एकोदिष्ट आदि श्राद्धों की विधि
पुलस्त्य जी कहते हैं राजन् ! अब मैं एकोदिष्ट श्राद्ध का वर्णन करूँगा, जिसे पूर्व काल में ब्रह्मा जी ने बतलाया था। साथ ही यह भी बताऊँगा कि पिता के मरने पर पुत्रों को किस प्रकार अशोच का पालन करना चाहिये। ब्राह्मणों में मरणाशौच दस दिन तक रखने की आज्ञा है, क्षत्रियों में बारह दिन, वैद्योंमें पंद्रह दिन तथा श॒द्रों में एक महीनेका विधान है। यह अशौच सपिण्ड (सात पीढ़ीतक) के प्रत्येक मनुष्यपर लागू होता है। यदि किसी बालककी मृत्यु चूडा करण के पहले हो जाय तो उसका अशौोच एक रात का कहा गया है। उसके बाद उपनयन के पहले तक तीन रातत क अशोच रहता है। जननाशौच में भी सब वर्णोकि लिये यही व्यवस्था हे। अस्थि-सञ्ययनके बाद अशोचग्रस्त पुरुष के शरीर का स्पर्श किया जा सकता है। प्रेतके लिये बारह दिनों तक प्रतिदिन पिण्ड-दान करना चाहिये; क्योंकि वह उसके लिये पाथेय (राहखर्च) है, इसलिये उसे पाकर प्रेतको बड़ी प्रसन्नता होती है। द्वादशाहके बाद ही प्रेतको यमपुरीमें ले जाया जाता है; तबतक वह घरपर ही रहता है। अतः दस राततक प्रतिदिन उसके लिये आकाझरमें दूध देना चाहिये; इससे सब प्रकारके दाहकी शान्ति होती है तथा मार्गके परिश्रमका भी निवारण होता है ।
दशाह के बाद ग्यारहवें दिन, जब कि सूतक निवृत्त हो जाता है, अपने गोत्रके ग्यारह ब्राह्मणोंको ही बुलाकर भोजन कराना चाहिये अशौच की समाप्ति के दूसरे दिन एकोदिष्ट श्राद्ध करे। इसमें न तो आवाहन होता है न अग्नोकरण (अग्निमें हवन) विश्वेदेवोंका पूजन आदि भी नहीं होता एक ही पवित्री, एक ही अर्घ और एक ही पिण्ड देनेका विधान है। अर्घ और पिण्ड आदि देते समय प्रेतका नाम लेकर 'तबोपतिष्ठताम', (तुम्हें प्राप्त हो) ऐसा कहना चाहिये। तत्पश्चात् तिठ और जल छोड़ना चाहिये।अपने किये हुए दानका जल ब्राह्मणके हाथमें देना चाहिये तथा विसर्जजके समय “अभिरम्यताम' कहना चाहिये। रोष कार्य अन्य श्राद्धोंकी ही भाँति जानना चाहिये। उस दिन विधिपूर्वक शय्यादान, फलवस्त्रसमन्वित काझ्जनपुरुषकी पूजा तथा द्विज-दम्पतिका पूजन भी करना आवश्यक है।
एकादशाह श्राद्ध में कभी भोजन नहीं करना चाहिये। यदि भोजन कर ले तो चान्द्रायण ब्रत करला उचित है। सुयोग्य पुत्रको पिताकी भक्तिसे प्रेरित होकर सदा ही एकोदिष्ट श्राद्ध करना चाहिये। एकादशाहके दिन वृषोत्सर्ग करे, उत्तम कपिला गौ दान दे और उसी दिनसे आरम्भ करके एक वर्षतक प्रतिदिन भक्ष्य-भोज्यके साथ तिल और जलसे भरा हुआ घड़ा दान करना चाहिये। [इसीको कुम्भदान कहते हैं ।] तदनन्तर, वर्ष पूरा होने पर सपिण्डी करण श्राद्ध होना