महावीर हनुमान - रूप एक-गुण अनेक,Mahavir Hanuman - Roop Ek-Gun Anek

महावीर हनुमान - रूप एक-गुण अनेक

महावीर हनुमान ने भगवान् श्री राम के आदर्श रामराज्यकी स्थापनामें जो सहयोग दिया, वह शतकोटि रामायणोंमें स्वर्णाक्षरोंसे अङ्कित है। पवन कुमार का सर्वोच्च आदर्श था-सच्चे अर्थमें सेवक बनना और उसी आदर्शक लिये उन्होंने अपना तन-मन-सर्वस्व श्रीरामके चरणोंमें समर्पित कर दिया। लंकाधिपति रावणद्वारा अपहृत श्री जानकी जी को पुनः प्राप्त करनेमें उन्होंने अपने बहुविध गुणोंका जो परिचय दिया, उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए स्वयं श्री रामने कहा- 'तुम्ह प्रिय मोहि भरत जिमि भाई'। भला सच्चे सेवकको इससे अधिक और चाहिये भी क्या ?
भारत की सीता स्वरूप भाग्य लक्ष्मी आज समुद्रपार उठायी जा रही है; भारतस्थित अनेकविध आसुरी बल-सुबाहु, मारीच, ताड़का और शूर्पणखाका साक्षात् रूप धारण करके उस सीताको उड़ा ले जानेमें सहयोग प्रदान कर रहे हैं। ऐसे विकट एवं कराल समयमें श्रीमहावीरकी आवश्यकता है।


वैसे तो श्रीहनुमानजी स्वयं भगवान् श्रीशंकरके अवतार होनेसे गुणोंके साक्षात् स्वरूप ही थे, किंतु उनका यह अवतार तो सेवकके रूपमें ही हुआ था। उनके सम्पूर्ण गुणोंका वर्णन होना तो असम्भव है, तथापि सेवकोचित निम्नाङ्कित गुणोंका हम यहाँ यत्किंचित् वर्णन करेंगे, जो मानव जातिके लिये अनुकरणीय हैं। ये गुण हैं-
  • स्वामिभक्ति (भगवद्भक्ति), 
  • अपूर्व त्याग, 
  • ज्ञानकी पूर्णता, 
  • निरभिमानिता एवं 
  • अद्भुत चातुर्य।
  • स्वामिभक्ति (भगवद्भक्ति)
श्री हनुमान जी नवधा भक्तिके प्रकारमें सातवीं दास्य- भक्तिके आचार्य माने जाते हैं। स्वामीका आज्ञापालन ही सेवक का परम धर्म है। वैसे तो श्रीहनुमानजी अवधकी बाल-लीलासे ही भगवान् श्रीरामके सच्चे सेवक थे, किंतु उनका विशेष परिचय हमें तब मिलता है, जब श्रीसीताजीके वियोगमें भगवान् श्रीराम और लक्ष्मण ऋष्यमूकपर्वतके निकट आते हैं। इधर अपने भाई वालीके भयके कारण सुग्रीव पर्वतके ऊपर अपने अनुचरोंके साथ निवास करते थे। उन्होंने इन अज्ञात वीर पुरुषोंको पहचाननेके लिये श्रीहनुमानजीको भेजा और वे ब्राह्मण वटुका रूप बनाकर वहाँ गये भी- 'बिप्र रूप धरि कपि तहँ गयऊ।' 
श्री राम-लक्ष्मण के श्याम-गौर शरीर, मनोहर मुखाकृति और सौम्य स्वरूप से प्रभावित होकर श्री महावीर ने श्री राम के चरणोंमें प्रणाम किया और उनका परिचय पूछा। अपना संक्षिप्त परिचय देते हुए श्रीरामने कहा- 'हम दोनों भाई अवध-नरेश श्रीदशरथजीके पुत्र हैं। मेरा नाम राम है और ये मेरे अनुज लक्ष्मण हैं। सीतादेवीके साथ हमलोग वनमें आये थे; दुर्भाग्यवश कोई राक्षस जनक-नन्दिनीका अपहरण कर लिया। उसीकी खोजमें हम दोनों वन-वनमें फिर रहे हैं।' इन वचनोंको सुनकर श्रीहनुमानजीकी जो दशा हुई, उसका वर्णन जड लेखनी कैसे कर सकती है? माता अञ्जनादेवीके मुखसे उन्होंने श्रीरामका वर्णन सुना था और उसी सीता हरणके प्रसङ्गकी मानो यहाँ पुनरावृत्ति हो रही थी। श्रीशंकरजीने जिनके बालस्वरूपका दर्शन भी करा दिया था, उन्हीं प्रभु श्रीरामको आज किशोरावस्थामें सम्मुख खड़े देखकर भी हनुमानके नेत्रोंसे प्रेमाश्रु बहने लगे। अपने आराध्यदेवके दर्शन करके वे अपना वास्तविक रूप छिपा न सके। प्रभु-चरणोंको पाकर भला बाह्याडम्बर कहाँतक टिक सकता है? उन्होंने अपना वास्तविक रूप प्रकट कर दिया और श्रीरामके चरणोंमें दण्डवत् प्रणाम किया। बाल-सखा एवं अनन्य भक्तको भगवान्ने अपने हृदयसे लगा लिया। भक्त और भगवान्‌के इस मिलनका भला कौन वर्णन कर सकता है? फिर क्या था ? सुग्रीवके साथ मैत्री हुई और वालीका वध हुआ तथा श्री सीता जी की खोजके लिये श्री हनुमान जी का वरण हुआ। समुद्रोल्लङ्घनकर वे लंका पहुँचे और श्रीसीताजीको मुद्रिका प्रदान कर वापस लौटे। स्वामीकी आज्ञाका पालन ही सेवकका एकमात्र धर्म होता है। लंका प्रवेश, लक्ष्मण मूर्च्छा, रावण-वध और उसके बाद अयोध्या-लीलामें भी हमें श्रीमहावीरकी अनन्य भक्तिका दर्शन होता है। ऐसा भक्त तो स्वयं भगवान्‌को भी सुखदायी होता है। यही कारण है कि हम आज भी श्रीराम पञ्चायतनमें श्रीमहावीरके दर्शन करते हैं। इतना ही नहीं, हमें गाँव-गाँवमें छोटे-मोटे रूपमें प्रतिष्ठित श्रीहनुमानजीके दर्शन होते हैं।

