भगवान श्री कृष्ण की मथुरा-यात्रा, कंस वध,Lord Shri Krishna Kee Mathura-Yaatra, Kans Vadh

भगवान श्री कृष्ण की मथुरा-यात्रा, कंस वध 

महादेव जी कहते हैं- पार्वती! तदनन्तर एक दिन मुनिश्रेष्ठ नारद जी मथुरा में कंस के पास गये। राजा कंस ने उनका यथावत् सत्कार किया और उन्हें सुन्दर आसनपर बिठाया। नारदजीने कंससे भगवान् विष्णुको सारी चेष्टाएँ कहीं। देवताओं का उद्योग करना, भगवान् केशव का अवतार लेना, वसुदेव का अपने पुत्रको व्रजमें रख आना, राक्षसों का मारा जाना, नागराज कालिय का यमुनाके कुण्डसे बाहर निकाला जाना, गोवर्धन धारण करना और इन्द्रका भगवान्से मिलना आदि सभी मुख्य मुख्य घटनाओंको उन्होंने कंससे निवेदन किया। यह सब सुनकर राक्षस कंसने नारदजीका बड़ा आदर किया। उसके बाद वे ब्रह्मलोकमें चल गये। इधर कंसके मनमें बड़ा उद्वेग हुआ। वह मन्त्रियोंके साथ बैठकर मृत्युसे बचनेके विषयमें परामर्श करने लगा। उसके मन्त्रियों में अक्रूर सबसे अधिक बुद्धिमान् और धर्मानुरागी थे। महाबली दानवराज कंसने अक्रूरको आज्ञा दी।


कंस बोला - यदुश्रेष्ठ ! इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता मेरे भयसे पीड़ित हो श्री विष्णु की शरण में गये थे। भूतभावन भगवान् मधुसूदन उन देवताओंको अभयदान दे मुझे मारनेके लिये देवकीके गर्भसे उत्पन्न हुए हैं। वसुदेव भी ऐसा दुष्टात्मा है कि मुझे धोखा देकर रातमें वह अपने पुत्रको दुरात्मा नन्दके घरमें रख आया। वह बालक बचपनसे ही ऐसा दुर्धर्ष है कि बड़े-बड़े असुर उसके हाथसे मारे गये। यदि ऐसी ही उसकी प्रगति रही तो एक दिन वह मुझे भी मारनेके लिये तैयार हो जायगा। इसमें सन्देह नहीं कि व्रजमें उसे इन्द्र आदि देवता तथा समस्त असुर भी नहीं मार सकते; अतः मुझे उसको यहाँ बुलवाकर किसी विशेष उपायसे ही मारना चाहिये। मतवाले हाथी, बड़े-बड़े पहलवान तथा श्रेष्ठ घोड़े आदिसे उसका वध कराना चाहिये। जिस किसी उपायसे सम्भव हो, उसे यहीं बुलाकर मारा जा सकता है, अन्यत्र नहीं। इसलिये तुम गौओंके व्रजमें जाकर बलराम, श्रीकृष्ण तथा नन्द आदि सम्पूर्ण ग्वालोंको धनुष-यज्ञका मेला देखनेके बहाने यहाँ बुला ले आओ।'

