भगवान श्री कृष्ण का ध्यान,Bhagavaan Shree Krshn Ka Dhyaan

भगवान श्री कृष्ण का ध्यान

ऋषि बोले- महाप्राज्ञ सूतजी! आपका हृदय स्थविष्ठमखिलर्तुभिः सततसेवितं कामदं अत्यन्त करुणापूर्ण है; आपने कृपा करके ही पापनाशक वैशाख-माहात्यका वर्णन किया है। अब इस समय हम भक्तगणोंके प्रिय परमात्मा श्रीकृष्णका ध्यान सुनना चाहते हैं, जो भवसागरसे तारनेवाला है। सूतजीने कहा- मुनियो ! वृन्दावनमें विचरनेवाले जगदात्मा श्रीकृष्णके, जो गौओं, ग्वालों और गोपियोंके प्राण हैं, ध्यानका वर्णन आप सब लोग सुनें। द्विजवरो ! एक समय महर्षि गौतमने देवर्षि नारदजीसे यही बात पूछी थी। नारदजीने उनसे जिस पापनाशक ध्यानका वर्णन किया था, वही मैं आप- लोगोंको बताता हूँ। नारदजी कहते हैं-

सुमनप्रकरसौरभो गलितमाध्विकाद्युल्लस-
त्सुशाखिनवपल्लवप्रकरनम्नशोभायुतम्।
प्रफुल्लनवमञ्जरीललितवल्लरीवेष्टितं
स्मरेत सततं शिवं सितमतिः सुवृन्दावनम् ॥

ध्यान करनेवाले मनुष्यको सदा शुद्धचित्त होकर पहले उस परम कल्याणमय सुन्दर वृन्दावनका चिन्तन करना चाहिये, जो फूलोंके समुदाय, मनोहर सुगन्ध और बहते हुए मकरन्द आदिसे सुशोभित सुन्दर-सुन्दर वृक्षोंके नूतन पल्लवोंसे झुका हुआ शोभा पा रहा है तथा खिली हुई नवल मञ्जरियों और ललित लताओंसे आवृत है।
प्रवालनवपल्लवं मरकतच्छदं मौक्तिक-

प्रभाप्रकरकोरकं कमलरागनानाफलम् ।
स्थविष्ठमखिलर्तुभिः सततसेवितं कामदं
तदन्तरपि कल्पका‌ङ्घ्रिपमुदञ्चितं चिन्तयेत् ॥

उस वनके भीतर भी एक कल्पवृक्षका चिन्तन करे, जो बहुत ही मोटा और ऊँचा है, जिसके नये-नये पल्लव मूँगेके समान लाल हैं, पत्ते मरकत मणिके सदृश नीले हैं, कलिकाएँ मोतीके प्रभा-पुञ्जकी भाँति शोभा पा रही हैं और नाना प्रकारके फल पद्मराग मणिके समान जान पड़ते हैं। समस्त ऋतुएँ सदा ही उस वृक्षकी सेवामें रहती हैं तथा वह सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाला है।

सुहेमशिखराचले उदितभानुवद्भासुरा-
मधोऽस्य कनकस्थलीममृतशीकरासारिणः ।
प्रदीप्तमणिकुट्टिमां कुसुमरेणुपुञ्जोज्ज्वलां
स्मरेत्पुनरतन्द्रितो विगतषट्तरङ्गां बुधः ॥

फिर आलस्यरहित हो विद्वान् पुरुष धारावाहिकरूपसे अमृतकी बूँदें बरसानेवाले उस कल्पवृक्षके नीचे सुवर्णमयी वेदीकी भावना करे, जो मेरु गिरिपर उगे हुए सूर्यकी भाँति प्रभासे उद्भासित हो रही है, जिसका फर्श जगमगाती हुई मणियोंसे बना है, जो फूलोंके पराग-पुञ्जसे कुछ धवल वर्णकी हो गयी है तथा जहाँ क्षुधा-पिपासा, शोक-मोह और जरा-मृत्यु- ये छः ऊर्मियाँ नहीं पहुँचने पातीं।

