चन्द्रमा की उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्त्रार्जुन के प्रभाव का वर्णन,Chandrama Kee Utpatti Tatha Yaduvansh Evan Sahastraarjun Ke Prabhaav Ka Varnan

चन्द्रमा की उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्त्रार्जुन के प्रभाव का वर्णन

भीष्म जी ने पूछा- समस्त शास्त्रों के ज्ञाता पुलस्त्य जी ! चन्द्रवंश की उत्पत्ति कैसे हुई ? उस वंशमें कौन-कौन-से राजा अपनी कीर्तिका विस्तार करनेवाले हुए ? पुलस्त्य जी ने कहा- राजन् ! पूर्वकाल में ब्रह्माजीने महर्षि अत्रिको सृष्टिके लिये आज्ञा दी। तब उन्होंने सृष्टिकी शक्ति प्राप्त करनेके लिये अनुत्तर* नामका तप किया। वे अपने मन और इन्द्रियोंके संयममें तत्पर होकर परमानन्दमय ब्रह्मका चिन्तन करने लगे। एक दिन महर्षिके नेत्रोंसे कुछ जलकी बूँदें टपकने लगीं, जो अपने प्रकाशसे सम्पूर्ण चराचर जगत्‌को प्रकाशित कर रही थीं। दिशाओं [की अधिष्ठात्री देवियों] ने स्त्रीरूपमें आकर पुत्र पानेकी इच्छासे उस जलको ग्रहण कर लिया। उनके उदरमें वह जल गर्भरूपसे स्थित हुआ। दिशाएँ उसे धारण करनेमें असमर्थ हो गयीं; अतः उन्होंने उस गर्भको त्याग दिया। तब ब्रह्माजीने उनके छोड़े हुए गर्भको एकत्रित करके उसे एक तरुण पुरुषके रूपमें प्रकट किया, जो सब प्रकारके आयुधोंको धारण करने वाला था। फिर वे उस तरुण पुरुषको देवशक्ति सम्पन्न सहस्त्र नामक रथपर बिठाकर अपने लोकमें ले गये। तब ब्रह्मर्षियोंने कहा- 'ये हमारे स्वामी हैं।' तदनन्तर ऋषि, देवता, गन्धर्व और अप्सराएँ उनकी स्तुति करने लगीं। उस समय उनका तेज बहुत बढ़ गया। उस तेजके विस्तारसे इस पृथ्वीपर दिव्य ओषधियाँ उत्पन्न हुई।


इसी से चन्द्रमा ओषधियों के स्वामी हुए तथा द्विजों में भी उनकी गणना हुई। वे शुक्लपक्ष में बढ़ते और कृष्णपक्ष में सदा क्षीण होते रहते हैं। कुछ कालके बाद प्रचेताओंके पुत्र प्रजापति दक्षने अपनी सत्ताईस कन्याएँ जो रूप और लावण्यसे युक्त तथा अत्यन्त तेजस्विनी थीं, चन्द्रमाको पत्नीरूपमें अर्पण कीं। तत्पश्चात् चन्द्रमाने केवल श्रीविष्णुके ध्यान में तत्पर होकर चिरकालतक बड़ी भारी तपस्या की। इससे प्रसन्न होकर परमात्मा श्रीनारायण देव ने उनसे वर माँगनेको कहा। तब चन्द्रमाने यह वर माँगा- 'मैं इन्द्र लोक में राज सूय यज्ञ करूँगा। उसमें आपके साथ ही सम्पूर्ण देवता मेरे मन्दिरमें प्रत्यक्ष प्रकट होकर यज्ञभाग ग्रहण करें। शूलधारी भगवान् श्रीशङ्कर मेरे यज्ञकी रक्षा करें।' 'तथास्तु' कहकर भगवान् श्रीविष्णुने स्वयं ही राजसूय यज्ञका समारोह किया। उसमें अत्रि होता, भृगु अध्वर्यु और ब्रह्माजी उद्गाता हुए। साक्षात् भगवान् श्रीहरि ब्रह्मा बनकर यज्ञके द्रष्टा हुए तथा सम्पूर्ण देवताओंने सदस्यका काम सँभाला। यज्ञ पूर्ण होनेपर चन्द्रमाको दुर्लभ ऐश्वर्य मिला और वे अपनी तपस्याके प्रभावसे सातों लोकोंके स्वामी हुए।
चन्द्रमासे बुधकी उत्पत्ति हुई।