अपूर्व त्याग

लेखक अपने सर्वस्वका त्याग तो कर सकता है, किंतु अपने लिखे हुए एक अक्षरका भी त्याग उसके लिये कठिन होता है। अक्षर ही उसकी आत्मा होती है। बड़े-से-बड़े संत-महात्मा, ज्ञानी और त्यागीको भी इस लोकैषणाके ऊपर विजय पाना बड़ा ही कठिन है।
किंतु हमारे नायक श्रीमहावीरके एक ऐसे त्यागकी भी एक छोटी-सी झलक देखनेयोग्य है। वैसे तो श्रीहनुमानजीने श्रीरामके चरणोंमें अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया था; स्वयं बाबा भोलेनाथके अवतार होनेके कारण वे वितृष्ण एवं वीतराग तो थे ही, किंतु लोकैषणाका त्याग करके उन्होंने अपने जीवन मन्दिरके ऊपर स्वर्ण-कलश चढ़ा दिया। वह प्रसङ्ग इस प्रकार है-
जगज्जन नी श्री सीता जी के त्यागके पश्चात् भगवान् श्री राम कुछ उदास एवं एकान्तप्रिय बन गये थे। स्वामी की उदासीनता भला श्रीहनुमान जैसे एकनिष्ठ संत कैसे सहन कर सकते थे? अतः श्रीपवनकुमार प्रभु सेवासे अवकाश पाकर एक समीपस्थ पर्वतके ऊपर बैठकर श्रीराम-स्मरण करने लगे। बाल-लीलासे लेकर उस समयतककी सभी लीलाएँ वे स्फटिक शिलाओंके ऊपर अपने वज्रनखसे देववाणीमें काव्यबद्ध करते हुए उत्कीर्ण करने लगे। थोड़े समयमें सम्पूर्ण श्रीरामचरितमय महाकाव्य तैयार हो गया। जब इस बातकी सूचना महर्षि वाल्मीकिजीको लगी, तब वे उस पर्वतपर पधारे। श्रीमहावीरने महर्षिको नमस्कार करके उनके सामने अपनी रचना रख दी, जिसे देखकर वे मुग्ध हो गये। साथ ही साथ उनके हृदयमें यह भी विचार आया कि 'यदि यह श्रीरामचरित्र लोकप्रसिद्ध हो जायगा तो फिर मेरी रामायणको कोई देखना भी नहीं चाहेगा। मेरी कृति इस महाचरितके आगे फीकी पड़ जायगी।' इसी विचार-सागरमें महर्षिजी डूबने-उतराने लगे।
'पूज्यवर !' अकस्मात् श्रीमारुतिकी आवाज सुनकर महर्षिजी जाग उठे। महावीरने प्रश्न किया-' आप उदास क्यों हो गये? क्या मेरी रचनामें कोई भूल रह गयी है?' 'नहीं, नहीं वत्स!' वाल्मीकिजी बोले-'आपकी रचना अत्यन्त उच्च कोटि की है, इसमें तो कोई संदेह ही नहीं है; किंतु...יו 'आप शीघ्र कहिये, महर्षिजी!' श्रीहनुमानके स्वरमें पूज्य-भावना और अपनी भूल सुधारनेकी तत्परता थी। 'आप प्रथम मुझे वचन दीजिये, फिर मैं कहूँगा।' श्रीवाल्मीकिजी बोले-'आप इसे वरदान भी कह सकते हैं।' 'मैं तो आपका तुच्छ दास हूँ।' महावीरने कहा-