तव्रत्नकुट्टिमनिविष्टमहिष्ठयोग-
पीठेऽष्टपत्रमरुणं कमलं विचिन्त्य ।
उद्यद्विरोचनसरोचिरमुष्य मध्ये 
संचिन्तयेत् सुखनिविष्टमथो मुकुन्दम् ।।

उस रत्नमय फर्शपर रखे हुए एक विशाल योग-पीठके ऊपर लाल रंगके अष्टदल कमलका चिन्तन करके उसके मध्यभागमें सुखपूर्वक बैठे हुए भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान करे, जो अपनी दिव्य प्रभासे उदयकालीन सूर्यदेवकी भाँति देदीप्यमान हो रहे हैं।

सुत्रामहेतिदलिताञ्जनमेधपुञ्ज-
प्रत्यग्रनीलजलजन्मसमानभासम् ।
सुस्निग्धनीलघनकुञ्चितकेशजालं
राजन्मनोज्ञशितिकण्ठशिखण्डचूडम् ।।

भगवान्‌के श्रीविग्रहकी आभा इन्द्रके वज्रसे विदीर्ण हुए कज्ञ्जलगिरि, मेघोंकी घटा तथा नूतन नील-कमलके समान श्याम रंगकी है; श्याम मेघके सदृश काले काले घुँघराले केश-कलाप बड़े ही चिकने हैं तथा उनके मस्तकपर मनोहर मोर-पंखका मुकुट शोभा पा रहा है।

रोलम्बलालितसुरद्रुमसूनसम्प- 
द्युक्तं समुत्कचनवोत्पलकर्णपूरम् ।
लोलालिभिः स्फुरितभालतलप्रदीप्त-
गोरोचनातिलकमुज्ज्वलचिल्लिचापम् ॥

कल्पवृक्षके फूलोंसे, जिनपर भौरे मँडरा रहे हैं, भगवान्‌का शृङ्गार हुआ है। उन्होंने कानोंमें खिले हुए नवीन कमलके कुण्डल धारण कर रखे हैं; जिनपर चञ्चल भ्रमर उड़ रहे हैं। उनके ललाटमें चमकीले गोरोचनका तिलक चमक रहा है तथा धनुषाकार भौहे बड़ी सुन्दर प्रतीत हो रही हैं।

आपूर्णशारदगताङ्कशशाङ्कबिम्ब- 
कान्ताननं कमलपत्रविशालनेत्रम् ।
रत्नस्फुरन्मकरकुण्डलरश्मिदीप्त- 
गण्डस्थलीमुकुरमुत्रतचारुनासम्॥

भगवान्‌का मुख शरत्पूर्णिमाके कलङ्कहीन चन्द्रमण्डलकी भाँति कान्तिमान् है, बड़े-बड़े नेत्र कमलदलके समान सुन्दर जान पड़ते हैं, दर्पणके सदृश स्वच्छ कपोल रत्नोंके कारण चमकते हुए मकराकृत कुण्डलोंकी किरणोंसे देदीप्यमान हो रहे हैं तथा ऊँची नासिका बड़ी मनोहर जान पड़ती है।

सिन्दूरसुन्दरतराधरमिन्दुकुन्द-
मन्दारमन्दहसितद्युतिदीपिताशम् ।
वन्यप्रवालकुसुमप्रचयावकृप्त- 
मैवेयकोज्ज्वलमनोहरकम्बुकण्ठम् ॥

सिन्दूरके समान परम सुन्दर लाल-लाल ओठ हैं; चन्द्रमा, कुन्दः और मन्दार पुष्पकी-सी मन्द मुसकानकी छटासे सामने की दिशा प्रकाशित हो रही है तथा वनके कोमल पल्लवों और फूलोंके समूहद्वारा बनाये हुए हारसे शङ्खसदृश मनोहर ग्रीवा बड़ी सुन्दर जान पड़ती है।

मत्तभ्रमद्भमरघुष्टविलम्बमान- 
संतानकप्रसवदामपरिष्कृतांसम् ।
हारावलीभगणराजितपीवरोरो- 
व्योंमस्थलीलसितकौस्तुभभानुमन्तम् ॥