ब्रह्मर्षियों के साथ ब्रह्माजीने बुधको भूमण्डलके राज्यपर अभिषिक्त करके उन्हें ग्रहोंकी समानता प्रदान की। बुधने इलाके गर्भसे एक धर्मात्मा पुत्र उत्पन्न किया, जिसने सौसे भी अधिक अश्वमेध यज्ञोंका अनुष्ठान किया। वह पुरूरवाके नामसे विख्यात हुआ। सम्पूर्ण जगत्‌के लोगोंने उसके सामने मस्तक झुकाया। पुरूरवाने हिमालयके रमणीय शिखरपर ब्रह्माजीकी आराधना करके लोकेश्वरका पद प्राप्त किया। वे सातों द्वीपोंके स्वामी हुए। केशी आदि दैत्योंने उनकी दासता स्वीकार की। उर्वशी नामकी अप्सरा उनके रूपपर मोहित होकर उनकी पत्नी हो गयी। राजा पुरूरवा सम्पूर्ण लोकोंके हितैषी राजा थे; उन्होंने सातों द्वीप, वन, पर्वत और काननोंसहित समस्त भूमण्डलका धर्मपूर्वक पालन किया। उर्वशीने पुरूरवाके वीर्यसे आठ पुत्रोंको जन्म दिया। उनके नाम ये है- आयु, दृढायु, वश्यायु, धनायु, वृत्तिमान्, वसु, दिविजात और सुबाहु - ये सभी दिव्य बल और पराक्रमसे सम्पन्न थे। इनमेंसे आयुके पाँच पुत्र हुए- नहुष, वृद्धशर्मा, रजि, दम्भ और विपाप्मा। ये पाँचों वीर महारथी थे। रजिके सौ पुत्र हुए, जो राजेयके नामसे विख्यात थे। राजन् । रजिने तपस्याद्वारा पापके सम्पर्कसे रहित भगवान् श्रीनारायणकी आराधना की। इससे सन्तुष्ट होकर श्रीविष्णुने उन्हें वरदान दिया, जिससे रजिने देवता, असुर और मनुष्योंको जीत लिया। अब मैं नहुषके पुत्रोंका परिचय देता हूँ। उनके सात पुत्र हुए और वे सब-के-सब धर्मात्मा थे। 

उनके नाम ये हैं- यति, ययाति, संयाति, उद्भव, पर, वियति और विद्यसाति । ये सातों अपने वंशका यश बढ़ाने वाले थे। उनमें यति कुमारावस्थामें ही वानप्रस्थ योगी हो गयेः। ययाति राज्यका पालन करने लगे। उन्होंने एकमात्र धर्मकी ही शरण ले रखी थी। दानवराज वृषपर्वाकी कन्या शर्मिष्ठा तथा शुक्राचार्यकी पुत्री सती देवयानी- ये दोनों उनकी पलियाँ थीं। ययातिके पाँच पुत्र थे। देवयानीने यदु और तुर्वसु नामके दो पुत्रोंको जन्म दिया तथा शर्मिष्ठाने दुह्यु, अनु और पूरु नामक तीन पुत्र उत्पन्न किये। उनमें यदु और पूरु- ये दोनों अपने वंशका विस्तार करनेवाले हुए। यदुसे यादवोंकी उत्पत्ति हुई, जिनमें पृथ्वीका भार उतारने और पाण्डवोंका हित करनेके लिये भगवान् बलराम और श्रीकृष्ण प्रकट हुए हैं। यदुके पाँच पुत्र हुए, जो देवकुमारोंके समान थे। उनके नाम थे- सहस्त्रजित्, क्रोष्टु, नील, अञ्जिक और रघु । इनमें सहस्रजित् ज्येष्ठ थे। उनके पुत्र राजा शतजित् हुए। शतजित्‌के हैहय, हय और उत्तालहय- ये तीन पुत्र हुए, जो बड़े धर्मात्मा थे। हैहयका पुत्र धर्मनेत्रके नामसे विख्यात हुआ। धर्मनेत्रके कुम्भि, कुम्भिके संहत और संहतके महिष्मान् नामक पुत्र हुआ। महिष्मान्‌से भद्रसेन नामक पुत्रका जन्म हुआ, जो बड़ा प्रतापी था। वह काशीपुरीका राजा था। भद्रसेनके पुत्र राजा दुर्दर्श हुए। दुर्दर्शक पुत्र भीम और भीमके बुद्धिमान् कनक हुए। कनकके कृताझि, कृतवीर्य, कृतधर्मा और कृतौजा- ये चार पुत्र हुए, जो संसारमें विख्यात थे। कृतवीर्यका पुत्र अर्जुन हुआ, जो एक हजार भुजाओंसे सुशोभित एवं सातों द्वीपोंका राजा था। 