चाहिये। सपिण्डी करण के बाद प्रेत [प्रेतत्वसे मुक्त होकर] पार्वणश्राद्ध का अधिकारी होता है तथा गृहस्थके वृद्धिसम्बन्धी कार्योमें आभ्युदयिक श्राद्धका भागी होता है। सपिण्डीकरण श्राद्ध देवश्राद्धपूर्वक करना चाहिये अर्थात् उसमें पहले विश्वेदेवोंकी, फिर पितरोंकी पूजा होती है। सपिण्डीकरणमें जब पितरोंका आवाहन करे तो प्रेतका आसन उनसे अलग रखे। फिर चन्दन, जल और तिलसे युक्त चार अर्थ्यपात्र बनावे तथा प्रेतके अर्ध्यपात्रका जल तीन भागोंमें विभक्त करके पितरोंके अर्ध्य-पात्रोंमें डाले। इसी प्रकार पिण्डदान करनेवाला पुरुष चार पिण्ड बनाकर “ये समाना:? इत्यादि दो मन्त्रोंके द्वारा प्रेतके पिण्डको तीन भागोंमें विभक्त करे [ओर एक-एक भागको पितरोंके तीन पिण्डोमें मिला दे] । इसी विधिसे पहले अर्घध्यको और फिर पिण्डोंको सड्डल्पपूर्वक समर्पित करे। तदनन्तर, वह चतुर्थ व्यक्ति अर्थात् प्रेत पितरोंकी श्रेणीमें सम्मिलित हो जाता है ओर अग्निस्वात्त आदि पितरोंके बीचमें बेठकर उत्तम अमृतका उपभोग करता है। इसलिये सपिण्डीकरण श्राद्धके बाद उस (प्रेत) को पृथक् कुछ नहीं दिया जाता। पितरोंमें ही उसका भाग भी देना चाहिये तथा उन्हींके पिण्डोमें स्थित होकर वह अपना भाग ग्रहण करता है। तबसे लेकर जब-जब संक्रान्ति और ग्रहण आदि पर्व आवें, तब-तब तीन पिण्डोंका ही श्राद्ध करना चाहिये। केवल मृत्यु तिथिको केवल उसीके लिये एकोदिष्ट श्राद्ध करना उचित है। पिताके क्षयाहके दिन जो एकोदिष्ट नहीं करता, वह सदाके लिये पिताका हत्यारा और भाईका विनाश करनेवाला माना गया है।
क्षयाह-तिथि को [एकोदिष्ट न करके] पार्वणश्राद्ध करने वाला मनुष्य नरकगामी होता है। मृत व्यक्तिको जिस प्रकार प्रेतयोनिसि छुटकारा मिले और उसे स्वर्गादि उत्तम लोकों की प्राप्ति हो, इसके लिये विधि पूर्वक आमश्राद्ध' करना चाहिये कच्चे अन्नसे ही अग्नोकरण की क्रिया करे और उसीसे पिण्ड भी दे। पहले या तीसरे महीनेमें भी जब मृत व्यक्तिका पिता आदि तीन पुरुषोंके साथ सपिण्डी करण हो जाता है, तब प्रेतत्वके बन्धनसे उसकी मुक्ति हो जाती है। मुक्त होनेपर उससे लेकर तीन पीढ़ीतकके पितर सपिण्ड कहलाते हैं तथा चौथा सपिण्डकी श्रेणीसी निकलकर लेपभागी हो जाता है। कुशमें हाथ पॉछनेसे जो अंश प्राप्त होता है, वही उसके उपभोगमें आता है। पिता, पितामह और प्रपितामह ये तीन पिण्डभागी होते हैं; ओर इनसे ऊपर चतुर्थ व्यक्ति अर्थात् वृद्धप्रपितामहसे लेकर तीन पीढ़ीतक के पूर्वज लेपभागभोजी माने जाते हैं। [छः तो ये हुए,] इनमें सातवाँ है स्वयं पिण्ड देनेवाला पुरुष ये ही सात पुरुष सपिण्ड कहलाते हैं।
