भगवान विष्णु ही मोक्ष दाता हैं मोक्ष प्राप्ति का उपाय,Bhagavaan Vishnu Hee Moksh Daata Hain Moksh Praapti Ka Upaay

भगवान विष्णु ही मोक्ष दाता हैं मोक्ष प्राप्ति का उपाय,

मोक्षप्राप्तिका उपाय, भगवान् विष्णु ही मोक्षदाता हैं- इसका प्रतिपादन, योग तथा उसके अङ्गोंका निरूपण
नारदजीने पूछा- भगवन् ! कर्मसे देह मिलता है। देहधारी जीव कामनासे बँधता है। कामसे वह लोभके वशीभूत होता है और लोभसे क्रोधके अधीन हो जाता है। क्रोधसे धर्मका नाश होता है। धर्मके नाशसे बुद्धि बिगड़ जाती है और जिसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है, वह मनुष्य पुनः पाप करने लगता है। अतः देह ही पापकी जड़ है तथा उसीकी पापकर्ममें प्रवृत्ति होती है, इसलिये मनुष्य इस देहके भ्रमको त्यागकर जिस प्रकार मोक्षका भागी हो सके, वह उपाय बताइये। श्रीसनकजीने कहा- महाप्राज्ञ ! सुव्रत! जिनकी आज्ञासे ब्रह्माजी सम्पूर्ण जगत्‌की सृष्टि, विष्णु पालन तथा रुद्र संहार करते हैं, महत्तत्त्वसे लेकर विशेषपर्यन्त सभी तत्त्व जिनके प्रभावसे उत्पन्न हुए हैं, उन रोग-शोकसे रहित सर्वव्यापी भगवान् नारायणको ही मोक्षदाता जानना चाहिये। सम्पूर्ण चराचर जगत् जिनसे भिन्न नहीं है तथा जो जरा और मृत्युसे परे हैं, उस तेज प्रभाववाले भगवान् नारायणका ध्यान करके मनुष्य दुःखसे मुक्त हो जाता है। जो विकाररहित, अजन्मा, शुद्ध, स्वयंप्रकाश, निरञ्जन, ज्ञानरूप तथा सच्चिदानन्दमय हैं, ब्रह्मा आदि देवता जिनके अवतारस्वरूपोंकी सदा आराधना करते हैं, वे श्रीहरि ही सनातन स्थान (परम धाम या मोक्ष) के दाता हैं। ऐसा जानना चाहिये। जो निर्गुण होकर भी सम्पूर्ण गुणोंके आधार हैं, लोकोंपर अनुग्रह करनेके लिये विविध रूप धारण करते हैं और सबके हृदयाकाशमें विराजमान तथा सर्वत्र परिपूर्ण हैं, जिनकी कहीं भी उपमा नहीं है तथा जो सबके आधार हैं, उन भगवान्‌की शरणमें जाना चाहिये।

 
जो कल्पके अन्तमें सबको अपने भीतर समेटकर स्वयं जलमें शयन करते हैं, वेदार्थके ज्ञाता तथा कर्मकाण्डके विद्वान् नाना प्रकारके यज्ञोंद्वारा जिनका यजन करते हैं, वे ही भगवान् कर्मफलके दाता हैं और निष्कामभावसे कर्म करनेवालोंको वे ही मोक्ष देते हैं। जो ध्यान, प्रणाम अथवा भक्तिपूर्वक पूजन करनेपर अपना सनातन स्थान वैकुण्ठ प्रदान करते हैं, उन दयालु भगवान्‌की आराधना करनी चाहिये। मुनीश्वर ! जिनके चरणारविन्दोंकी पूजा करके देहाभिमानी जीव भी शीघ्र ही अमृतत्व (मोक्ष) प्राप्त कर लेते हैं, उन्हींको ज्ञानीजन पुरुषोत्तम मानते हैं। जो आनन्दस्वरूप, जरारहित,परमज्योतिर्मय, सनातन एवं परात्पर ब्रह्म हैं, वही भगवान् विष्णुका सुप्रसिद्ध परम पद है। जो अद्वैत, निर्गुण, नित्य, अद्वितीय, अनुपम, परिपूर्ण तथा ज्ञानमय ब्रह्म है, उसीको साधु पुरुष मोक्षका साधन मानते हैं। जो योगी पुरुष योगमार्गकी विधिसे ऐसे परम तत्त्वकी उपासना करता है, वह परम पदको प्राप्त होता है। जो सब प्रकारकी आसक्तियोंका त्याग करनेवाला, शम-दम आदि गुणोंसे युक्त और काम आदि दोषोंसे रहित है, वह योगी परम पदको पाता है। नारदजीने पूछा- वक्ताओंमें श्रेष्ठ! किस कर्मसे योगियोंके योगकी सिद्धि होती है? वह उपाय यथार्थरूपसे मुझे बताइये। श्रीसनकजीने कहा- तत्त्वार्थका विचार करनेवाले ज्ञानी पुरुष कहते हैं कि परम मोक्ष ज्ञानसे ही प्राप्त होने योग्य है। उस ज्ञानका मूल है भक्ति और भक्ति प्राप्त होती है (भगवदर्थ) कर्म करनेवालोंको। भक्तिका लेशमात्र होनेसे भी अक्षय परम धर्म सम्पन्न होता है। उत्कृष्ट श्रद्धासे सब पाप नष्ट हो जाते हैं। सब पापोंका नाश होनेपर निर्मल बुद्धिका उदय होता है। वह निर्मल बुद्धि ही ज्ञानी पुरुषोंद्वारा ज्ञानके नामसे बतायी गयी है। ज्ञानको मोक्ष देनेवाला कहा गया है। वैसा ज्ञान योगियोंको होता है। 

