जानिए जगत्‌ की उत्पत्ति किससे हुई और प्रलय के समय यह किस में लीन होता है,Jaanie Jagat Kee Utpatti Kisase Huee Aur Pralay Ke Samay Yah Kis Mein Leen Hota Hai

जानिए जगत्‌ की उत्पत्ति किससे हुई

सृष्टितत्त्व का वर्णन, जीवकी सत्ताका प्रतिपादन और आश्रमों के आचार का निरूप

श्रीनारदजीने पूछा- सनन्दनजी! इस स्थावर जङ्गमरूप जगत्‌ की उत्पत्ति किससे हुई है और प्रलयके समय यह किसमें लीन होता है? श्रीसनन्दनजी बोले- नारदजी! सुनो, मैं भरद्वाजके पूछनेपर भृगुजीने जो शास्त्र बताया है, वही कहता हूँ। भृगुजी बोले- भरद्वाज! महर्षियोंने जिन पूर्वपुरुषको मानस-नामसे जाना और सुना है, वे आदि-अन्तसे रहित देव 'अव्यक्त' नामसे विख्यात हैं। वे अव्यक्त पुरुष शाश्वत, अक्षय एवं अविनाशी हैं; उन्हींसे उत्पन्न होकर सम्पूर्ण भूत-प्राणी जन्म और मृत्युको प्राप्त होते हैं। उन स्वयम्भू भगवान् नारायणने अपनी नाभिसे तेजोमय दिव्य कमल प्रकट किया। उस कमलसे ब्रह्मा उत्पन्न हुए जो वेदस्वरूप हैं, उनका दूसरा नाम विधि है। उन्होंने ही सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीरकी रचना की है। इस प्रकार इस विराट् विश्वके रूपमें साक्षात् भगवान् विष्णु ही विराज रहे हैं, जो अनन्त नामसे विख्यात हैं। वे सम्पूर्ण भूतोंमें आत्मारूपसे स्थित हैं। जिनका अन्तःकरण शुद्ध नहीं है, ऐसे पुरुषोंके लिये उनका ज्ञान होना अत्यन्त कठिन है।

भरद्वाजजीने पूछा- जीव क्या है और कैसा है? यह मैं जानना चाहता हूँ। रक्त और मांसके संघात (समूह) तथा मेद-स्रायु और अस्थियोंके संग्रहरूप इस शरीरके नष्ट होनेपर तो जीव कहीं नहीं दिखायी देता। भृगुने कहा- मुने ! साधारणतया पाँच भूतोंसे निर्मित किसी भी शरीरको यहाँ एकमात्र अन्तरात्मा धारण करता है। वही गन्ध, रस, शब्द, स्पर्श,रूप तथा अन्य गुणोंका भी अनुभव करता है। अन्तरात्मा सम्पूर्ण अङ्गोंमें व्याप्त रहता है। वही इसमें होनेवाले सुख-दुःखका भी अनुभव करता है। इस शरीरके पाँचों तत्त्व जब अलग-अलग हो जाते हैं, तब वह इस देहको त्यागकर अदृश्य हो जाता है। चेतनता जीवका गुण बतलाया जाता है। वह स्वयं चेष्टा करता है और सबको चेष्टामें लगाता है। मुने! देहका नाश होनेसे जीवका नाश नहीं होता। जो लोग देहके नाशसे जीवके नाशकी बात कहते हैं, वे अज्ञानी हैं और उनका यह कथन मिथ्या है। जीव तो इस देहसे दूसरी देहमें चला जाता है। तत्त्वदर्शी पुरुष अपनी तीव्र और सूक्ष्म बुद्धिसे ही उसका दर्शन करते हैं। विद्वान् पुरुष शुद्ध एवं सात्त्विक आहार करके सदा रातके पहले और पिछले पहरमें योगयुक्त तथा विशुद्ध-चित्त होकर अपने भीतर ही आत्माका दर्शन करता है।


