देवी अथर्वशीर्ष की महिमा | देवी अथर्वशीर्ष पाठ,Devi Atharvashirsha Kee Mahima | Devi Atharvashirsha Path

देवी अथर्वशीर्ष की महिमा | देवी अथर्वशीर्ष पाठ

देवी अथर्वशीर्ष की महिमा,Devi Atharvashirsha Kee Mahima

"देवी अथर्वशीर्ष " का पाठ आरोग्य और समृद्धि दायक है। इष्ट कृपा प्राप्ति ,आरोग्य के लिए और मनोवांछित कामना पूर्ति के लिये देवी अथर्वशीर्ष का पाठ जरूर करना चाहिये। एकमात्र देवी अथर्वशीर्षम् का पाठ करने से पाठक को पाँचो अथर्वशीर्ष के पाठ का फल प्राप्त होता है! १३)पापों के नाश हेतु देवी अथर्वशीर्षम् का पाठ होता है! सायंकाल में पाठ करने से दिनमें किये हुए पापोंका नाश होता है. प्रातःकालमें पाठ करने से रात्री में कीए हुए पापोंका नाश हो ता है!

,Devi Atharvashirsha Kee Mahima | Devi Atharvashirsha Path

देवी अथर्वशीर्ष पाठ हिंदी , Devi Atharvashirsha Path In Hindi

सभी देव-देवी के समीप पहुंच कर, नम्रता से प्रार्थना करने लगे कि हे देवि! तुम कौन हो? देवी ने कहा- मैं ब्रह्म-स्वरूप हूँ। मुझसे प्रकृति-पुरुषात्मक सद्रूप और असरूप जगत् उत्पन्न हुआ है। मैं आनन्द और अनानन्द-रूपा हूँ। मैं विज्ञान और अविज्ञान-रूपा हूँ। अवश्य जानने योग्य ब्रह्म और अब्रह्म भी मैं ही हूँ। पञ्चीकृत और अपञ्चीकृत महा-भूत भी मैं ही हूँ। यह सारा दृश्य जगत् मैं ही हूँ। वेद और अवेद भी मैं हूँ। विद्या और अविद्या मैं, अजा और अनजा भी मैं, नीचे-ऊपर, अगल-बगल भी मैं ही हूँ। मैं रुद्रों और वसुओं के रूप में सञ्चार करती हूँ। मैं आदित्यों और विश्वेदेवों के रूप में फिरा करती हूँ। मैं दोनों मित्रावरुण का, इन्द्राग्नि का और दोनों अश्विनीकुमारों का पोषण करती हूँ। मैं सोम, त्वष्टा, पूषा और भग को धारण करती हूँ। त्रैलोक्य पर आक्रमण करने के लिए विस्तीर्ण पाद-क्षेप करने वाले विष्णु, ब्रह्मदेव और प्रजापति को मैं ही धारण करती हूँ।
देवों को उत्तम हवि पहुंचानेवाले और सोम-रस निकालनेवाले यजमान के लिए हवि-द्रव्यों से युक्त धन धारण करती हूँ। मैं सम्पूर्ण जगत् की ईश्वरी, उपासकों को धन देनेवाली, ब्रह्म-रूप और यज्ञाहों (यजन करने योग्य देवों) में मुख्य हूँ। मैं आत्म-स्वरूप पर-आकाशादि का निर्माण करती हूँ। मेरा स्थान आत्म-स्वरूप को धारण करनेवाली बुद्धि-वृत्ति में है। जो इस प्रकार जानता है, वह दैवी सम्पत्ति लाभ करता है। तब देवों ने स्तुति की देवी को नमस्कार है। बड़े-बड़ों को अपने-अपने कर्त्तव्य में प्रवृत्त करनेवाली कल्याण-कर्मी को सदा नमस्कार है। गुण-साम्यावस्था-रूपिणी मङ्गल-मयी देवी को नमस्कार है। नियम-युक्त होकर हम उन्हें प्रणाम करते हैं।
उन अग्नि के से वर्णवाली, ज्ञान से जगमगानेवाली, दीप्ति-मती, कर्म-फल-प्राप्ति के हेतु सेवन की जानेवाली दुर्गा देवी की शरण में हम हैं। असुरों का नाश करनेवाली देवी! तुम्हें नमस्कार है।प्राण-रूप देवों ने जिस प्रकाशमान वैखरी वाणी को उत्पन्न किया, उसे अनेक प्रकार से प्राणी बोलते हैं। वह कामधेनु-तुल्य आनन्द-दायक और अन्न तथा बल देनेवाली वाग्-रूपिणी भगवती उत्तम स्तुति से सन्तुष्ट होकर हमारे समीप आवे। काल का भी नाश करनेवाली, वेदों द्वारा स्तुत हुई विष्णु-शक्ति, स्कन्द-माता, सरस्वती, देव-माता अदिति और दक्ष-कन्या, पाप-नाशिनी कल्याण-कारिणी भगवती शिवा को हम प्रणाम करते हैं। हम महा-लक्ष्मी को जानते हैं और उन सर्व-शक्ति-रूपिणी का ही ध्यान करते हैं। वह देवी हमें उस विषय (ज्ञान-ध्यान) में प्रवृत्त करें।हे दक्ष! आपकी जो कन्या अदिति है, वह प्रसूता हुई और उनके स्तुत्यर्ह तथा मृत्यु-रहित देव उत्पन्न हुए।
काम (क), योनि (ए), कमला (ई), वज्रपाणि इन्द्र (ल), गुहा (ह्रीं)। ह, मातरिश्वा-वायु (क), अभ्र (ह), इन्द्र (ल), पुनः  गुहा (ह्रीं। स, क,  ल-३ वर्ण और माया (ह्रीं)- 'कएईलहीं इसकहलहीं सकलह्रीं'- यह सर्वात्मिका जगन्माता की मूल-विद्या है और यह ब्रह्म-रूपिणी है। (शिव-शक्त्यभेद-रूपा, ब्रह्म-विष्णु-शिवात्मिका, सरस्वती-लक्ष्मी-गौरी-रूपा, अशुद्ध- मिश्र-शुद्धोपासकात्मिका, सम-रसीभूत शिव-शक्त्यात्मक ब्रह्म-स्वरूप का निर्विकल्प ज्ञान देनेवाली, सर्व-तत्त्वात्मिका, महा-त्रिपुर सुन्दरी- यही इस मन्त्र का भावार्थ है। यह मन्त्र सब मन्त्रों का मुकुट-मणि है। मन्त्र-शाख में पञ्च-दशी कादि श्रीविद्या के नाम से प्रसिद्ध है।)