कर्मयोग और ज्ञानयोग- इस प्रकार दो प्रकारका योग कहा गया है। कर्मयोगके बिना मनुष्योंका ज्ञानयोग सिद्ध नहीं होता; अतः क्रिया (कर्म) योगमें तत्पर होकर श्रद्धापूर्वक भगवान् श्रीहरिकी पूजा करनी चाहिये। ब्राह्मण, भूमि, अग्नि, सूर्य, जल, धातु, हृदय तथा चित्र नामवाली- ये भगवान् केशवकी आठ प्रतिमाएँ हैं। इनमें भक्तिपूर्वक भगवान्‌का पूजन करना चाहिये। अतः मन, वाणी और क्रियाद्वारा दूसरोंको पीड़ा न देते हुए भक्तिभावसे संयुक्त हो सर्वव्यापी भगवान् विष्णुकी पूजा करे। अहिंसा, सत्य, क्रोधका अभाव, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, ईर्ष्याका त्याग तथा दया ये सद्‌गुण ज्ञानयोग और कर्मयोग-दोनोंमें समानरूपसे आवश्यक हैं। यह चराचर विश्व सनातन भगवान् विष्णुका ही स्वरूप है। ऐसा मनसे निश्चय करके उक्त दोनों योगोंका अभ्यास करे। जो मनीषी पुरुष समस्त प्राणियोंको अपने आत्माके ही समान मानते हैं, वे ही देवाधिदेव चक्रसुदर्शनधारी भगवान् विष्णुके परम भावको जानते हैं। जो असूया (दूसरोंके दोष देखने) में संलग्न हो तपस्या, पूजा और ध्यानमें प्रवृत्त होता है, उसकी वह तपस्या, पूजा और ध्यान सब व्यर्थ होते हैं। इसलिये शम, दम आदि गुणोंके साधनमें लगकर विधिपूर्वक क्रियायोगमें तत्पर हो मनुष्य अपनी मुक्तिके लिये सर्वस्वरूप भगवान् विष्णुकी पूजा करे। जो सम्पूर्ण लोकोंके हितसाधनमें तत्पर हो मन, वाणी और क्रियाद्वारा देवेश्वर भगवान् विष्णुका भलीभाँति पूजन करता है, जो जगत्के कारणभूत, सर्वान्तर्यामी एवं सर्वपापहारी सर्वव्यापी भगवान् विष्णुकी स्तोत्र आदिके द्वारा स्तुति करता है, वह कर्मयोगी कहा जाता है। उपवास आदि व्रत, पुराणश्रवण आदि सत्कर्म तथा पुष्प आदि सामग्रियोंसे जो भगवान् विष्णुकी पूजा की जाती है, उसे क्रियायोग कहा गया है। 

