अद्भुत पराक्रमी श्री हनुमान,Adbhut Paraakramee shri hanuman

अद्भुत पराक्रमी श्री हनुमान

विद्या-बुद्धिके निधान, ज्ञानवान्, वेदज्ञ, तीक्ष्णबुद्धि, सर्वशास्त्र-पारंगत, असीम पराक्रमकी मूर्ति, सर्वोपरि शौर्य-वीर्यके आगार, आजन्म नैष्ठिक ब्रह्मचारी श्रीहनुमानजी शंकरके अंशसे वायुद्वारा कपिराज केसरीकी पत्नी अञ्जनाके गर्भसे एक मतसे चैत्र शुक्ला एकादशीको अवतरित हुए थे। श्रीहनुमानजीने अनन्तकोटि ब्रह्माण्डके नायक मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामकी सेवामें संलग्र होकर ऐसे-ऐसे अद्भुत कार्य किये, जिनका और किसीसे होना सर्वथा असम्भव था। जब अहिरावण श्रीराम-लक्ष्मणको निद्रावस्थामें मोहनी विद्यासे मोहित करके पातालमें ले गया, तब श्रीहनुमानजीने शोकमग्र वानरसेनाको संतोष दिलाते हुए प्रतिज्ञा की कि 'मैं चौदह भुवनों और तीनों लोकोंमें जहाँ भी श्रीराम-लक्ष्मण होंगे, उन्हें खोजकर लाऊँगा।' ऐसा कहकर हनुमानजी प्रलयकालके बादलोंके समान भयंकर गर्जना करके चले और एक गृध्रके संकेतपर शीघ्र ही पाताल पहुँच गये। वहाँ एक अद्भुत लीला यह हुई कि ज्यों ही आप सूक्ष्म रूप धारणकर अहिरावणकी देवीके सम्मुख पहुँचे, त्यों ही देवी तो लुप्त हो गयी तथा आप स्वयं देवी बनकर उस स्थानपर विराजमान हो गये। आप सम्पूर्ण पूजा सामग्रीको भक्षण करते गये। जब श्रीराम-लक्ष्मण को बलि देनेके लिये लाया गया, तब हनुमानने मेघके समान गर्जन करके राक्षसोंको मारकर अहिरावणका मस्तक अग्रिकुण्डमें होम दिया और वे श्रीराम-लक्ष्मणको वहाँसे छुड़ा लाये। दोनों भ्राताओंने प्रसन्न होकर उनसे कहा- 'हनुमन् ! तुम्हारे समान हितकारी देवता, मुनि, सिद्ध और शरीरधारियोंमें कोई नहीं है। तुम्हारी कीर्ति तीनों लोकोंमें छा जायगी।'


समुद्रको लाँघना, सीताजीको खोजना, अशोक वाटिकाको उजाड़ना, लंकाको जलाना, संजीवनी बूटीको लाना, राक्षसोंके साथ भयंकर युद्ध करना आदि ऐसे शौर्ययुक्त अद्भुत कार्य श्रीहनुमानजीद्वारा सम्पन्न हुए हैं कि गोस्वामी तुलसीदासजीने 'हनुमानचालीसा' में कहा है कि 'रामदूत हनुमान अतुलितबलधाम, महावीर, विद्यावान्, गुणी, अति चतुर, कुमति निवारक और सुमतिके सङ्गी हैं, जिन्होंने विकट रूप धारणकर लंका जलायी, भीमरूप धारणकर असुरोंका संहार किया और स्वामी श्रीरामके सब काम सुधारे। जगत्‌के जितने दुर्गम कार्य हैं, वे सब उनकी कृपासे सुगम हो जाते हैं।' विनय-पत्रिकामें गोस्वामीजीने विनती की है कि 'हनुमानजी! आप अहंकार, काम, क्रोध आदि दुष्टोंसे व्याप्त घोर संसाररूपी रात्रिका नाश करनेवाले साक्षात् सूर्य हैं।' अतः यह पूर्णतया प्रत्यक्ष है कि हनुमानमें इतना बल, पराक्रम, सामर्थ्य या ब्रह्मचर्य तेज था कि वे किसी भी लोकमें कैसा भी रूप बनाकर अबाध गतिसे आ-जा सकते थे।