यह परमात्मा की शक्ति हैं। यह विश्व मोहिनी है। पाश, अंकुश, धनुष और वाण धारण करनेवाली है। यह 'श्रीमहा विद्या' है। जो ऐसा जानता है, वह शोक को पार कर जाता है। हे भगवती, तुम्हें नमस्कार है। हे माता! सब प्रकार से हमारी रक्षा करो। वही अष्ट वसु है; वही एकादश रुद्र है; वही द्वादश आदित्य है; वहीं सोम-पान करनेवाले और न करनेवाले विश्वेदेव है; वही यातुधान (एक प्रकार के राक्षस), असुर, राक्षस, पिशाच, यक्ष और सिद्ध है; वही सत्त्व-रज-तम है; वही ब्रह्मा-विष्णु-रुद्र-रूपिणी है; वही प्रजा-पति- इन्द्र-मनु है; वही ग्रह, नक्षत्र और तारा है; वही कला-काष्ठादि काल-रूपिणी है। पाप नाश करनेवाली, भोग-मोक्ष देनेवाली, अन्त-रहित, विजयाधिष्ठात्री, निर्दोष, शरण लेने योग्य, कल्याण-दात्री और मङ्गल-रूपिणी उन देवी को हम सदा प्रणाम करते हैं।
वियत्-आकाश (ह) तथा 'ई' कार से युक्त, वीति-होत्र- अग्नि (र) सहित, अर्थ-चन्द्र से अलंकृत जो देवी का बीज (ह्रीं) है, यह सब मनोरथ पूर्ण करनेवाला है। इस एकाक्षर-ब्रह्म का ऐसे यति ध्यान करते हैं, जिनका चित्त शुद्ध है, जो निरतिशयानन्द-पूर्ण हैं और जो ज्ञान के सागर हैं। ('ह्रीं'-मन्त्र देवी-प्रणव है। ॐकार के समान ही यह प्रणव भी व्यापक अर्थ से भरा हुआ है। संक्षेप में इसका अर्थ इच्छा-ज्ञान-क्रियाधार, अद्वैत, अखण्ड, सच्चिदानन्द समरसी-भूत शिव-शक्ति-स्फुरण है।) वाक् या वाणी (एँ), माया (ह्रीं), ब्रह्मसू काम (क्लीं), इसके आगे छठा व्यञ्जन अर्थात् च्, वही वक्त्र अर्थात् आकार से युक्त (चा), सूर्य (म), 'अवाम श्रोत्र'- दक्षिण कर्ण (ड) और बिन्दु अर्थात् अनुस्वार से युक्त (मुं), टकार से तीसरा ड, वही नारायण अर्थात् 'आ' से मिश्र (डा), वायु (य), वहीं अधर अर्थात् 'ऐ' से युक्त (यै) और 'विच्चे' यह नवार्ण-मन्त्र-'ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे'- उपासकों को आनन्द और ब्रह्म-सायुज्य देनेवाला है।
(नवार्ण मन्त्र का अर्थ- हे चित्स्वरूपिणी महासरस्वती! हे सद्रूपिणी महा-लक्ष्मी! हे आनन्द-रूपिणी महा-काली। ब्रह्म-विद्या पाने के लिए हम सब समय तुम्हारा ध्यान करते हैं। हे महाकाली, महा-लक्ष्मी, महा- सरस्वती-स्वरूपिणी चण्डिके! तुम्हे नमस्कार है। अविद्या-रूप रज्जु की दृढ़ अन्थि को खोलकर मुझे मुक्त करो।) हत्कमल के मध्य में रहनेवाली, प्रातः कालीन सूर्य के समान प्रभावाली, पाश और अंकुश धारण करनेवाली, मनोहर रूपवाली, वरद और अभय मुद्रा धारण किए हुए हाथोंवाली, तीन नेत्रवाली, रक्त-वस्त्र पहननेवाली, भक्तों के मनोरथ पूर्ण करनेवाली देवी को मैं भजता हूँ।
महा-भय का नाश करनेवाली, महा-सङ्कट को शान्त करनेवाली और महान् करुणा की साक्षात् मूर्ति तुम महा-देवी को मैं नमस्कार करता हूँ। जिसका स्वरूप ब्रह्मादिक नहीं जानते, इसलिए जिसे 'अज्ञेया' कहते हैं; जिसका अन्त नहीं
मिलता, इसलिए जिसे 'अनन्ता' कहते हैं; जिसका लक्ष्य देख नहीं पड़ता, इसलिये जिसे 'अलक्ष्या' कहते हैं; जिसका जन्म समझ में नहीं आता, इसलिए जिसे 'अजा' कहते हैं; जो अकेली ही सर्वत्र है, इसलिए जिसे 'एका' कहते हैं; जो अकेली ही विश्व-रूप में सजी हुई हैं, इसलिए जिसे 'मैका' कहते हैं। वह इसीलिए 'अज्ञेया', 'अनन्ता', 'अजा', 'एका' और 'नैका' कहलाती है।सब मन्त्रों में 'मातृका' - मूलाक्षर रूप से रहनेवाली, शब्दों में अर्थ-रूप से रहनेवाली, ज्ञानों में 'चिन्मयातीता', शब्दों में 'शून्य-साक्षिणी' तथा जिनसे और कुछ भी श्रेष्ठ नहीं है, वह 'दुर्गा' नाम से प्रसिद्ध हैं। उन दुर्विज्ञेया, दुराचार-नाशिनी और संसार सागर से तारनेवाली 'दुर्गा देवी' को संसार से डरा हुआ मैं नमस्कार करता हूँ।