इस प्रकार जो भगवान् विष्णुमें भक्ति रखकर क्रियायोगमें मन लगानेवाले हैं, उनके पूर्वजन्मोंके किये हुए समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। पापोंके नष्ट होनेसे जिसकी बुद्धि शुद्ध हो जाती है, वह उत्तम ज्ञानकी इच्छा रखता है; क्योंकि ज्ञान मोक्ष देनेवाला है-ऐसा जानना चाहिये। अब मैं तुम्हें ज्ञान-प्राप्तिका उपाय बतलाता हूँ। बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह शास्त्रार्थविशारद साधुपुरुषोंके सहयोगसे इस चराचर विश्वमें स्थित नित्य और अनित्य वस्तुका भलीभाँति विचार करे। संसारके सभी पदार्थ अनित्य हैं। केवल भगवान् श्रीहरि नित्य माने गये हैं। अतः अनित्य वस्तुओंका परित्याग करके नित्य श्रीहरिका ही आश्रय लेना चाहिये। इहलोक और परलोकके जितने भोग हैं, उनकी ओरसे विरक्त होना चाहिये। जो भोगोंसे विरक्त नहीं होता, वह संसारमें फँस जाता है। जो मानव जगत्‌के अनित्य पदार्थोंमें आसक्त होता है, उसके संसार-बन्धनका नाश कभी नहीं होता। अतः शम, दम आदि गुणोंसे सम्पन्न हो मुक्तिकी इच्छा रखकर ज्ञान- प्राप्तिके लिये साधन करे। जो शम (दम, तितिक्षा, उपरति, श्रद्धा और समाधान) आदि गुणोंसे शून्य है, उसे ज्ञानकी प्राप्ति नहीं होती। जो राग-द्वेषसे रहित, शमादि गुणोंसे सम्पन्न तथा प्रतिदिन भगवान् विष्णुके ध्यानमें तत्पर है, उसीको 'मुमुक्षु' कहते हैं। इन चार (नित्यानित्यवस्तुविचार, वैराग्य, षट् सम्पत्ति और मुमुक्षुत्व) साधनोंसे मनुष्य विशुद्धबुद्धि कहा जाता है। ऐसा पुरुष सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति दयाभाव रखते हुए सदा सर्वव्यापी भगवान् विष्णुका ध्यान करे। ब्रह्मन् ! क्षर-अक्षर (जड-चेतन) स्वरूप सम्पूर्ण विश्वको व्याप्त करके भगवान् नारायण विराजमान हैं। ऐसा जो जानता है, उसका ज्ञान योगज माना गया है। अतः मैं योगका उपाय बतलाता हूँ। जो संसार-बन्धनको दूर करनेवाला है। पर और अपर-भेदसे आत्मा दो प्रकारका कहा गया है। 

अधर्ववेदकी श्रुति भी कहती है कि दो ब्रह्म जानने योग्य हैं। पर आत्मा अथवा परब्रह्मको निर्गुण बताया गया है तथा अपर आत्मा या अपरब्रह्म अहंकारयुक्त (जीवात्मा) कहा गया है। इन दोनोंके अभेदका ज्ञान 'ज्ञानयोग' कहलाता है। इस पाञ्चभौतिक शरीरके भीतर हृदयदेशमें जो साक्षीरूपमें स्थित है, उसे साधु पुरुषोंने अपरात्मा कहा है तथा परमात्मा पर (श्रेष्ठ) माने गये हैं। शरीरको क्षेत्र कहते हैं। जो क्षेत्रमें स्थित आत्मा है, वह क्षेत्रज्ञ कहलाता है। परमात्मा अव्यक्त, शुद्ध एवं सर्वत्र परिपूर्ण कहा गया है। मुनिश्रेष्ठ ! जब जीवात्मा और परमात्माके अभेदका ज्ञान हो जाता है, तब अपरात्माके बन्धनका नाश होता है। परमात्मा एक, शुद्ध, अविनाशी, नित्य एवं जगन्मय हैं। वे मनुष्योंके बुद्धिभेदसे भेदवान् से दिखायी देते हैं। ब्रह्मन् ! उपनिषदोंद्वारा वर्णित जो एक अद्वितीय सनातन परब्रह्म परमात्मा हैं, उनसे भिन्न कोई वस्तु नहीं है'। उन निर्गुण परमात्माका न कोई रूप है, न रंग है, न कर्तव्य कर्म है और न कर्तृत्व या भोक्तृत्व ही है। वे सब कारणोंके भी आदिकारण हैं, सम्पूर्ण तेजोंके प्रकाशक परम तेज हैं। उनसे भिन्न दूसरी कोई वस्तु नहीं है। मुक्तिके लिये उन्हीं परमात्माका ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। ब्रह्मन् । शब्दब्रह्ममय जो महावाक्य आदि हैं अर्थात् वेदवर्णित जो 'तत्त्वमसि', 'सोऽहमस्मि' इत्यादि महावाक्य हैं, उनपर विचार करनेसे जीवात्मा और परमात्माका अभेद ज्ञान प्रकाशित होता है, वह मुक्तिका सर्वश्रेष्ठ साधन है। नारदजी! जो उत्तम ज्ञानसे हीन हैं, उन्हें यह जगत् नाना भेदोंसे युक्त दिखायी देता है, परंतु परम ज्ञानियोंकी दृष्टिमें यह सब परब्रह्मरूप है। 

