त्रिकाल-संध्या में सूर्य उपासना | Trikaal-Sandhya Mein Soory Upaasana

त्रिकाल-संध्या में सूर्य उपासना | Trikaal-Sandhya Mein Soory Upaasana

समय की गति सूर्य के द्वारा नियमित होती है। सूर्य भगवान् जब उदय होते हैं, तब दिनका प्रारम्भ तथा रात्रिका शेष होता है, इसको प्रातःकाल कहते है। जब सूर्य आकाश के शिखर पर आरूद होते हैं, उस समयको दिनका मध्य अथवा मध्याह्न कहते हैं और जब वे अस्ताचलको चले जाते हैं, तब दिनका शेष एव रात्रि का प्रारम्भ होता है। इसे सायंकाल कहते है। ये तीन काल उपासना के मुख्य काल माने गये है। यो तो जीवन का प्रत्येक क्षण उपासनामय होना चाहिये, परंतु इन तीन कालो में तो भगवान्‌ की उपासना नितान्त आवश्यक बतलायी गयी है। इन तीनों समयोकी उपासनाके नाम ही क्रमशः प्रातःसन्ध्या, मध्याह्नसन्ध्या और सायंसन्ध्या है। प्रत्येक वस्तु की तीन अवस्थाएँ होती हैं- उत्पत्ति, पूर्ण विकास और विनाश । ऐसे ही जीवन की भी तीन ही दशाएँ होती हैं- जन्म, पूर्ण युवावस्था और मृत्यु । हमे इन अवस्थाओं का स्मरण दिलाने के लिये तथा इस प्रकार हमारे अंदर संसार के प्रति वैराग्य की भावना जागृत करनेके लिये ही मानो सूर्य भगवान् प्रतिदिन उदय होने, उन्नतिके शिखरपर आरूढ़ होने और फिर अस्त होने की लीला करते है। भगवान्‌ की इस त्रिविध लीला के साथ ही हमारे शास्त्रो ने तीन कालकी उपासना जोड़ दी है।


भगवान् सूर्य परमात्मा नारायण के साक्षात् प्रतीक हैं, इसीलिये वे सूर्य नारायण कहलाते है। यही नहीं, सर्ग के आदि मे भगवान् नारायण ही सूर्य रूप मे प्रकट होते है, इसीलिये पञ्चदेवो मे सूर्यकी भी गणना है। यो भी वे भगवान्‌ की प्रत्यक्ष विभूतियों में सर्वश्रेष्ठ, हमारे इस ब्रह्माण्ड के केन्द्र, स्थूल काल के नियाम के, तेज के महान् आकर, बिश्वके पोषक एवं प्राणदाता तथा समस्त चराचर प्राणियो के आधार हैं। वे प्रत्यक्ष दीग्यनेवाले सारे देवोमें श्रेष्ठ हैं। इसीलिये सन्ध्यामें सूर्यरूपसे ही भगवान्‌की उपासना की जाती है । उनकी उपासना से हमारे तेज, बल, आयु एवं नेत्रो- की ज्योति की वृद्धि होती है और मरने के समय वे हमे अपने लोकमेसे होकर भगवान्‌के परमधाममें ले जाते है; क्योकि भगबान्‌ के परमधामका रास्ता सूर्य- लोकमेसे होकर ही गया है। शाखोमें लिखा है कि योगी लोग तथा कर्तव्य रूप से युद्धमे शत्रुके सम्मुख लडते हुए प्राण देनेवाले क्षत्रिय वीर सूर्य मण्डल को भेदकर भगवान्‌ के धाम मे चले जाते हैं। हमारी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान् सूर्य यदि हमें भी उस लक्ष्यतक पहुँचा दे तो इसमे उनके लिये कौन बड़ी बात है। भगवान् अपने भक्तोंपर सदा, ही अनुग्रह करते आये हैं। हम यदि जीवनभर नियम पूर्वक श्रद्धा एवं भक्ति के साथ निष्कामभाव से उनकी आराधना करेगे, तो क्या वे मरते समय हमारी इतनी भी सहायता नहीं करेगे ? अवश्य करेगे। भक्तो की रक्षा करना तो भगवान्‌का बिरद ही ठहरा। अतः जो लोग आदरपूर्वक तथा नियमसे विना नागा (प्रतिदिन) तीनो समय अथवा कम-से-कम दो समय (प्रातःकाल एवं सायंकाल) ही भगवान् सूर्य की आराधना करते हैं, उन्हे विश्वास करना चाहिये कि उनका कल्याण निधित है और वे मरते समय भगवान् सूर्य की कृपा से अवश्य परमगति को प्राप्त होगे ।
इस प्रकार युक्तिसे भी भगवान् सूर्यकी उपासना हमारे लिये अत्यन्त कल्याण कारक, थोडे परिश्रम के बदलेमें महान् फल देनेवाली, अतएव अवश्य कर्तव्य है। अतः द्वि जाति मात्र को चाहिये कि वे लोग नियम- पूर्वक त्रिकालसन्ध्याके रूपमें भगवान् सूर्य की उपासना किया करें और इस प्रकार लौकिक एवं पारमार्थिक दोनों प्रकारके लाभ उठावें ।