॥ फल-श्रुति ॥

उक्त अथर्व-शीर्ष का जो अध्ययन करता है, उसे पाँचों अथर्वशीर्षों के जप का फल प्राप्त होता है। इस अथर्व-शीर्ष को न जानकर जो प्रतिमा स्थापन करता है, वह सैकड़ों लाख जप करके भी अर्चा-सिद्धि नहीं प्राप्त करता। अष्टोत्तर शत (१०८) जप (इत्यादि) इसकी पुरश्चरण- विधि है। जो इसका दस बार पाठ करता है, वह उसी क्षण पापों से मुक्त हो जाता है और महा-देवी के प्रसाद से बड़े दुस्तर सङ्कटों को पार कर जाता है।
इसका सायं-काल में अध्ययन करनेवाला दिन में किए हुए पापों का नाश करता है, प्रातः- काल में अध्ययन करने वाला रात्रि में किए हुए पापों का नाश करता है, दोनों समय अध्ययन करनेवाला निष्पाप होता है। मध्य रात्रि में तुरीय-सन्ध्या के समय जप करने से 'वाक्-सिद्धि' प्राप्त होती है। नई प्रतिमा के समक्ष जप करने से 'देवता-सान्निध्य प्राप्त होता है। भीमाश्विनी (अमृत-सिद्धि) योग में महा-देवी की सन्निधि में जप करने से महा-मुत्यु से तर जाता है। इस प्रकार यह अविद्या-नाशिनी ब्रह्म-विद्या है।