परमानन्दस्वरूप, परात्पर, अविनाशी एवं निर्गुण परमात्मा एक ही हैं, किंतु बुद्धिभेदसे वे भिन्न-भिन्न अनेक रूप धारण करनेवाले प्रतीत होते हैं। द्विजश्रेष्ठ! जिनके ऊपर मायाका पर्दा पड़ा है, वे मायाके कारण परमात्मामें भेद देखते हैं, अतः मुक्तिकी इच्छा रखनेवाला पुरुष योगके बलसे मायाको निस्सार समझकर त्याग दे माया न सद्रूप है, न असद्रूप, न सद्-असद् उभयरूप है, अतः उसे अनिर्वाच्य (किसी रूपमें भी न कहने योग्य) समझना चाहिये। वह केवल भेदबुद्धि प्रदान करनेवाली है। मुनिश्रेष्ठ। अज्ञान शब्दसे मायाका ही बोध होता है, अतः जो मायाको जीत लेते हैं, उनके अज्ञानका नाश हो जाता है। शब्दसे सनातन परब्रह्मका ही प्रतिपादन किया जाता है, क्योंकि ज्ञानियोंके हृदयमें निरन्तर परमात्मा प्रकाशित होते रहते हैं। मुनिश्रेष्ठ! योगी पुरुष योगके द्वारा अज्ञानका नाश करे। योग आठ अङ्गोंसे सिद्ध होता है; अतः मैं उन आठों अङ्गोंका यथार्थरूपसे वर्णन करता हूँ। मुनिवर नारद ! यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ये योगके आठ अङ्ग हैं। मुनीश्वर ! अब क्रमशः संक्षेपसे इनके लक्षण बतलाता हूँ। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, अक्रोध और अनसूया-ये संक्षेपसे यम बताये गये हैं। सम्पूर्ण प्राणियोंमेंसे किसीको (कभी किंचिन्मात्र) भी जो कष्ट न पहुँचानेका भाव है, उसे सत्पुरुषोंने 'अहिंसा' कहा है। 'अहिंसा' योगमार्गमें सिद्धि प्रदान करनेवाली है। मुनिश्रेष्ठ! धर्म और अधर्मका विचार रखते हुए जो यथार्थ बात कही जाती है, उसे श्रेष्ठ पुरुष 'सत्य' कहते हैं। चोरीसे या बलपूर्वक जो दूसरेके धनको हड़प लेना है, वह साधु पुरुषोंद्वारा 'स्तेय' कहा गया है। इसके विपरीत किसीकी वस्तुको न लेना 'अस्तेय' है। सब प्रकारसे मैथुनका त्याग 'ब्रह्मचर्य' कहा गया है। मुनीश्वर ! आपत्तिकालमें भी द्रव्योंका संग्रह न करना 'अपरिग्रह' कहा गया है। वह योगमार्गमें उत्तम सिद्धि प्रदान करनेवाला है। 

जो अपना उत्कर्ष जताते हुए किसीके प्रति अत्यन्त कठोर वचन बोलता है, उसके उस क्रूरतापूर्ण भावको धर्मज्ञ पुरुष 'क्रोध' कहते हैं, इसके विपरीत शान्तभावका नाम 'अक्रोध' है। धन आदिके द्वारा किसीको बढ़ते देखकर डाहके कारण जो मनमें संताप होता है, उसे साधु पुरुषोंने 'असूया' (ईर्ष्या) कहा है; इस 'असूया' का त्याग ही 'अनसूया' है। देवर्षे! इस प्रकार संक्षेपसे 'यम' बताये गये हैं। नारदजी! अब मैं तुम्हें 'नियम' बतला रहा हूँ, सुनो। तप, स्वाध्याय, संतोष, शौच, भगवान् विष्णुकी आराधना तथा संध्योपासन आदि नियम कहे गये हैं। जिसमें चान्द्रायण आदि व्रतोंके द्वारा शरीरको कृश किया जाता है, उसे साधु पुरुषोंने 'तप' कहा है। वह योगका उत्तम साधन है। ब्रह्मन् ! ॐकार, उपनिषद्, द्वादशाक्षर- मन्त्र (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय), अष्टाक्षर- मन्त्र (ॐ नमो नारायणाय) तथा तत्त्वमसि आदि महावाक्योंके समुदायका जो जप, अध्ययन एवं विचार है, उसे 'स्वाध्याय' कहा गया है। वह भी योगका उत्तम साधन है। जो मूढ़ उपर्युक्त स्वाध्याय छोड़ देता है, उसका योग सिद्ध नहीं होता। किंतु योगके बिना भी केवल स्वाध्यायमात्रसे मनुष्योंके पापका नाश हो जाता है। स्वाध्यायसे संतुष्ट किये हुए इष्टदेवता प्रसन्न होते हैं। विप्रवर ! जप तीन प्रकारका कहा गया है- वाचिक, उपांशु और मानस। इन तीन भेदोंमें भी पूर्व-पूर्वकी अपेक्षा उत्तर-उत्तर श्रेष्ठ है। विधिपूर्वक अक्षर और पदको स्पष्ट बोलते हुए जो मन्त्रका उच्चारण किया जाता है, उसे 'वाचिक' जप बताया गया है। 

