भगवान सूर्य-हमारे प्रत्यक्ष देवता,Bhagavaan Soory-Hamaare Pratyaksh Devata

भगवान सूर्य-हमारे प्रत्यक्ष देवता,

सभी प्राणियों को जन्म से ही भगवान् सूर्य के दर्शन होते हैं। ये सर्व प्रसिद्ध देवता हैं। अन्य किसी देवना की स्थिति मे कुछ संदेह भी हो सकता है, किंतु भगवान् सूर्य की सत्तामें किसी को सदेह के लिये कोई अवसर ही नहीं है। सभी लोग इनका प्रत्यक्ष (साक्षात्कार) प्राप्त करते हैं। 'सृ गतौ' अथवा 'पू प्रेरणे' से वयप् प्रत्यय होने पर 'सूर्य' शब्द निष्यन्न होता है। 'सरति आकाशे-इति सूर्यः' जो आकाश में निराधार भ्रमण करता है अथवा 'सुबति कर्मणि लोकं प्रेरयति' जो (उदयमात्रसे) अखिल विश्वको अपने-अपने कर्म में प्रवृत्त कराता है, वह सूर्य है। व्याकरण-शाख में इसी अर्थमें 'राज सूय सूर्य सृषोद्य- रुच्यकुप्यकृष्टपच्याव्यथ्याः'  इस पाणिनि-सूत्र से निपातन होकर भी सूर्य शब्द बनता है।


अखिल विश्वमें प्रकाश देने वाला, अनन्त तेज का भण्डार-मण्डल ही सूर्य शब्दका वाच्यार्थ है और इसका लक्ष्यार्य है- मण्डलाभिमानी पुरुष- चेनन-आत्मा तथा उसका अन्तर्यामी । ऋग्वेदसंहिता कहती है सूर्य आत्मा जगतस्तस्नुपञ्च अर्थात्- 'भगवान् सूर्य सभी स्थावर जङ्गमात्मक विश्व के अन्तरात्मा हैं।' 'कालाग्मा पुरुष भी सूर्य ही हैं।' ऋग्वेद संहिता का वचन है-

सप्त गुञ्जन्ति रथमेकचक मेको अश्वो यहति सतनामा ।
त्रिनाभि चक्रमजरमनर्व यत्रेमा विश्वा भुवनाधि तस्युः ॥'

अर्थात् इम कालाम्मा पुरुषका रथ बहुत ही विलक्षण है। रंहणस्वभात्र (गमनशील) होने के कारण उसे रथ कहा जाता है। वह अनवरत (सनन) गमन किया करता है। उस रथमें संवत्सरात्मा एक ही चक्र है। अहोरात्रने, निर्वाह के लिये (अहोरात्र के खरूप- निर्माण के लिये) उसमें सात अश्व जोड़े जाते हैं- 'रथस्यैकं चत्रां भुजगयमिताः सप्त तुरगाः ।' ये सात अश्व ही सात दिन हैं। बरतुतः अश्व एक ही है, किंतु सात नाम होनेके कारण सात अश्व कहे जाते हैं। उस एक चकमें ही (भूत, भविष्य और वर्तमान) ये तीन नाभियाँ हैं। वह रथ अजर-अगर (जरा-मरणसे रहित) अर्थात् अविनाशी है एवं अनर्व अर्थात् अत्यन्त दृढ़ है अर्थात् कभी शिथिल नहीं होता । इसी कालात्मा पुरुपके सहारे पिण्डज, अण्डज, स्थावर, ऊष्मज सभी प्रकारके प्राणी टिके हुए हैं। ऐसे रयपर स्थित इन भुत्रनभास्कर को देखकर (समझकर) मनुष्य पुनर्जन्म नहीं पाता मुक्त हो जाता है-

'रथस्थं भास्करं दृष्ट्वा पुनर्जन्म न विद्यते ।'

शतपथ ब्राह्मण में भगवान् सूर्य को त्रयीमय कहा गया है- 'यदेतन्मण्डलं तपति तन्महत्रुफ्थं ता ऋचः स ऋचां लोकोऽथ यदेतदर्चिर्दीप्यते तन्महाव्रनं तानि सामानि स साम्नां लोकोऽथ य एय एतस्मिन् मण्डले पुरुषः सोऽग्निस्तानि यजूश्पि स यजुपां लोकः ॥'