भीष्म जी ने पूछा - ब्रह्मनू! हव्य और कव्यका दान मनुष्योंको किस प्रकार करना चाहिये ? पितृलोकमें उन्हें कोन गहण करते हैं ? यदि इस मर्त्यलोकमें ब्राह्मण श्राद्धंके अन्नको खा जाते हैं अथवा अग्निमें उसका हवन कर दिया जाता है तो शुभ और अज्भ योनियोमें पड़े हुए प्रेत उस अन्नको कैसे खाते हैं उन्हें वह किस प्रकार मिल पाता है ? पुलस्त्यजी बोले - राजन्! पिता बसु के, पितामह रुद्र के तथा प्रपितामह आदित्य कें स्वरूप हैं ऐसी बेदकी श्रुति है। पितरोंके नाम और गोत्र ही उनके पास हव्य और कव्य पहुँचानेवाले हैं। मन्त्रकी शक्ति तथा हृदयकी भक्तिसे श्राद्धका सार-भाग पितरोंको प्राप्त होता है। अमिष्नात्त आदि दिव्य पितर पिता-पितामह आदिके अधिपति हैं वे ही उनके पास श्राद्धका अन्न पहुँचानेकी व्यवस्था करते हैं। पितरोंमेंसे जो लोग कहीं जन्म ग्रहण कर लेते हैं, उनके भी कुछ-न-कुछ नाम, गोत्र तथा देश आदि तो होते ही हैं; [दिव्य पितरों को उनका ज्ञान होता है और वे उसी पतेपर सभी वस्तुएँ पहुँचा देते हैं।] अतः यह भेंट-पूजा आदिके रूपमें दिया हुआ सब सामान प्राणियोंके पास पहुँचकर उन्हें तृप्त करता है। यदि शुभ कमेकि योगसे पिता और माता दिव्ययोनिको प्राप्त हुए हों तो श्राद्धमें दिया हुआ अन्न अमृत होकर उस अवस्थामें भी उन्हें प्राप्त होता है। वही दैत्ययोनिमें भोगरूपसे, पशुयोनिमें तृणरूपसे, सर्पयोनिमें वायुरूपसे तथा यक्षयोनिमें पानरूपसे उपस्थित होता है । इसी प्रकार यदि माता-पिता मनुष्य-योनिमें हों तो उन्हें अन्न-पान आदि अनेक रूपोमें श्राद्धान्नकी प्राप्ति होती है । यह श्राद्ध कर्म पुष्प कहा गया है, इसका फल हे ब्रह्मकी श्राप्ति। राजन् ! श्राद्धसे प्रसन्न हुए पितर आयु, पुत्र, धन, विद्या, राज्य, लोकिक सुख, स्वर्ग तथा मोक्ष भी प्रदान करते हैं।
भीष्मजीने पूछा - ब्रह्मन् ! श्राद्धकर्ता पुरुष दिनके किस भागमें श्राद्धका अनुष्ठान करे तथा किन तीरथोमें किया हुआ श्राद्ध अधिक फल देनेवाला होता है ? पुलस्त्यजी बोले - राजन् ! पुष्कर नामका तीर्थ सब तीथोंमें श्रेष्ठटम माना गया है। वहाँ किया हुआ दान, होम, [श्राद्ध) ओर जप निश्चय ही अक्षय फल अदान करनेवाला होता है। वह तीर्थ पितरों और ऋषियोंको सदा ही परम प्रिय हे। इसके सिवा ननन्दा, ललिता तथा मायापुरी (हरिद्वार) भी पुष्करके ही समान उत्तम तीर्थ हैं। मित्रपद और केदार-तीर्थ भी श्रेष्ठ हैं। गड़्सागर नामक तीर्थको परम शुभदायक ओर सर्वतीर्थभय बतलाया जाता है | ब्रह्मसर तीर्थ ओर शतद्ठु (सतलज) नदीका जल भी शुभ है। नेमिषारण्य नामक तीर्थ तो सब तीर्थोका फल देनेवाला