'आप आज्ञा दीजिये; मैं उसका अवश्य पालन करूँगा।' 'महाबली!' वाल्मीकि बोले-'आपके रामचरितका विश्वमें प्रचार होनेके पश्चात् मेरी रामायणको कोई भी नहीं पूछेगा।' 'समझ गया, ऋषिवर!' महोदार चरित्रवान् महावीरने हँसते हुए कहा- 'इतनी छोटी-सी बातको आपने इतना महत्त्व दिया! आप शीघ्र ही मेरे साथ पधारिये। इन उत्कीर्ण-शिलाओंको भी मैं अपने साथ लिये लेता हूँ।'- यह कहकर अपने एक कंधेपर महर्षिको तथा दूसरेपर उन सभी शिलाओंको लेकर पवनकुमार समुद्रतटपर पहुँचे और मध्य समुद्रमें जाकर महर्षिके देखते-देखते उन सभी शिलाओंको 'श्री रामार्पण मस्तु!' कहकर उन्होंने समुद्रमें फेंक दिया।
पलक मारते-मारते यह सब हो गया, जो वाल्मीकिजीकी कल्पनामें भी न था। बड़ा पश्चात्ताप हुआ ऋषिवरको। उन्हें लगा कि इन शिलाओंके बदले यदि कपिराजने मुझे फेंक दिया होता तो उत्तम होता ! मैंने इन परम त्यागी महावीरजी के साथ बड़ा ही अन्याय कर दिया, किंतु 'समय चुकें पुनि का पछिताने।' (मानस १। २६१।२) अपने स्थानपर आकर श्रीहनुमानने महर्षिके चरणोंमें प्रणाम किया और कहा- "यह कार्य तो मैंने यों ही समय-यापनके लिये किया था- 'येन केन प्रकारेण रामे बुद्धिं निवेशयेत्।' इसके सिवा इसमें मेरा अन्य कोई उद्देश्य नहीं था।'
महामना मारुतिके हृदयमें न दुःख था न पश्चात्ताप। महान् परिश्रमसे और जीवनके विप्रयोगके अमूल्य अवसरमें की हुई रचनाको उन्होंने महर्षिके संतोषके लिये समुद्रके अर्पण कर दिया।'धन्य श्रीरामके अनन्य सेवक ! धन्य जितेन्द्रिय ! धन्य पवनकुमार !' महर्षि वाल्मीकिको आज समग्र शब्दकोशके विशेषण अल्प मालूम होते थे। उनके नेत्रोंसे अविच्छिन्न अश्रुप्रवाह बह रहा था। वे बोले-" आपका तो समग्र जीवन ही भगवान् श्रीरामकी यशोगाथा रूप ही है। महावीर! आप अमर हैं। मैं आज प्रतिज्ञा करता हूँ कि आपके संतोष एवं तृप्तिके लिये मैं दूसरा जन्म धारण कर आपका ही अनन्य उपासक 'तुलसी' बनकर आपके ही अनुग्रहसे इस 'महानाटक' ग्रन्थके आधारपर सर्वजनहिताय 'रामचरितमानस' नामक अपूर्व ग्रन्थकी रचना करूँगा और अपने उस जीवन पर्यन्त आपका उपासक बना रहूँगा।" इस प्रकार कहकर श्रीवाल्मीकि जी अपने आश्रमको पधारे।
आजके युगमें 'सेवक' शब्द सस्ता बन गया है। जनताका गला भी उसका सेवक बनकर ही घोटा जाता है। किंतु सेवा-धर्म तो परम गहन है। उसका मूलमन्त्र है-आदर्श त्याग, तप और कठोर धर्माचरण। वातानुकूलित प्रासादोंमें बैठकर, विशाल अट्टालिकाओंमें रहकर 'सेवक' बनना तो 'सेवक' शब्दका अपमान ही करना है। वस्तुतः तन, मन, धन, यश एवं मानका त्याग करनेके बाद ही सच्ची सेवाका अधिकार प्राप्त होता है। श्रीमहावीरके आदर्श त्यागके उदाहरण रामायणमें भरे पड़े हैं।

