मूर्ति-रूप लक्ष्मी आसन कमल और 'ऐरावत उत्पत्ति,Moorti-Roop Lakshmee Aasan Kamal Aur Airaavat Utpatti

मूर्ति-रूप लक्ष्मी आसन कमल और 'ऐरावत उत्पत्ति'

जब भी भगवती लक्ष्मी स्मरण की जाती है तभी नैनों के सामने कमल पर विराजमान माता के दोनों ओर दो सफेद और सुन्दर हाथी अपनी सूंड़ों में स्वर्ण का कलश दबाये हुए अनुपम रूप उभर आते हैं। ये दोनों हाथी भगवती को नित्य ही सूंड में दबाये स्वर्ण कलश से स्नान कराते हैं और अपने भाग्य को संवारते हैं। ये कमल और हाथीं माँ लक्ष्मी के अभिन्न अंग होने से महालक्ष्मी के समस्त गुणों से परिपूर्ण हैं और ये पूर्णता भी जो उनमें विराजमान है वो भी लक्ष्मी जी की लीला ही है। महालक्ष्मी भगवती को अनेकों नामों से सृष्टि काल से सम्बोधित किया गया है क्योंकि महालक्ष्मी ही तो "आदिशक्ति" है जो समस्त शक्तियों को शक्ति प्रदान करती है।आदिकाल में धरती-माता को लक्ष्मी कहा गया है। पुराणों में वर्णित इन शब्दों को देखें:-

समुद्र मेखले देवि पर्वतस्य मंडले।
विष्णु पत्नि नमस्तुभ्यं. पादस्पर्श क्षमत्वने ।।

अर्थात् हे समुद्र की करघनी धारण करने वाली देवी (भूमि) हे पहाड़ों के रूप से सोने वाली विष्णु जी की पत्नी, मैं आपको सौ बार प्रणाम करता हूँ। पांव द्वारा स्पर्श के लिए हमें क्षमा करना। इन शब्दों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि विष्णु जी की पत्नी लक्ष्मी जी और भूमि एक ही है अतः भगवती लक्ष्मी की पूजा एक प्रकार की भूमि पूजा ही है। अगर भूमि लक्ष्मी ना होती है इतने रत्नों के खजाने, इतने खनिजों के भंडार अपने गर्भ में कैसे छिपाये रखती है। आज भी ये संसार धरती के गर्भ से आपार मात्रा में खनिज, द्रव्य, रत्न आदि निकाल कर अपने कार्य सम्पादित कर रहे हैं अतः भूमि को महालक्ष्मी की उपाधि देने का इससे बड़ा और क्या उदाहरण हो सकता है।
अब हमें इस विषय में खोज करनी है कि लक्ष्मी जी के वर्तमान रूप में आने के लिए किस प्रकार के परिवर्तन हुए हैं। आदिकाल में सभी रत्नों की दात्री धरती की ही पूजा होती थी। तत्पश्चात् उसकी उपज कमल की पूजा होने लगी। उधर अदृश्य (प्राकृतिक) शक्तियों से मानव प्रतीक गढ़ने का युग आया तो लक्ष्मी का रूप मूर्ती रूप में परिवर्तन होने के बावजूद भी मूर्ती रूप महालक्ष्मी ने अपने मूल गुणों को नहीं छोड़ा। वे अपने वनस्पती प्रतीक कमल से जुड़ी ही रहीं और कमला कहलाती रहीं। दूसरे रूप में कमल की उत्पत्ति के बारे में वर्णन है कि सागर मंथन के समय लक्ष्मी जी के साथ ही कमल की उत्पत्ति हुई और रत्नों के रूप में ऐरावत हाथी भी निकला जो लक्ष्मी के साथ विराजमान है। किन्तु ऐरावत हाथी के सम्बन्ध में एक और पुराण में वर्णित है जो इस प्रकार हैं-कि ऐरावत का जन्म सूर्य के साथ ही हुआ था। सूर्यदेव जैसे ही ब्रह्माण्ड से निकले वैसे ही ब्रह्म के अन्डे के दोनों अर्धभागों को अपने हाथों में ले लिया। जैसे ही ब्रह्मा जी ने ऐसा किया तो उनके दाहिनें हाथ से ऐरावत हाथी का जन्म हुआ तथा उसके पश्चात् सात और हाथी पैदा हुए। फिर बायीं हथेली से एक साथ ही आठ हथिनियां पैदा हुईं। इस प्रकार से आठ हाथी के जोड़े ब्रह्मा जी के हाथों पैदा होकर आठ दिग्गज कहलाये। यह दिग्गज आठ दिशाओं में प्रहरी के रूप में ब्रह्मा जी के द्वारा नियुक्त किये गये।