वह सम्पूर्ण यज्ञोंका फल देनेवाला है। कुछ मन्द स्वरमें मन्त्रका उच्चारण करते समय एक पदसे दूसरे पदका विभाग करते जाना 'उपांशु' जप कहा गया है। वह पहलेकी अपेक्षा दूना महत्त्व रखता है। मन-ही-मन अक्षरोंकी श्रेणीका चिन्तन करते हुए जो उसके अर्थपर विचार किया जाता है, वह 'मानस' जप कहा गया है। मानस जप योगसिद्धि देनेवाला है'। जपसे स्तुति करनेवाले पुरुषपर इष्टदेव नित्य प्रसन्न रहते हैं, इसलिये स्वाध्यायपरायण मनुष्य सम्पूर्ण मनोरथोंको पा लेता है। प्रारब्धके अनुसार जो कुछ मिल जाय, उसीसे प्रसन्न रहना 'संतोष' कहलाता है। संतोषहीन पुरुष कहीं सुख नहीं पाता। भोगोंकी कामना भोग्य वस्तुओंको भोग लेनेसे शान्त नहीं होती, अपितु इससे भी अधिक भोग मुझे कब मिलेगा- इस प्रकार कामना बढ़ती रहती है। अतः कामनाका त्याग करके दैवात् जो कुछ मिले, उसीसे संतुष्ट रहकर मनुष्यको धर्मके पालनमें लगे रहना चाहिये। बाह्यशौच और आभ्यन्तर शौचके भेदसे 'शौच' दो प्रकारका माना गया है। मिट्टी और जलसे जो शरीरको शुद्ध किया जाता है, वह बाह्यशौच है और अन्तःकरणके भावकी जो शुद्धि है, उसे आभ्यन्तरशौच कहा गया है। मुनिश्रेष्ठ ! आन्तरिक शुद्धिसे हीन पुरुषोंद्वारा जो नाना प्रकारके यज्ञ किये जाते हैं, वे राखमें डाली हुई आहुतिके समान निष्फल होते हैं। अतः राग आदि सब दोषोंका त्याग करके सुखी होना चाहिये। हजारों भार मिट्टी और करोड़ों घड़े जलसे शरीरकी शुद्धि कर लेनेपर भी जिसका अन्तःकरण दूषित है, वह चाण्डालके ही समान अपवित्र माना गया है। जो आन्तरिक शुद्धिसे रहित होकर केवल बाहरसे शरीरको शुद्ध करता है, वह ऊपरसे सजाये हुए मदिरापात्रकी भाँति अपवित्र ही है, उसे शान्ति नहीं मिलती। जो मानसिक शुद्धिसे हीन होकर तीर्थयात्रा करते हैं, उन्हें वे तीर्थ उसी तरह पवित्र नहीं करते जैसे मदिरासे भरे हुए पात्रको नदियाँ। मुनिश्रेष्ठ! 