'उद्यन्तमस्तं यन्तमादित्यमभिध्यायन् कुर्वन् ब्राह्मणो विद्वान् सकलं भन्द्रमश्नुते ।'

अर्थात् 'उदय और अस्त होते हुए सूर्य की उपासना करने वाला विद्वान् ब्राह्मण सब प्रकार के कल्याण को प्राप्त करता है।
जब कोई हमारे पूज्य महापुरुप हमारे नगरमे आते हैं और उसकी सूचना हमे पहलेसे मिली हुई रहती है तो हम उनका स्वागत करनेके लिये अर्घ्य, चन्दन, फूल, माला आदि पूजाकी सामग्री लेकर पहलेसे ही स्टेशनपर पहुँच जाते हैं, उत्सुकतापूर्वक उनकी बाट जोहते हैं और आते ही उनकी बड़ी आवभगत एव प्रेमके साथ स्वागत करते हैं। हमारे इस व्यवहारसे उन आगन्तुक महापुरुपको बड़ी प्रसन्नता होती है और यदि हम निष्कामभावसे अपना कर्तव्य समझकर उनका स्वागत करते हैं तो वे हमारे इस प्रेमके आभारी बन जाते है और चाहते हैं कि किस प्रकार बदलेमें वे भी हमारी कोई सेवा करें। हम यह भी देखते हैं कि कुछ लोग अपने पूज्य पुरुपके आगमन की सूचना होने पर भी उनके खागतके लिये समयपर स्टेशन नहीं पहुँच पाते और जब वे गाडीसे उतरकर प्लेटफार्मवर पहुँच जाते हैं, तब दौडे हुए आते हैं और देरके लिये क्षमा-याचना करते हुए उनकी पूजा करते हैं। और, कुछ इतने आलसी होते हैं कि जब हमारे पूज्य पुरुष अपने डेरेपर पहुँच जाते है और अपने कार्यमें लग जाते हैं, तब वे धीरे-धीरे फुरसतसे अपना अन्य सब काम निपटाकर आते हैं और उन आगन्तुक महानुभावकी पूजा करते है। वे महानुभाव तो तीनो ही प्रकारके खागत करने- बालोकी पूजासे प्रसन्न होते हैं और उनका उपकार मानते है, पूजा न करने वालो की अपेक्षा देर-सवेर करनेवाले भी अच्छे हैं, किंतु दर्जेका अन्तर तो रहता ही है। जो जितनी तत्परता, लगन, प्रेम एवं आदर- बुद्धिसे पूजा करते हैं, उनकी पूजा उतनी ही महत्त्वकी और मूल्यवान् होती है और पूजा ग्रहण करनेवालेको उससे उतनी ही प्रसन्नता होती है।
सन्ध्याके सम्बन्धमें भी ऐसा ही समझना चाहिये । भगवान् सूर्यनारायण प्रतिदिन सवेरे हमारे इस भूमण्डल- पर महापुरुषकी भाँति पधारते हैं, उनसे बढकर हमारा पूज्य पात्र और कौन होगा। अतः हमें चाहिये कि हम ब्राह्ममुहूर्तमें उठकर शौच-स्नानादिसे निवृत्त होकर शुद्ध वस्त्र पहनकर उनका खागत करनेके लिये उनके आगमन- से पूर्व ही तैयार हो जायें और आते ही बडे प्रेमसे चन्दन, पुष्प आदिसे युक्त शुद्ध ताजे जलसे उन्हे अर्घ्य प्रदान करे, उनकी स्तुति करे, जप करे । भगवान् सूर्यको तीन बार गायत्रीमन्त्रका उच्चारण करते हुए अर्घ्य प्रदान करना, गायत्रीमन्त्रका (जिसमें उन्हींकी परमात्मभावसे स्तुति की गयी है) जप करना और खडे होकर उनका उपस्थान करना, स्तुति करना- ये ही सन्ध्योपासनके मुख्य अङ्ग हैं, शेप कर्म इन्हींके अङ्गभूत एवं सहायक है। जो लोग सूर्योदय- के समय सन्ध्या करने बैठते हैं, वे एक प्रकारसे अतियिके स्टेशनपर पहुँच जाने और गाड़ीसे उतर जानेपर उनकी पूजा करने दौड़ते हैं और जो लोग सूर्योदय हो जानेके बाद फुरसतसे अन्य आवश्यक कार्योंसे निवृत्त होकर सन्ध्या करने बैठते है, ने मानो अतिथिके अपने डेरेपर जानेपर धीरे-धीरे उनका खागत करने पहुँचते है।
पहुँच जो लोग सन्ध्योपासन करते ही नहीं, उनकी अपेक्षा तो वे भी अच्छे हैं जो देर-सवेर, कुछ भी खानेके पूर्व
सन्च्या कर लेते हैं। उनके द्वारा कर्मका अनुष्ठान तो हो ही जाता है और इस प्रकार शाखकी आज्ञाका निर्वाह हो जाता है। वे कर्मलोपके प्रायश्चित्तके भागी नहीं होते। उनकी अपेक्षा वे अच्छे हैं, जो प्रातःकालमें तारोंके लुप्त हो जानेपर सन्ध्या प्रारम्भ करते हैं। किंतु उनसे भी श्रेष्ठ वे हैं, जो उपाकालमें ही तारे रहते सन्ध्या करने बैठ जाते हैं, सूर्योदय होनेतक खड़े होकर गायत्री-मन्त्रका जप करते हैं। इस प्रकार अपने पूज्य आगन्तुक महापुरुपकी प्रतीक्षामें उन्हींके चिन्तनमें उतना समय व्यतीत करते हैं और उनका पदार्पण, उनका दर्शन होते ही जप बंद कर उनकी स्तुति, उनका उपस्थान करते हैं। इसी बातको लक्ष्यमें रखकर सन्ध्या के उत्तम, मध्यम और अधम-तीन भेद किये गये हैं।