है। वहाँ गोमतीमें गद्भाका सनातन स्त्रोत प्रकट हुआ है। नेमिषारण्यमें भगवान् यज्ञ-वराह और देवाधिदेव शूलपाणि विराजते हैं। जहाँ सोनेका दान दिया जाता है, वहाँ महादेवजीकी अठारह भुजावाली मूर्ति है। पूर्वकालमें जहाँ धर्मचक्रकी नेमि जीर्ण-शीर्ण होकर गिरी थी, वही स्थान तैमिषारण्यके नामसे प्रसिद्ध हुआ। वहाँ सब तीर्थोका निवास है। जो वहाँ जाकर देवाधिदेव वराहका दर्शन करता है, वह धर्मात्मा पुरुष भगवान् श्रीनारायणके धाममें जाता है। कोकामुख नामक क्षेत्र भी एक प्रधान तीर्थ है। यह इन्द्रलोक का मार्ग है। यहाँ भी त्रह्माजीके पितृतीर्थका दर्शन॑ होता है। वहाँ भगवान् ब्रह्माजी पुष्करारण्यमें विराजमान हैं।
ब्रह्माजी का दर्शन अत्यन्त उत्तम एवं मोक्षरूप फल प्रदान करनेवाला है। कृत नामक महान् पुण्यमय तीर्थ सब पापोंका नाशक है। वहाँ आदिपुरुष नरसिंहस्वरूप भगवान् जनार्दन स्वयं ही स्थित हैं। इक्षुमती नामक तीर्थ पितरोंको सदा प्रिय है। गड्डा ओर यमुनाके सड्रम (प्रयाग) में भी पितर सदा सन्तुष्ट रहते हैं। कुरुक्षेत्र अत्यन्त पुण्यमय तीर्थ है। वहाँका पितृ-तीर्थ सम्पूर्ण अभीष्ट फलों को देने वाला है । राजन्! नीलकण्ठ नामसे विख्यात तीर्थ भी पितरोंका तीर्थ है। इसी प्रकार परम पवित्र भद्रसर तीर्थ, मानसरोवर, मन्दाकिनी, अच्छोदा, विपाशा (व्यास नदी), पुण्यसलिला सरस्वती, सर्वमित्रपद, महाफलदायक वैद्यनाथ, अत्यन्त पावन क्षिप्रा नदी, कालिझ्जर गिरि, तीर्थेद्धिद, हरोद्धेद, गर्भभेद, महालय, भद्रेश्वर, विष्णुपद, नर्मदाद्वार तथा गयातीर्थ ये सब पितृतीर्थ हैं। महर्षियोंका कथन है कि इन तीथोमें पिण्डदान करनेसे समान फलकी प्राप्ति होती है। ये स्मरण करने मात्रसे लोगोंके सारे पाप हर लेते हैं; फिर जो इनमें पिण्डदान करते हैं, उनकी तो बात ही क्या है। ओड्डारतीर्थ, कावेरी नदी, कपिलाका जल, चण्डवेगा नदीमें मिली हुई नदियोंके सड्गम तथा अमरकण्टक ये सब पितृतीर्थ हैं। अमरकण्टंकमें किये हुए स्नान आदि पुण्यकार्य कुरुक्षेत्रकी अपेक्षा दसगुना उत्तम फल देनेवाले हैं। विख्यात शुक्वतीर्थ एवं उत्तम सोमेश्वरतीर्थ अत्यन्त पवित्र ओर सम्पूर्ण व्याधियोंको हरनेवाले हैं। वहाँ श्राद्ध करने, दान देने तथा होम, स्वाध्याय, जप और निवास करनेसे अन्य तीर्थोंकी अपेक्षा कोटिगुना अधिक फल होता है। इनके अतिरिक्त एक कायावरोहण नामक तीर्थ है,