मनुष्यको सब प्रकारके उपायोंसे लोभ और क्रोधको काबूमें करना चाहिये। सब ज्ञानोंमें यही पवित्र ज्ञान है और यही आत्मसंयम है। लोभ और क्रोध सदा मनुष्यके श्रेयका विनाश करनेको उद्यत रहते हैं। अतः सर्वथा उनका त्याग करना चाहिये। क्रोधसे सदा लक्ष्मीको बचावे और मात्सर्यसे तपकी रक्षा करे। मान और अपमानसे विद्याको बचावे तथा प्रमादसे आत्माकी रक्षा करे। ब्रह्मन् ! जिसके सभी कार्य कामनाओंके बन्धनसे रहित होते हैं तथा त्यागके लिये जिसने अपने सर्वस्वकी आहुति दे दी है, वही त्यागी और बुद्धिमान् है। किसी भी प्राणीकी हिंसा न करे, सबसे मैत्रीभाव निभाता रहे और संग्रहका त्याग करके बुद्धिके द्वारा अपनी इन्द्रियोंको जीते। ऐसा कार्य करे जिसमें शोकके लिये स्थान न हो तथा जो इहलोक और परलोकमें भी भयदायक न हो। सदा तपस्यामें लगे रहकर इन्द्रियोंका दमन तथा मनका निग्रह करते हुए मुनिवृत्तिसे रहे। आसक्तिके जितने विषय हैं, उन सबमें अनासक्त रहे और जो किसीसे पराजित नहीं हुआ, उस परमेश्वरको जीतने (जानने या प्राप्त करने) की इच्छा रखे। इन्द्रियोंसे जिन-जिन वस्तुओंका ग्रहण होता है, वह सब व्यक्त है। यही व्यक्तकी परिभाषा है।

जो अनुमानके द्वारा कुछ-कुछ जानी जाय उस इन्द्रियातीत वस्तुको अव्यक्त जानना चाहिये। जबतक (ज्ञानकी कमीके कारण) पूरा विश्वास न हो जाय, तबतक ज्ञेयस्वरूप परमात्माका मनन करते रहना चाहिये और पूर्ण विश्वास हो जानेपर मनको उसमें लगाना चाहिये अर्थात् ध्यान करना चाहिये। प्राणायामके द्वारा मनको वशमें करे और संसारकी किसी भी वस्तुका चिन्तन न करे। ब्रह्मन् ! सत्य ही व्रत, तपस्या तथा पवित्रता है, सत्य ही प्रजाकी सृष्टि करता है। सत्यसे ही यह लोक धारण किया जाता है और सत्यसे ही मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं। असत्य तमोगुणका स्वरूप है, तमोगुण मनुष्यको नीचे (नरकमें) ले जाता है। तमोगुणसे ग्रस्त मनुष्य अज्ञानान्धकारसे आवृत होनेके कारण ज्ञानमय प्रकाशको नहीं देख पाते। नरकको तम और दुष्प्रकाश कहते हैं। इहलोककी सृष्टि शारीरिक और मानसिक दुःखोंसे परिपूर्ण है। यहाँ जो सुख हैं वे भी भविष्यमें दुःखको ही लानेवाले हैं। जगत्‌को इन सुख-दुःखोंसे संयुक्त देखकर विद्वान् पुरुष मोहित नहीं होते। बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह दुःखसे छूटनेका प्रयत्न करे। प्राणियोंको इहलोक और परलोकमें प्राप्त होनेवाला जो सुख है, वह अनित्य है।