जो वाणीसे धर्मोंका उपदेश करता और मनसे पापकी इच्छा रखता है, उसे महापातकियोंका सिरमौर समझना चाहिये। जिनका अन्तःकरण शुद्ध है, वे यदि परम उत्तम धर्ममार्गका आचरण करते हैं तो उसका फल अक्षय एवं सुखदायक जानना चाहिये। मन, वाणी और क्रियाद्वारा स्तुति कथाश्रवण तथा पूजा करनेसे भगवान् विष्णुमें जिसकी दृढ़ भक्ति हो गयी है, उसकी वह भक्ति भी भगवान् विष्णुकी 'आराधना' कही गयी है (तथा संध्योपासना तो प्रसिद्ध ही है)। नारदजी ! इस प्रकार मैंने यम और नियमोंको संक्षेपसे समझाया। इनके द्वारा जिनका चित्त शुद्ध हो गया है, उनके मोक्ष हस्तगत ही है-ऐसा माना जाता है। यम और नियमोंद्वारा बुद्धिको स्थिर करके जितेन्द्रिय पुरुष योग साधनाके अनुकूल उत्तम आसनका विधिपूर्वक अभ्यास करे। पद्मासन, स्वस्तिकासन, पीठासन, सिंहासन, कुक्कुटासन, कुञ्जरासन, कूर्मासन, वज्रासन, वाराहासन, मृगासन, चैलिकासन, क्रौञ्चासन, नालिकासन, सर्वतोभद्रासन, वृषभासन, नागासन, मत्स्यासन, व्याघ्रासन, अर्धचन्द्रासन, दण्डवातासन, शैलासन, खड्‌गासन, मुद्गरासन, मकरासन, त्रिपथासन, काष्ठासन, स्थाणु-आसन, वैकर्णिकासन, भौमासन और वीरासन ये सब योगसाधनके हेतु हैं। मुनीश्वरोंने ये तीस आसन बनाये हैं। साधक पुरुष शीत-उष्ण आदि द्वन्द्वोंसे पृथक् हो ईर्ष्या-द्वेष छोड़कर गुरुदेवके चरणोंमें भक्ति रखते हुए उपर्युक्त आसनोंमेंसे किसी एकको सिद्ध करके प्राणोंको जीतनेका अभ्यास करे। जहाँ मनुष्योंकी भीड़ न हो और किसी प्रकारका कोलाहल न होता हो, ऐसे एकान्त स्थानमें पूर्व, उत्तर अथवा पश्चिमकी और मुँह करके अभ्यासपूर्वक प्राणोंको जीते- प्राणायामका अभ्यास करे। शरीरके भीतर स्थित वायुका नाम प्राण है। 

उसके विग्रह (वशमें करनेकी चेष्टा) को आयाम कहते हैं। यही 'प्राणायाम' कहा गया है। उसके दो भेद बताये गये हैं- एक अगर्भ प्राणायाम और दूसरा सगर्भ प्राणायाम, इनमें दूसरा श्रेष्ठ है। जप और ध्यानके बिना जो प्राणायाम किया जाता है, वह अगर्भ है और जप तथा ध्यानके सहित किये जानेवाले प्राणायामको सगर्भ कहते हैं। मनीषी पुरुषोंने इस दो भेदोंवाले प्राणायामको रेचक, पूरक, कुम्भक और शून्यकके भेदसे चार प्रकारका बताया है। जीवोंकी दाहिनी नाड़ीका नाम पिङ्गला है। उसके देवता सूर्य हैं। उसे पितृयोनि भी कहते हैं। इसी प्रकार बार्थी नाड़ीका नाम इडा है, जिसे देवयोनि भी कहते हैं। मुनिश्रेष्ठ ! चन्द्रमाको उसका अधिदेवता समझो। इन दोनोंके मध्यभागमें सुषुम्ना नाड़ी है। यह अत्यन्त सूक्ष्म और परम गुह्य है। ब्रह्माजीको इसका अधिदेवता जानना चाहिये। नासिकाके बायें छिद्रसे वायुको बाहर निकाले। रेचन करने (निकालने) के कारण इसका नाम 'रेचक' है, फिर नासिकाके दाहिने छिद्रसे वायुको अपने भीतर भरे। वायुको पूर्ण करने (भरने) के कारण इसे 'पूरक' कहा गया है। अपने देहमें भरी हुई वायुको रोके रहे, छोड़े नहीं और भरे हुए कुम्भ (घड़े) की भाँति स्थिरभावसे बैठा रहे। कुम्भकी भाँति स्थित होनेके कारण इस प्राणायामका नाम 'कुम्भक' है। बाहरकी वायुको न तो भीतरकी ओर ग्रहण करे और न भीतरकी वायुको बाहर निकाले। जैसे हो, वैसे ही स्थित रहे। इस तरहके प्राणायामको 'शून्यक' समझो। जैसे मतवाले गजराजको धीरे-धीरे वशमें किया जाता है, उसी प्रकार प्राणको धीरे-धीरे जीतना चाहिये। अन्यथा बड़े-बड़े भयङ्कर रोग हो जाते हैं। जो योगी क्रमशः वायुको जीतनेका अभ्यास करता है, वह निष्पाप हो जाता है और सब पापोंसे मुक्त होनेपर वह ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है।

