दस महाविद्याओं में काली प्रथम | Kali first among ten Mahavidyas

दस महाविद्याओं में काली प्रथम | Kali first among ten Mahavidyas

दस महाविद्याओं में काली प्रथम हैं। महा भागवत के अनुसार महाकाली ही मुख्य हैं और उन्हीं के उग्र और सौम्य दो रूपों में अनेक रूप धारण करने वाली दस महाविद्याएँ हैं। विद्यापति भगवान् शिवकी शक्तियाँ ये महाविद्याएँ अनन्त सिद्धियाँ प्रदान करनेमें समर्थ हैं। दार्शनिक दृष्टिसे भी कालतत्त्वकी प्रधानता सर्वोपरि है। इसलिये महाकाली या काली ही समस्त विद्याओंकी आदि हैं अर्थात् उनकी विद्यामय विभूतियाँ ही महाविद्याएँ हैं। ऐसा लगता है कि महाकालकी प्रियतमा काली ही अपने दक्षिण और वाम रूपोंमें दस महाविद्याओंके नामसे विख्यात हुई। बृहन्नीलतन्त्रमें कहा गया है कि रक्त और कृष्णभेद से काली ही दो रूपोंमें अधिष्ठित हैं। कृष्णा का नाम 'दक्षिणा' और रक्तवर्णाका नाम 'सुन्दरी' है।

कालि का पुराण में कथा आती है कि एक बार हिमालय पर अवस्थित मतंग मुनिके आश्रम में जाकर देवताओं ने महामाया की स्तुति की। स्तुतिसे प्रसन्न होकर मतंग-वनिताके रूपमें भगवतीने देवताओंको दर्शन दिया और पूछा कि तुमलोग किसकी स्तुति कर रहे हो। उसी समय देवीके शरीरसे काले पहाड़के समान वर्णवाली एक और दिव्य नारीका प्राकट्य हुआ। उस महातेजस्विनीने स्वयं ही देवताओंकी ओरसे उत्तर दिया कि 'ये लोग मेरा ही स्तवन कर रहे हैं।' वे काजलके समान कृष्णा थीं, इसीलिये उनका नाम 'काली' पड़ा।
दुर्गा सप्तशती के अनुसार एक बार शुम्भ-निशुम्भके अत्याचार से व्यथित होकर देवताओंने हिमालय पर जाकर देवी सूक्त से देवीकी स्तुति की, तब गौरीकी देहसे कौशिकी का प्राकट्य हुआ। कौशिकीके अलग होते ही अम्बा पार्वती का स्वरूप कृष्ण हो गया, जो 'काली' नाम से विख्यात हुईं। काली को नीलरूपा होने के कारण तारा भी कहते हैं। नारद-पाञ्चरात्र के अनुसार एक बार काली के मनमें आया कि वे पुनः गौरी हो जायें। यह सोचकर वे अन्तर्धान हो गयीं। शिवजीने नारदजीसे उनका पता पूछा। नारदजीने उनसे सुमेरु के उत्तर में देवी के प्रत्यक्ष उपस्थित होनेकी बात कही। शिवजी की प्रेरणा से नारद जी वहाँ गये। उन्होंने देवी से शिवजी के साथ विवाहका प्रस्ताव रखा। प्रस्ताव सुनकर देवी कुद्ध हो गयीं और उनकी देहसे एक अन्य षोडशी विग्रह प्रकट हुआ और उससे छायाविग्रह त्रिपुरभैरवी का प्राकट्य हुआ।
काली की उपासना में सम्प्रदायगत भेद है। प्रायः दो रूपोंमें इनकी उपासना का प्रचलन है। भव- बन्धन-मोचनमें काली की उपासना सर्वोत्कृष्ट कही जाती है। शक्ति-साधनाके दो पीठोंमें कालीकी उपासना श्याम-पीठपर करनेयोग्य है। भक्तिमार्गमें तो किसी भी रूपमें उन महामायाकी उपासना फलप्रदा है, पर सिद्धिके लिये उनकी उपासना वीरभावसे की जाती है। साधनाके द्वारा जब अहंता, ममता और भेद-बुद्धिका नाश होकर साधकमें पूर्ण शिशुत्वका उदय हो जाता है, तब कालीका श्रीविग्रह साधकके समक्ष प्रकट हो जाता है। उस समय भगवती कालीकी छबि अवर्णनीय होती है। कज्जलके पहाड़के समान, दिग्वसना, मुक्त कुन्तला, शवपर आरूढ़, मुण्ड माला धारिणी भगवती कालीका प्रत्यक्ष दर्शन साधकको कृतार्थ कर देता है। तान्त्रिक मार्ग में यद्यपि काली की उपासना दीक्षागम्य है, तथापि अनन्य शरणागतिके द्वारा उनकी कृपा किसीको भी प्राप्त हो सकती है। मूर्ति, मन्त्र अथवा गुरुद्वारा उपदिष्ट किसी भी आधारपर भक्ति भाव से, मन्त्र जप, पूजा, होम और पुरश्चरण करनेसे भगवती काली प्रसन्न हो जाती हैं। उनकी प्रसन्नता से साधक को सहज ही सम्पूर्ण अभीष्टोंकी प्राप्ति हो जाती है।

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