'बहुत अच्छा' कहकर परम पराक्रमी यदुश्रेष्ठ अक्रूर रथपर आरूढ़ हुए और भगवान् श्रीकृष्णके दर्शनके लिये उत्सुक होकर गौओंके रमणीय व्रजमें गये। अक्रूरजी महान् भगवद्भक्तोंमें श्रेष्ठ थे। उन्होंने अत्यन्त विनीत भावसे गौओंके बीचमें खड़े हुए भगवान् श्रीकृष्णका दर्शन किया। गोप-कन्याओंसे घिरे हुए श्रीहरिको देखकर अक्रूरजीका सारा शरीर रोमाञ्चित हो उठा। उनके नेत्रोंमें आनन्दके आँसू भर आये। उन्होंने रथसे उतरकर श्रीकृष्णको प्रणाम किया। वे बड़े हर्षके साथ भगवान् गोपालके समीप गये और वज्र तथा चक्र आदि चिह्नोंसे सुशोभित लाल कमलसदृश उनके मनोहर चरणोंमें मस्तक रखकर उन्होंने बारंबार नमस्कार किया। तत्पश्चात् उनकी दृष्टि कैलासशिखरके समान गौरवर्णवाले नीलाम्बरधारी बलरामजीपर पड़ी, जो मोतियोंकी मालासे विभूषित होकर शरत्कालके पूर्ण चन्द्रमाकी भाँति शोभा पा रहे थे। अक्रूरजीने उनको भी प्रणाम किया। दोनों वीर बलराम और श्रीकृष्णने भी बड़े हर्षके साथ उठकर यदुश्रेष्ठ अक्रूरका पूजन किया और उनको साथ लेकर वे दोनों भाई घरपर आये। यदुश्रेष्ठ अक्रूरको आया देख महातेजस्वी नन्दगोपने निकट जाकर उन्हें श्रेष्ठ आसनपर बिठाया और बड़ी प्रसन्नताके साथ विधिपूर्वक अर्घ्य, पाद्य, वस्त्र तथा दिव्य आभूषण आदि निवेदन करके भक्तिभावसे उनका पूजन किया। अक्रूरजीने भी बलराम, श्रीकृष्ण, नन्दजी तथा यशोदाको वस्त्र और आभूषण भेंट किये। फिर कुशल पूछकर शान्तभावसे वे कुशके आसनपर विराजमान हुए। तत्पश्चात् राजकार्यके विषयमें प्रश्न होनेपर बुद्धिमान् अक्रूरने इस प्रकार कहना आरम्भ किया।

अक्रूर बोले- नन्दरायजी ! ये महातेजस्वी श्रीकृष्ण साक्षात् अविनाशी भगवान् नारायण है। देवताओंका हित, साधु पुरुषोंकी रक्षा, पृथ्वीके भारका नाश, धर्मकी स्थापना तथा कंस आदि सम्पूर्ण दैत्योंका नाश करनेके लिये इनका अवतार हुआ है। उक्त कार्योंक लिये समस्त देवताओं तथा महात्मा मुनियोंने इनसे प्रार्थना की थी। उसीके अनुसार ये वर्षाकालमें आधी रातके समय देवकीके गर्भसे प्रकट हुए। उस समय वसुदेवजीने कंसके भयसे रातमें ही अपने पुत्र भगवान् श्रीहरिको तुम्हारे घरमें पहुँचा दिया। उसी समय यशस्विनी यशोदाको भी मायाके अंशसे एक सुन्दरी कन्या उत्पन्न हुई थी। उसीने सम्पूर्ण व्रजको नींदमें बेसुध कर दिया था। यशोदाजी भी मूर्छितावस्थामें पड़ी थीं। वसुदेवजीने श्रीकृष्णको तो यशोदाकी शय्यापर सुला दिया और स्वयं उस कन्याको लेकर वे मथुराकी ओर चल दिये। कन्याको देवकीकी शय्यापर रखकर ये प्रसवधरसे बाहर निकल गये। देवकीकी शय्यापर सोयी हुई कन्या शीघ्र ही रोने लगी। उसका जन्म सुनकर दानव कंस सहसा आ पहुँचा और उसने कन्याको लेकर घुमाते हुए पत्थरपर पटक दिया। परन्तु वह कन्या आकाशमें उड़ गयी और आठ भुजाओंसे युक्त हो गम्भीर वाणीमें कंससे रोषपूर्वक बोली- 'ओ नीच दानव ! जिनका कहीं अन्त नहीं है, जो सम्पूर्ण देवताओंके ईश्वर और पुरुषोत्तम हैं, वे तुम्हारा वध करनेके लिये व्रजमें जन्म ले चुके हैं।' यों कहकर महामाया हिमालय पर्वतपर चली गयी। तभीसे वह दुष्टात्मा भयसे उद्विग्न हो गया और महात्मा श्रीकृष्णको मारनेके लिये एक-एक करके दानवोंको भेजने लगा। बालक होनेपर भी बुद्धिमान् श्रीकृष्णने खेल-खेलमें ही सब दानवोंको मौतके घाट उतार दिया है। इन परमेश्वरने अनेक अद्भुत कर्म किये हैं। गोवर्धन-धारण, नागराज कालियका निर्वासन, इन्द्रसे समागम और सम्पूर्ण राक्षसोंका संहार आदि सारे कर्म श्रीकृष्णके ही किये हुए हैं;