ज्ञानकी पूर्णता

श्रीहनुमान जैसे 'अतुलितबलधाम' हैं, वैसे ही वे ज्ञानके भी साक्षात् स्वरूप हैं। श्री राम के मिलन प्रसङ्गके समय श्री हनुमान जी के गुणों का परिचय कराते हुए स्वयं श्रीरामजी लक्ष्मणसे कहते हैं कि "श्रीहनुमानजी 'त्रयी' के ज्ञाता और सम्पूर्ण व्याकरणको जाननेवाले हैं।" आध्यात्मिक ज्ञानके तो वे मूर्तिमान् स्वरूप ही थे। अन्य रामायणोंसे ज्ञात होता है कि ऋषियोंकी विशाल सभामें उन्होंने ब्रह्मज्ञानका उपदेश भी दिया था। उनका ज्ञान केवल मौखिक आडम्बरमात्र नहीं था, वह आचरणद्वारा भी प्रत्यक्ष होता था। एक बारका प्रसङ्ग है कि जब श्रीयुगल-सरकार अपने भवनमें विराज मान थे, उसी समय मारुतिजीने आकर उन्हें प्रणाम किया। श्रीरामने विनोदार्थ उनसे प्रश्न किया 'कस्त्वम् ? तुम कौन हो ?' तुरंत ही हनुमानजीने हाथ जोड़कर उत्तर दिया

देहदृष्ट्या तु दासोऽस्मि जीवदृष्ट्या त्वदंशकः । 
वस्तुतस्तु त्वमेवाहमिति मे निश्चिता मतिः ॥

'प्रभो ! देहदृष्टिसे तो मैं आपका दास हूँ, जीवदृष्टिके विचारसे आपका अंश हूँ और तत्त्वदृष्टिसे देखनेपर वस्तुतः जो आप हैं, वही मैं हूँ ऐसी मेरी निश्चित धारणा है।' क्यों न हो, जो ब्रह्मविद्यास्वरू पिणी श्री जनकनन्दिनी का कृपा पात्र हैं और जो ज्ञानस्वरूप सदाशिवके अवतार हैं, वे ही 'ज्ञानिनामग्रगण्यम्' भी हैं। 

