दस महाविद्याओं में अष्टम: वगलामुखी | Eighth among the ten Mahavidyas: Vagalamukhi

दस महाविद्याओं में अष्टम: वगलामुखी

व्यष्टिरूपमें शत्रुओं को नष्ट करने की इच्छा रखने वाली तथा समष्टिरूप में परमात्मा की संहार- शक्ति ही वगला है। पीताम्बराविद्याके नामसे विख्यात वगलामुखीकी साधना प्रायः शत्रुभयसे मुक्ति और वाक्-सिद्धि के लिये की जाती है। इनकी उपासनामें हरिद्रामाला, पीत-पुष्प एवं पीतवस्त्रका विधान है। महाविद्याओं में इनका आठवाँ स्थान है। इनके ध्यानमें बताया गया है कि ये सुधासमुद्रके मध्यमें स्थित मणिमय मण्डपमें रत्नमय सिंहासनपर विराज रही हैं। ये पीतवर्णके वस्त्र, पीत आभूषण तथा पीले पुष्पोंकी ही माला धारण करती हैं। इनके एक हाथमें शत्रुकी जिह्वा और दूसरे हाथमें मुद्रर है।

स्वतन्त्रतन्त्रके अनुसार भगवती बगलामुखीके प्रादुर्भावकी कथा इस प्रकार है- सत्ययुगमें सम्पूर्ण जगत्‌ को नष्ट करनेवाला भयंकर तूफान आया। प्राणियोंके जीवनपर आये संकटको देखकर भगवान् महाविष्णु चिन्तित हो गये। वे सौराष्ट्र देशमें हरिद्रा सरोवरके समीप जाकर भगवतीको प्रसन्न करनेके लिये तप करने लगे। श्रीविद्याने उस सरोवरसे वगलामुखीरूपमें प्रकट होकर उन्हें दर्शन दिया तथा विध्वंसकारी तूफान का तुरन्त स्तम्भन कर दिया। वगलामुखी महाविद्या भगवान् विष्णुके तेजसे युक्त होनेके कारण वैष्णवी है। मंगलवार युक्त चतुर्दशी की अर्धरात्रिमें इनका प्रादुर्भाव हुआ था। इस विद्याका उपयोग दैवी प्रकोप की शान्ति, धन-धान्यके लिये पौष्टिक कर्म एवं आभिचारिक कर्मके लिये भी होता है। यह भेद केवल प्रधानता के अभिप्रायसे है; अन्यथा इनकी उपासना भोग और मोक्ष दोनोंकी सिद्धिके लिये की जाती है।
यजुर्वेदकी काठकसंहिताके अनुसार दसों दिशाओंको प्रकाशित करनेवाली, सुन्दर स्वरूपधारिणी 'विष्णुपत्नी' त्रिलोक जगत्‌की ईश्वरी मानोता कही जाती है। स्तम्भनकारिणी शक्ति व्यक्त और अव्यक्त सभी पदार्थोकी स्थितिका आधार पृथ्वीरूपा शक्ति है। वगला उसी स्तम्भनशक्तिकी अधिष्ठात्री देवी है। शक्तिरूपा वगलाकी स्तम्भनशक्तिसे द्युलोक वृष्टि प्रदान करता है। उसीसे आदित्यमण्डल ठहरा हुआ है और उसीसे स्वर्गलोक भी स्तम्भित है। भगवान् श्रीकृष्णने भी गीतामें 'विष्टभ्याहमिदं कृत्स्त्रमेकांशेन स्थितो जगत्' कहकर उसी शक्तिका समर्थन किया है। तन्त्रमें वही स्तम्भनशक्ति वगलामुखीके नामसे जानी जाती है। श्रीवगलामुखीको 'ब्रह्मास्त्र 'के नामसे भी जाना जाता है। ऐहिक या पारलौकिक देश अथवा समाज में दुःखद अरिष्टोंके दमन और शत्रुओंके शमनमें वगलामुखीके समान कोई मन्त्र नहीं है। चिरकालसे साधक इन्हीं महादेवीका आश्रय लेते आ रहे हैं। इनके बडवामुखी, जातवेदमुखी, उल्कामुखी, ज्वालामुखी तथा बृहद्भानुमुखी पाँच मन्त्रभेद हैं। कुण्डिकातन्त्रमें वगलामुखीके जपके विधानपर विशेष प्रकाश डाला गया है। मुण्डमालातन्त्रमें तो यहाँतक कहा गया है कि
इनकी सिद्धिके लिये नक्षत्रादि विचार और कालशोधन की भी आवश्यकता नहीं है। वगला महाविद्या ऊर्ध्वानाय के अनुसार ही उपास्य है। इस आम्नायमें शक्ति केवल पूज्य मानी जाती है, भोग्य नहीं। श्रीकुलकी सभी महाविद्याओंकी उपासना गुरुके सान्निध्यमें रहकर सतर्कतापूर्वक सफलताकी प्राप्ति होनेतक करते रहना चाहिये। इसमें ब्रह्मचर्यका पालन और बाहर-भीतरकी पवित्रता अनिवार्य है। सर्वप्रथम ब्रह्माजीने वगला महाविद्याकी उपासना की थी। ब्रह्माजीने इस विद्याका उपदेश सनकादिक मुनियोंको किया। सनत्कुमारने देवर्षि नारदको और नारदने सांख्यायन नामक परमहंसको इसका उपदेश किया। सांख्यायनने छत्तीस पटलोंमें उपनिबद्ध वगलातन्त्रकी रचना की। वगलामुखीके दूसरे उपासक भगवान् विष्णु और तीसरे उपासक परशुराम हुए तथा परशुरामने यह विद्या आचार्य द्रोणको बतायी।

टिप्पणियाँ