यह बात नारदजीके मुँहसे सुनकर कंस अत्यन्त भयसे व्याकुल हो उठा है। महाबाहु बलराम और श्रीकृष्ण बड़े दुर्धर्ष वीर हैं; इसलिये इन दोनोंको वहीं बुलाकर वह बड़े-बड़े मतवाले हाथियोंसे कुचलवा डालना चाहता है अथवा पहलवानोंको भिड़ाकर इन्हें मार डालनेको उद्यत है। श्रीकृष्णको बुला लानेके लिये ही उसने मुझे यहाँ भेजा है। यही सब उस दुष्ट दानवकी चेष्टा है, जिसे मैंने बता दिया। अब आप समस्त व्रजवासी दही-घी आदि लेकर कल सबेरे धनुषयज्ञका उत्सव देखनेके लिये मथुरामें चलें। बलराम-श्रीकृष्ण और समस्त गोपोंको राजाके पास चलना है। वहाँ निश्चय ही कंस श्री कृष्ण के हाथ से मारा जायगा; अतः आपलोग राजाकी आज्ञासे निर्भय होकर वहाँ चलिये । इतना कहकर बुद्धिमान् अक्रूर चुप हो गये। उनकी बातें बड़ी ही भयङ्कर और रोंगटे खड़े कर देनेवाली थीं। उन्हें सुनकर नन्द आदि समस्त बड़े-बूढ़े गोप भयसे व्याकुल हो दुःखके महान् समुद्रमें डूब गये। उस समय कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णने उन सबको आश्वासन देकर कहा- 'आपलोग भय न करें। मैं दुरात्मा कंसका विनाश करनेके लिये भैया बलरामजी तथा आपलोगों के साथ मथुरा चलूँगा। वहाँ दानवराज दुरात्मा कंसको और उसके साथ रहने वाले समस्त राक्षसों को मारकर इस पृथ्वी की रक्षा करूँगा।

अतः आपलोग शोक छोड़कर मथुरापुरीको चलिये।' श्री हरि के ऐसा कहने पर नन्द आदि गोपोंने बारंबार छातीसे लगाकर उनका मस्तक सूँघा। उन महात्मा के अलौकिक कर्मोंपर विचार करके तथा अक्रूरजीकी बातोंको सुनकर उन सबकी चिन्ता दूर हो गयी। तत्पश्चात् यशोदाने अक्रूरको दही, दूध, घी आदिसे युक्त भाँति-भाँतिके पवित्र, स्वादिष्ट, मधुर और रुचिकर पक्वान्न परोसकर भोजन कराया। उनके साथ बलराम, श्रीकृष्ण, नन्द आदि श्रेष्ठ गोप, अनेकों सुहृद्, बालक और वृद्ध भी थे। यशोदाजीके दिये हुए रुचिवर्धक उत्तम अन्नको यादवश्रेष्ठ अक्रूरजीने बड़े प्रेमसे खाया। भोजन करानेके पश्चात् नन्दरानीने जल देकर आचमन कराया और अन्तमें कपूरसहित पानका बीड़ा दिया। फिर सूर्यास्त होनेपर अक्रूरजीने सन्ध्योपासना की। उसके बाद बलराम और श्रीकृष्णके साथ खीर खाकर वे उन्हेंकि साथ शयन करनेके लिये गये। दीपकके प्रकाशसे सुशोभित श्रेष्ठ एवं रमणीय भवनमें विचित्र पलंग बिछा था। स्वच्छ सुन्दर बिछावनपर भाँति-भाँतिके फूल उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। उस पलंगपर भगवान् श्रीकृष्ण सोते थे, मानो शेषनागकी शय्यापर श्रीनारायण शयन करते हों।