लक्ष्मी का वाहन, उलूक और उनकी विशेषता

रौद्र रूप में भगवती महालक्ष्मी का वाहन सिंह है जिन्होंने देवासुर संग्राम में दानवों की सेना को रौंद डाला था चबा डाला था और शांत रूप में इनका वाहन उलूक महापक्षी है। इसकी विशेषता ये है कि इसके शरीर का तापमान वातावरण के साथ घटता बढ़ता नहीं है। अतः शान्त स्वभाव वाली महारानी लक्ष्मी जी ने इस समतापी पक्षी का वाहन कबूल किया।
इस पक्षी की तंत्र शास्त्र में भी बहुत ही महानता है। इनके द्वारा ही मारण, वशीकरण और उच्चाटन जैसी सिद्धियां प्राप्त की जाती हैं। अतः इन्हें एक 'विशिष्ट पक्षी माना गया है। तंत्रशास्त्र के अनुसार "उलूक" की विशेषताः-
  • यदि प्रातः काल पूर्व दिशा की ओर हरे-भरे वृक्ष पर बैठकर उलूक बोलता है तो सुनने वाले को धन लक्ष्मी प्राप्त होती है यदि उसी क्षण पश्चिम दिशा की ओर सूखे वृक्ष पर आवाज दे रहा है तो सुनने वाले को धन की हानि होती है।
  • यदि किसी के निवास स्थान के पास लगातार कई दिन बैठ-बैठ कर बोलता हो तो चोरी की सम्भावना और धन हानि होती है।
  • यदि रात के समय उल्लू की आवाज आती हो तो धन-जन की वृद्धि होती है।
  • वक्त रात्रि का हो और बिना कुछ आवाज लगाये उल्लू आपके बिस्तर पे आकर बैठ जाये तो समझें कि आपका भाग्य उदय हो चुका है। 5. प्रभात के समय यदि उल्लू के अंग से अंग स्पर्श हो जाये तो मन का मनोरथ पूरा हो जाता है। 
  • यदि बीमारी के बिस्तर पे उल्लू उसके साथ ही बिना बोलते ही बैठा हुआ हो तो रोगी निरोग हो जाता है।
  • इन विविध विशेषताओं के कारण ही शायद भगवती महालक्ष्मी ने इनका वाहन चुना होगा।

प्रकृति और सृष्टि की देवी महालक्ष्मी

ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृति खंड में नारायण मुनी से नारद जी से पूछा है कि हे महामुनी। ये महालक्ष्मी किसके द्वारा उत्पन्न होती है, इसका रूप और लक्षण क्या है और ये कब किस रूप में कहाँ अवतरित होती है, इनका क्या वृतांत है? तब नारायण मुनि ने नारद की शंका का निवारण करते हुए कहा कि हे मुनि श्रेष्ठ यद्यपि महालक्ष्मी प्रकृतियों का लक्ष्ण समझाने में मैं भी पूरी तरह से असमर्थ हूँ किन्तु फिर भी जो कुछ मैंने धर्म मुख से सूना है मैं तुम्हें बताता हूँ। वस्तुतः "प्र" का अर्थ श्रेष्ठ और "कृति" का अर्थ है

सृष्टि अर्थात् यह देवी जो प्रकट गुण वाली है और सृष्टि करने में समर्थ है वह "प्रकृति" कहलाती है और उन्हीं का नाम "महालक्ष्मी" है। वेदों में "प्र" शब्द का अर्थ सत्व गुण बताया है, "कृति" का रजोगुण और "ति" का तमोगुण इस प्रकार यह प्रकृति रूपी महालक्ष्मी सतरंजतम गुण है। अतः सृष्टि की देवी को ही "प्रकृति" महालक्ष्मी कहा जाता है। प्रारम्भ काल में ब्रह्मा ने अपने दो रूपों को प्रकट किया। दाहिने अंग से पुरुष और बायें अंग से प्रकृति। इसलिए योगी पुरुष स्त्री और पुरुष में भेद नहीं मानते हैं। ये स्वेच्छा से ही एक रूप में गणेश की माँ पार्वती और विष्णु की प्रिया बनी हैं।

यह ब्रह्म स्वरूप वाली नारायण महालक्ष्मी सभी देवताओं मुनियों द्वारा पूजी जाती हैं। यश, मंगल, वैभव, पुण्य मोक्ष आदि देने वाली और दुख का नाश करने वाली है। शक्ति रूपा तेज की देवी यह महालक्ष्मी सिद्धियों की अधिश्वरी है। परम तेज स्वरूपा यह महालक्ष्मी अपने शरणागतों का उद्धार करती है। बुद्धि, निद्रा, भूख, प्यास, छाया, दया, स्मृति, कांती भांती, चेतना, लक्ष्मी, बुद्धि और माता से प्रसिद्ध सभी देवियाँ महालक्ष्मी शक्ति स्वरूपा "प्रकृति" हैं। लक्ष्मी परमात्मा विष्णु की शक्ति सम्पत्ति की अधिष्ठेत्री देवी है। भगवान की प्रिया और प्राणतुत्य हैं। यह अन्मयी क्षोभ, मोह, काम आदि

बुराइयों से दूर है। जीवन से रक्षा करने वाली पति सेवा में लीन स्वर्ग लक्ष्मी कहलाती है. राजाओं के यहाँ लक्ष्मी और घरों में गृह लक्ष्मी कहलाती है। मनोहर आभा वाली ये भगवती विद्युत के समान चंचल, भक्तों की रक्षा करने वाली, सब ही देवों द्वारा पूज्य. हैं।

टिप्पणियाँ