राजा कार्तवीर्यने दस हजार वर्षोंतक दुष्कर तपस्या करके भगवान् दत्तात्रेयजीकी आराधना की। पुरुषोत्तम दत्तात्रेयजीने उन्हें चार वरदान दिये। राजाओंमें श्रेष्ठ अर्जुनने पहले तो अपने लिये एक हजार भुजाएँ माँगी। दूसरे वरके द्वारा उन्होंने यह प्रार्थना की कि 'मेरे राज्यमें लोगोंको अधर्मकी बात सोचते हुए भी मुझसे भय हो और वे अधर्मके मार्गसे हट जायें।' तीसरा वरदान इस प्रकार था- 'मैं युद्धमें पृथ्वीको जीतकर धर्मपूर्वक बलका संग्रह करूँ।' चौथे वरके रूपमें उन्होंने यह माँगा कि 'संग्राममें लड़ते-लड़ते मैं अपनी अपेक्षा श्रेष्ठ वीरके हाथसे मारा जाऊँ।' राजा अर्जुनने सातों द्वीप और नगरोंसे युक्त तथा सातों समुद्रोंसे घिरी हुई इस सारी पृथ्वीको क्षात्रधर्मके अनुसार जीत लिया था। उस बुद्धिमान् नरेशके इच्छा करते ही हजार भुजाएँ प्रकट हो जाती थीं। महाबाहु अर्जुनके सभी यज्ञोंमें पर्याप्त दक्षिणा बाँटी जाती थी। सबमें सुवर्णमय यूप (स्तम्भ) और सोनेकी ही वेदियाँ बनायी जाती थीं। 

उन यज्ञोंमें सम्पूर्ण देवता सज-धजकर विमानोंपर बैठकर प्रत्यक्ष दर्शन देते थे। महाराज कार्तवीर्यन पचासी हजार वर्षोंतक एकछत्र राज्य किया। वे चक्रवर्ती राजा थे। योगी होनेके कारण अर्जुन समय-समयपर मेघके रूपमें प्रकट हो वृष्टिके द्वारा प्रजाको सुख पहुँचाते थे। प्रत्यञ्चाके आघातसे उनकी भुजाओंकी त्वचा कठोर हो गयी थी। जब वे अपनी हजारों भुजाओंके साथ संग्राममें खड़े होते थे, उस समय सहस्त्रों किरणोंसे सुशोभित शरत्कालीन सूर्यके समान तेजस्वी जान पड़ते थे। परम कान्तिमान् महाराज अर्जुन माहिष्मतीपुरीमें निवास करते थे और वर्षाकालमें समुद्रका वेग भी रोक देते थे। उनकी हजारों भुजाओंके आलोडनसे समुद्र क्षुब्ध हो उठता था और उस समय पातालवासी महान् असुर लुक छिपकर निश्चेष्ट हो जाते थे।

एक समयकी बात है, वे अपने पाँच बाणोंसे अभिमानी रावणको सेनासहित मूर्छित करके माहिष्मतीपुरीमें ले आये। वहाँ ले जाकर उन्होंने रावणको कैदमें डाल दिया। तब मैं (पुलस्त्य) अर्जुनको प्रसन्न करनेके लिये गया। राजन् ! मेरी बात मानकर उन्होंने मेरे पौत्रको छोड़ दिया और उसके साथ मित्रता कर ली। किन्तु विधाताका बल और पराक्रम अद्भुत है, जिसके प्रभावसे भृगुनन्दन परशुरामजीने राजा कार्तवीर्यकी हजारों भुजाओंको सोनेके तालवनकी भाँति संग्राममें काट डाला। कार्तवीर्य अर्जुनके सौ पुत्र थे; किन्तु उनमें पाँच महारथी, अस्त्रविद्यामें निपुण, बलवान्, शूर, धर्मात्मा और महान् व्रतका पालन करनेवाले थे। उनके नाम थे- शूरसेन, शूर, धृष्ट, कृष्ण और जयध्वज। जयध्वजका पुत्र महाबली तालजङ्घ हुआ। तालजङ्घके सौ पुत्र हुए, जिनकी तालजङ्घके नामसे ही प्रसिद्धि हुई। उन हैहयवंशीय राजाओंके पाँच कुल हुए वीतिहोत्र, भोज, अवन्ति, तुण्डकेर और विक्रान्त । ये सब के सब तालजङ्घ ही कहलाये। वीतिहोत्र का पुत्र अनन्त हुआ, जो बड़ा पराक्रमी था। उसके दुर्जय नामक पुत्र हुआ, जो शत्रुओंका संहार करनेवाला था

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