इरा श्रुति में भगवान् सूर्य के दिव्य गृहस्थानीय मण्डलकी स्तुति की गयी है। मण्डलकी स्तुतिसे मण्डलाभिमानी पुरुष और उसकी स्तुतिसे अन्तर्यामीकी स्तुति खभावतः सिद्ध है। यह जो सर्वप्राणिनेत्रगोचर आकाशका भूपण वर्तुलाकार मण्डल है, यह महदुक्य (बृहती सहस्र नामसे प्रसिद्ध होत्रमें शस्त्रविशेष) है तथा यही ऋक् है। जो इस मण्डलमें अर्चि (सर्वजगत्प्रकाशक तेज) है, वह 'महाव्रत' नामक ऋतु (यज्ञकर्म) विशेष है और बृहत् रथन्तर आदि साम भी बही है तथा जो मण्डलाभिमानी पुरुप है, यह अग्नि (अर्थात् अग्न्युपलक्षित सर्वदेव) है तथा यज्जुप् भी वही, पुरुष है। अपने तेजसे तीनो लोकोंको पूरित करनेके कारण वह पुरुष है- 'आ प्रा यावा पृथिवी अन्तरिक्षम्' अथवा सभी प्राणियों के शरीररूप पुरमें शयन करनेके कारण वह पुरुष है- 'सर्वासु पूर्षु शेपे' !अथया सभी पापो को भस्म कर देने के कारण वह पुरुष है- 'सर्वान् पाप्मन औपत्तस्मात्पुरुषः'  । 

छान्दोग्य उपनिषद्में इस पुरुषका वर्णन किया गया है-

'य एपोऽन्तरादित्ये हिरण्यमयः पुरुषो दृश्यते हिरण्यइमश्रुर्हिरण्यकेश आ प्रणखात्सर्व एव एव सुवर्णः सु । स एव सर्वेभ्यः पाप्मभ्य उदित उदेति छ व सर्वेभ्यः पाप्मभ्यो य एवं वेद । श्रुति भी आदित्त्यरूपमे इसी अन्तर्यामी पुरुपका वर्णन कर रही है। 'अन्तस्तद्धर्मोपदेशात्' - इस गलसूत्र मे भी यह निर्णय किया गया है कि इस छान्दोग्यश्रुति में प्रतिपादित पुरुष अन्तर्यामी है। इस प्रकार भगवान् सूर्य सर्व देव मय हैं- 'तस्मात्परमेश्वर एवेहोपदिश्यते इत्यादि' (शाकरभाष्य)। श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण के युद्धकाण्ड मे आदित्य- हृदयस्तोत्रके द्वारा इन्हीं भगवान् सूर्य की स्तुति की गयी है। उसमे कहा गया है कि ये ही भगवान् सूर्य ग्रह्मा, विष्णु, शिव, स्कन्द्र और प्रजापति हैं। महेन्द्र, वरुण, काल, यम, सोम आदि भी यही हैं-

एप ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः ।
महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यपां पतिः ॥

आपत्तिकै समय में, भयङ्कर विपम परिस्थिति मे, जनशून्य अरण्य मे, अत्यन्त भयदायी घोर समय मे अथवा महासमुद्र में इनका स्मरण, कीर्तन और स्तुति करने से प्राणी सभी विपत्तियो से छुटकारा पा जाता है-

एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च ।
कीर्तयन् पुरुषः कश्चिन्नावसीदति राघव ॥

तीनो सध्याओ में गायत्री मन्त्र द्वारा इन्हीं की उपासना की जाती है। इनकी अर्चना से सबकी मनःकामनाएँ पूर्ण होती है। भगवान् श्रीराम ने युद्धक्षेत्र में इन की आराधना कर के रावण पर विजय प्राप्त की थी। इनका स्रोत आदित्यह्रदय वरदानी  है, अमोध है। उराके द्वारा इनकी स्तुति करने से सभी आपदाओ से छुटकारा पाकर प्राणी अन्त मे परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।

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