मँडराते हुए मतवाले भौरोंसे निनादित एवं घुटनोंतक लटकी हुई पारिजात पुष्पोंकी मालासे दोनों कंधे शोभा पा रहे हैं। पीन और विशाल वक्षःस्थलरूपी आकाश हाररूपी नक्षत्रोंसे सुशोभित है तथा उसमें कौस्तुभमणिरूपी सूर्य भासमान हो रहा है।

श्रीवत्सलक्षणसुलक्षितमुन्त्रतांस 
माजानुपीनपरिवृत्तसुजातबाहुम् ।
आबन्धुरोदरमुदारगभीरनाभिं 
भृङ्गाङ्गनानिकरमञ्जुलरोमराजिम् ॥

भगवान्‌के वक्षःस्थलमें श्रीवत्सका चिह्न बड़ा सुन्दर दिखायी देता है, उनके कंधे ऊँचे हैं, गोल-गोल सुन्दर भुजाएँ घुटनोंतक लंबी एवं मोटी हैं, उदरका भाग बड़ा मनोहर है, नाभि विस्तृत और गहरी है तथा त्रिवलीकी रोमपङ्क्ति भँवरोंकी पङ्क्तिके समान शोभा पा रही है।

नानामणिप्रघटिताङ्गदकङ्कणोर्मि
 ग्रैवेयकारसननूपुरतुन्दबन्धम् ।
दिव्याङ्गरागपरिपिञ्जरिताङ्गयष्टि- 
मापीतवस्त्रपरिवीतनितम्बबिम्बम् ॥

नाना प्रकारकी मणियोंके बने हुए भुजबंद, कड़े, अँगूठियाँ, हार, करधनी, नूपुर और पेटी आदि आभूषण भगवान्‌के श्रीविग्रहपर शोभा पा रहे हैं; उनके समस्त अङ्ग दिव्य अङ्गरागोंसे अनुरञ्जित हैं तथा कटिभाग कुछ हलके रंगके पीताम्बरसे ढका हुआ है।

चारूरुजानुमनुवृत्तमनोज्ञजङ्घ 
कान्तोन्नतप्रपदनिन्दितकूर्मकान्तिम् ।
माणिक्यदर्पणलसन्नखराजिराज-
द्रक्ताङ्गुलिच्छदनसुन्दरपादपद्मम् ॥

दोनों जाँधें और घुटने सुन्दर हैं; पिंडलियोंका भाग गोलाकार एवं मनोहर है; पादाग्रभाग परम कान्तिमान् तथा ऊँचा है और अपनी शोभासे कछुएके पृष्ठभागकी कान्तिको मलिन कर रहा है तथा दोनों चरण-कमल माणिक्य तथा दर्पणके समान स्वच्छ नखप‌ङ्क्तियोंसे सुशोभित लाल-लाल अङ्गुलिदलोंके कारण बड़े सुन्दर जान पड़ते हैं।

मत्स्याङ्कुशारिदरकेतुयवाब्जवनैः 
संलक्षितारुणकरा‌ङ्ङ्गितलाभिरामम् ।
लावण्यसारसमुदायविनिर्मिताङ्ग 
सौन्दर्यनिन्दित मनोभवदेहकान्तिम् ।।

मत्स्य, अङ्कुश, चक्र, शङ्ख, पताका, जौ, कमल और वज्र आदि चिह्नोंसे चिह्नित लाल-लाल हथेलियों गोपैः तथा तलवोंसे भगवान् बड़े मनोहर प्रतीत हो रहे हैं। उनका श्रीअङ्ग लावण्यके सार-संग्रहसे निर्मित जान पड़ता है तथा उनके सौन्दर्यके सामने कामदेवके शरीरकी कान्ति फीकी पड़ जाती है।

आस्यारविन्दपरिपूरितवेणुरन्ध्र 
लोलत्कराङ्गुलिसमीरितदिव्यरागैः ।
शश्वद्धवैः कृतनिविष्टसमस्तजन्तु-
सन्तानसंनतिमनन्तसुखाम्बुराशिम् ।।