जहाँ किसी ब्राह्मण के उत्तम भवन में देवाधिदेव त्रिशूलधारी भगवान् शट्डूर का तेजस्वी अवतार हुआ था। इसीलिये वह स्थान परम पुण्यमय तीर्थ बन गया। चर्मण्वती नदी, शूलतापी, पयोष्णी, पयोष्णी-सज्गभम, महोषधी, चारणा, नागतीर्थप्रवर्तिनी, पुण्यसलिला महावेणा नदी, महाशाल तीर्थ, गोमती, वरुणा, अग्नितीर्थ, भैरवतीर्थ, भगुतीर्थ, गोरीतीर्थ, वैनायकतीर्थ, वस््रेश्वरतीर्थ, पापहरतीर्थ, पावनसलिला वेत्रवती (बेतवा) नदी, महारुद्रतीर्थ, महालिड्डतीर्थ, दशार्णा, महानदी, शतरुद्रा, शताह्वा, पितृपदपुर, अज्भारवाहिका नदी, शोण (सोन) ओर घ॒र्घर (घाघरा) नामवाले दो नद, परमपावन कालिका नदी ओर ज्ुभदायिनी पितरा नदी ये समस्त पितृतीर्थ स्नान और दानके लिये उत्तम माने गये हैं। इन तीर्थोमें जो पिण्ड आदि दिया जाता है, वह अनन्त फल देनेवाला माना गया है। शतवटा नदी, ज्वाला, शरद्वी नदी, श्रीकृष्णतीर्थ द्वारकापुरी, उदक्सरस्वती, मालवती नदी, गिरिकर्णिका, दक्षिणसमुद्रंके तटपर विद्यमान भूतपापतीर्थ, गोकर्णतीर्थ, गजकर्णतीर्थ, परम उत्तम चक्रनदी, श्रीशेल, शाकतीर्थ, नारसिंहतीर्थ, महेन्द्र पर्वत तथा पावनसलिला महानदी इन सब तीर्थेमें किया हुआ श्राद्ध भी सदा अक्षय फल प्रदान करने वाला माना गया है। ये दर्शनमात्रसे पुण्य उत्पन्न करनेवाले तथा तत्काल समस्त पापोंको हर लेनेवाले हैं।
पुण्यमयी तुन्नभद्रा, चक्ररथी, भीमेश्वरतीर्थ, कृष्ण वेणा, कावेरी, अञ्ञना, पावनसलिला गोदावरी, उत्तम त्रिसन्ध्यातीर्थ और समस्त तीर्थोंसे नमस्कृत त्यम्बकतीर्थ, जहाँ 'भीम' नामसे प्रसिद्ध भगवान् शद्डूर स्वयं विराजमान हैं, अत्यन्त उत्तम हैं। इन सबमें दिया हुआ दान कोटिगुना अधिक फल देनेवाला है। इनके स्मरण करनेमात्रसे पापोंके सैकड़ों टुकड़े हो जाते हैं। परम पावन श्रीपर्णा नदी, अत्यन्त उत्तम व्यास तीर्थ, मत्स्यनदी, राका, शिवधारा, विख्यात भवतीर्थ, सनातन पुण्यतीर्थ, पुण्यमय रामेश्वरतीर्थ, वेणायु, अमलपुर, प्रसिद्ध मड्जलतीर्थ, आत्मदर्शतीर्थ, अल्म्बुषतीर्थ, वत्सब्रातेश्वर तीर्थ, गोकामुख तीर्थ, गोवर्धन, हसिश्वन्द्र, पुरश्चनद्र, पृथूदूक, सहस्राक्ष, हिरण्याक्ष, कदली नदी नामधेयतीर्थ, सौमित्रिसड्रमतीर्थ, इन्द्रनील, महानाद तथा प्रियमेलक ये भी श्राद्ध के लिये अत्यन्त उत्तम माने गये हैं; इनमें सम्पूर्ण देबताओंका निवास बताया जाता है। इन सबमें दिया हुआ दान कीटिगुना अधिक फल देनेवाला होता है। पावन नदी बाहुदा, शुभकारी, सिद्धवट, पाशुपततीर्थ, पर्यटिका नदी इन सबमें किया हुआ श्राद्ध भी सौ करोड़ गुना फल देता है। इसी प्रकार पञ्जतीर्थ और गोदावरी नदी भी पवित्र तीर्थ हैं। गोदावरी दक्षिण वाहिनी नदी है। उसके तटपर हजारों शिवलिड़् हैं। वहीं जामदग्न्यतीर्थ और उत्तम मोदायतनतीर्थ हैं,