हो उठा भगवान्‌ को शयन करते देख सहसा अक्रूरके नेत्रों में आनन्दके आँसू छलक पड़े। उनका सारा शरीर पुलकित । उन्होंने तमोगुणी निद्राको त्याग दिया। वे भगवद्भक्तोंमें श्रेष्ठ तो थे ही, अपने परम कल्याणका विचार करके भगवान्‌के चरण दबाने लगे। उस समय वे मन-ही-मन सोच रहे थे 'इसीमें मेरे जीवनकी सफलता है। यही जीवन वास्तवमें उत्तम जीवन है। यही धर्म तथा यही सर्वश्रेष्ठ मोक्षसुख है। शिव और ब्रह्मा आदि देवता, सनकादि मुनीश्वर तथा वसिष्ठ आदि महर्षि जिनका दर्शन करना तो दूर रहा, मनसे स्मरण भी नहीं कर पाते, वे ही भगवान् लक्ष्मीपतिके दोनों चरण इस समय मुझे प्राप्त हुए हैं। अहो! मेरा कितना सौभाग्य है? ये दोनों चरण शरत्कालके खिले हुए कमलकी भाँति सुन्दर है। भगवती लक्ष्मी अपने कोमल एवं चिकने हाथों से इनकी सेवा करती हैं। ये चरण परम उत्तम सुखस्वरूप हैं।'

इस प्रकार भगवान्‌की सेवामें लगे हुए अक्रूरजीकी वह रात्रि एक क्षणके समान बीत गयी। उस समय वे ब्रह्मानन्दका अनुभव कर रहे थे। तदनन्तर निर्मल प्रभात होनेपर देवगण आकाशमें खड़े हो भगवान्‌की स्तुति करने लगे। तब भगवान् शयनसे उठे। उठकर विधिपूर्वक आचमन किया। फिर परम बुद्धिमान् बलरामजीके साथ जाकर माताके चरणोंमें नमस्कार किया और मथुरा जानेकी इच्छा प्रकट की। यशोदाजी दुःख और हर्षमें डूबी हुई थीं। उन्होंने दोनों पुत्रोंको उठाकर बड़े प्रेमके साथ छातीसे लगा लिया। उस समय उनके आँसुओंकी धारा बह रही थी। उन्होंने दोनों महावीर पुत्रोंको आशीर्वाद दिया और बार-बार हृदयसे लगाकर विदा किया। अक्रूरने भी हाथ जोड़कर यशोदाजीके चरणोंमें प्रणाम किया और कहा- 'महाभागे ! अब मैं जाऊँगा। मुझपर कृपा करो। ये महाबाहु श्रीकृष्ण महाबली कंसको मारकर सम्पूर्ण जगत्के राजा होंगे। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। अतः देवि ! तुम शोक छोड़कर सुखी होओ।'