श्रीराम-गाथाओंमें तो केसरीनन्दन श्रीहनुमानजीको पराक्रमी श्रीरामसेवक बताया ही है, इनके अतुल बल- पौरुषकी अन्य स्थानोंपर भी प्रचुर प्रशंसा की गयी है। केवल त्रेतायुग ही नहीं, द्वापरयुग भी श्रीहनुमानजीकी पराक्रम-गाथासे गौरवान्वित है। महर्षि गर्गाचार्यकृत 'गर्गसंहिता' ग्रन्थके 'विश्वजित् खण्ड' के तीसवें अध्यायमें उल्लेख है कि 'भीमनादिनी नगरीका कलंक नामक राक्षस दस हजार राक्षसोंको साथ लेकर यादवोंसे युद्ध करने लगा। वह इतना भयंकर बली था कि हाथियों, रथ-रथियों, घोड़ों-ऊँटों तथा सेनानियोंको दाँतोंसे चबा जाता और उन्हें आकाशमें गन्नेकी खोईकी भाँति फेंक देता था। भगवान् श्रीकृष्णके ज्येष्ठ पुत्र जब उससे लड़ते-लड़ते पराजित होने लगे, तब उन्होंने कपिवर हनुमानके 'कपीन्द्रास्त्र' का संधान किया। संधान करते ही हनुमानजी प्रकट हो गये और उन्होंने उस राक्षसको आकाशमें सौ योजन दूर फेंक दिया। इसपर कलंकने हनुमानपर एक अत्यन्त भारी गदा फेंकी; किंतु वे वेगसे उछलकर बच गये और कलंककी छातीपर ऐसा मुक्का मारा कि वह तत्काल धरतीपर गिरकर ढेर हो गया। फिर हनुमानजीने वैदूर्यपर्वत लाकर उसके ऊपर डाल दिया, जिससे वह मृत्युका ग्रास बन गया।'

महाभारतके सारे युद्धमें प्रायः सर्वत्र श्रीकृष्णके सखा अर्जुन छाये हुए हैं। प्रत्येक प्रसङ्गपर उनके बल- पौरुषकी प्रशंसा हुई है। उनके रथकी ध्वजापर श्रीहनुमानजी विराजमान थे, तभी अर्जुन बड़े-बड़े योद्धाओंको जीतने- मारनेमें समर्थ हुए। इसीसे भीष्मपर्वमें अर्जुन के 'कपिध्वज', 'कपिनिकेतन' आदि नाम बताये गये हैं, जो वीरवर हनुमानके ही नामपर आधृत हैं। श्रीकृष्णके अभिन्न मित्र एवं स्वयं महान् शूरवीर होते हुए भी अर्जुनको हनुमानके बल-प्रभावकी आवश्यकता हुई और उनके सम्मानमें अर्जुनके नाम उन्हींके नामानुसार प्रसिद्ध हुए यह महाबली हनुमानके पौरुषका प्रत्यक्ष आदर है और उनके अतुल बलशाली होनेका महान् प्रमाण है। सच तो यह है कि बलकी सदासे पूजा होती आयी है। देश, काल और पात्रके अनुसार व्यष्टि-समष्टि, राष्ट्र एवं समाजमें यश-धन-धान्यकी प्राप्ति एवं सुरक्षाके लिये हमें पग-पगपर बलकी आवश्यकता है। 

ऋग्वेदमें बलकी महिमाका कई स्थानोंपर वर्णन है। वहाँ कहा गया है कि 'विद्या और शारीरिक उन्नतिके बिना सुख की वृद्धि कभी नहीं हो सकती। बल ही श्रेष्ठ पुरुषोंका पालन और दुष्टोंका दलन कर सकता है। अतएव कदाचारसे बचकर शरीर-बल-सम्पादन करनेका सदैव प्रयत्न करना चाहिये।' इसीलिये तो हमारे देशमें आजसे नहीं, सुदीर्घ कालसे बलके पुञ्ज, कृपाके सागर श्रीहनुमानजीकी आराधना भक्ति, ज्ञान, श्री, धर्म, शक्ति- सामर्थ्य-प्राप्तत्यर्थ एवं असाध्य रोगों तथा भारी संकटोंके निवारणार्थ विश्वास-भक्ति श्रद्धासहित होती चली आ रही है। सर्वत्र ही सभी जाति और सम्प्रदायके अमीर- गरीब श्रीहनुमानके पूजा-पाठ-अनुष्ठान आदिमें संलग्ग्र रहते हैं और उसका शुभ फल प्राप्त करते हैं।

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