'मुनीश्वर ! जो विषयोंमें फँसी हुई इन्द्रियोंको विषयोंसे सर्वथा समेटकर अपने भीतर रोके रहता है, उसके इस प्रयत्नका नाम 'प्रत्याहार' है। ब्रह्मन् ! जिन्होंने प्रत्याहारद्वारा अपनी इन्द्रियोंको जीत लिया है, वे महात्मा पुरुष ध्यान न करनेपर भी पुनरावृत्तिरहित परब्रह्म पदको प्राप्त कर लेते हैं। जो इन्द्रियसमुदायको वशमें किये बिना ही ध्यानमें तत्पर होता है, उसे मूर्ख समझो; क्योंकि उसका ध्यान सिद्ध नहीं होता। मनुष्य जिस-जिस वस्तुको देखता है, उसे अपने आत्मामें आत्मस्वरूप समझे और प्रत्याहारद्वारा वशमें की हुई इन्द्रियोंको अपने आत्मामें ही अन्तर्मुख करके धारण करे। इस प्रकार इन्द्रियोंको जो आत्मामें धारण करना है, उसीको 'धारणा' कहते हैं। योग (प्रत्याहार) से इन्द्रियोंक समुदायको जीतकर धारणाद्वारा उन इन्द्रियोंको दृढ़तापूर्वक हृदयमें धारण कर लेनेके पश्चात् साधक उन परमात्माका ध्यान करे, जो सबका धारण- पोषण करनेवाले हैं और जो कभी अपनी महिमासे च्युत नहीं होते। सम्पूर्ण विश्व उन्हींका स्वरूप है। वे सर्वत्र व्यापक होनेसे विष्णु कहलाते हैं। 

समस्त लोकोंके एकमात्र कारण वे ही हैं। उनके नेत्र विकसित कमलदलके समान सुशोभित हैं। मनोहर कुण्डल उनके कानोंकी शोभा बढ़ाते हैं। उनकी भुजाएँ विशाल हैं। अङ्ग अङ्गसे उदारता सूचित होती है। सब प्रकारके आभूषण उनके सुन्दर विग्रहकी शोभा बढ़ाते हैं। उन्होंने पीताम्बर धारण कर रखा है। वे दिव्यशक्तिसे सम्पन्न हैं। उन्होंने स्वर्णमय यज्ञोपवीत धारण किया है। गलेमें तुलसीकी माला पहन रखी है। कौस्तुभमणिसे उनकी शोभा और बढ़ गयी है। वक्षः स्थलमें श्रीवत्सका चिह्न सुशोभित है। देवता और असुर सभी भगवान्‌के चरणोंमें मस्तक नवा रहे हैं। बारह अंगुल विस्तृत तथा आठ दलोंसे विभूषित अपने हृदयकमलके आसनपर विराजमान सर्वव्यापी अव्यक्तस्वरूप परात्पर परमात्माका उपर्युक्तरूपसे ध्यान करना चाहिये। ध्येय वस्तुमें चित्तकी वृत्तिका एकाकार हो जाना ही साधु पुरुषोंद्वारा 'ध्यान' कहा गया है। दो घड़ी ध्यान करके भी मनुष्य परम मोक्षको प्राप्त कर लेता है। ध्यानसे पाप नष्ट होते हैं। ध्यानसे मोक्ष मिलता है। ध्यानसे भगवान् विष्णु प्रसन्न होते हैं तथा ध्यानसे सम्पूर्ण मनोरथोंकी सिद्धि हो जाती है। भगवान् महाविष्णुके जो जो स्वरूप हैं, उनमेंसे किसीका भी एकाग्रतापूर्वक ध्यान करे। उस ध्यानसे संतुष्ट होकर भगवान् विष्णु निश्चय ही मोक्ष देते हैं। साधुशिरोमणे! ध्येय वस्तुमें मनको इस प्रकार स्थिर कर देना चाहिये कि ध्याता, ध्यान और ध्येयकी त्रिपुटीका तनिक भी भान न रह जाय। तब ज्ञानरूपी अमृतके सेवनसे अमृतत्व (परमात्मा) को प्राप्त होता है।

