वेदों में सूर्य देव | vedon mein soory dev
चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः।
आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्षं सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुपश्च ॥
तत्त्वतः वेदो मे एक एवं अद्वितीय ब्रह्मका ही प्रतिपादन है- 'एक मेवा द्वितीयं ब्रह्म ।' जब उस को क्रीडा करने की इच्छा हुई तो किसके साथ क्रीडा करे, उसके अतिरिक्त दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है। 'एकाकी न रमते द्वितीय मैच्छत्'- इस श्रुति के अनुसार अकेले ब्रह्मको दूसरे की अभिलाषा हुई- 'स ऐच्छत एकोऽहं बहु स्याम्', 'सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेय' उसने इच्छा की, मैं अकेला हूँ, बहुत हो जाऊँ; उसने कामना की-मैं बहुत हो जाऊँ और सृष्टि करूँ 'आत्मानं स्वयमकुरुत' फिर उस ब्रह्मने अपने को जगद्रूप से परिणत कर लिया; 'सञ्च त्यच्चाभवत्' वह स्थावर-जङ्गम रूप में परिणत हो गया। जगत् प्रपश्चात्मक है और अहंता-ममतारूप जो संसार है, यह मिथ्या है। विशिष्टाद्वै तमतमें जगत् सत्य है। तदद्मन्यत्वमारम्भणशब्दादिभ्यः' इस सूत्र के श्रीभाष्य से स्पष्ट है कि ब्रह्म सभी स्थावर-जङ्गमात्मक कार्यका कारण है, और 'कार्यकारणयोरभेदात्' इस सिद्धान्तसे कार्यकी कारणके साथ अभिन्नता होनेसे जगत् ब्रह्मरूप होनेसे सत्य सिद्ध होता है । 'वाचारम्भणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम्' इस श्रुतिसे भी जगत् की सत्यता सिद्ध होती है।
इस जगत्मे अन्तर्यामीरूपसे वही प्रविष्ट है । 'तत् सृष्ट्वा तदनुप्राविशत्' इस श्रुतिसे जगत् के अंदर सभी प्राणियोके प्रेरक एवं प्रवर्तक वे ही परमात्मा हैं। वे ही स्थावर-जङ्गमके खरूपभूत हैं। जगत्, जीव और अन्तर्यामी- ये तीन भेद कार्यवश किये गये हैं। इनमें जगत् जड़, जीव चेतन और कूटस्थ एवं आनन्द- मय है। चेतन के सम्पर्क से जड़ भी चेतन-सा प्रतीत होता है और वह ज्योतिर्मय होने से त्रिलोकी को प्रकाशित करनेवाला है।
भूर्लोक, भुवर्लोक और खर्लोक- ये तीनो लोक समष्टि ब्रह्माण्डव रूप होने से विराट्पदवाच्य भगवान्के स्थूल रूप हैं। अतः जगत् सत्य है। उपर्युक्त तीनों लोकोको प्रकाशित करनेके लिये अग्नि, वायु, सूर्य- रूप से वे ही क्षिति, अन्तरिक्ष और चुलोकमे स्थित हैं। ये तीनो देवता उसी परमात्माकी विभूतियों हैं । उनमेसे एक ही महान् आत्मा देवता है, जो सूर्य कहलाता है। वे सभी भूतोके अन्तर्यामी है- 'एक एव वा महानात्मा देवता स सूर्य इत्याचक्षते । स हि सर्वभूतात्मा तदुक्तं परमर्पिणा सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च' 'अन्तर्याम्यधिदैवादिषु तद्धर्मव्यपदेशात्' इस परमर्पिसूत्रसे सभी देववों का अन्तर्यामी परमेश्वर सिद्ध है। इसमें निम्नलिखित श्रुतियाँ प्रमाण हैं-
य एपोऽन्तरादित्ये हिरण्मयः पुरुपो दृश्यते।
य एप आदित्ये पुरुषो दृश्यते ।
स यश्चायं पुरुषे यश्चायमादित्ये स एकः ।
'य आदित्ये तिष्ठन्नादित्यादन्तरो यमादित्यो न वेद यस्यादित्यः शरीरम् एप आत्मा अन्तर्याम्यमृतः।' - इत्यादि श्रुतियों प्रमाणित करती हैं कि सभी देवोके अन्तर्यामी भगवान् हैं। यही कारण है- स्मृतियों आत्माकी परिभाषा करती हुई कहती हैं-
