्रसन्न होते हैं। अतः देवर्षे! सुनो, तुम सदा श्रीहरिका भजन करो। शरीर मृत्युसे जुड़ा हुआ है। जीवन अत्यन्त चञ्चल है। धनपर राजा आदिके द्वारा बराबर बाधा आती रहती है और सम्पत्तियाँ क्षणभरमें नष्ट हो जानेवाली हैं। देवर्षे! क्या तुम नहीं देखते कि आधी आयु तो नींदसे ही नष्ट हो जाती है और कुछ आयु भोजन आदिमें समाप्त हो जाती है। आयुका कुछ भाग बचपनमें, कुछ विषय भोगोंमें और कुछ बुढ़ापेमें व्यर्थ बीत जाता है। फिर तुम धर्मका आचरण कब करोगे? बचपन और बुढ़ापेमें भगवान्की आराधना नहीं हो सकती, अतः अहङ्कार छोड़कर युवावस्थामें ही धर्मोका अनुष्ठान करना चाहिये। मुने! यह शरीर मृत्युका निवासस्थान और आपत्तियोंका सबसे बड़ा अड्डा है। शरीर रोगोंका घर है। यह मल आदिसे सदा दूषित रहता है। फिर मनुष्य इसे सदा रहनेवाला समझकर व्यर्थ पाप क्यों करते हैं। यह संसार असार है। इसमें नाना प्रकारके दुःख भरे हुए हैं। निश्चय ही यह मृत्युसे व्याप्त है, अतः इसपर विश्वास नहीं करना चाहिये। इसलिये विप्रवर! सुनो, मैं यह सत्य कहता हूँ- देह-बन्धनकी निवृत्तिके लिये भगवान् विष्णुकी ही पूजा करनी चाहिये। अभिमान और लोभ त्यागकर काम-क्रोधसे रहित होकर सदा भगवान् विष्णुका भजन करो; क्योंकि मनुष्यजन्म अत्यन्त दुर्लभ है।
सत्तम ! (अधिकांश) जीवोंको कोटि सहस्र जन्मोंतक स्थावर आदि योनियोंमें भटकनेके बाद कभी किसी प्रकार मनुष्य शरीर मिलता है। साधु- शिरोमणे! मनुष्य जन्ममें भी देवाराधनकी बुद्धि, दानकी बुद्धि और योगसाधनाकी बुद्धिका प्राप्त होना मनुष्योंके पूर्वजन्मकी तपस्याका फल है। जो दुर्लभ मानव शरीर पाकर एक बार भी श्रीहरिकी पूजा नहीं करता, उससे बढ़कर मूर्ख, जड़बुद्धि कौन है? दुर्लभ मानव-जन्म पाकर जो भगवान् विष्णुकी पूजा नहीं करते, उन महामूर्ख मनुष्योंमें विवेक कहाँ है? ब्रह्मन् ! जगदीश्वर भगवान् विष्णु आराधना करनेपर मनोवाञ्छित फल देते हैं। फिर संसार-रूप अग्निमें जला हुआ कौन मानव उनकी पूजा नहीं करेगा? मुनिश्रेष्ठ ! विष्णुभक्त चाण्डाल भी भक्तिहीन द्विजसे बढ़कर है। अतः काम, क्रोध आदिको त्यागकर अविनाशी भगवान् नारायणका भजन करना चाहिये। उनके प्रसन्न होनेपर सब संतुष्ट होते हैं; क्योंकि वे भगवान् श्रीहरि ही सबके भीतर विद्यमान हैं। जैसे सम्पूर्ण स्थावर-जङ्गम जगत् आकाशसे व्याप्त हैं, उसी प्रकार इस चराचर विश्वको भगवान् विष्णुने व्याप्त कर रखा है। भगवान् विष्णुके भजनसे जन्म और मृत्यु दोनोंका नाश हो जाता है। ध्यान, स्मरण, पूजन अथवा प्रणाममात्र कर लेनेपर भगवान् जनार्दन जीवके संसारबन्धनको काट देते हैं।
ब्रह्मर्षे! उनके नामका उच्चारण करनेमात्रसे महापातकोंका नाश हो जाता है और उनकी विधिपूर्वक पूजा करके तो मनुष्य मोक्षका भागी होता है। ब्रह्मन् ! यह बड़े आश्चर्यकी बात है, बड़ी अद्भुत बात है और बड़ी विचित्र बात है कि भगवान् विष्णुके नामके रहते हुए भी लोग जन्म-मृत्युरूप संसारमें चक्कर काटते हैं। जबतक इन्द्रियाँ शिथिल नहीं होर्ती और जबतक रोग-व्याधि नहीं सताते, तभीतक भगवान् विष्णुकी आराधना कर लेनी चाहिये। जीव जब माताके गर्भसे निकलता है, तभी मृत्यु उसके साथ हो