श्री गणेश पुराण | राज्य-श्री से इन्द्र का वंचित होना | ब्रह्माजी द्वारा इन्द्र को नारायण-स्तोत्र कथन,Raajy-Shree Se Indr Ka Vanchit Hona | Brahmaajee Dvaara Indr Ko Naaraayan-Stotr Kathan

श्री गणेश पुराण तृतीय खण्ड,एकादश अध्याय

नीचे दिए गए 2 शीर्षक  के बारे में वर्णन  किया गया है-
  1. राज्य-श्री से इन्द्र का वंचित होना
  2. ब्रह्माजी द्वारा इन्द्र को नारायण-स्तोत्र कथन

राज्य-श्री से इन्द्र का वंचित होना

नारायण बोले- 'हे नारदजी ! यह एक बहुत बड़ा रहस्य है, जो कि गोपनीय एवं अत्यन्त दुर्लभ है। तुम्हारी अधिक प्रीति देखकर कहता हूँ, सुनो-जब इन्द्र उस मदमत्त गज से पराभव को प्राप्त हो गए तो भ्रष्ट-श्री होकर अमरावती को चले गए। परन्तु उन्होंने अपनी वह पुरी भी श्रीहीन ही देखी। क्योंकि शत्रुओं ने उसपर आक्रमण करके उन्हें दैन्य अवस्था में डाल दिया था। उस समय उसपर शत्रुओं का अधिकार था तथा देवगण तो वहाँ देखने मात्र को भी नहीं थे।
'इन्द्र को यह समाचार अमरावती के मार्ग से ही मिल गया था, इसलिए पुरी में न जाना ही उन्होंने श्रेयस्कर समझा और गुरु बृहस्पति के पास जाकर बोले- 'गुरुदेव ! यह क्या हो गया ? राज्य, धन, वैभव सब कुछ छिन गया, अब क्या उपाय किया जाये, जिससे शत्रुओं को वहाँ से भगाया जा सके ?' बृहस्पति बोले- 'राजन् ! प्रमुख देवताओं को साथ लेकर लोकपितामह के पास चलना चाहिए। सम्भव है-वही इसका कुछ उचित उपाय कर दें।


ऐसा निश्चय होने पर देवराज गुरु बृहस्पति और सब प्रमुख देवताओं को साथ लेकर ब्रह्मलोक में पहुँचे और उन्हें प्रणाम कर सम्मुख खड़े हुए अत्यन्त भक्तिभावपूर्वक श्रुति मंत्रों द्वारा उनका स्तवन करने लगे। उन्होंने कहा- 'प्रभो ! हमारा राज्य छिन गया, दैत्यों ने हमारा बड़ा अनिष्ट किया है। घर के अभाव में हम सब मारे-मारे फिर रहे हैं। हे दयानिधे ! इसके प्रतिकार का कुछ उपाय कीजिए ।'
ब्रह्माजी ने इन्द्र का निवेदन सुनकर भर्त्सना भरे स्वर में कहा, 'देवेन्द्र ! मेरे प्रपौत्र होकर भी गर्हित कर्म कर बैठते हो। तुम अपनी इन्द्रियों को वश में न रख सकने के कारण ही ऐसी विपत्तियों में फँसते हो। ध्यान रखो, जो परस्त्रियों में आसक्ति रखता है, वह कभी भी सुख से नहीं रह सकता । उसकी श्री, यश और सम्पत्ति कभी स्थिर नहीं रह सकती । वह सर्वत्र निन्दा का ही पात्र बना रहता है। वह अपने पाप का फल भोगने के लिए बुरे से बुरा परिणाम भोगता है।'
इन्द्र नत-मस्तक हुए ब्रह्माजी की बात सुनते रहे पितामह ने पुनः कहा- "नैवेद्यं श्रीहरेरेव दत्तं दुर्वाससा च ते। गजमूनि त्वया न्यस्तं रम्भया हतचेतसा ।।" 'अरे मूढ़ ! तूने महर्षि दुर्वासा द्वारा प्रदत्त भगवान् श्रीहरि के नैवेद्य कातिरस्कार किया। उसे अपने मस्तक पर धारण न कर हाथी के मस्तक पर रख दिया। उस समय तू रम्भा के मिथ्या प्रेम में फँसा रहने के कारण हतज्ञान हो गया। अब बता, वह रम्भा तुझे गर्त में डालकर कहाँ चली गई और उसके कारण श्रीहीन हुआ तू अब किस दिशा को प्राप्त हो रहा है ? देख, उसने तेरी किञ्चित् भी चिन्ता नहीं की और क्षणभर में तुझसे पृथक् हो गई।'