यश्चाप्नोति यदादत्ते यच्चात्ति विषयानिह ।
यच्चास्य संततो भावस्तस्मादात्मेति कथ्यते ॥
तेजोमय ज्योतिः खरूप परमात्मासे तीन ज्योतियों निकलीं- अग्नि, वायु, सूर्य। इनमे से सर्वाधिक प्रकाशमान सूर्य ही हैं। उस तेजसमूहरूप सूर्य-मण्डल के अन्तर्गत नारायण ही उपास्य हैं। सूर्यका शब्दार्थ है सर्वप्रेरक । पू प्रेरणे (तुदादि) धातुसे 'सुवति कर्मणि तत्तद्- व्यापारे लोकं प्रेरयति इति सूर्यः' इस व्युत्पत्तिमे पू धातुसे क्यप् प्रत्यय एव रुडागम करनेपर 'सूर्य' शब्द निष्पन्न होता है। अथवा 'सरति आकाशे इति सूर्यः' इस व्युत्पत्तिसे काम क्यप् प्रत्ययके निपातनसे उत्य करने- पर 'राज सूय सूर्यसृपोद्यरुच्यकुप्यकृष्टपच्याव्यथ्याः' इस पाणिनीय सूत्रसे 'सूर्य' शब्द सिद्ध होता है। यह सर्वप्रकाशक, सर्वप्रेरक तथा सर्वप्रवर्तक होनेसे मित्र, बरुण और अग्निका चक्षुः स्थानीय है- 'चष्टे इति चक्षुः । चक्षुपश्वक्षुः' इस श्रुतिसे प्रतिपाय है। वह सभीकी चक्षुरिन्द्रियका अधिष्ठाता देव है, उसके बिना कोई भी क्स्तु दृश्य नहीं होती। कहा है-
दीव्यति क्रीडति खस्मिन् द्योतते रोचते दिवि ।
यस्माद् देवस्ततः प्रोक्तः स्तूयते देवमानवैः ॥
अतः यही अपने तेजपुञ्जसे तपता हुआ उदित होता है और मृतप्राय सम्पूर्ण जगत् चेतनबत् उपलब्ध होता है, इसलिये वह सभी स्थावर-जङ्गमात्मक प्राणिजातका जीवात्मा है। 'योऽसौ तपन्नुदेति स सर्वेषां भूतानां प्राणानादायोदेति' इस श्रुतिसे उपयुक्त विपयकी पुष्टि होती है। 'य एषोऽन्तरादित्ये' इत्यादि श्रुतियो से प्रतिपादित सूर्य मण्डलाभिमानी आदित्यदेव है और सभी प्राणियो के हृदय-आकाशमे चिद्रूपसे परमात्मा स्थित हैं तथा जो समस्त उपाधियोंसे रहित परब्रह्म हैं, वे सभी एक ही वस्तु हैं। अतः सूर्य और ब्रह्ममें अनन्यता होनेसे सर्वात्मत्व सिद्ध होता है। 'यदतः परो दिवो ज्योतिर्दीप्यते, यश्चायं पुरुषे यश्वायमादित्ये स एकः' इत्यादि श्रुतियाँ इस बातकी सम्पुष्टि करती हैं कि सूर्य- मण्डलके अन्तर्गत नारायणके तेजसे ही सभी ब्रह्माण्डगत सूर्य, चन्द्र, अग्नि और विद्युत् आदि प्रकाश्य वस्तु प्रकाशित होते हैं, क्योकि यह खप्रकाशमान है। उसको अग्निस्फुलिङ्गवत् कोई प्रकाशित नहीं कर सकता है। उपनिषदे कहती हैं-
न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः ।
तमेव भान्तमनुभाति सर्व तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥
श्रीमद्भगवद्गीतामे योगेश्वर श्रीकृष्ण भगवान्ने भी अर्जुनके प्रति इसकी पुष्टि की है कि ज्योतिर्मय वस्तुओ एवं सूर्यादिकोमे जो प्रकाश है, वह मेरा ही प्रकाश है-
यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम् ।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम् ॥
हम पहले कह चुके है कि सभी नेजखिया में सूग मण्डल अधिक तेजस्वी है, उसीके भीतर विराजमान हिरण्मय ज्योतिपुश्च श्रीकृष्णचन्द्र भगवान् 'येय है। इसी आशय से सम्मोहन-तन्त्रोक्त गोपालकत्वचमे भी कहा गया है
सूर्यमण्डलमध्यस्थः कृष्णो ध्येयो महामतिः ।
