गंगावतरण की संक्षिप्त कथा एवं हरिद्वार का महात्म्य,Gangaavataran Kee Sankshipt Katha Evan Haridvaar Ka Mahaatmy
गंगावतरण की संक्षिप्त कथा एवं हरिद्वार का महात्म्य
महादेवजी कहते हैं- देवर्षियों में श्रेष्ठ नारद ! अब तुम परम पुण्यमय हरिद्वारका माहात्म्य श्रवण करो। जहाँ भगवती गङ्गा बहती हैं, वहाँ उत्तम तीर्थ बताया गया है। वहाँ देवता, ऋषि और मनुष्य निवास करते हैं। वहाँ साक्षात् भगवान् केशव नित्य विराजमान रहते हैं। विद्वन् ! राजा भगीरथ उसी मार्गसे भगवती गङ्गाको लाये थे तथा उन महात्माने गङ्गाजलका स्पर्श कराकर अपने पूर्वजोंका उद्धार किया था। नारद ! अत्यन्त सुन्दर गङ्गाद्वारमें जो जिस प्रकार गङ्गाजीको ले आये थे, वह सब प्रसङ्ग मैं क्रमशः सुनाता हूँ। पूर्वकालमें हरिश्चन्द्र नामके एक राजा हो चुके हैं, जो त्रिभुवनमें सत्यके पालक विख्यात थे। उनके रोहित नामक एक पुत्र हुआ, जो भगवान् विष्णुकी भक्तिमें तत्पर था। रोहितका पुत्र वृक था, जो बड़ा ही धर्मात्मा और सदाचारी था। उसके सुबाहु नामक पुत्र हुआ। सुबाहुसे 'गर' नामक पुत्रकी उत्पत्ति हुई। एक समय गरको कालयोगसे दुःखी होना पड़ा। अनेक राजाओंने चढ़ाई करके उनके देशको अपने अधीन कर लिया। गर कुटुम्बको साथ ले भृगुनन्दन और्वके आश्रमपर चले गये। और्वने कृपापूर्वक वहाँ उनकी रक्षा की। वहीं उनके सगर नामक पुत्रका जन्म हुआ। महात्मा भार्गवसे रक्षित होकर वह उसी आश्रमपर बढ़ने लगा। मुनिने उसके यज्ञोपवीत आदि सब क्षत्रियोचित्त संस्कार कराये। अस्त्र-शस्त्रों तथा वेद-विद्याका भी उसको अभ्यास कराया।
तदनन्तर महातपस्वी राजा सगरने और्व मुनिसे आग्नेयास्त्र प्राप्त किया और समूची पृथ्वीपर भ्रमण करके अपने शत्रु तालजङ्घ, हैहय, शक तथा पारदवंशियोंका वध कर डाला। इस प्रकार सबको जीतकर उन्होंने धर्म- संचय करना आरम्भ किया। राजाने अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान करनेके लिये अश्व छोड़ा। वह अश्व पूर्व दक्षिण-समुद्रके तटपर हर लिया गया और पृथ्वीके भीतर पहुँचा दिया गया। तब राजाने अपने पुत्रोंको लगाकर सब ओरसे उस स्थानको खुदवाया। महासागर खोदते समय वे अश्वको तो नहीं पा सके, किन्तु वहाँ तपस्या करनेवाले आदि पुरुष महात्मा कपिलपर उनकी दृष्टि पड़ी। वे उतावलीके साथ उनके निकट गये और जगत्प्रभु कपिलको लक्ष्य करके कहने लगे- 'यह चोर है।' कोलाहल सुनकर भगवान् कपिल समाधिसे जाग उठे। उस समय उनके नेत्रोंसे आग प्रकट हुई, जिससे साठ हजार सगर-पुत्र जलकर भस्म हो गये। महायशस्वी राजाने समुद्रसे उस आश्वमेधिक अश्वको प्राप्त किया और उसके द्वारा सौ अश्वमेध यज्ञोंका अनुष्ठान पूर्ण किया। नारदजीने पूछा- विज्ञानेश्वर ! सगरके साठ हजार पुत्र बड़े बलवान् और पराक्रमी थे, उन वीरोंकी उत्पत्ति किस प्रकार हुई ? यह बताइये।