मोक्षरूपी फलसे बढ़कर कोई सुख नहीं है। अतः उसीकी अभिलाषा करनी चाहिये। धर्मके लिये जो शम- दमादि सद्‌गुणोंका सम्पादन किया जाता है, उसका उद्देश्य भी सुखकी प्राप्ति ही है। सुखरूप प्रयोजनकी सिद्धिके लिये ही सभी कर्मोंका आरम्भ किया जाता है। किंतु अनृत (झूठ) से तमोगुणका प्रादुर्भाव होता है। फिर उस तमोगुणसे ग्रस्त मनुष्य अधर्मके ही पीछे चलते हैं, धर्मपर नहीं चलते। वे क्रोध, लोभ, मोह, हिंसा और असत्य आदिसे आच्छादित होकर न तो इस लोकमें सुख पाते हैं, न परलोकमें ही। नाना प्रकारके रोग, व्याधि और उग्र तापसे पीड़ित होते हैं। वध, बन्धनजनित क्लेश आदिसे तथा भूख, प्यास और परिश्रमजनित संतापसे संतप्त रहते हैं। वर्षा, आँधी, अधिक गरमी और अधिक सर्दीके भयसे चिन्तित होते हैं। शारीरिक दुःखोंसे दुःखी तथा बन्धु-धन आदिके नाश अथवा वियोगसे प्राप्त होनेवाले मानसिक शोकोंसे व्याकुल रहते हैं और जरा तथा मृत्युजनित कष्टसे या अन्य इसी प्रकारके क्लेशोंसे पीडित रहा करते हैं। स्वर्गलोकमें जबतक जीव रहता है, सदा उसे सुख ही मिलता है। इस लोकमें सुख और दुःख दोनों हैं। नरकमें केवल दुःख-ही-दुःख बताया गया है। वास्तविक सुख तो वह परमपद-स्वरूप मोक्ष ही है।

भद्वाजजी बोले- ब्रह्मर्षियोंने पूर्वकालमें जो चार आश्रमोंका विधान किया है, उन आश्रमोंके अपने-अपने आचार क्या हैं? यह बतानेकी कृपा करें।भृगुजीने कहा- मुने ! जगत्का हित साधन करनेवाले भगवान् ब्रह्माजीने पहलेसे ही धर्मकी रक्षाके लिये चार आश्रमोंका उपदेश किया है। उनमेंसे गुरुकुलमें निवास ही पहला आश्रम बतलाया जाता है। इस आश्रममें शौच, संस्कार, नियम तथा व्रतके नियमपूर्वक पालनमें चित्त लगाकर दोनों संध्याओंके समय उपासना करनी चाहिये। सूर्यदेव तथा अग्निदेवका उपस्थान करे। आलस्य छोड़कर गुरुको प्रणाम करे। गुरुमुखसे वेदका श्रवण और अभ्यास करके अपने अन्तःकरणको पवित्र करे। तीनों समय स्नान करके ब्रह्मचर्यपालन, अग्निहोत्र तथा गुरु-शुश्रूषा करे। प्रतिदिन भिक्षा माँगे और भिक्षामें जो कुछ प्राप्त हो, वह सब गुरुके अर्पित कर दे तथा अपने अन्तरात्माको भी गुरुके चरणोंमें अर्पित कर दे। गुरुके वचन और आज्ञाका पालन करनेमें कभी प्रतिकूलता न दिखाये- सदा आज्ञापालनके लिये तैयार रहे तथा गुरुकी कृपासे प्राप्त हुए वेद शास्त्रोंके स्वाध्यामें तत्पर रहे। इस विषयमें यह उक्ति प्रसिद्ध है- जो द्विज गुरुकी आराधना करके वेदका ज्ञान प्राप्त करता है, उसे स्वर्गरूप फलकी उपलब्धि होती है और उसका सम्पूर्ण मनोरथ सिद्ध हो जाता है।