ऐसा कहकर अक्रूरजी नन्दरानीसे विदा ले बलराम और श्रीकृष्णके साथ उत्तम रथपर आरूढ़ हुए और तीव्र गतिसे मथुराकी ओर चले। उनके पीछे नन्द आदि बड़े-बूढ़े गोप भाँति-भाँतिके फल तथा बहुत-से दही-घी आदि लेकर गये। श्रीहरिको रथपर बैठकर व्रजसे जाते देख समस्त गोपाङ्गनाएँ भी उनके पीछे-पीछे चलीं। उनका हृदय शोकसे सन्तप्त हो रहा था। वे 'हा कृष्ण! हा कृष्ण ! हा गोविन्द !' कहकर बारंबार रोती और विलाप करती थीं। श्रीहरिने उन सबको समझा-बुझाकर लौटाया। उनके नेत्रोंमें आँसू भरे हुए थे। वे दीन भावसे रोती हुए खड़ी रहीं। इसके बाद अक्रूरजीने अपने दिव्य रथको व्रजसे मथुराकी ओर बढ़ाया। शीघ्र ही यमुनाके पार होकर उन्होंने रथको किनारे खड़ा कर दिया और स्वयं उससे उतरकर वे स्त्रान तथा अन्य आवश्यक कृत्य करनेकी तैयारी करने लगे। भक्तप्रवर अक्रूरने यमुनाके उत्तम जलमें जाकर डुबकी लगायी और अघमर्षण मन्त्र का जप आरम्भ किया। उस समय उन्हें श्रीबलराम तथा श्रीकृष्ण दोनों ही जलके भीतर दिखायी दिये। उन्हें देखकर अक्रूरजीको बड़ा विस्मय हुआ। तब उन्होंने उठकर रथकी ओर देखा; किन्तु वहाँ भी वे दोनों महाबली वीर बैठे दृष्टिगोचर हुए। तब पुनः जलमें डुबकी लगाकर वे युगल मन्त्रका जप करने लगे। उस समय उन्हें क्षीरसागरमें शेषनागकी शय्यापर बैठे हुए लक्ष्मीसहित श्रीहरिका दर्शन हुआ। सनकादि मुनि उनकी स्तुति कर रहे थे

और सम्पूर्ण देवता सेवामें खड़े थे। इस प्रकार सर्वव्यापी ईश्वरको देखकर यदुश्रेष्ठ अक्रूरने उनका स्तवन किया। स्तुति करनेके पश्चात् सुगन्धित कमल पुष्पोंसे भगवान्‌का पूजन किया और अपनेको कृतकृत्य मानते हुए वे यमुनाजलसे बलराम और श्रीकृष्णके समीप आये। वहाँ आकर अक्रूरजीने उन दोनों भाइयोंको भी प्रणाम किया। भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें आश्चर्यमग्न और विनीतभावसे खड़ा देख - पूछा- 'कहिये अक्रूरजी! आपने जलमें कौन-सी आश्चर्यकी बात देखी है?' यह सुनकर अक्रूरजीने महातेजस्वी श्रीकृष्णसे कहा - 'प्रभो! आप सर्वत्र व्यापक है! आपकी महिमासे क्या आश्चर्यकी बात हो सकती है। हृषीकेश ! यह सम्पूर्ण जगत् आपहीका तो स्वरूप है।' इस प्रकार स्तुति करके जगदीश्वर गोविन्दको प्रणाम कर अक्रूरजी उन दोनों भाइयोंके साथ पुनः दिव्य रथपर आरूढ़ हो तुरंत ही देवनिर्मित मथुरापुरीमें जा पहुँचे। वहाँ नगरद्वारपर बलराम और श्रीकृष्णको बिठाकर वे अन्तः पुरमें गये और राजा कंससे उनके आगमनका समाचार सुनाकर उसके द्वारा सम्मानित हो पुनः अपने घरको चले गये।