लेती है। अतः सबको धर्मपालनमें लग जाना चाहिये। अहो! बड़े कष्टकी बात है, बड़े कष्टकी बात है, बड़े कष्टकी बात है कि यह जीव इस शरीरको नाशवान् समझकर भी धर्मका आचरण नहीं करता। नारदजी ! बाँह उठाकर यह सत्य-सत्य और पुनः सत्य बात दुहरायी जाती है कि पाखण्डपूर्ण आचरणका त्याग करके मनुष्य भगवान् वासुदेवकी आराधनामें लग जाय। क्रोध मानसिक संतापका कारण है। क्रोध संसारबन्धनमें डालनेवाला है और क्रोध सब धर्मोका नाश करनेवाला है। अतः क्रोधको छोड़ देना चाहिये। काम इस जन्मका मूल कारण है, काम पाप करानेमें हेतु है
और काम यशका नाश करनेवाला है। अतः कामको भी त्याग देना चाहिये। मात्सर्य समस्त दुःख- समुदायका कारण माना गया है, वह नरकोंका भी साधन है, अतः उसे भी त्याग देना चाहिये। मन ही मनुष्योंके बन्धन और मोक्षका कारण है। अतः मनको परमात्मामें लगाकर सुखी हो जाना चाहिये। अहो! मनुष्योंका धैर्य कितना अद्भुत, कितना विचित्र तथा कितना आश्चर्यजनक है कि जगदीश्वर भगवान् विष्णुके होते हुए भी वे मदसे उन्मत्त होकर उनका भजन नहीं करते हैं। सबका धारण-पोषण करनेवाले जगदीश्वर भगवान् अच्युतकी आराधना किये बिना संसार-सागरमें डूबे हुए मनुष्य कैसे पार जा सकेंगे? अच्युत, अनन्त और गोविन्द इन नामोंके उच्चारणरूप औषधसे सब रोग नष्ट हो जाते हैं। यह मैं सत्य कहता हूँ, सत्य कहता हूँ। जो लोग नारायण ! जगन्नाथ ! वासुदेव ! जनार्दन ! आदि नामोंका नित्य उच्चारण किया करते हैं, वे सर्वत्र वन्दनीय हैं। देवर्षे ! दुष्ट चित्तवाले मनुष्योंकी कितनी भारी मूर्खता है कि वे अपने हृदयमें विराजमान भगवान् विष्णुको नहीं जानते हैं। मुनिश्रेष्ठ ! नारद ! सुनो, मैं बार-बार इस बातको दुहराता हूँ, भगवान् विष्णु श्रद्धालु जनोंपर ही संतुष्ट होते हैं,
अधिक धन और भाई-बन्धुवालोंपर नहीं। इहलोक और परलोकमें सुख चाहनेवाला मनुष्य सदा श्रीहरिकी पूजा करे तथा इहलोक और परलोकमें दुःख चाहनेवाला मनुष्य दूसरोंकी निन्दामें तत्पर रहे। जो देवाधिदेव भगवान् जनार्दनकी भक्तिसे रहित है, ऐसे मनुष्योंके जन्मको धिक्कार है। जिसे सत्पात्रके लिये दान नहीं दिया जाता, उस धनको बारम्बार धिक्कार है। मुनिश्रेष्ठ। जो शरीर भगवान् विष्णुको नमस्कार नहीं करता, उसे पापकी खान समझना चाहिये। जिसने सुपात्रको दान न देकर जो कुछ द्रव्य जोड़ रखा है, वह लोकमें चोरीसे रखे हुए धनकी भाँति निन्दनीय है। संसारी मनुष्य बिजलीके समान चञ्चल धन- सम्पत्तिसे मतवाले हो रहे हैं। वे जीवोंके अज्ञानमय पाशको दूर करनेवाले जगदीश्वर श्रीहरिकी आराधना नहीं करते हैं। दैवी और आसुरी सृष्टिके भेदसे सृष्टि दो प्रकारकी बतायी गयी है। जहाँ भगवान्की भक्ति (और सदाचार) है, वह दैवी सृष्टि है और जो भक्ति (और सदाचार) से हीन है, वह आसुरी सृष्टि है। अतः विप्रवर नारद ! सुनो, भगवान् विष्णुके भजनमें लगे हुए मनुष्य सर्वत्र श्रेष्ठ कहे गये हैं; क्योंकि भक्ति अत्यन्त दुर्लभ है। जो ईर्ष्या और द्वेषसे रहित, ब्राह्मणोंकी रक्षामें तत्पर तथा काम आदि दोषोंसे दूर हैं, उनपर भगवान् विष्णु संतुष्ट होते हैं।
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