जहाँ गोदावरी नदी अ्रतीकके भयसे सदा प्रवाहित होती रहती हैं। इसके सिवा हव्य-कव्य नामका तीर्थ भी है। वहाँ किये हुए श्राद्ध, होम और दान सौ करोड़ गुना अधिक फल देनेवाले होते हैं, सहस्नलिड़् और राघवेश्वर नामक तीर्थका माहात्म्य भी ऐसा ही है। वहाँ किया हुआ श्राद्ध अनन्तगुना फल देता है। शालग्राम तीर्थ, प्रसिद्ध शोणपात (सोनपत) तीर्थ, वैश्वानराशय तीर्थ, सारस्वत तीर्थ, स्वामि तीर्थ, मलंदरा नदी, पुण्यसलिला कोशिकी, चन्द्रका, विदर्भा, वेगा, प्रादमुखा, कावेरी, उत्तराड्रा और जालन्धर गिरि इन तीथॉमें किया हुआ श्राद्ध अक्षय हो जाता है। लोहदण्डतीर्थ, चित्रकूट, सभी स्थानोंमें गड्भजानदीके दिव्य एवं कल्याणमय तट, कुब्जाम्रक, उर्वशी पुलिन, संसारमोचन और ऋण मोचन तीर्थ इनमें किया हुआ श्राद्ध अनन्त हो जाता है। अट्टहासतीर्थ, गोतमेश्वरतीर्थ, वसिष्ठतीर्थ, भारततीर्थ ब्रह्मावर्त, कुशावर्त, हंसतीर्थ, प्रसिद्ध पिण्डारकतीर्थ, शा्ढोद्धारतीर्थ, भाण्डेश्वरतीर्थ, बिल्वकतीर्थ, नीलपर्वत, सब तीर्थोका राजाधिराज बदरीतीर्थ, वसुधारातीर्थ, रामतीर्थ, जयन्ती, विजय तथा शुक्ततीर्थ इनमें पिण्डदान करनेवाले पुरुष परम पदको प्राप्त होते हैं।
मातृगहतीर्थ, करवीरपुर तथा सब तीथर्थों का स्वामी सप्तगोदावरी नामक तीर्थ भी अत्यन्त पावन हैं। जिन्हें अनन्त फल प्राप्त करनेकी इच्छा हो, उन पुरुषोंको इन तीर्थोमें पिण्डदान करना चाहिये। मगध देश में गया नामकी पुरी तथा राजगृह नामक वन पावन तीर्थ हैं। वहीं च्यवन मुनिका आश्रम, पुनःपुना (पुनपुन) नदी ओर विषयाराधन तीर्थ ये सभी पुण्यमय स्थान हैं। राजेन्द्र ! लोगोंमें यह किंवदन्ती प्रचलित है कि एक समय सब मनुष्य यही कहते हुए तीर्थों और मन्दिरोंमें आये थे कि “क्या हमारे कुलमें कोई ऐसा पुत्र उत्पन्न होगा, जो गयाकी यात्रा करेगा ? जो वहाँ जायगा, वह सात पीढ़ीतकके पूर्वजॉंकी और सात पीढ़ीतककी होने वाली सन्तानों को तार देगा।' मातामह आदिके सम्बन्धमें भी यह सनातन श्रुति चिरकालसे प्रसिद्ध है; वे कहते हैं 'क्या हमारे वंशमें एक भी ऐसा पुत्र होगा, जो अपने पितरों की हड्डियोंको ले जाकर गड्ढमें डाले, सात-आठ तिलोंसे भी जलाञ्जलि दे तथा पुष्करारण्य, नैमिषारण्य और धर्मारण्यमें पहुँचकर भक्तिपूर्वक श्राद्ध एवं पिण्डदान करे ?' गया क्षेत्रके भीतर जो धर्मपृष्ठ, ब्रह्मसर तथा गयाशीर्षबट नामक तीथ्थोमें पितरॉको पिण्डदान किया जाता है, वह अक्षय होता है ।