भगवान् अपने मुखारविन्दसे मुरली बजा रहे हैं; उस समय मुरलीके छिद्रोंपर उनकी अँगुलियोंके फिरनेसे निरन्तर दिव्य रागोंकी सृष्टि हो रही है, जिनसे प्रभावित हो समस्त जीव-जन्तु जहाँ-के-तहाँ बैठकर भगवान्‌की ओर मस्तक टेक रहे हैं। भगवान् गोविन्द अनन्त आनन्दके समुद्र हैं।

गोभिर्मुखाम्बुजविलीनविलोचनाभि - 
रूधोभरस्खलितमन्थरमन्दगाभिः ।
दन्ताप्रदष्टपरिशिष्टतृणाङ्कुराभि- 
रालम्बिवालधिलताभिरथाभिवीतम् ।।

थनोंके भारसे लड़खड़ाती हुई मन्द-मन्द गतिसे चलने वाली गौएँ दाँतों के अग्रभाग में चबाने से बचे हुए तिनकों के अङ्कुर लिये, पूँछ लटकाये भगवान्‌के मुखकमल में आँखें गड़ाये उन्हें चारों ओरसे घेर कर खड़ी हैं।

सम्प्रखुतस्तनविभूषणपूर्णनिश्च- 
लास्याद् दृढक्षरितफेनिलदुग्धमुग्धैः ।
वेणुप्रवर्तितमनोहरमन्दगीत- 
दत्तोच्चकर्णयुगलैरपि तर्णकैश्च ॥

गौओंके साथ ही छोटे-छोटे बछड़े भी भगवान्‌को सब ओरसे घेरे हुए हैं और मुरलीसे मन्दस्वरमें जो मनोहर संगीत की धारा बह रही है, उसे वे कान लगाकर सुन रहे हैं, जिसके कारण उनके दोनों कान खड़े हो गये हैं। गौओंके टपकते हुए थनोंके आभूषणरूप दूधसे भरे हुए उनके मुख स्थिर हैं, जिनसे फेनयुक्त दूध बह रहा है; इससे वे बछड़े बड़े मनोहर प्रतीत हो रहे हैं।

गोपैः समानगुणशीलवयोविलास
वेशैश्च मूर्च्छितकलस्वनवेणुवीणैः ।
मन्दोच्चतारपटुगानपरैर्विलोल-
दोर्वल्लरीललितलास्यविधानदक्षैः ॥

भगवान्‌के ही समान गुण, शील, अवस्था, विलास तथा वेष-भूषावाले गोप भी, जो अपनी चञ्चल भुजाओंको सुन्दर ढंगसे नचानेमें चतुर हैं, वंशी और वीणाकी मधुर ध्वनिका विस्तार करके मन्द, उच्च और तारस्वरमें कुशलतापूर्वक गान करते हुए भगवान्‌को सब ओरसे घेरकर खड़े हैं।

जङ्घान्तपीवरकटीरतटीनिबद्ध-
ब्यालोलकिङ्किणिघटारणितैरटद्भिः ।
मुग्धैस्तरक्षुनखकल्पितकान्तभूषै-
रव्यक्तमनुवचनैः पृथुकैः परीतम् ॥

छोटे-छोटे ग्वाल-बाल भी भगवान्‌के चारों ओर घूम रहे हैं; जाँघसे ऊपर उनके मोटे कटिभागमें करधनी पहनायी गयी है, जिसकी क्षुद्रघण्टिकाओंकी मधुर झनकार सुनायी पड़ती है। वे भोले-भाले बालक बघनखोंके सुन्दर आभूषण पहने हुए हैं। उनकी मीठी-मीठी तोतली वाणी साफ समझमें नहीं आती। भगवान्‌के प्रति दृढ़ अनुराग रखनेवाली सुन्दरी गोपाङ्गनाएँ भी उन्हें प्रेमपूर्ण दृष्टिसे निहारती हुई सब ओरसे घेरकर खड़ी हैं। गोपी, गोप और पशुओंके घेरेसे बाहर भगवान्‌के सामनेकी ओर ब्रह्मा, शिव तथा इन्द्र आदि देवताओंका समुदाय खड़ा होकर स्तुति कर रहा है।

तद्वद् दक्षिणतो मुनिनिकरं 
दृढधर्मवाञ्छ्या समाम्नायपरम् । 
योगीन्द्रानथ पृष्ठे मुमुक्षमाणान् 
समाधिना तु सनकाद्यान् ॥