उत्तमा तारकोपेता मध्यमा लुप्ततारका । 
कनिष्ठा सूर्यसहिता प्रातःसन्ध्या त्रिधा स्मृता ॥

प्रातःसन्ध्याके लिये जो बात कही गयी है, साय सन्ध्याके लिये उससे विपरीत बात समझनी चाहिये। अर्थात् सायंसन्ध्या उत्तम बह कहलाती है, जो सूर्यके रहते की जाय तथा मध्यम वह है, जो सूर्यास्त होनेपर की जाय और अधम यह है, जो तारोंके दिखायी देनेपर की जाय-

उत्तमा सूर्यसहिता मध्यमा लुप्तभास्करा ।
कनिष्ठा ताग्कोपता सायंसन्ध्या त्रिधा स्मृता ॥

कारण यह है कि अपने पूज्य पुरुप के विदा होते समय पहलेही से सब काम छोडकर जो उनके साथ- साथ स्टेशन पहुँचता है, उन्हे आरामसे गाड़ीपर विठानेकी व्यवस्था कर देता है और गाड़ी के छूटने पर हाथ जोडे हुए प्लेटफार्मपर खड़ा-खड़ा प्रेमसे उनकी ओर ताकता रहता है एवं गाडीके आँखों से ओझल हो जाने पर ही स्टेशन से लौटता है, यही मनुष्य उनका सबसे अधिक सम्मान करता है और प्रेम पात्र बनता है। जो मनुष्य ठीक गाड़ीके छूटनेके समय हाँफता हुआ स्टेशनपर पहुँचता है और चलते-चलते दूरसे अतिथिके दर्शन कर पाता है, वह निश्चय ही अतिथिकी दृष्टिमें उतना प्रेमी नहीं ठहरता, यद्यपि उसके प्रेमसे भी महानुभाव अतिथि प्रसन्न ही होते हैं और उसके उपर प्रेमभरी दृष्टि रखते है। उससे भी नीचे दर्जेका प्रेमी बह समझा जाता है, जो अतिथिके चले जानेपर पीछेमे स्टेशन पहुँचता है, फिर पत्रद्वारा अपने देरीमे पहुँचनेकी सूचना देता है और क्षमा-याचना करता है । महानुभाव अतिथि उसके भी आतिथ्यको मान लेने हैं और उसपर प्रसन्न ही होते हैं।
यहाँ यह नहीं मानना चाहिये कि भगवान् भी साधारण मनुष्यों की भोति राग-द्वेपसे युक्त है, वे पूजा करनेवालेपर प्रसन्न होते हैं और न करनेवालोंपर नाराज होते हैं या उनका अहित करते हैं। भगवान्‌ की सामान्य कृपा सत्रपर समानरूपसे रहती है। सूर्यनारायण अपनी उपासना न करनेवालोको भी उतना ही ताप एवं प्रकाश देते हैं, जितना वे उपासना करने वालों को देते है। उसमे न्यूनाविक्ता नहीं होती। हॉ. जो लोग उनसे विशेष लाभ उठाना चाहते हैं, जन्म-मरणके चकसे छूटना चाहते हैं, उनके लिये तो उनकी उपासना- की आवश्यकता है ही और उसमें आदर एवं पेमकी दृष्टिसे तारतम्य भी होता ही है।
किसी कार्यमें प्रेम और आदरबुद्धि होने से वह अपने- आप ठीक समयपर और नियमपूर्वक होने लगता है। जो लोग इस प्रकार इन तीनों वातोका ध्यान रखते हुए श्रद्धा-प्रेमपूर्वक भगवान् सूर्य नारायण की जीवनभर उपासना करते हैं, उनकी मुक्ति निश्चितरूप से होती है।

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