दूसरे आश्रमको गार्हस्थ्य कहते हैं। उसके सदाचारका जो स्वरूप है, उसकी पूर्णरूपसे व्याख्या करेंगे। जो गुरुकुलसे लौटे हुए सदाचारपरायण स्नातक हैं और धर्मानुष्ठानका फल चाहते हैं, उनके लिये गृहस्थ-आश्रमका विधान है। इसमें धर्म, अर्थ और काम तीनोंकी प्राप्ति होती है। यहाँ त्रिवर्ग-साधनकी अपेक्षा रखकर निन्दित कर्मके परित्यागपूर्वक उत्तम (न्याययुक्त) कर्मसे धनोपार्जन करे। वेदोंके स्वाध्यायद्वारा, उपलब्ध हुई प्रतिष्ठासे अथवा ब्रह्मर्षिनिर्मित मार्गसे प्राप्त हुए धनके द्वारा या समुद्रसे उपलब्ध हुए द्रव्यद्वारा अथवा नियमोंके अभ्यास तथा देवताके कृपाप्रसादसे मिली हुई सम्पत्तिद्वारा गृहस्थ पुरुष अपनी गृहस्थी चलावे। गृहस्थ-आश्रमको सम्पूर्ण आश्रमोंका मूल कहते हैं। गुरुकुलमें निवास करनेवाले ब्रह्मचारी, संन्यासी तथा अन्य लोग जो संकलित व्रत, निमय एवं धर्मका अनुष्ठान करनेवाले हैं, उन सबका आधार गृहस्थ-आश्रम है। उनके अतिरिक्त भी गृहस्थ आश्रममें भिक्षा और बलिवैश्व आदिका वितरण चलता रहता है। वानप्रस्थोंके लिये भी आवश्यक द्रव्य सामग्री गृहस्थाश्रमसे ही प्राप्त होती है। प्रायः ये श्रेष्ठ पुरुष उत्तम पथ्य अन्नका सेवन करते हुए स्वाध्यायके प्रसङ्गसे अथवा तीर्थयात्राके लिये देश-दर्शनके निमित्त इस पृथ्वीपर घूमते रहते हैं। गृहस्थको उचित है

कि उठकर उनकी अगवानी करे, उनके चरणोंमें मस्तक झुकाये, उनसे ईर्ष्यारहित वचन बोले, उनके लिये आवश्यक वस्तुओंका दान करे, उन्हें सुख और सत्कारपूर्वक आसन दे तथा उनके लिये सुखसे सोने और खाने-पीनेकी सुव्यवस्था करे। इस विषयमें यह उक्ति है- जिसके घरसे अतिथि निराश होकर लौट जाता है, उसे वह अपना पाप दे उसका पुण्य लेकर चला जाता है। इसके सिवा, इस आश्रममें यज्ञ-कर्मोंद्वारा देवता तृप्त होते हैं, श्राद्ध एवं तर्पणसे पितरोंकी तृप्ति होती है, विद्याके बार-बार श्रवण और धारणसे ऋषि संतुष्ट होते हैं और संतानोत्पादनसे प्रजापतिको प्रसन्नता होती है। इस विषयमें हैं- इस आश्रममें सम्पूर्ण भूतोंके लिये वात्सल्यका भाव होता है। देवता और अतिथियोंका वाणीद्वारा स्तवन किया जाता है। इसमें दूसरोंको सताना, कष्ट देना या कठोरता करना निन्दित है। इसी तरह दूसरोंकी अवहेलना तथा अपनेमें अहंकार और दम्भका होना भी निन्दित ही माना गया है। अहिंसा, सत्य और अक्रोध-ये सभी आश्रमके लिये तप हैं। जिसके गृहस्थ-आश्रममें प्रतिदिन धर्म, अर्थ, कामरूप त्रिवर्गका सम्पादन होता है, वह इस लोकमें सुखका अनुभव करके श्रेष्ठ पुरुषोंकी गतिको प्राप्त होता है। जो गृहस्थ उञ्छवृत्तिसे रहकर अपने धर्मके पालनमें तत्पर है और काम्यसुखको त्याग चुका है, 