तदनन्तर सन्ध्याके समय महाबली बलराम और श्रीकृष्ण एक-दूसरेका हाथ पकड़े मथुरापुरीके भीतर गये। वे दोनों राजमार्गसे जा रहे थे। इतनेहीमें उनकी दृष्टि कपड़ा रँगनेवाले एक रँगरेजपर पड़ी, जो दिव्य वस्त्र लिये राजभवनकी ओर जा रहा था। बलरामसहित परम पराक्रमी श्रीकृष्णने उन वस्त्रोंको अपने लिये, माँगा; किन्तु रंगरेजने वे वस्त्र उन्हें नहीं दिये। इतना ही नहीं, उसने सड़कपर खड़े होकर उन्हें बहुत-से कटुवचन भी सुनाये। तब महाबली श्रीकृष्णने रँगरेजके मुँहपर एक तमाचा जड़ दिया। फिर तो वह मुँहसे रक्त वमन करता हुआ मार्ग में ही मर गया। बल राम और श्री कृष्ण ने अपने बन्धु-बान्धव ग्वाल-बालों के साथ उन सुन्दर वस्त्रों को यथायोग्य धारण किया। फिर वे मालीके घर पर गये। उसने उन्हें देखते ही नमस्कार किया और दिव्य सुगन्धित पुष्पोंसे प्रसन्नतापूर्वक उनकी पूजा की। तब उन दोनों यादव-वीरोंने मालीको मनोवाञ्छित वरदान दिया। अब वे गलीकी राहसे घूमने लगे। सामनेसे एक सुन्दर मुखवाली युवती आती दिखायी दी, जो हाथमें चन्दनका पात्र लिये हुए थी। वह स्त्री कुब्जा थी। उन दोनों भाइयोंने उससे चन्दन माँगा। कुब्जाने मुसकराते हुए उन्हें उत्तम चन्दन प्रदान किया। चन्दन लेकर उन्होंने इच्छानुसार अपने शरीरमें लगाया और कुब्जाको परम मनोहर रूप देकर वे आगेके मार्गपर बढ़ गये। नगरकी स्त्रियाँ सुन्दर मुखवाले उन दोनों सुन्दर कुमारोंको प्रेमपूर्वक निहारती थीं। इस प्रकार वे अपने अनुयायियोंसहित यज्ञशालामें पहुँचे। वहाँ दिव्य धनुष रखा था। उसकी पूजा की गयी थी। भगवान् मधुसूदनने देखते ही उस धनुषको उठा लिया और खेल-खेलमें ही उसे तोड़ डाला। धनुष टूटनेकी आवाज सुनकर कंस अत्यन्त व्याकुल हो उठा और उसने चाणूर आदि मुख्य मुख्य मल्लोंको बुलाकर मन्त्रियोंकी सलाह ले चाणूरसे कहा- 'देखो, सब दैत्योंका विनाश करनेवाले बलराम और श्रीकृष्ण आ पहुँचे हैं। कल सबेरे मल्लयुद्ध करके इन दोनोंको बेखटके मार डालो। इन दोनोंको अपने बलपर बड़ा घमण्ड है। मतवाले हाथियोंको भिड़ाकर अथवा बड़े-बड़े पहलवानोंको लगाकर जिस किसी उपायसे भी हो सके इन दोनोंको यत्नपूर्वक मार डालना चाहिये।'