देवी अथर्वशीर्ष पाठ  , Devi Atharvashirsha Path

ॐ सर्वे वै देवा देवीमुपतस्थुः कासि त्वं महादेवीति॥१॥

साब्रवीत् – अहं ब्रह्मस्वरूपिणी। मत्तः प्रकृतिपुरुषात्मकं जगत्। शून्यं चाशून्यं च॥२॥

अहमानन्दानानन्दौ। अहं विज्ञानाविज्ञाने। अहं ब्रह्माब्रह्मणी वेदितव्ये। 
अहं पञ्चभूतान्यपञ्चभूतानि। अहमखिलं जगत्॥३॥

वेदोऽहमवेदोऽहम्। विद्याहमविद्याहम्। 
अजाहमनजाहम्। अधश्‍चोर्ध्वं च तिर्यक्चाहम्॥४॥

अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्‍चरामि। अहमादित्यैरुत विश्‍वदेवैः। 
अहं मित्रावरुणावुभौ बिभर्मि। अहमिन्द्राग्नी अहमश्‍विनावुभौ॥५॥

अहं सोमं त्वष्टारं पूषणं भगं दधामि। 
अहं विष्णुमुरुक्रमं ब्रह्माणमुत प्रजापतिं दधामि॥६॥

अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते। 
अहं राष्ट्री सङ्गमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्। 
अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे। 
य एवं वेद। स दैवीं सम्पदमाप्नोति॥७॥

ते देवा अब्रुवन् – नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम्॥८॥

तामग्निवर्णां तपसा ज्वलन्तीं वैरोचनीं कर्मफलेषु जुष्टाम्।
दुर्गां देवीं शरणं प्रपद्यामहेऽसुरान्नाशयित्र्यै ते नमः॥९॥

देवीं वाचमजनन्त देवास्तां विश्‍वरूपाः पशवो वदन्ति।
सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु॥१०॥

कालरात्रीं ब्रह्मस्तुतां वैष्णवीं स्कन्दमातरम्।
सरस्वतीमदितिं दक्षदुहितरं नमामः पावनां शिवाम्॥११॥

महालक्ष्म्यै च विद्महे सर्वशक्त्यै च धीमहि। तन्नो देवी प्रचोदयात्॥१२॥

अदितिर्ह्यजनिष्ट दक्ष या दुहिता तव।
तां देवा अन्वजायन्त भद्रा अमृतबन्धवः॥१३॥

कामो योनिः कमला वज्रपाणिर्गुहा हसा मातरिश्‍वाभ्रमिन्द्रः।
पुनर्गुहा सकला मायया च पुरूच्यैषा विश्‍वमातादिविद्योम्॥१४॥

एषाऽऽत्मशक्तिः। एषा विश्‍वमोहिनी। पाशाङ्कुशधनुर्बाणधरा।
एषा श्रीमहाविद्या। य एवं वेद स शोकं तरति॥१५॥

नमस्ते अस्तु भगवति मातरस्मान् पाहि सर्वतः॥१६॥

सैषाष्टौ वसवः। सैषैकादश रुद्राः। सैषा द्वादशादित्याः। 
सैषा विश्‍वेदेवाः सोमपा असोमपाश्‍च। 
सैषा यातुधाना असुरा रक्षांसि पिशाचा यक्षाः सिद्धाः। 
सैषा सत्त्वरजस्तमांसि। सैषा ब्रह्मविष्णुरुद्ररूपिणी। 
सैषा प्रजापतीन्द्रमनवः। सैषा ग्रहनक्षत्रज्योतींषि।
कलाकाष्ठादिकालरूपिणी। तामहं प्रणौमि नित्यम्॥ 
पापापहारिणीं देवीं भुक्तिमुक्तिप्रदायिनीम्। 
अनन्तां विजयां शुद्धां शरण्यां शिवदां शिवाम्॥१७॥