उसके लिये स्वर्गलोक दुर्लभ नहीं है। वानप्रस्थी भी धर्मका अनुष्ठान करते हुए पुण्य तीर्थों तथा नदियों और झरनोंके आसपास रहते हैं; वनोंमें रहकर तपस्या करते और घूमते हैं। ग्रामीण वस्त्र, भोजन और उपभोगका वे त्याग कर देते हैं। जंगली अन्न, फल, मूल और पत्तोंका परिमित एवं नियमित भोजन करते हैं। अपने स्थानपर ही बैठते हैं और पृथ्वी, पत्थर, सिकता, कंकड़ तथा बालूपर सो जाते हैं। काश, कुश, मृगचर्म तथा वल्कलसे ही अपने शरीरको ढकते हैं। केश, दाढ़ी, मूँछ, नख तथा लोम धारण किये रहते हैं। नियत समयपर स्नान करते और शुष्क बलिवैश्व एवं होमका शास्त्रोक्त समयपर अनुष्ठान करते हैं। समिधा, कुशा, पुष्प-संचय तथा सम्मार्जन आदि कार्योंमें ही विश्राम पाते हैं। सर्दी, गरमी तथा वायुके आधातसे उनके शरीरकी सारी त्वचाएँ फटी होती हैं। अनेक प्रकारके नियम और योगचर्याके अनुष्ठानसे उनके शरीरका मांस और रक्त सूख जाता है और वे अस्थि- चर्मावशिष्ट होकर धैर्यपूर्वक सत्त्वगुणके योगसे शरीर धारण करते हैं। जो ब्रह्मर्षियोंद्वारा विहित इस व्रतचर्याका नियमपूर्वक पालन करता है, वह अग्निकी भाँति सम्पूर्ण दोषोंको जला देता है और दुर्जय लोकोंपर अधिकार प्राप्त कर लेता है। अब संन्यासियोंका आचार बतलाया जाता है। 

धन, स्त्री तथा राजोचित सामग्रियोंमें जो अपना स्नेह बना हुआ है, उस स्नेह-बन्धनको काटकर तथा अग्निहोत्र आदि कर्मोंका विधिपूर्वक त्याग करके विरक्त एवं जिज्ञासु पुरुष संन्यासी होते हैं। वे ढेले, पत्थर और सुवर्णको समान समझते हैं। धर्म, अर्थ और काममयी प्रवृत्तियोंमें उनकी बुद्धि आसक्त नहीं होती। शत्रु, मित्र और उदासीनोंके प्रति उनकी दृष्टि समान रहती है। वे स्थावर, जरायुज, अण्डज और स्वेदज प्राणियोंके प्रति मन, वाणी और क्रियाद्वारा कभी द्रोह नहीं करते। उनका कोई एक निवासस्थान नहीं होता। वे पर्वत, नदी-तट, वृक्ष मूल तथा देवमन्दिर आदि स्थानोंमें ठहरते और विचरते हुए कभी किसी समूहके पास जाकर रहते हैं अथवा नगर या गाँवमें विश्राम करते हैं। क्रोध, दर्प, लोभ, मोह, कृपणता, दम्भ, निन्दा तथा अभिमानके कारण उनसे कभी हिंसा नहीं होती। इस विषयमें ऐसा कहा है-जो मुनि सम्पूर्ण भूतोंको अभयदान देकर स्वच्छन्द विचरता है, उसको कभी उन सब प्राणियोंसे भय नहीं होता। ब्राह्मण संन्यासी अग्रिहोत्रको अपने शरीरमें स्थापित करके शरीररूपी अग्निको तृप्त करनेके लिये भिक्षानरूपी हविष्यकी आहुति अपने मुखमें डालता है और उसी शरीरसंचित अग्निद्वारा उत्तम लोकोंमें जाता है। अपने संकल्पके अनुसार बुद्धिको संयममें रखनेवाला जो पवित्र ब्राह्मण शास्त्रोक्तविधिसे संन्यास- आश्रममें विचरता है, वह ईंधनरहित अग्निकी भाँति परम शान्तिमय ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है।

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