इस प्रकार आदेश देकर राजा कंस भाई और मन्त्रियों के साथ शीघ्र ही सुन्दर राजभवन की छतपर चढ़ गया। नीचे रहनेमें उसे भय लग रहा था। सम्पूर्ण दरवाजों और मार्गोपर उसने मतवाले हाथियोंको नियुक्त कर दिया और सब ओर बड़े-बड़े बलोन्मत्त पहलवान बिठा दिये। यह सब कुछ जानते हुए भी भगवान् श्रीकृष्ण परम बुद्धिमान् बलरामजी तथा अपने अनुयायी ग्वाल-बालोंके साथ रातभर उस यज्ञशालामें ही ठहरे रहे। रात बीतनेपर जब निर्मल प्रभात आया तो बलराम और श्रीकृष्ण दोनों वीर शय्यासे उठकर स्नान आदिसे निवृत्त हुए। फिर भोजन करके वस्त्र और आभूषणोंसे विभूषित हो युद्धके लिये उत्सुक होकर वे उस यज्ञशालासे चले; मानो दो सिंह किसी बड़ी गुफासे बाहर निकले हों। राजमहलके दरवाजेपर कुवलयापीड़ हाथी खड़ा था, जो हिमालय पर्वतके शिखर-सा जान पड़ता था। वही कंसकी विजयाभिलाषाको बढ़ानेवाला था। उसने ऐरावतके भी दाँत खट्टे कर दिये थे। उस महाकाय और मतवाले गजराजको देखकर भगवान् श्रीकृष्ण सिंहकी भाँति उछल पड़े और अपने हाथसे उसकी सूँड पकड़कर वे लीलापूर्वक उसे घुमाने लगे। घुमाते- घुमाते ही भगवान् धरणीधरने उसे धरतीपर पटक दिया। हाथीका सारा अङ्ग चूर-चूर हो गया और वह डरावनी आवाजमें चिग्घाड़ता हुआ मर गया। इस प्रकार हाथीको मारकर बलराम और श्रीकृष्णने उसके दोनों दाँत उखाड़ लिये और पहलवानोंसे युद्ध करनेके लिये वे रंगभूमिमें पहुँचे। वहाँ जितने दानव थे, वे सब गोविन्दका पराक्रम देख भयभीत हो भाग खड़े हुए। तब कंसके भवनमें प्रवेश करके वे महाबली वीर युद्धके लिये उत्कण्ठित हो हाथीके दाँत घुमाने लगे। वहाँ उन महात्माओंने कंसके दो मल्ल चाणूर और मुष्टिकको उपस्थित देखा। कंस भी महाबली बलराम और गोविन्दको देखकर भयभीत हो उठा तथा अपने प्रधान मल्ल चाणूरसे बोला- 'वीर ! इस समय तुम इन ग्वाल-बालोंको अवश्य मार डालो। मैं तुम्हें अपना आधा राज्य बाँटकर दे दूँगा।' उस समय उन दोनों मल्लोंको भगवान् श्रीकृष्ण अभेद्य कवचसे युक्त और दूसरे मेरुपर्वतके समान विशालकाय दिखायी दिये। कंसकी दृष्टिमें प्रलयकालीन अग्रि से जान पड़े। स्त्रियोंको साक्षात् कामदेव प्रतीत हुए। माता-पिताने उन्हें नन्हें शिशुके रूपमें ही देखा।

देवताओं की दृष्टि में वे साक्षात् श्री हरि थे और ग्वाल-बाल उन्हें अपना प्यारा सखा ही समझते थे। इस प्रकार उन सर्वव्यापक भगवान् विष्णु को वहाँ के लोगोंने अपने अपने भावोंके अनुसार अनेक रूपोंमें देखा। वसुदेव, अक्रूर और परम बुद्धिमान् नन्द दूसरे कोठे पर चढ़कर वहाँ का महान् युद्ध देख रहे थे। देवकी अन्तःपुरकी स्त्रियों के साथ बैठकर बेटेका मुँह निहार रही थीं। उस समय उनके नेत्रोंमें आँसू भर आये थे। स्त्रियोंने उन्हें बहुत समझाया और आश्वासन दिया। तब वे किसी दूसरे भवन में चली गयीं। तदनन्तर विमान पर बैठे हुए देवता आकाशमें जय-जयकार करते हुए कमलनयन भगवान् अच्युतकी स्तुति करने लगे। वे जोर जोरसे कहते थे- 'भगवन् ! कंसका वध कीजिये ।' इसी समय रंगभूमिमें तुरही आदि बाजे बज उठे। कंसके दोनों महामल्लों और महाबली श्रीकृष्ण एवं बलराममें भिड़ंत हो गयी। 
चाणूरके साथ भगवान् श्री कृष्ण और मुष्टिक के साथ बलराम जी भिड़ गये। नीलगिरि तथा श्वेत गिरि के समान कान्ति वाले दोनों महात्मा मल्लयुद्धकी रीति-नीतिके अनुसार लड़ने लगे। वे एक दूसरेको कभी मुक्कोंसे मारते और कभी ताल ठोंकते थे। उनमें बड़ा भयंकर संग्राम हुआ, जो देवताओंको भी भयभीत कर देनेवाला था। भगवान् श्रीकृष्णने चाणूरके साथ बहुत देरतक खेल करके उसके शरीरको रगड़ डाला और फिर लीलापूर्वक पृथ्वीपर दे मारा। देवताओं और दानवोंको भी दुःख देनेवाला वह महामल्ल बहुत रक्त वमन करते हुए पृथ्वीपर गिरा और मर गया। इसी प्रकार पराक्रमी बलरामजी भी मुष्टिकके साथ देरतक लड़ते रहे। अन्तमें उन्होंने उसकी छातीमें कई मुक्के जड़ दिये। इससे उसकी हड्डियाँ चूर-चूर हो गंीं और स्नायु-बन्धन टूट गया। फिर तो वह भी प्राणहीन होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। उन दोनों भाइयोंका यह पराक्रम देख बाकी सारे पहलवान भाग गये। यह देखकर कंसको बड़ा भय हुआ। वह वेदनासे व्याकुल हो उठा। इसी बीचमें दुर्धर्ष वीर बलराम और श्री कृष्ण कंसके ऊँचे महलपर चढ़ गये। फिर भगवान् श्रीकृष्णने कंसके मस्तकमें थप्पड़ मारकर उसे छतसे नीचे गिरा दिया। पृथ्वीपर गिरते ही उसका सारा अङ्ग छिन्न-भिन्न हो गया और वह प्राणोंसे हाथ धो बैठा। फिर श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके द्वारा कंसका और्ध्वदैहिक संस्कार कराया। श्रीकृष्णके द्वारा कंसके मारे जानेपर महाबली बलरामजीने भी कंसके छोटे भाई सुनामाको मुक्केसे ही मार डाला और उसे उठाकर धरतीपर फेंक दिया।