जो घरपर श्राद्ध करके गया तीर्थकी यात्रा करता है, वह मार्म में पैर रखते ही नरकमें पड़े हुए पितरोंको तुरंत स्वर्ग में पहुँचा देता है। उसके कुलमें कोई प्रेत नहीं होता। गयामें पिण्डदानके प्रभावसे प्रेतत्वसे छुटकारा मिल जाता है। [गयामें] एक मुनि थे, जो अपने दोनों हाथोंके अग्रभागमें भरा हुआ ताम्रपात्र लेकर आमोंकी जड़में पानी देते थे; इससे आमोंकी सिंचाई भी होती थी और उनके पितर भी तृप्त होते थे। इस अ्कार एक ही क्रिया दो प्रयोजनोंको सिद्ध करने वाली हुई गया में पिण्ड दान से बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है; क्योंकि वहाँ एक ही पिण्ड देने से पितर तृप्त होकर मोक्ष को प्राप्त होते हैं। कोई-कोई मुनीश्वर अन्नदानको श्रेष्ठ बतलाते हैं और कोई बख्रदानको उत्तम कहते हैं वस्तुतः गयाके उत्तम तीथों में मनुष्य जो कुछ भी दान करते हैं, वह धर्मका हेतु और श्रेष्ठ कहा गया है।
यह तीर्थों का संग्रह मैंने संक्षेप में बतलाया है; विस्तारसे तो इसे बहस्पतिजी भी नहीं कह सकते, फिर मनुष्य की तो बात ही क्या है। सत्य तीर्थ है, दया तीर्थ है, और इन्द्रियोंका निग्रह भी तीर्थ है। मनोनिग्रहको भी तीर्थ कहा गया है। सबेरे तीन मुहूर्त (छः घड़ी) तक प्रातःकाल रहता है। उसके बाद तीन मुहूर्ततकका समय सज्भग कहलाता है। तत्पश्चात् तीन मुहूर्ततक मध्याह होता है। उसके बाद उतने ही समयतक अपराह्न रहता है। फिर तीन मुहूर्ततक सायाह् होता है। सायाह्का लमें श्राद्ध नहीं करना चाहिये; क्योंकि वह राक्षसी वेला है, अतः सभी कमेके लिये निन्दित है। दिनके पंद्रह मुहूर्त बतलाये गये हैं। उनमें आठवाँ मुहूर्त, जो दोपहरके बाद पड़ता है, 'कुतप” कहलाता है। उस समयसे धीरे धीरे सूर्यका ताप मन्द पड़ता जाता है। वह अनन्त फल देने वाला काल है। उसीमें श्राद्धक् आरम्भ उत्तम माना जाता है। खड्गपात्र, कुतप, नेपालदेशीय कम्बल, सुवर्ण, कुश, तिछ तथा आठवाँ दौहित्र (पुत्री का पुत्र) ये कुत्सित अर्थात् पाप को सन्ताप देने वाले हैं
इसलिये इन आठों को 'कुतप' कहते हैं । कुतप मुहूर्त के बाद चार मुहूर्त तक अर्थात् कुल पाँच मुहूर्त स्वधा वाचन (श्राद्ध) के लिये उत्तम काल है। कुश ओर काले तिल भगवान् श्री विष्णु के शरीर से उत्पन्न हुए हैं। मनीषी पुरुषों ने श्राद्धक्ता लक्षण और काल इसी प्रकार बताया है। तीर्थ वासियोंको तीर्थके जलमें प्रवेश करके पितरोंके लिये तिछ ओर जलकी अझलि देनी चाहिये। एक हाथ में कुश लेकर घरमें श्राद्ध करना चाहिये। यह तीर्थ-श्राद्धस्धा विवरण पुण्यदायक, पवित्र, आयु बढ़ाने वाला तथा समस्त पापों का निवारण करने वाला है। इसे स्वयं ब्रह्माजी नी अपने श्री मुख से कहा है। तीर्थ निवासियों को श्राद्धंकं समय इस अध्यायका पाठ करना चाहिये। यह सब पापों की शान्ति का साधन ओर दरिद्रता का नाशक है।
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