निरन्तर ध्यान करनेसे ध्येय वस्तुके साथ अपना अभेदभाव स्पष्ट अनुभव हो जाता है। जिसकी सब इन्द्रियाँ विषयोंसे निवृत्त हो जाती हैं और वह परमानन्दसे पूर्ण हो वायुशून्य स्थानमें जलते हुए दीपककी भाँति अविचलभावसे ध्यानमें स्थित हो जाता है, तो उसकी इस ध्येयाकार स्थितिको 'समाधि' कहते हैं। नारदजी! योगी पुरुष समाधि-अवस्थामें न देखता है, न सुनता है, न सूंघता है, न स्पर्श करता है और न वह कुछ बोलता ही है। उस अवस्थामें योगियोंको सम्पूर्ण उपाधियोंसे मुक्त, शुद्ध, निर्मल, सच्चिदानन्दस्वरूप तथा अविचल आत्माका साक्षात्कार होता है। विद्वान् नारदजी! यह आत्मा परम ज्योतिर्मय तथा अमेय है। जो मायाके अधीन हैं, उन्हींको वह मायायुक्त-सा प्रतीत होता है। उस मायाका निवारण होनेपर वह निर्मल ब्रह्मरूपसे प्रकाशित होता है। वह ब्रह्म एक, अद्वितीय, परमज्योतिः स्वरूप, निरञ्जन तथा सम्पूर्ण प्राणियोंके अन्तर्यामी आत्मारूपसे स्थित है। परमात्मा सूक्ष्मसे भी अत्यन्त सूक्ष्म और महान्से भी अत्यन्त महान् है। वह सनातन परमेश्वर समस्त विश्वका कारण है। ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ पुरुष परम पवित्र परात्पर ब्रह्मरूपमें उसका दर्शन करते हैं। अकारसे लेकर हकारतकके भिन्न-भिन्न वर्णोंके रूपमें स्थित अनादि पुराणपुरुष परमात्माको ही शब्दब्रह्म कहा गया है और जो विशुद्ध, अक्षर, नित्य, पूर्ण, हृदयाकाशके मध्य विराजमान अथवा आकाशमें व्याप्त, आनन्दमय, निर्मल एवं शान्त तत्त्व है, उसीको 'परब्रह्म परमात्मा' कहते हैं, योगीलोग अपने हृदयमें जिन अजन्मा, शुद्ध, विकाररहित, सनातन परमात्माका दर्शन करते हैं, उन्हींका नाम परब्रह्म है।

मुनिश्रेष्ठ ! अब दूसरा ध्यान बतलाता हूँ, सुनो। परमात्माका यह ध्यान संसार-तापसे संतप्त मनुष्योंको अमृतकी वर्षाके समान शान्ति प्रदान करनेवाला है। परमानन्दस्वरूप भगवान् नारायण प्रणवमें स्थित हैं- ऐसा चिन्तन करे। उनकी कहीं उपमा नहीं है। वे प्रणवकी अर्धमात्राके ऊपर विराजमान नादस्वरूप हैं। अकार ब्रह्माजीका रूप है, उकार भगवान् विष्णुका स्वरूप है मकार रुद्ररूप है तथा अर्धमात्रा निर्गुण परब्रह्म परमात्मस्वरूप है। अकार, उकार और मकार- ये प्रणवकी तीन मात्राएँ कही गयी हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव-ये तीन क्रमशः उनके देवता हैं। इन सबका समुच्चयरूप जो ॐकार है, वह परब्रह्म परमात्माका बोध करानेवाला है। परब्रह्म परमात्मा वाच्य हैं और प्रणव उनका वाचक माना गया है। नारदजी! इन दोनोंमें वाच्य वाचक सम्बन्ध उपचारसे ही कहा गया है। जो प्रतिदिन प्रणवका जप करते हैं, वे सम्पूर्ण पातकोंसे मुक्त हो जाते हैं तथा जो निरन्तर उसीके अभ्यासमें लगे रहते हैं, वे परम मोक्ष पाते हैं। जो ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप प्रणव-मन्त्रका जप करता है, उसे अपने अन्तःकरणमें कोटि-कोटि सूर्योके समान निर्मल तेजका ध्यान करना चाहिये अथवा प्रणव-जपके समय शालग्रामशिला या किसी भगवत्प्रतिमाके स्वरूपका ध्यान करना चाहिये। अथवा जो-जो पापनाशक तीर्थादिक वस्तु है, उसी-उसीका अपने हृदयमें चिन्तन करना चाहिये। मुनीश्वर ! यह वैष्णवज्ञान तुम्हें बताया गया है। इसे जानकर योगीश्वर पुरुष उत्तम मोक्ष पा लेता है। जो एकाग्रचित्त होकर इस प्रसंगको पढ़ता अथवा सुनता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो भगवान् विष्णुका सालोक्य प्राप्त कर लेता है।

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