भगवान् सूर्य रथमे स्थित होकर सम्पूर्ण लोकों का कन्याण करने के लिये विश्व-भ्रमण करते है और अपने द्वारा स्थापित मर्यादाका निरीक्षण करते हुए उदयास्तद्वारा प्राणियोकी जीवन मून आयुका आदान करनेसे आदित्य कहलाते है-
आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मय च ।
हिरण्ययेन सविता रथेनाऽऽ-देवो याति भुवनानि पश्यन् ॥
याति देवः प्रवता यात्युङ्गता याति शुभ्राभ्यां यजतो हरिभ्याम् ।
आ देवो याति सविता पराचतोऽप विश्वा दुरिता बाधमानः ॥
इन मन्त्रों मे 'याति' पढ गननायक है, अतः सूर्यका भ्रमण करना सिद्ध होता हे, 'अचला' पृथ्वीका भ्रमण असम्भव है । यह तो चनुके घुमानेसे घूमती-सी दिखलायी देती है-'चक्षुगा भ्राम्यमाणेन दृश्यते चलतीव भूः- यह मांगवन के इस वाक्यरो ज्ञात होता है। शुक्लयजुर्वेदमे भी सूर्यका असहायरूपेण विचरना लिखा है-
सूर्य एकाकी चरति चन्द्रमा जायते पुन्नः ।
सप्त अश्या हरितो रथे वहन्ति देव सूर्य ।
सूर्य-रथ के वाहक सात अश्त्र है जो सप्त व्याहृति छन्द हैं। एक पहिये के रथ को सम नामका घोड़ा बहन करता है, जैसा श्रुत्यन्तर में कहा है-
सप्त युञ्जन्ति रथमेकचक्र- मेको अश्यो वहति सप्तनामा ।
उपर्युक्त श्रुतिर्थोसे सूर्य-नथका भ्रमण करना मिथ होता है। आदित्य-रवका बणन श्री विष्णु पुगण में विस्तारसे और अन्यान्य पुराणों में मक्षिप्त गपमें आया है। श्रीमद्भागवत मे सूर्य-व्यूहका वर्णन बडे सुन्दर दगमे किया गया है तथा पञ्चम स्वास्थमे सूयर्थी गनि. क्रियण और उदयास्तादिकालका विधान-योधन नलानानि यर्थित है। इस प्रकार श्रुति, स्मृति. पुराण एव उपनिषदोंम सूर्यका भ्रमणद्वारा उदयास्तकाल नयक दर्जन अदर्शनसे प्रतिपादित है। उसासे अहोरात्र नया दिशा- विदिशाओका विभाग होता है ।
पूर्वापरं चरतां माययेनो शिशु कीळनो परि यातो अध्वरम् ।
विश्वन्यन्यो भुवनाभिन्चष्ट ऋतूंरन्यो विदधलायने पुनः ॥
अर्थात् सूर्य पहले विचरते है. चन्द्रमा उनका अनुसरण करते है। भगवान् के नेन से प्रकाश्य सूर्य हैं और सूर्यके नेजमे प्रकाव्य चन्द्रमा है क्योकि वे जन्दमन विम्व है। उसपर सूर्यको किरणोंके पउनेले उज्ज्वन्द शीतल चन्द्रकान्ति प्रकाश मान होकर फैलती है, जैसे गृहद्वारपर स्थित दर्पणपर सूर्यकी किरणोंक पउने से अन्तगृह प्रकाशिन होता है। इस प्रकार पौर्वापर्य से. खप्रज्ञान से सूर्य और चन्द्रमा गुलोक (अन्तरिक्ष) में विचरण करते है. अर्थात् दो चालकों की तरह विहार करते हैं। उन दोनों में आदिश्य सकल भुवनोंका अवलोकन करने हैं और चन्द्रमा बसन्त आदि ऋतुओंका विधान करते हुए मास. अर्धमास बनाते हुए बारम्बार प्रादुर्भूत होते हैं- जन्मते हैं। यद्यपि दोनों का पुनः-पुन. प्रादुर्भाव तो नहीं होता, तथापि सूर्यको क्षय-प्रवृद्धि आदि अभीष्ट नहीं है। चन्द्रमाकी कलाओंके घटने-बढनेसे पुनर्जन्म होना युक्त है। अतएव तैत्तिरीयब्राह्मणमे कहा है कि 'चन्द्रमा वै जायते पुनः' 'नयो नयो भवति जायमानः' रात मे सभी प्राणियों का आलोक वैश्वानरके अधीन रहता है। रात्रिके बाद वे ही सूर्य बनकर उदित होते हैं।
मूर्धा भुवो भवति नक्तमग्नि- स्ततः ख्यों जायते प्रातरुद्यन् ।
