गृहस्थ-आश्रम की प्रशंसा तथा दान-धर्म की महिमा,Grhasth-Aashram Kee Mahima Tatha Daan-Dharm Kee Mahima

गृहस्थ-आश्रम की प्रशंसा तथा दान-धर्म की महिमा

श्री महादेव जी कहते हैं- देवि ! सुनो, अब मैं धर्मके उत्तम माहात्म्य का वर्णन करूँगा, जिसका श्रवण करनेसे इस पृथ्वीपर फिर कभी जन्म नहीं होता। धर्मसे अर्थ, काम और मोक्ष- तीनोंकी प्राप्ति होती है; अतः जो धर्मके लिये चेष्टा करता है, वही विशेषरूपसे विद्वान् माना गया है। जो कभी कुत्सित कर्ममें प्रवृत्त नहीं होता, वह घरपर भी पाँचों इन्द्रियोंका संयमरूप तप कर सकता है। जिसकी आसक्ति दूर हो गयी है, उसके लिये घर भी तपोवनके ही समान है; अतः गृहस्थाश्रम को स्वधर्म बताया गया है। गिरिराजकिशोरी ! जिन्होंने अपनी इन्द्रियों को वशमें नहीं किया है, उनके लिये इस गृहस्थ आश्रमको पार करना कठिन है; वे इस शुभ एवं श्रेष्ठतम आश्रमका विनाश कर डालते हैं। ब्रह्मा आदि देवताओंने मनीषी पुरुषोंके लिये गृहस्थ-धर्मको बहुत उत्तम बताया है। साधु पुरुष वनमें तपस्या करके जब भूखसे पीड़ित होता है, तब सदा अन्नदाता गृहस्थके ही घर आता है। 

वह गृहस्थ जब भक्तिपूर्वक उस भूखे अतिथिको अन्न देता है तो उसकी तपस्यामें हिस्सा बँटा लेता है; अतः मनुष्य समस्त आश्रमोंमें श्रेष्ठ इस गृहस्थाश्रमका सदा पालन करता है और इसीमें मानवोचित भोगोंका उपभोग करके अन्तमें स्वर्गको जाता है- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। देवि ! सदा गृहस्थ-धर्मका पालन करनेवाले मनुष्योंके पास पाप कैसे आ सकता है।गृहस्थाश्रम परम पवित्र है। घर सदा तीर्थके समान पावन है। इस पवित्र गृहस्थाश्रममें रहकर विशेषरूपसे दान देना चाहिये। यहाँ देवताओंका पूजन होता है, अतिथियोंको भोजन दिया जाता है और [थके-माँदै] राहगीरोंको ठहरनेका स्थान मिलता है; अतः गृहस्थाश्रम परम धन्य है। ऐसे गृहस्थाश्रममें रहकर जो लोग ब्राह्मणोंकी पूजा करते हैं, उन्हें आयु, धन और संतानकी कभी कमी नहीं होती।


शुभ समय आनेपर चन्द्रदेवकी पूजा करके नित्य- नैमित्तिक कर्मोंका अनुष्ठान करनेके पश्चात् अपनी शक्तिके अनुसार दान देना चाहिये। दानसे मनुष्य निस्सन्देह अपने पापोंका नाश कर डालता है। दानके प्रभावसे इस लोकमें अभीष्ट भोगोंका उपभोग करके मनुष्य सनातन श्रीविष्णुको प्राप्त होता है। जो अभक्ष्य-भक्षणमें प्रवृत्त रहनेवाला, गर्भस्थ बालककी हत्या करनेवाला, गुरु- पत्नीके साथ सम्भोग करनेवाला तथा झूठ बोलनेवाला है, ये सभी नीच योनियोंमें जन्म लेते हैं। जो यज्ञ करानेके योग्य नहीं है ऐसे मनुष्यसे जो यज्ञ कराता, लोकनिन्दित पुरुषसे याचना करता, सदा कोपसे युक्त रहता, साधुओंको पीड़ा देता, विश्वासघात करता, अपवित्र रहता और धर्मकी निन्दा करता है- इन पापोंसे युक्त होनेपर मनुष्यकी आयु शीघ्र नष्ट हो जाती है, ऐसा जानकर [पापका सर्वथा त्याग करके] विशेषरूपसे दान करना उचित है।

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