इस प्रकार श्रीकृष्ण और बल राम जी भाई सहित दुरात्मा कंसको मारकर अपने माता-पिताके समीप आये और बड़ी भक्तिके साथ उन्होंने उनके चरणोंमें प्रणाम किया। देवकी और वसुदेवने बड़े प्रेमसे उन दोनोंको बारंबार छातीसे लगाया और पुत्र-स्नेहसे द्रवित हो उनका मस्तक सूँघा। देवकीके दोनों स्तनोंसे उनके ऊपर दूधकी वृष्टि होने लगी। तत्पश्चात् बलराम और श्रीकृष्ण माता- पिताको आश्वासन दे बाहर आये। इसी समय आकाशमें देवताओंकी दुन्दुभियाँ बज उठीं। देवेश्वरगण फूलोंकी वर्षा करने लगे। तथा मरुद्गणोंके साथ श्रीजनार्दनको नमस्कार और उनकी स्तुति करके हर्षमग्न हो अपने-अपने लोकको चले गये। तत्पश्चात् भगवान् श्रीकृष्णने बलरामजीके साथ जाकर नन्दरायजी तथा अन्य बड़े-बूढ़े गोपोंको नमस्कार किया। धर्मात्मा नन्दने बड़े स्नेहसे उन दोनोंको गले लगा लिया। फिर भगवान् जनार्दनने उन सबको बहुत से रन और धन भेंट किये। नाना प्रकारके वस्त्र, आभूषण तथा प्रचुर धन-धान्य देकर उन सबका पूजन किया। इस प्रकार श्रीकृष्णके विदा करनेपर नन्द आदि गोप हर्ष और शोकमें डूबे हुए वहाँसे व्रजमें लौट गये। इसके बाद बलराम और श्रीकृष्णने अपने नाना उग्रसेन जी के पास जाकर उन्हें बन्धनसे मुक्त किया और बारंबार सान्त्वना दे मथुरा के राज्यपर उनका अभिषेक कर दिया। अक्रूर आदि जितने श्रेष्ठ यदुवंशी थे, उन सबको राज्यमें विशेष पदपर स्थापित किया और उग्रसेन को राजा बनाकर परम धर्मात्मा भगवान् वासुदेव धर्मपूर्वक इस पृथ्वीका पालन करने लगे।

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