ब्रह्माजी द्वारा इन्द्र को नारायण-स्तोत्र कथन

इन्द्र ने ब्रह्माजी के चरण पकड़ लिये और उन्हें अपने आँसुओं से धोने लगे। पितामह को उनपर दया आयी और वे बोले 'वत्स! अब रोने से क्या होगा ? गई हुई लक्ष्मी इस प्रकार से लौटने वाली नहीं है। अब तो श्री की पुनः प्राप्ति के लिए तुम्हें भगवान् श्रीहरि का भजन करना चाहिए।' यह कहकर ब्रह्माजी ने इन्द्र को नारायण मन्त्र, स्तोत्र एवं कवच प्रदान किया। पितामह की आज्ञानुसार इन्द्र ने एकान्त स्थान में जाकर विधिपूर्वक अनुष्ठान किया। उनके भक्तिभाव की दृढ़ता देखकर भगवान् विष्णु प्रकट हुए और बोले- 'देवराज! मैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूँ। अब तुम अपना अभीष्ट वर माँग लो।'
इन्द्र ने हाथ जोड़े हुए कहा- 'प्रभो! मैं श्रीहीन, राजहीन और अत्यन्त दुखित हो रहा हूँ। शत्रुओं ने अमरावती को छीन लिया है। सभी देवगण घर-द्वार से वञ्चित हुए मारे-मारे फिर रहे हैं। हे नाथ! हमें पुनः अपना वैभव प्राप्त हो सके, वह उपाय करने की कृपा कीजिए ।' भगवान् बोले- 'देवेन्द्र ! तुम जो चाहते हो वही होगा। तुम्हारे शत्रु दैत्य शीघ्र ही पराभव को प्राप्त होकर अमरावती छोड़कर भाग जायेंगे । तुम इस स्तोत्र और कवच का अनुष्ठान करो।'
भगवान् विष्णु से वर प्राप्त कर देवराज ने विधि सहित स्तोत्र और कवच सिद्ध कर समस्त देवताओं को एकत्र किया और दैत्यों पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की। यह सुनकर नारदजी ने पूछा- 'हे भगवन् ! श्रीहरि ने इन्द्र को कौन-सा स्तोत्र और कवच प्रदान किया था ? वह मेरे प्रति कहिए।' श्रीनारायण ने कहा- 'हे नारद ! जो कवच इन्द्र को प्रदान किया गया, वह सभी लोकों में विजय प्राप्त कराने वाला एवं अमोघ है। इसे अनधिकारी को नहीं देना ।'

"केशान् केशवकान्ता च कपालं कमलालया । 
जगत्प्रसूर्गण्डयुग्मं स्कन्धं सम्पत्प्रदा सदा ॥"

'मेरे केशों की केशवकान्ता रक्षा करें, कपाल की प‌द्मालया रक्षा करें, जगत् को उत्पन्न करने वाली देवी गण्डयुग्म की और सम्पत्प्रदा स्कन्ध की रक्षा करें। कमल-वासिनी पीठ की, प‌द्मालया वक्षःस्थल की ह्रीं, श्रीं कंकाल की, श्रीं नमः दोनों बाहुओं की रक्षा करें। ॐ ह्रीं श्रीं लक्ष्म्यै नमः पाँवों की, ॐ ह्रीं श्रीं नमः पद्मायै नितम्ब भाग की, ॐ श्रीं महालक्ष्म्यै स्वाहा सर्वांग की तथा ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं महालक्ष्म्यै स्वाहा मेरी सब ओर से रक्षा करें। यह परम अद्भुत कवच सभी सम्पत्तियों और ऐश्वर्यों को देने वाला है। इसका धारण कण्ठ में या दायीं भुजा में करना चाहिए। भगवान् श्रीहरि ने जो मन्त्र प्रदान किया था, वह यह है- 'ॐ श्रीं क्लीं नमो महालक्ष्म्यै हरिप्रियायै स्वाहा।' 'हे नारद ! देवराज इन्द्र ने इसी का अनुष्ठान करके सिद्धि प्राप्त की थी। इस प्रकार मैंने तुम्हारे प्रश्न का समाधान कर दिया। अब और क्या सुनना चाहते हो, वह मुझे बताओ ।'

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