वियदीकारसंयुक्तं वीतिहोत्रसमन्वितम्।
अर्धेन्दुलसितं देव्या बीजं सर्वार्थसाधकम्॥१८॥

एवमेकाक्षरं ब्रह्म यतयः शुद्धचेतसः।
ध्यायन्ति परमानन्दमया ज्ञानाम्बुराशयः॥१९॥

वाङ्माया ब्रह्मसूस्तस्मात् षष्ठं वक्त्रसमन्वितम्।
सूर्योऽवामश्रोत्रबिन्दुसंयुक्तष्टात्तृतीयकः।
नारायणेन सम्मिश्रो वायुश्‍चाधरयुक् ततः।
विच्चे नवार्णकोऽर्णः स्यान्महदानन्ददायकः॥२०॥

हृत्पुण्डरीकमध्यस्थां प्रातःसूर्यसमप्रभाम्।
पाशाङ्कुशधरां सौम्यां वरदाभयहस्तकाम्।
त्रिनेत्रां रक्तवसनां भक्तकामदुघां भजे॥२१॥

नमामि त्वां महादेवीं महाभयविनाशिनीम्।
महादुर्गप्रशमनीं महाकारुण्यरूपिणीम्॥२२॥

यस्याः स्वरूपं ब्रह्मादयो न जानन्ति तस्मादुच्यते अज्ञेया। 
यस्या अन्तो न लभ्यते तस्मादुच्यते अनन्ता।
यस्या लक्ष्यं नोपलक्ष्यते तस्मादुच्यते अलक्ष्या। 
यस्या जननं नोपलभ्यते तस्मादुच्यते अजा। 
एकैव सर्वत्र वर्तते तस्मादुच्यते एका। 
एकैव विश्‍वरूपिणी तस्मादुच्यते नैका। 
अत एवोच्यते अज्ञेयानन्तालक्ष्याजैका नैकेति॥२३॥

मन्त्राणां मातृका देवी शब्दानां ज्ञानरूपिणी।
ज्ञानानां चिन्मयातीता शून्यानां शून्यसाक्षिणी।
यस्याः परतरं नास्ति सैषा दुर्गा प्रकीर्तिता॥२४॥

तां दुर्गां दुर्गमां देवीं दुराचारविघातिनीम्।
नमामि भवभीतोऽहं संसारार्णवतारिणीम्॥२५॥

इदमथर्वशीर्षं योऽधीते स पञ्चाथर्वशीर्षजपफलमाप्नोति।

इदमथर्वशीर्षमज्ञात्वा योऽर्चां स्थापयति – शतलक्षं प्रजप्त्वापि सोऽर्चासिद्धिं न विन्दति। शतमष्टोत्तरं चास्य पुरश्‍चर्या विधिः स्मृतः। दशवारं पठेद् यस्तु सद्यः पापैः प्रमुच्यते। महादुर्गाणि तरति महादेव्याः प्रसादतः॥२६॥   सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति। प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति। सायं प्रातः प्रयुञ्जानो अपापो भवति। निशीथे तुरीय सन्ध्यायां जप्त्वा वाक्सिद्धिर्भवति। नूतनायां प्रतिमायां जप्त्वा देवतासांनिध्यं भवति। प्राणप्रतिष्ठायां जप्त्वा प्राणानां प्रतिष्ठा भवति। भौमाश्‍विन्यां महादेवीसंनिधौ जप्त्वा महामृत्युं तरति। स महामृत्युं तरति य एवं वेद। इत्युपनिषत्॥

॥ इति श्रीदेव्यथर्वशीर्षम् सम्पूर्णम् ॥

श्री दुर्गा सप्तशती का पाठ संपूर्ण संस्कृत से हिंदी अर्थ सहित

दुर्गा सप्तशती के 13 पाठों का अपना महत्व है. अलग-अलग बाधाओं से मुक्ति पाने के लिए इनका पाठ किया जाता है. मान्यता है कि चैत्र नवरात्रि में दुर्गा सप्तशती का पाठ करने से अनिष्ट का नाश होता है, घर में सुख शांति का वास होता है और गृह कलेश और धन संबंधित परेशानियां भी दूर हो जाती हैं

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