निरभिमानित्व 

'अभिमानं सुरापानम्' कहकर शास्त्रकारोंने अभिमानको सुरापानके समान त्याज्य माना है। श्रीहनुमानजीमें लेशमात्र भी अभिमान नहीं था। निरभिमानित्व भक्तिके मार्गमें भूषण स्वरूप है- 'भक्तानां दैन्यमेवोक्तं हरितोषणकारणम्। भक्तोंकी दीनता ही भगवत्संतोषका कारण कही गयी है।' लंका दहनके पश्चात् वहाँसे वापस आनेपर श्री राम ने पवनकुमारकी प्रशंसा करते हुए उनसे पूछा-

कहु कपि रावन पालित लंका। केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका ॥
नाधि सिंधु हाटकपुर जारा। निसिचर गन बधि विपिन उजारा ॥

भला, अपने स्वामीद्वारा की हुई प्रशंसा निरभिमान सेवक श्रीमारुतिको कैसे अच्छी लगती ? अपनी प्रशंसाका श्रवण ही तो अभिमान उत्पन्न करा देता है। अतः श्रीहनुमानजीने उत्तर दिया-

'सो सब तव प्रताप रघुराई। 
नाथ न कछू मोरि प्रभुताई ॥'

यदि यहाँ कोई स्वार्थी सेवक होता तो वह स्वयं भी उसीके साथ-साथ अपनी प्रशंसाके गीत गाने लगता। किंतु श्रीहनुमानजी तो जानते ही थे कि 'इन्द्रोऽपि लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गुणैः। स्वयं (प्रशंसा सुननेसे या) अपने ही मुखसे अपनी प्रशंसा करनेसे तो स्वर्गाधिपति इन्द्र भी लघुताको प्राप्त हो जाते हैं।' अतः वे बोले-

ता कहुँ प्रभु कच्छु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल। 
तव प्रभावँ बड़वानलहि जारि सकड़ खलु तूल ॥

हनुमान जी के इसी निरभिमानित्व-महागुणको देखकर स्वयं भगवान् श्रीराम बोल उठे- 'कपिवर ! तुम्हारे किये हुए अनेक उपकारोंमेंसे एक-एक उपकारके बदले यदि मैं अपना प्राण अर्पण कर दूँ तो भी अन्य उपकारोंका ऋण तो मेरे जिम्मे रह ही जाता है। अतः तुम्हारे ऋणसे मैं किसी प्रकार उऋण नहीं हो सकता।' यही तो उनके जीवनकी कृतार्थता है कि साक्षात् श्रीराम उनके ऋणी हैं।