महादेवजी बोले- नारद ! राजा सगरकी दो पत्नियाँ थीं, वे दोनों ही तपस्याके द्वारा अपने पाप दग्ध कर चुकी थीं। इससे प्रसन्न होकर मुनिश्रेष्ठ और्वने उन्हें वरदान दिया। उनमेंसे एक रानीने साठ हजार पुत्र माँगे और दूसरीने एक ही ऐसे पुत्रके लिये प्रार्थना की, जो वंश चलानेवाला हो। पहली रानीने तँबीमें बहुत-से शूरवीर पुत्रोंको जन्म दिया; उन सबको धाइयोंने ही क्रमशः पाल-पोसकर बड़ा किया। घीसे भरे हुए घड़ोंमें रखकर उन कुमारोंका पोषण किया गया। कपिला गायका दूध पीकर वे सब के सब बड़े हुए। दूसरी रानीके गर्भसे पञ्चजन नामक पुत्र हुआ, जो राजा बना। पञ्चजनके अंशुमान् नामक पराक्रमी पुत्र उत्पन्न हुआ। अंशुमान्के दिलीप और दिलीपके भगीरथ हुए, जो उत्तम व्रत (तपस्या) का अनुष्ठान करके नदियोंमें श्रेष्ठ गङ्गाजीको पृथ्वीपर ले आये तथा जिन्होंने गङ्गाको समुद्रतक ले जाकर उन्हें अपनी कन्याके रूपमें अङ्गीकार किया। नारदजीने पूछा- भगवन् ! राजा भगीरथ गङ्गाको किस प्रकार लाये थे ? उन्होंने कौन-सी तपस्या की थी, ये सब बातें मुझे बताइये।
महादेवजी बोले- नारद ! राजा भगीरथ अपने पूर्वजोंका हित करनेके लिये हिमालय पर्वतपर गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने दस हजार वर्षोंतक भारी तपस्या की। इससे आदिदेव भगवान् निरञ्जन श्रीविष्णु प्रसन्न हुए। उन्हींके आदेशसे गङ्गाजी आकाशसे चलीं और जहाँ विश्वेश्वर श्रीशिव नित्य विराजमान रहते हैं, उस कैलास पर्वतपर उपस्थित हुई। मैंने गङ्गाजीको आया देख उन्हें अपने जटाजूटमें धारण कर लिया और दस हजार वर्षोंतक उसी रूपमें स्थित रहा। इधर राजा भगीरथ गङ्गाजीको न देखकर विचार करने लगे - गङ्गा कहाँ चली गयीं ? ध्यान करके जब उन्होंने यह निश्चितरूपसे जान लिया कि उन्हें महादेवजीने ग्रहण कर लिया है, तब वे कैलास पर्वतपर गये। मुनिश्रेष्ठ वहाँ पहुँचकरं वे तीन तपस्या करने लगे। उनके आराधना करनेपर मैंने अपने मस्तकसे एक बाल उखाड़ा और उसीके साथ त्रिपथगा गङ्गाजीको उन्हें अर्पण कर दिया। गङ्गाको लेकर वे पातालमें, जहाँ उनके पूर्वज भस्म हुए थे, गये। उस समय भगवान् विष्णुके चरणोंसे प्रकट हुई गङ्गा जब हरिद्वार में आयीं, तब वह देवताओंके लिये भी दुर्लभ श्रेष्ठ तीर्थ बन गया। जो मनुष्य उस तीर्थमें स्नान तथा विशेषरूप से श्रीहरिका दर्शन करके उनकी परिक्रमा करते हैं, वे दुःखके भागी नहीं होते। ब्रह्महत्या आदि पापोंकी अनेक राशियाँ ही क्यों न हों, वे सब सर्वदा श्रीहरिके दर्शनमात्रसे नष्ट हो जाती हैं। एक समय मैं भी हरिद्वारमें श्रीहरिके स्थानपर गया था, उस समय उस तीर्थके प्रभावसे मैं विष्णुस्वरूप हो गया। सभी मनुष्य वहाँ श्रीहरिका दर्शन करनेमात्रसे वैकुण्ठ-लोकको प्राप्त होते हैं। परम सुन्दर हरिद्वार-तीर्थ मेरी दृष्टिमें सबसे अधिक महत्त्वशाली है। वह समस्त तीर्थोंमें श्रेष्ठ और धर्म-अर्थ-काम-मोक्षरूप चारों पुरुषार्थ प्रदान करनेवाला है।
टिप्पणियाँ