इसी प्रकार उपर्युक्त घेरेसे बाहर भगवान्‌के दक्षिण भागमें सुदृढ़ धर्मकी अभिलाषासे वेदाभ्यासपरायण मुनियोंका समुदाय उपस्थित है तथा पृष्ठभागकी ओर समाधिके द्वारा मुक्तिकी इच्छा रखनेवाले सनकादि योगीश्वर खड़े हैं।

सव्ये सकान्तानथ यक्षसिद्धान् 
गन्धर्वविद्याधरचारणांश्च । 
सकिन्नरानप्सरसश्च मुख्याः
कामार्थिनीर्नर्तनगीतवाद्यैः ॥

वाम भागमें अपनी स्त्रियोंसहित यक्ष, सिद्ध, गन्धर्व, विद्याधर, चारण और किन्नर खड़े हैं। साथ ही भगवत्प्रेमकी इच्छा रखनेवाली मुख्य मुख्य अप्सराएँ भी मौजूद हैं। ये सब लोग नाचने, गाने तथा बजानेके द्वारा भगवान्‌की सेवा कर रहे हैं।

शलेन्दुकुन्दधवलं सकलागमज्ञं
सौदामनीततिपिशङ्गजटाकलापम् ।
तत्पादपङ्कजगताममलां च भक्ति 
वाञ्छन्तमुज्झिततरान्यसमस्तसङ्गम् ॥ 
नानाविधश्श्रुतिगणान्वितसप्तराग-
ग्रामत्रयीगतमनोहरमूर्छनाभिः ।
सम्प्रीणयन्तमुदिताभिरपि प्रभक्तया 
संचिन्तयेन्नभसि मां दुहिणप्रसूतम् ॥

तत्पश्चात् आकाशमें स्थित मुझ ब्रह्मपुत्र देवर्षि नारदका चिन्तन करना चाहिये। नारदजीके शरीरका वर्ण शङ्ख, चन्द्रमा तथा कुन्दके समान गौर है; वे सम्पूर्ण आगमोंके ज्ञाता हैं, उनकी जटाएँ बिजलीकी प‌ङ्क्तियोंके समान पीली और चमकीली हैं, वे भगवान्‌के चरण- कमलोंकी निर्मल भक्तिके इच्छुक हैं तथा अन्य सब ओरकी आसक्तियोंका सर्वथा परित्याग कर चुके हैं और संगीतसम्बन्धी नाना प्रकारकी श्रुतियोंसे युक्त सात स्वरों और त्रिविध ग्रामोंकी मनोहर मूच्र्छनाओंको अभिव्यञ्जित करके अत्यन्त भक्तिके साथ भगवान्‌को प्रसन्न कर रहे हैं।

इति ध्यात्वाऽऽत्मानं पटुविशदधीर्नन्दतनयं
नरो बौद्धैर्वार्धप्रभृतिभिरनिन्द्योपहतिभिः ।
यजेद् भूयो भक्त्या स्ववपुषि बहिष्टैश्च विभवै-
रिति प्रोक्तं सर्वं यदभिलषितं भूसुरवराः ॥

इस प्रकार प्रखर एवं निर्मल बुद्धिवाला पुरुष अपने आत्मस्वरूप भगवान् नन्दनन्दनका ध्यान करके मानसिक अर्घ्य आदि उत्तम उपहारोंसे अपने शरीरके भीतर ही भक्तिपूर्वक उनका पूजन करे तथा बाह्य उपचारोंसे भी उनकी आराधना करे। ब्राह्मणो! आपलोगोंकी जैसी अभिलाषा थी, उसके अनुसार भगवान्‌का यह सम्पूर्ण ध्यान मैंने बता दिया। सूतजी कहते हैं- महर्षिगण ! जो इस कथाको सुनाता है, वह भगवान्‌के समान हो जाता है। विप्रो ! यह गुह्यसे भी गुह्य प्रसङ्ग कल्याणमय ज्ञान प्रदान करनेवाला है। जो इसे पढ़ता अथवा सुनता है, वह परम-पदको प्राप्त होता है।

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