अद्भुत चातुर्य

जिस बड़‌भागी भक्तके ऊपर भगवान्‌की कृपा होती है, उसे वे अपने सद्‌गुणोंका दान देते हैं। भगवान् श्रीराम चतुरशिरोमणि हैं तो उनके अनन्य भक्त श्रीमहावीर भी चतुरशिरोमणि क्यों न हों? ऐसी कथा प्रचलित है कि एक समय कपिवर श्री हनुमान की प्रशंसाके आनन्द में निमग्र श्री राम जी ने श्री सीता जी से कहा- 'महादेवी ! लंका विजयमें यदि मारुतिका सहयोग न प्राप्त हुआ होता तो आज भी मैं सीता वियोगी ही बना रहता।' 'आर्यपुत्र!' श्रीसीताने प्रश्न किया- 'आप बार-बार कपिवर हनुमानकी प्रशंसा करते रहते हैं'- कभी उनके बल-शौर्यकी, कभी उनके ज्ञानकी, कभी उनके चातुर्यकी; अतः आज आप एक ऐसा प्रसङ्ग सुनाइये, जिस में उनका चातुर्य लंका-विजयमें विशेष सहायभूत रहा हो।' 'ठीक याद दिलाया तुमने।' श्रीराम बोले- "वैसे तो युद्धसे रावण थक चुका था। अनेक सुभटोंका श्रीहनुमानजीद्वारा वध भी हो चुका था। अब युद्धमें विजय प्राप्त करनेका उसने अन्तिम उपाय सोचा। यह था-देवीको प्रसन्न करनेके निमित्त सम्पुटित मन्त्रद्वारा चण्डी महायज्ञ। अब यज्ञ प्रारम्भ हो गया। किंतु हमारे चतुरशिरोमणि मारुतिके मनमें चैन कहाँ? यदि यज्ञ पूर्ण हो जाता और रावणको देवीका वरदान मिल जाता तो उसकी विजय निश्चित थी। बस, तुरंत कपिवरने ब्राह्मणका रूप धारण करके रावणके यज्ञमें सम्मिलित ब्राह्मणोंकी सेवा करना प्रारम्भ कर दिया। ऐसी निस्स्वार्थ सेवा देखकर ब्राह्मणोंने कहा- 'विप्रवर! आपकी इस सेवासे हम संतुष्ट हैं। आप हमलोगोंसे कोई वरदान माँग लें। "पहले तो महावीरने कुछ भी माँगनेसे इनकार कर दिया; किंतु सेवासे संतुष्ट ब्राह्मणदेवोंका आग्रह देखकर उन्होंने एक वरदान माँग लिया।"
'वरदानमें क्या माँगा महावीरने ?' सीताजीके प्रश्नमें उत्सुकता थी; 'शीघ्र बतलाइये, नाथ ! 'उनकी उसी वर-याचनामें ही तो चातुर्य है कपिराजका!' श्रीराम बोले- "जिस मन्त्रके सम्पुटीकरणसे हवन किया जा रहा था, उसी मन्त्रके एक अक्षरका परिवर्तन महावीरने वरदानमें माँग लिया और बेचारे भोले ब्राह्मणोंने 'तथास्तु' कह दिया। उसीके कारण मन्त्रमें अर्थान्तर हो गया, जिससे रावणका घोर विनाश हुआ। 'एक ही अक्षरमें इतना अर्थ-परिवर्तन ?' सीताजीने प्रश्न किया- 'कौन-सा मन्त्र था वह?'

श्रीरामने उत्तर दिया "वह मन्त्र इस प्रकार है"- 

जय त्वं देवि चामुण्डे जय भूतार्तिहारिणि । 
जय सर्वगते देवि कालरात्रि नमोऽस्तु ते ॥

"इस श्लोकमें 'भूतार्तिहारिणि' में 'ह' के स्थानपर 'क' उच्चारण करनेका श्रीहनुमानजीने वर माँगा। ब्राह्मणोंने वैसा ही किया। 'भूतार्तिहारिणि' का अर्थ 'सम्पूर्ण है- प्राणियोंकी पीड़ा हरनेवाली' और 'भूतार्तिकारिणि' का अर्थ है-प्राणियोंको पीड़ित करनेवाली।' इस प्रकार एक अक्षरके विपर्ययसे रावणका सर्वस्व नाश हो गया। "रावणको यज्ञकी पूर्णाहुतिके बाद जब यह ज्ञात हुआ तो उसने अपने दसों मुखों से श्री हनुमान जी की प्रशंसा की।" "ऐसे चतुरशिरोमणि हैं हमारे हनुमन्तलाल"- श्रीरामने प्रसङ्गको पूर्ण किया। श्री सीता जी यह सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुईं।
वैसे तो हनुमान जी के अतुलित बल-वीर्य, भाव- भक्ति, सेवापरायणता, कार्यतत्परता आदि अनेक गुण रामायणादि ग्रन्थोंमें वर्णित हैं ही। आज हमारे भारतकी संस्कृति-सुषमा, ज्ञान-लक्ष्मी एवं राज्यश्रीरूपी सीता विदेशी सभ्यता-संस्कृतिद्वारा पराभूत की जा रही है और हमलोग मूच्छित बने बैठे हैं। अतः हमें आज श्रीहनुमानजीकी आवश्यकता है; ऐसे हनुमानजीकी, जो श्रीराम-भक्त, ज्ञानी, त्यागी, चरित्रसम्पन्न एवं चातुर्यशील हों।

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