'भातीति भानुः' इस व्युत्पत्तिसे 'भानु' शब्द भी सूर्य- भानु वाचक है। वे भगवान्के तेजसे दीप्त होकर प्रकाश- मान होते हैं तथा अन्तरिक्षमे भ्रमण करते हुए समस्त द्युलोक एव भूलोकको प्रकाशित करते है।
भानुः शुक्रेण शोचिपा व्यद्यौन् प्रारूरुचद्रोदसी मातरा शुचिः ।
सविता सकल जनोके दुःखका निवारण करनेवाली वृष्टिको उपजानेसे सविता-पद-वाच्य वे ही सूर्यमण्डलमध्यवर्ती नारायण हैं। 'याभिरादित्यस्तपति रश्मिभिरत्ताभिः पर्जन्यो वर्षति' (श्रुति) तथा 'आदित्याज्जायते वृष्टिर्दृष्टेरन्नं ततः प्रजाः'। (स्मृति) एव 'अष्टौ मासान्निपीनं यद् भूम्या श्चोदमयं वसु । खगोभिर्मोकुमारेभे पर्जन्यः काल आगते प्रभृति पुराणादि बचनोसे वे ही वर्या करते है अथवा 'सूयते इति सविता सम्पूर्ण जगत्के प्रसवकर्ता उद्गमस्थानीय है
अथवा -'सूते सकलश्रेयांसि ध्यातृणामसौ सविता' अर्थात् सभी न्यातृवोंके सकल श्रेयका कारण होनेसे वे ही सविना पद-वाच्य हैं। 'उद्यन्तमस्तं यान्तमादित्यमभिध्यायन् ब्राह्मणो विद्वान् सकलं भद्रमश्नुते' यह श्रुति भी इसी बातको प्रमाणित करती है। अदिति देवमाताके शरीरसे उत्पन्न होनेके कारण वे ही आदित्य-पदवाच्य है। अध्वर्यु ब्राह्मणमें अदितिके आठ पुत्रोकी परिगणना है- मित्र, वरुण, धाता, अर्यमा, अंश, भग, विवस्वान् और आदित्य । इनमेसे आदित्यको मार्तण्ड भी कहते है। इस आठवें पुत्रको ऊपरकी ओर उछाल दिया, पुनः प्राणियोके जनन-मरणके लिये उसका आहरण कर लिया, इससे सिद्ध होता है कि प्राणियोके जनन-मरण सुर्योदय-सूर्यास्त के अधीन है। प्राणियोके जीग्नहेतु आयुका आदान करनेसे आदित्य है।
अष्टौ पुत्रासो अदितेयें जातास्तन्वस्परि ।
देवों उप प्रैत् सप्तभिः परा मार्ताण्डमास्यत् ॥
सप्तभिः पुचैरदितिरुप मैत् पूर्व्य युगम् ।
प्रजायै मृत्यचे त्वत् पुनर्मार्ताण्डमाभरत् ॥
सम्पूर्ण विश्वका प्रसत्र करनेवाले सर्व-प्रेरक सबिना- देवता ही अपने नियमन साधनोसे, वृष्टि-प्रदानादि- उपायोसे पृथ्वीको सुखसे अवस्थित रखते हैं तथा वे ही आलम्बनरहित प्रदेशमे द्युलोकको दृढ करते हैं, जिससे नीचे न गिरे। वे ही अन्तरिक्षगत होकर बायवीय पागोसे बँधे हुए मेघमय समुद्रको दुहते हैं-
सविता यन्त्रैः पृथिवीमरम्णा- दस्कम्भने सविता द्यामहंहत् ।
अश्वमिवा चुझझुनिमन्तरिक्ष-मतूर्त वद्धं सविता समुद्रम् ॥
वे सूर्य केवल सम्पूर्ण विश्वके प्रकाशक, प्रवर्तक, धारक, प्रेरकमात्र ही नहीं, अपितु आरोग्यकारक भी हैं। सूर्य की उपासनासे दु. खप्नसे जनित अनिष्ट एवं नवग्रहजन्य पीडाका भी परिहार होता है एव व्रत के विघातक राक्षसो से भी रक्षा करने वाले सूर्य है। ऋग्वेद मे इसका ज्वलन्त प्रमाण है।
येन सूर्य ज्योतिषा वाधले तमो जगच्च विश्वमुदियर्षि भानुना ।
विश्वस्य हि प्रेपितो रक्षसि व्रतम् ॥
तेनास्मद्विश्वामतिरामनाहुति- मपामीवामप दुस्स्वप्न्यं सुव ॥
इसी कारण पुराणमूर्धन्य मत्स्यमहा पुराण में कहा है कि-
इस प्रकार वेदने भगवान् सूर्य को विविध रूप में देखकर उनके खरूपका विशद विवेचन किया है। अस्तु ! भगवान् सूर्य हमारी बुद्धियोको शुभ कर्ममि लगायें-धियो यो नः प्रचोदयात् ।
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